मेरा स्वर्णिम बंगाल - 11 - अंतिम भाग Mallika Mukherjee द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मेरा स्वर्णिम बंगाल - 11 - अंतिम भाग

मेरा स्वर्णिम बंगाल

संस्मरण

(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)

मल्लिका मुखर्जी

(11)

समय तेजी से आगे बढ़ रहा था। अख़बार रखकर मै वसुंधरा सेंटर जाने के लिए तैयार हो गई। सौरभ टीवी देख रहा था, मैंने उसे होटल पर ही रुकने को कहा। नास्ता भी आ चुका था, साथ में चाय भी। थोड़ी देर में मैं, मौसी और मौसा जी पहली मंज़िल पर स्थित होटल के काउंटर पर पहुँचे। अनूप जी से कहा कि किसी एक व्यक्ति को हमारे साथ भेजें। हमारे साथ सलीम नामक उन्हीं के स्टाफ का लड़का साथ हो लिया। क़रीब ग्यारह बजे हम निकले। दस मिनट में ही वह वसुंधरा सेंटर वाला बिल्डिंग आ गया। गेट पर सिक्यूरिटी स्टाफ लोडेड गन के साथ आर्मी जैसी वर्दी पहनकर खड़ा था। उसे देखकर बदन में हलकी-सी सिहरन दौड़ गई।

उन्होंने हमारा परिचय और काम पूछा फिर कहा, ‘दूसरी मंज़िल पर है वसुंधरा सेंटर, वहाँ चले जाइए।’

पहूँचकर देखा तो सेंटर बंद था। बहुत सारे अन्य कार्यालय उस मंज़िल पर थे। हमने एक व्यक्ति से पूछा।

उसने कहा, ‘आज तो यह सेंटर बंद है, आप तीसरी मंज़िल पर इस्लामिक बैंक है, वहाँ कोशिश कीजिए, शायद एक्सचेंज मिल जाए।’

हम वहाँ पहुँचे। अन्दर पहुँचकर मौसा जी काउंटर की तरफ़ बढ़े। मैं और मौसी मुलाकातियों के लिए रखी गई बैंच पर बैठ गए। बैंक में महिला कर्मचारियों की संख्या ही ज्यादा थी। सभी ने अपना सर दुपट्टे से ओढ़ रखा था।

मेरे पास वाली सीट पर क़रीब चालीस-बयालीस वर्ष के लग रहे एक स्मार्ट सज्जन बैठे थे, बोले, ‘आप यहाँ के नहीं लगते।’

मैंने कहा, ‘जी नहीं, हम भारत से आए हैं।’

भारत सुनते ही उनके चेहरे पर एक चमक-सी आई। कुछ देर उन्होंने बातें की, नाम था मजुमदार सैफुल करीम। वे बांग्लादेश के ही थे पर अब जर्मनी में रहकर अपना कारोबार चलाते थे।

उन्होंने अपना विजिटिंग कार्ड मुझे दिया और कहा, ‘आप मेरा कार्ड रखिये। मैं जर्मनी रहता हूँ। कुछ दिन के लिए वतन में आया हूँ। जब कभी जर्मनी आना हुआ हमारे यहाँ जरुर आइएगा।’

मुझे आश्चर्य हो रहा था कि देश का विभाजन हमारी संस्कृति को विभाजित नहीं कर पाया! अब मेरा ध्यान मौसा जी की ओर गया उनका नंबर आने ही वाला था, मैं उठकर उनके पास गई।

काउंटर पर बैठी महिला ने मौसा जी से पूछा, ‘क्या आप को डॉलर एक्सचेंज करने हैं?’

मौसा जी ने कहा, ‘हाँ ...’

‘थोड़ी देर रुकिए।’

उनकी बात काटते हुए मैंने कहा, ‘मौसा जी हमें भारतीय रूपियों का एक्सचेंज लेना है, डॉलर का नही।’

मौसा जी बोले, ‘एक ही बात है।’

‘एक ही बात नहीं है मौसा जी।’ कहकर मै हँस दी।’

वह महिला तुरंत बोली, ‘हम इंडियन रूपीस एक्सचेंज नहीं करते, सिर्फ़ डॉलर का ही करते हैं। आप एक काम कीजिए, यहाँ से सिर्फ़ पाँच मिनट की दूरी पर सोनाली बैंक है, वहाँ आपको इंडियन रूपीस का एक्सचेंज मिल जाएगा।’

हम बैंक से बाहर निकले। मौसी-मौसा जी आगे चल रहे थे और मैं उनके पीछे क्योंकि जर्मनी वाले सैफुल करीम मुझसे बातें करते हुए मेरे साथ चल रहे थे। उन्हें भारत की वर्तमान स्थिति के बारे में बहुत कुछ जानना था। उनकी बातों से पता चल रहा था कि आज़ादी के परिणाम स्वरूप अखंड भारत का विभाजन किसी भी सामान्य नागरिक को स्वीकार्य नहीं था।

हम कुछ ही क़दम आगे बढ़े थे कि सामनेवाली फुटपाथ पर छात्रों का एक जुलुस आता दिखाई दिया। वे ज़ोर-ज़ोर से नारे लगा रहे थे। उनके ठीक पीछे पुलिस का एक दल उन्हें सावधान करते हुए हवा में फायर कर रहा था। हमारे क़दम वहीं रुक गए।

सामने से आ रहे एक सज्जन ने हमें कहा, ‘आप लोग वापस लौट जाएँ। आगे माहौल ख़राब है।’

अब मौसी मुझ पर नाराज हो गई, ‘तुम जल्दी नहीं चल सकती थी? वो सज्जन जो तुम से बतिया रहे थे उन्हें पता है कि तुम्हारे बहु-बेटा भी है?’

इतने तनावपूर्ण वातावरण में भी मैं जोर से हंस दी। मौसी को ऐसा लग रहा था कि वे सज्जन मुझसे फ्लर्टिंग कर रहे थे।

मैंने कहा, ‘अरे मौसी तुम भी क्या.., वे तो बेचारे मुझे भारत के मौजूदा हालात के बारे में पूछ रहे थे, लगता है उनका भी भारत से कोई नाता है। देखो, इस जुलुस के हंगामें के साथ ही वे भी गायब हो गए।’

मौसी बोली, ‘अब क्या होगा?’

मैंने कहा, ‘चलो जल्दी, हम उसी बिल्डिंग में वापस जाते हैं।’

हम लगभग दौड़ते हुए उस बिल्डिंग की तरफ लौटे। देखा तो काँच का वह बड़ा दरवाज़ा बंद हो चुका था। मौसी और मैंने मिलकर ज़ोर-ज़ोर से दरवाजा खटखटाया।

तभी पीछे से एक व्यक्ति ने आकर कहा, ‘ये दरवाजा तो हमेशा ही बंद रहता है, आप वो आगे वाले दरवाजे से अंदर जा सकते हैं।’

हड़बड़ी में हम यह भी भूल गए थे कि हम कौनसे दरवाजे से उस बिल्डिंग में गए थे। हम लगभग दौड़ते हुए दूसरे दरवाजे की तरफ़ आगे बढ़े। वह दरवाजा थोड़ा-सा खुला था।

सिक्योरिटी स्टाफ ने हमें अन्दर आने दिया और कहा, ‘दीदी, आप लोग सीढ़ियों से उपर चले जाइए।’

हम लोग पहली मंज़िल पर जा ही रहे थे कि बेसमेंट से कुछ लोग हाथों में अलग-अलग प्रकार के हथियार लिए उपर की तरफ आते दिखाई दिए। पलभर के लिए तो आँखों के सामने जैसे अँधेरा छा गया।

हमने तो ऐसा भयावह माहौल कभी देखा ही न था। देश विभाजन के समय के माहौल का तो अंदाजा भी नहीं लगा सकते थे हम! हमारे क़दम तो वहीँ जम गए थे।

एक सज्जन ने कहा, ‘डरने की कोई बात नहीं है, यहाँ आए दिन ऐसे हंगामे होते रहते हैं इसलिए हमें अपनी सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं।’

वे लोग गेट की तरफ़ आगे बढ़े और हम पहली मंज़िल पर पहुँच गए। बिल्डिंग का सामने वाला भाग पूरा काँच का बना हुआ था। यहाँ से सामने वाली सड़क स्पष्ट दिख रही थी। जूलुस आगे और पुलिस पीछे चल रही थी। हवा में फ़ायर करते हुए चेतावनी भी दे रही थी।

मुझे आज सुबह ही ‘Daily Sun’ अख़बार में पढ़ी खबर याद आई। वर्ष 1971 में हुए स्वतन्त्रता युद्ध में ट्रिब्यूनल द्वारा जिन नेताओं को क़त्ल, बलात्कार और अन्य यातना के आरोपों में अपराधी घोषित किया गया, छात्र उनकी फाँसी की सजा की मांग कर रहे थे। यह सारे नेता तत्कालीन राजनैतिक पार्टी, जमात-ए-इस्लामी पार्टी के थे जिसका गठन वर्ष 1941 में ब्रिटिश भारत में हुआ था। इसके संस्थापक सैयद अबुल अला मौदूदी थे। भारत विभाजन के बाद वे पाकिस्तान चले गए।

वर्ष 1971 में पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में शेख़ मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में शुरू हुए राष्ट्रीय आन्दोलन के समय जमात-ए-इस्लामी पार्टी ने पाकिस्तान का समर्थन किया और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर अत्याचार किये। यही पार्टी वर्ष 2001 में बेगम खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनालिस्ट पार्टी (BNP) के साथ सत्ता में आई। वर्ष 2010 में जब अवामी लीग सत्ता में आई तब प्रधानमंत्री शेख हसीना ने एक ट्रिब्यूनल का गठन किया, जिसने 1971 के समय के आन्दोलन में जिन नेताओं को अपराध का दोषी पाया गया उन्हें सजा सुनाई।

अचानक जूलुस में चल रहे छात्रदल में से किसी ने पुलिस पर पत्थर दे मारा। बस, अब क्या था! जो पुलिस हवा में फ़ायर कर रही थी उसने अब इस दल की तरफ रुख किया। छात्रों के पैरों पर गोली चलाई। कम से कम पाँच छात्र घायल हुए। मैंने देखा, उन्हें घसीटते हुए पुलिस वान में चढ़ाया जा रहा था। कुछ अन्य लोग भी उन्हें पीटने लगे।

मैंने पास खड़े सज्जन से पूछा, ‘पुलिस के साथ क्या पब्लिक भी है, जो इन छात्रों को पीट रही है?’

‘नहीं यह प्राइवेट पुलिस है जो हमेशा सिविल ड्रेस में ही रहती है और शहर की सारी गतिविधिओं पर ध्यान रखती है।’

एक और सज्जन ने चुटकी ली, ‘एमोन लोक ओ आसे, भांगा पाइसी मायिरा लोई।’

बांगाल (पूर्व बंगाल में सामान्यतया बोली जानेवाली) भाषा में कही गई इस कहावत को सुनकर इतने तनावपूर्ण वातावरण में भी हँसी आ गई। इसका मतलब है- ‘ऐसे लोग भी है जो आहत पर वार कर अपना हाथ आजमा लेते हैं।’ छात्रों का दल तो इधर-उधर बिखर गया था, पर अचानक न जाने कहाँ से कुछ पत्रकार, फ़ोटोग्राफ़र भी आ पहुँचे, उनमें इलेक्ट्रोनिक मिडिया के लोग भी थे, एक तेज तर्रार लड़की भी दिख रही थी।

मैंने फिर पास खड़े सज्जन से पूछा उस लड़की के बारे में। वे बोले, ‘यह साम्बादिक (पत्रकार) है, हम इन्हें सांघातिक (सर्वशक्तिमान) कहते हैं।’

‘जी।’ कहकर मैं सोचने लगी कि इतने तंग वातावरण में भी यह सज्जन इतनी सहजता से बात कर पा रहे हैं! लगता था जैसे आए दिन ऐसी घटनाएँ होती रहती है।

एक और बात मैंने नोटिस की, यहाँ के लोग प्रतिपल ख़ुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। धीरे-धीरे जुलुस पास की गलियों में बिखर गया। घायल छात्रों को पुलिस उठाकर ले गई। ये क्या? एक और जुलुस आता दिखाई दिया जो शांति के नारे लगा रहे थे।

किसी ने कहा, ‘ये लोग शांति के लिए निकले हैं।’

मैंने घड़ी देखी, एक बज रहा था। हमारा मनी एक्सचेंज का काम तो बाक़ी ही था। तीन बजे हमें ढाका एयरपोर्ट पर पहुँचना था।

मैंने मौसी से कहा, ‘चलो रांगा मौसी, नीचे जाकर देखते हैं, मौसा जी और वह लड़का सलीम जो हमारे साथ आया था वह कहाँ है?’

मौसी बुरी तरह डर गई थी। उन्होंने भले ही देश विभाजन का सामना नहीं किया था, पर बाद के परिणाम तो झेले ही थे। वे चुपचाप मेरे साथ सीढ़ियाँ उतरने लगीं। लोग धीरे-धीरे बाहर की ओर जाने लगे। रोड पर एक भी रिक्शा नहीं थी। चलकर जाने के लिए रास्ता लंबा था और समय कम था।

नीचे पहुँचते ही मैंने सलीम से कहा, ‘भैया, पहले तुम अनूप शाहा को फोन करो कि इस स्थिति में अब मनी एक्सचेंज करना संभव नहीं होगा, वे अगर भारतीय रुपयों में हमारा बिल ले लें तो बड़ी कृपा होगी। चाहे जो भी रेट लगा लें।’

उसने फोन लगाया। स्थिति का वर्णन करते हुए हमारी बात कही। अनूप जी तुरंत सहमति दर्शाते हुए हमें लेकर तुरंत होटल पर पहूँचने को कहा।

सलीम ने कहा, ‘दीदी, आप पहली मंज़िल पर चले जाइए। मैं बाहर जाकर रिक्शा ढूंढता हूँ, पीछे की गली में मिल जाएगी। मैं जैसे ही इशारा करूँ आप लोग तुरंत बाहर आ जाइएगा। दस मिनट में ही हम होटल पहुँच जायेंगे।’

हम फिर सीढियाँ चढ़कर उपर पहुँचे। कुछ ही देर में सलीम नीचे हाथ हिलाता नज़र आया।

मौसी बोली, ‘मॉली, मुझे बाहर जाते हुए डर लग रहा है।’

मैंने आव देखा न ताव, क़रीब दौड़ते हुए सीढियाँ उतर गई। अब नहीं गए तो कोलकाता जा नहीं पायेंगे। मुझे और मौसा जी को उतरते देख मौसी भी तेज क़दमों से सीढियाँ उतरने लगी। बाहर आकर हम सलीम के पीछे चलने लगे। गली में दो रिक्शाएँ खड़ी थी। पलक झपकते ही मैं रिक्शा पर सवार हो गई। घुटनों का दर्द याद ही न आया! रिक्शा चल दी, दिल जोरों से धड़क रहा था। दस मिनट में ही हम होटल फार्मगेट के सामने खड़े थे। पहले हम अनूप जी से मिले। भारतीय रुपयों में बिल का भुगतान किया। अपने कमरे में गई, सौरभ इन सब बातों से बेखबर टी.वी. देख रहा था। मैंने संक्षिप्त में उसे बताया।

हम खाने के लिए चल दिए। जोशिम भाई भी आ पहुँचे थे। मैंने उनसे हमारे साथ ही खाने को कहा था। जल्दी खाना समाप्त कर हमने सारे कर्मचारियों से बिदा ली। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे सभी से कोई नाता है। इतना अपनापन! कहीं धर्म का रोड़ा नज़र नहीं आया। फिर कौन है वह जिसने पूरे विश्व में शोले भड़काकर रखे हैं जो बूझने का नाम ही नहीं लेते। हम क्यों उन्हें ढूंढ नहीं पाते? क्यों नहीं सज़ा दे पाते?

गुजराती साहित्यकार श्री गुणवंत शाह कहते हैं, ‘विष्णुगुप्त चाणक्य ने जिस विद्यापीठ में अपना शिक्षण लिया वह तक्षशिला विद्यापीठ आज पाकिस्तान में है। व्याकरण के सूत्र लिखनेवाले भगवान पाणिनी का गाँव पाकिस्तान में है। जहाँ भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दी गई वह लाहोर जेल भी पाकिस्तान में है। पंडित नेहरु की अध्यक्षता में 26 जनवरी 1930 के दिन कोंग्रेस द्वारा रावी नदी के किनारे पूर्ण स्वराज के ठराव को जो स्वीकृति दी गई वह लाहोर आज पाकिस्तान में है।’

कहने का तात्पर्य यह है कि देश के विभाजन से हजारों वर्ष पुरानी संस्कृति का विभाजन संभव नहीं हुआ। यहाँ के टी. वी. चैनल्स पर नियमित रवीन्द्र संगीत प्रसारित होता है। यहाँ की प्रजा अखंड भारत की संस्कृति को आज भी अपनी संस्कृति मानती है। उस समय के साहित्यकार, कवि, राजकारणी, संगीतज्ञ, शिक्षाविद, चाहे हिन्दू हो या मुसलमान सभी को सम्मान देती है। फिर किसने हमें तोड़ा? क्या भारत और पाकिस्तान और क्या ही बांग्लादेश, इस जातिगत विभाजन से सिवाय ज़ख्म के कुछ न मिला।

ढाका हवाई अड्डे पर जोशिम भाई से भावपूर्ण विदाई

एयरपोर्ट पर पहुँचकर हमने जोशिम भाई से विदा ली। उनकी आँखों में आँसू देखकर मैं अवाक रह गई। उनकी आँखों में देश विभाजन का दर्द छलक रहा था। भारत के एक राज्य बंगाल का आधा हिस्सा अब एक राष्ट्र बना, पर विश्व के नक़्शे पर उसकी कोई ख़ास पहचान अब तक नहीं बन पाई है। मुझे बांग्लादेश का राष्ट्रगान याद आ गया।

‘आमार सोनार बांग्ला, आमि तोमाय भालोबासि।

चिरोदिन तोमार आकाश, तोमार बातास,

आमार प्राने बाजाय बाँशि.....’

वर्ष 1905 में जब धर्म के आधार पर अंग्रेजों ने बंगाल को दो भागों में बाँट दिया था, तब गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बांग्ला भाषा में यह गीत बंगाल के एकीकरण का माहौल बनाने के लिए लिखा था। स्वतन्त्र होने के बाद बांग्लादेश ने वर्ष 1972 में इस गीत की प्रथम दस पंक्तियों को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया।

भारत का राष्ट्रगान ‘जन, गण, मन...’ और बांग्लादेश का राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बांग्ला...’ दोनों को गुरुदेव ने ही लिखा है। वे एकमात्र कवि हैं जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं। इस दृष्टि से बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े प्रतीक गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं।

अगर देश का विभाजन न हुआ होता तो माँ आज कितना वैभवी जीवन बीता रही होती। कोई जमींदार परिवार में ही उनका विवाह होता, वे भी पालखी में बैठकर अपने पीहर आती! पर ऐसा नहीं हुआ! शायद इसी कारण से पापा जैसे आदर्श पति पाने के बावजूद भी वे अपने सामाजिक दायरे से बाहर निकलने में डरती थी। पापा हम बेटियों को समाज में समान हक दिलाने के पक्ष में थे। हमें अच्छी शिक्षा देना चाहते थे। माँ इसी बात से डरती थी। ख़ुद मेट्रीक्युलेशन तक शिक्षा लेने के बावजूद भी वे मानती थी कि बेटियों को उच्च शिक्षा देना ख़तरे से खाली नहीं। आज़ादी मिलने से बेटियाँ ससुराल में अपना दायित्व ठीक से नहीं निभा पाती।

पापा कुछ अलग ही मिट्टी के बने थे। उन्होंने ख़ुद असीम मुश्किलों का सामना किया। संघर्षपूर्ण जीवन बिताते हुए भी पापा ने हमें एक अच्छी ज़िंदगी देने की चाह रखी। वे एक योद्धा थे जिन्हें असमय मौत ने हरा दिया। जो कार्य वे ख़ुद नहीं कर पाए, आगे की पीढ़ी के लिए छोड़ गए। राष्ट्रीय कवि सोहनलाल द्विवेदी जी की कविता ‘मातृभूमि’ की इन पंक्तियों के भाव जीवन के अंत तक पापा के हृदय में गूंजते रहे होंगे –

वह पुण्य भूमि मेरी, वह स्वर्ण भूमि मेरी।

वह जन्मभूमि मेरी, वह मातृभूमि मेरी।

आज बांग्लादेश की यात्रा से वापस आने के बाद मैं महाभारत के भीष्मपर्व के अंतर्गत दिए गए उपनिषद, श्रीमद भागवत गीता के उस अंश को भी याद करना चाहती हूँ जो सच में हमें जीवन का मर्म समझाते हैं। ‘परिवर्तन संसार का नियम है। एक पल में आप करोड़ों के स्वामी हो जाते हो और दूसरे पल ही आपको ऐसा लगता है कि आपके पास कुछ भी नहीं है। जो कुछ आज तुम्हारा है, कल किसी और का था और परसों किसी और का हो जायेगा इसलिए माया के चकाचौंध में मत पड़ो। माया ही सारे दुःख, दर्द का मूल कारण है। तुम्हारा अपना क्या है, जिसे तुम खो दोगे? तुम क्या साथ लाए थे जिस का तुम्हें खोने का डर है? बीते समय के लिए पश्चाताप मत करो, आने वाले समय के लिए चिंता मत करो, जो समय चल रहा है केवल उसी पर ध्यान केन्द्रित करो।’

पापा ने सही अर्थ में गीता के वचनों को आत्मसात किया। आज इस ऐतिहासिक दौरे की स्वर्णिम यादों को मैं माँ-पापा के साथ उन सभी श्रद्धेय गुरुजनों को समर्पित करती हूँ जो विभाजन की त्रासदी को सहकर भी अपने जीवन को बचाए रखने में कामयाब रहे, इतना ही नहीं आने वाली नस्लों को भी इस काबिल बनाया कि वे जीवन में सफलता हासिल कर सकें।

माँ और पापा को शत-शत नमन।

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