मेरा स्वर्णिम बंगाल - 9 Mallika Mukherjee द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मेरा स्वर्णिम बंगाल - 9

मेरा स्वर्णिम बंगाल

संस्मरण

(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)

मल्लिका मुखर्जी

(9)

सोचकर भी अजीब लगता है, 13 वर्ष की नानी माँ ने, माँ के प्यारे नाम ‘रूबी’ से पुकारकर धीरे-धीरे उनसे बेटी का रिश्ता कायम किया जो ताउम्र रहा। अपनी पाँच संतानों के होते हुए भी, इन माँ-बेटी का निश्छल प्रेम समाज में एक उदहारण बन गया। न बातों में, न व्यवहार में कभी मुझे इस सत्य का अंदेशा मिला। प्रदीप मामा ने भी अपनी रानी माँ का जिक्र अपनी डायरी में किया है। बचपन में एक चांदी की सुन्दर कटोरी उनके मनमें कौतुहल जगाती। उस कटोरी पर नाम खुदा हुआ था, ‘रानी’। जब वे अपने माता-पिता को पूछते कि यह रानी कौन है, वे कोई उत्तर न देते। अचानक वो कटोरी गायब हो गई, फिर कभी न दिखी। बाद में पता चला कि वे नाना जी की प्रथम पत्नी, उनकी रानी माँ थी जो असमय चल बसी। बरसों तक वे उस कटोरी और रानी माँ को सपने में देखते।

हम तालाब को पार करते हुए उन लोगों के सामने पहुँच गए। विजय मामा ने परिचय करवाया। एक बुजुर्ग ने हमें प्यार से बिठाया। यह हमारा सौभाग्य था कि नाना के दोस्त के बेटे अब्दुल कासिम भी वहीं मौजूद थे। कुछ ही देर में एक सज्जन आ पहुँचे, वे रायजान गाँव के मुखिया थे। उनसे ही पता चला कि रायजान की जनसंख्या 4000 है। 200 के क़रीब परिवार है।

वे हमें लेकर कुछ दूर चले, एक जगह रुके और बोले, ‘यहाँ दो हवेलियाँ थी, कृष्णगोबिंद धर और बीरेन्द्रचन्द्र धर की, जो यहाँ के जमींदार दोलगोबिंद धर के बेटे थे।’

मौसी ने तुरंत झुककर वहाँ से थोड़ी मिट्टी ली, उसे माथे से लगाया और उन बुजुर्ग से कहा, ‘आप यह मिट्टी एक पेकेट में भर दें। मैं अपने साथ ले जाऊंगी - वतन की मिट्टी..।’

उनकी आँखें भर आई थी। मैंने भी उस मिट्टी को छूकर प्रणाम किया। भले ही अब यहाँ खुले खेत ही नज़र आ रहे थे पर मुझे वह हवेलियाँ दीख रही थी। दोनों हवेलियों के मध्य में वह बड़ा दालान भी दिखने लगा जहाँ प्रतिवर्ष दुर्गापूजा हुआ करती थी।

बार-बार मुझे माँ का चेहरा दीखने लगा। उनके बचपन का ऐश्वर्य, मुग्धावस्था का वैभव फिर अपने वतन से विस्थापित होने के बाद यौवन का अति संघर्षपूर्ण जीवन....ओह! मेरे बचपन की एक और घटना याद आ गई जो माँ ने ही बताई थी, नाना जी के बारे में।

जमींदार होने के नाते नाना जी का रहनसहन बड़ा वैभवी था। वे सेमल (कॉटन ट्री) की रूई से बने गद्दे पर ही सोते थे। लिहाफ़ और तकिये भी इसी रूई से बने होते थे। सेमल की रूई रेशम सी मुलायम और चमकीली होती है और काती नहीं जा सकती। बादमें, चंदननगर में उन्होंने एक बड़ा सा किराये का मकान लिया था जिसमें उन्होंने अपने लिए एक कमरा रखा था। इस कमरे में उनकी खाट पर गद्दा, लिहाफ़ और तकिये सेमल की रूई के बने ही रखे गए थे।

जब भी वे रायजान से अपने परिवार को मिलने पश्चिम बंगाल आते तब माँ-पापा गुजरात (तब बॉम्बे) से हमें साथ लेकर चंदननगर पहुँच जाते। मैं नाना जी को बहुत प्यारी थी। एक बार मैंने उनके बिछौने पर चढ़कर ख़ूब मस्ती की और उनका लिहाफ़ अपने बदन से लपेटकर सो गई। तब मेरी उम्र शायद तीन वर्ष की होगी। नाना जी बाहर से अचानक लौटे। नानी माँ और माँ दोनों डर गए और मुझे नींद से जगा दिया। मेरे हाथ से वो लिहाफ़ भी छिनने लगे क्योंकि नाना जी को ये बिलकुल पसंद नहीं था कि कोई उनके बिछौने को खराब करे।

लेकिन आश्चर्य! नाना जी ने मुझे गोद में उठा लिया और बोले, ‘ये लिहाफ़ तुम्हें बहुत पसंद है न? जाते वक्त अपने साथ ले जाना, ठीक है?’

सुनकर माँ और नानी माँ ने चैन की साँस ली। मैं माँ की कही उन बातों में खोती जा रही थी। मैंने ख़ुदको संभालते हुए उस बुजुर्ग की पत्नी से पूछा, ‘नानी माँ कहती थी, उनकी हवेली के पीछे एक छोटा-सा तालाब था। परिवार की महिलाएँ जहाँ चौका-बरतन का काम करती। वहीं उनका गुसलखाना भी था। परिवार के मर्दों को यहाँ आने की पाबन्दी थी। नहाने के बाद नानी माँ बाँस की लगी रेलिंग पर अपने काले लंबे बाल सूखाती थी। वो तालाब तो दीख नहीं रहा।’

उस महिला ने पीछे की ओर एक खुली जगह बताते हुए कहा, ‘यही वो जगह है, अब यह तालाब भर गया है। मिट्टी भर जाने से अब थोड़ा-सा खड्डा रह गया है।’

अब्दुल चाचा ने कहा, ‘दीदी, यहाँ से पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, जहाँ तक आप की नज़र पहुँच रही है सब धर महाशय का इलाका है।’

मुझे आश्चर्य हुआ कि अब्दुल चाचा अब भी वर्तमान काल में बात कर रहे थे! दूसरी ओर अनिल मामा जो कब्र में पैर लटकाए भी अपनी बुआ की सारी जायदाद पर विषधर नाग की तरह कुंडली मारकर बैठे हैं! अगर शैतानियत हर जगह मौजूद है तो इंसानियत भी कहीं न कहीं ज़िन्दा है। बात यह है कि हम किसके साथ चलते हैं, किस का समर्थन करते हैं।

मैं सलाम करती हूँ इन गरीब किसान परिवारों को जो पिछले पैंसठ साल से नाना की जागीर संभाले हुए हैं, पर उनके मनमें इस जागीर को हड़प करने का विचार तक नहीं आया! वे अनिल मामा की ओर से दी जा रही दो वक्त की रोटी और इन झोपड़ीनुमा घरों से ही संतुष्ट हैं। असली जागीरदार तो यह लोग हैं, मन के राजा! मैंने नबी हुसैन के बारे में जानना चाहा।

एक दुबले पतले से सज्जन की ओर इशारा कर अब्दुल चाचा बोले, ‘यही तो है नबी हुसैन का पौत्र, इकबाल।’

मैंने नमस्ते की, वे भी मुस्कुरा दिए।

मैंने कहा, ‘नबी हुसैन जी के बारे में इतनी बार सुना है अपनी नानी माँ से, आज मैं धन्य हुई ऐसे पवित्र मानव के पौत्र से मिलकर।’

वे फिर मुस्कुरा दिए। अब्दुल चाचा ने एक लड़के को हमारे लिए बिस्किट लेने भेजा। साथ में हिदायत भी दी, ‘सब से अच्छे वाले लेकर आना।’

एक परिवार ने खीर बनाई। हमने खीर खाई, बिस्किट भी खाए। मुझे प्यास लग रही थी। आश्चर्य भी हो रहा था कि खीर खिला रहे हैं, पानी क्यों नहीं दे रहे?

मैंने कहा, ‘खीर तो बड़ी अच्छी खिलाई आपने, अब पानी भी पिला दीजिये।’

वो महिला अब्दुल चाचा की ओर देखने लगी। मैं समझ गई, कहा, ‘अरे, पानी तो प्यासे की प्यास बुझाता है। पानी का कोई धर्म या संप्रदाय थोड़े ही है?’

महिला के चहेरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई। अन्दर से कुछ देर बाद वह एक स्वच्छ जग में पानी लेकर आई। दो ग्लास भी थे साथ में। पानी पीकर मैं उठ खड़ी हुई।

पास के खेत में बैंगन के पौधे लहरा रहे थे। गुजरात में मिलने वाली पतली लम्बी लौकी के आकार के हरे-हरे बैंगन! मैं ख़ुशी से झूम उठी।

मेरे पीछे आ रही महिला ने कहा, ‘आप जितने चाहे बैंगन ले जा सकती हैं।’ मैंने कहा, ‘इन्हें मैं अहमदाबाद तक तो नहीं ले पाऊंगी, पर क्या मैं कोलकाता तक ले जा सकती हूँ?’

विजय मामा भी आ पहुँचे थे, बोले, ‘बिलकुल ले जा सकते हो, जितने चाहे। कोलकाता की फ्लाईट में यह अनुमति है, बस आपको उनका ब्यौरा फॉर्म में भरना होगा।’

‘अहो, आश्चर्य!’ मैंने क़रीब अठारह-बीस बैंगन तोड़े। उस महिला ने एक बस्तेनुमा बैग में वह बैंगन भर दिए। साथ में वह छोटे-छोटे आलू भी दिए जो सामने आंगन में एक बस्ते पर बिछाए हुए थे। एक बज रहा था। हम मैमनसिंह के लिए रवाना हुए। सभी ने हाथ हिलाकर हमें विदाई दी। उन लोगों के समूह में मेरी नजरें नाना जी-नानी माँ को ढूंढ रही थी।

प्रदीप मामा की कही बातें भी याद आने लगी। सपनों में देखते हैं वे लहराती पीली सरसों, धान की सुनहरी बालियाँ, पूरब का आसमान, खोये प्रियजनों की भीड़, गाँव को छूकर बहती धलाई नदी! उनका प्राण-गाँव रायजान! शायद कभी एक बैसाखी तूफान आए और पूरब के द्वार खुल जाएँ, वह खोई हुई मिट्टी वापस मिले जिसमें उनके जीवन की जड़ें छिपी है!

न जाने कितने वर्षों तक रायजान गाँव मेरे मन में सपनों की तरह घूमता रहा था। आज प्रत्यक्ष हुआ, बस आज यहाँ कोई अपना नहीं था गले लगाने के लिए। मैमनसिंह पहुँचते ही देखा खाना तैयार था। मामियों ने साथ मिलकर खूब अच्छा खाना बनाया था। निरामिस था क्योंकि देर रात कोलकाता में रह रही एक भाभी जी का देहांत हो गया था। मटर के दानों से थोड़े ही बड़े

आकार के आलू की सब्जी और मक्खन-से बैंगन भाजा (फ़्राय) का स्वाद क्या कभी भूल पाऊंगी? खाने की मेज पर इधर-उधर की बहुत बातें हुई।

मैंने एक बात गौर की, इस घर की बहुएँ, मेरी मामियाँ आज भी वही जीवन गुजार रही थी जिसका नानी माँ ने जिक्र किया था। अपना जीवन सिर्फ़ और सिर्फ़ परिवार की ख़ुशियों के लिए व्यतीत करना। अपना कोई वजूद नहीं, कोई सपने नहीं, कोई आवाज़ नहीं! इस खंडहर से मकान में, इतनी असुविधाओं के बीच भी इतना स्वादिष्ट भोजन उन्होंने तैयार किया, इतना ही नहीं साग्रह मुस्कुराते हुए परोसा भी। क्या इस परिवार के पुरुषों ने इस आवास के रसोईघर, गुसलखाने, शयनकक्ष की जीर्ण हालत को ठीक करने की दिशा में थोडा-सा भी नहीं सोचा होगा? इस माहौल में सारा दिन बिताने वाली इन महिलाओं की मुस्कुराहट के पीछे छिपी पीड़ा मुझे साफ़ दिखाई दे रही थी।

क़रीब साढ़े चार बजे हम वहाँ से रवाना हुए। मोहल्ले से बाहर आते ही मेरी नज़र सामने बह रही ब्रह्मपुत्र नदी पर पड़ी। ब्रह्मपुत्र भारत ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे लंबी नदी है। प्रायः भारतीय नदियों के नाम स्त्रीलिंग में होते हैं पर ब्रह्मपुत्र एक अपवाद है। संस्कृत में ब्रह्मपुत्र का शाब्दिक अर्थ ब्रह्मा का पुत्र होता है। यह तिब्बत, भारत तथा बांग्लादेश से ब्रह्मपुत्र का उद्गम तिब्बत के दक्षिण में मानसरोवर के निकट चेमायुंग दुंग नामक हिमवाह से हुआ है।

यदि इसे देशों के आधार पर विभाजित करें तो तिब्बत में इसकी लंबाई 1625 कि.मी. है, भारत में 918 कि.मी. और बांग्लादेश में 363 कि.मी. लंबी है यानि बंगाल की खाड़ी में समाने से पहले यह क़रीब तीन हज़ार किलोमीटर का लंबा सफर तय कर चुकी होती है। इस दौरान अनेक नदियाँ और उनकी उप-नदियाँ आकर इसमें समा जाती हैं।

माँ तो कहती थी कि ब्रह्मपुत्र के किनारे बारों महीने छलकते थे! छलकना तो दूर यह तो बहती भी नहीं दिखाई दे रही, सिर्फ एक गंदे नाले सी रुकी हुई दिख रही है। मन खट्टा हो गया।

विजय मामा ने कहा, ‘चीन ने बाँध निर्माण कार्य के लिए अपना ध्यान बाँधों से भरी आतंरिक नदियों से हटाकर अंतर्राष्ट्रीय नदी पर लगाया है। बांग्लादेश की प्रमुख नदी ब्रह्मपुत्र पर चीन ने तिब्बत क्षेत्र में तीन बाँध बनाए हैं।’

हाल ही में (26 मई 2017) को प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने ब्रह्मपुत्र नदी पर बने 9.15 किलोमीटर लंबे ढोला-सादिया पुल का उद्घाटन किया। इस पुल को भारत की ओर से चीन सीमा पर अपनी रक्षा तैयारियों को मजबूत करने की तैयारी के तौर पर देखा जा रहा है। इसके अलावा यह पुल अरुणाचल प्रदेश और असम के लोगों के लिए हवाई और रेल संपर्क के अलावा सड़क संपर्क भी आसान बनाएगा।

सभी से भावपूर्ण बिदाई लेकर हम रवाना हुए। हमें 120 कि.मी. की दूरी तय करनी थी। रात के साढ़े आठ बजे तक हम ढाका के होटल फार्मगेट पहुँच गए। खाना खाकर अपने कमरे में पहुँचे। कुछ देर टी.वी. देखा। भारत की सभी चैनल्स यहाँ प्रसारित होती है। आगामी कल सुबह हमें ढाका उपक्षेत्र के मुंशीगंज/विक्रमपुर जिले के कनकसार गाँव का दौरा करना था। कनकसार, मौसा जी के पापा का गाँव है। न जाने क्यों गुजरात के सुप्रसिद्ध कवि श्री उमाशंकर जोशी जी कविता याद आने लगी-

‘भोमिया विना मारे भमवा’ता डुंगरा,

जंगलनी कुंज-कुंज जोवी हती.....’

हमारा गाईड तो बस, जशीमुद्दीन ही था।

11 फरवरी को सुबह होते ही हम नित्यकर्म से निपटकर तैयार हो गए। टी बॉय मोहम्मद नजीमुद्दीन हमें चाय और नास्ता दे गया। साढ़े-आठ बज गए, पर जोशिम भाई अब तक नहीं पहुँचे। सोच ही रही थी कि उनका फोन आया। वे ट्राफिक में फँस गए थे, उन्होंने कहा कि आधे घंटे में पहुँच जायेंगे। ढाका में ट्राफिक की समस्या भयानक है, पर इस मामले में अब तो अहमदाबाद भी कम नहीं। मैंने सोचा तब तक रुबैया को फोन लगाती हूँ। वह तो ढाका में ही रहती है। सोहम की मित्र है, ‘अभ्यारण्य’ नामक एक एन.जी.ओ. चलाती है। उसी ने हमें बांग्लादेश की यात्रा के लिए स्पोन्सरशीप का पत्र भेजा था। फ़ोन पर जब मैंने अपना परिचय दिया, रूबैया ने बडी खुशी जताई। उसने ‘अभ्यारण्य’ का पता दिया और कहा कि वह क़रीब दस बजे पहुँच जायेगी।

मैंने कहा, ‘अगर संभव हुआ तो हम तुम्हारा इन्तजार करेंगे, पर अभ्यारण्य की मुलाकात तो ज़रूर लेंगे।’

नौ बजे जोशिमभाई पहुँच गए। सीतालक्षा नदी आने से पहले ही बायी तरफ मुड़े, कुछ ही दूरी पर ‘अभ्यारण्य’ आ गया। वहाँ पहुंचकर करीब 15-20 मिनट रुककर मैंने रुबैया को फिर से फ़ोन लगाया। वह अब भी रास्ते में ट्राफिक में फँसी थी।

उसने कहा, ‘दीदी, क़रीब आधा घंटा और लगेगा।’

मैंने कहा, ‘समय की कमी के कारण हम और नहीं रुक पाएँगे रुबैया, अगर वापसी में समय मिला तो जरुर आयेंगे।’

वहाँ उपस्थित लोगों से मिलकर हम निकल पड़े। कुछ दूर गए, केरानिगंज इलाका आया जहाँ से एक छोटा-सा पुल क्रोस करना था। ट्राफिक जाम था। आगे की ओर कुछ लोग सुत्रोच्चार कर रहे थे। कुछ लोग अपना व्हीकल लेकर वापस मुड़ रहे थे।

जोशिम भाई ने कहा, ‘डरने की कोई बात नहीं। यहाँ आए दिन ऐसे हंगामे होते रहते हैं।’

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