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मेरा स्वर्णिम बंगाल - 6

मेरा स्वर्णिम बंगाल

संस्मरण

(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)

मल्लिका मुखर्जी

(6)

क़रीब पाँच घंटे की यात्रा के बाद हम अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचे थे। आह! दुनिया के नक़्शे में भले ही प्रदेश का नाम बदल गया था पर गाँव का नाम वही था। लग रहा था बरसों से संजोया कोई सपना हक़ीकत बन सामने खड़ा है! बोर्ड के ठीक नीचे एक मुर्गी घूम रही थी। ओह! अब पता चला, पापा को मुर्गियाँ क्यों इतनी पसंद थी। गुजरात में पापा की पश्चिम रेल्वे की नौकरी के रहते जहाँ भी उनका तबादला होता, कुछ मुर्गियाँ जरुर हमारे साथ रहती। हक़ीकत में वे ही हमारी क़रीबी दोस्त थी। सामने दाईं तरफ एक छोटी सी दुकान थी जहाँ दो-तीन बुजुर्ग खड़े थे। पहनावे से, शक्ल-सूरत से मुसलमान लग रहे थे।

मैंने उनसे पूछा, ‘भाई साहब, हम भारत से आए हैं। यहाँ अतुलचंद्र भौंमिक नामक सज्जन अपने परिवार के साथ रहते थे। वे जहाँ रहते थे उनके घर के दक्षिण में चौघरी बाड़ी, पश्चिम में सेन बाड़ी और पूर्व में अमलतास दास का मकान है, हमें वहाँ जाना है।’

वे बुजुर्ग एकटक मेरी ओर देखने लगे, फिर बोले, ‘अतुलचंद्र भौमिक के परिवार के सभी सदस्य बहुत साल पहले भारत चले गए हैं। अब यहाँ कोई नहीं रहता। चौघरी बाड़ी, सेन बाड़ी, अमलतास दास के परिवार के सभी लोग भी भारत चले गए हैं।’

मैंने कहा, ‘हाँ..हाँ..हमें पता है, मैं अतुलचंद्र की पोती हूँ। क्षितीशचंद्र की बेटी।’

‘ओह, वही क्षितीश जो अपने भतीजे के साथ भारत चला गया था?’

‘हाँ... चाचा, वे ही। मेरे पापा वर्ष 1950 में भारत आए थे। मैं भारत से, बस यही देखने आई हूँ कि पापा यहाँ कहाँ रहते थे?’ मैंने बड़ी उत्सुकता से कहा।

‘ज़रूर, यह जो पतली सड़क दीख रही है, सीधे चले जाइए। कुछ ही दूरी पर सेनबाड़ी का इलाका आएगा, वहाँ प्रफुल्लचंद्र शील का परिवार रहता है, वे अनिलचंद्र के दोस्त हैं। उनसे आपको बहुत सारी जानकारी मिलेगी।’

उनका आभार व्यक्त करते हुए हम पैदल चलने लगे। पतली-सी सड़क देखकर श्यामल भैया की बात याद आ गई- ‘हमारे गाँव के पास से पक्की सड़क गुजरती है।’ यह तो गाँव के भीतर से गुजर रही थी! दोनों ओर छोटे-छोटे घर और छोटी-छोटी दुकानें दीख रही थी। चलते-चलते मुझे याद आया, श्यामल भैया ने कहा था कि उनके घर के पीछे की ओर कालीबाड़ी, माँ काली का मंदिर है। पापा भी इस मंदिर का जिक्र कई बार कर चुके थे। हमने कार रोक दी और पैदल चलने लगे। सामने से कुछ स्कूल के बच्चे आ रहे थे। उनका युनिफॉर्म काफ़ी अच्छा था।

सौरभ ने चुटकी भी ली, ‘मासीमोनी, हमारी स्कूल के युनिफॉर्म से तो इन बच्चों का युनिफॉर्म अच्छा है।’

मैंने उन बच्चों को रोककर पूछा, ‘बेटे, यहाँ काली बाड़ी कहाँ है?’

एक बच्चे ने पीछे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘काइनपुर गाँव में प्रवेश करते ही आपको काली घर मिल जायेगा।’

मैंने कहा, ‘नहीं-नहीं, हमें मोईनपुर के काली बाड़ी जाना है।’

उसने कहा, ‘फिर तो आप पश्चिम दिशा में चले जाइए। गाँव के अंतिम छोर पर काली बाड़ी है।’

अब हम उलझ गए। यहाँ के लोग किसी भी जगह के बारे में पता करने पर दिशा बताते हैं। मुश्किल यह थी कि दोपहर का समय था, सूरज माथे पर था और हम में से किसी को यह पता नहीं था कि पश्चिम दिशा किस ओर है! बच्चों को पूछने में संकोच हो रहा था। हमने हाँ में सर हिलाया। कुछ आगे चलकर एक और राहगीर से पूछा तब जाकर कहीं वह गली मिली! उस गाँव में बह रही हवाओं में मुझे पापा की हर्षध्वनि सुनाई दे रही थी। उन पगडंडियों पर मुझे पापा की पदध्वनि सुनाई दे रही थी।

एक तालाब के पास से जाते हुए मुझे लगा तालाब से पापा के तैरने की तरंगे उठ रही है! तालाब के पास कुछ बच्चे नंगे बदन पानी से बाहर आ रहे थे।

उन्हें देख मौसी बोली, ‘इन बच्चों को देखकर, जीजा जी की कही एक बात याद आ गई।’

मैंने पूछा, ‘कौनसी बात?’

वे बोलीं, ‘जीजा जी ने वतन की बातों को साझा करते हुए एक बार कहा था कि आजकल शहरों में माँ-बाप अपने बच्चों के लिए कितने महंगे वस्त्र खरीदते हैं, हमारे गाँव में तो बच्चे आठ साल की उम्र तक निर्वस्त्र ही घूमते थे।’

कहते हुए मौसी के चेहरे पर दर्द भरी मुस्कान उभर आई। सच, पापा के इस कथन में जो अनकही बात थी- गाँववासियों की दारुण गरीबी!

वृक्षों से आच्छादित गाँव! इन पैंसठ सालों में गाँव का जो चित्रण पापा से सुना था उसमें लेश मात्र फ़र्क मुझे दिखाई न दिया। आश्चर्य! चलते-चलते हम उस छोर तक पहुँच गए। सामने से एक सज्जन सर पर एक टोकरी उठाये चले आ रहे थे। उन्हें रोककर मैंने विनती की, हमें सेन बाड़ी तक पहुँचाने के लिए। वे हमारे साथ चल दिए। चलते-चलते मैंने उन्हें मोईनपुर आने का उद्देश्य बताया। दादाजी अतुलचंद्र के बारे में बताया।

कुछ दूरी पर एक जर्जरित मकान दिखाकर वे बोले, ‘बस, यही सेन बाड़ी है। यहीं कहीं अतुलचंद्र का परिवार रहता होगा।’

सामने एक सुंदर छोटा-सा मकान दिखाई दिया, कुछ कच्चा-कुछ पक्का। तभी उस घर में से एक महिला बाहर आईं। सामने की ओर से एक युवक आया जिसने बड़े रंगीन कपड़े पहन रखे थे। उसने हँसकर हमारा स्वागत किया। हमने उसे यहाँ आने का उद्देश्य बताया तो पल भर के लिए वह परेशान दिखा, कहने लगा, ‘पहले यह मकान था तो अतुलचंद्र का ही, पर मैंने तो एक मुस्लिम भाई से खरीदा है।’

मैंने उसकी बात को काटते हुए कहा, ‘आप निश्चिंत रहिए। आपने जिससे भी खरीदा हो हमें कोई मतलब नहीं। आपने इसे संभाला है, मेरे लिए यही काफ़ी है। मेरे पापा का घर!’

इसी छोटे-से घर के हर कोने में उनकी स्मृतियाँ जुड़ी हुई थी जिन्हें वे कभी नहीं भुला पाए। अपने वतन की मिट्टी से, अपने गाँव से, अपने परिवार से, दोस्तों से उन्हें जुदा होना पड़ा; हमेशा के लिए। जीवन में व्याप्त अधूरेपन को अपनी पत्नी और बच्चों को चाहकर पूर्ण करने की उनकी कोशिश रही। कुछ देर तक हम उस घर के मालिक से बातें करते रहे।

उसने कहा, ‘मैं दुबई रहता हूँ, मेरी दीदी ही घर की देखभाल करती है।’

अब वो बड़ी सहजता से बात कर रहा था। अभी-अभी ही उसने इस घर की मरम्मत की थी। बड़े प्यार से उसने हमें घर के भीतर आने को कहा। उन पलों की अनुभूतियाँ शब्दों में बयाँ नहीं की जा सकती। यह तो बाद में मेरे ध्यान में आया कि उत्साह के अतिरेक में, मैं उस व्यक्ति तथा उनकी दीदी का नाम पूछना ही भूल गई थी!

घर के ठीक सामने वृक्षों से आच्छादित एक जगह थी। लगा परिवार की गायें यहीं रहती होगी। पापा हमेशा गायों के बारे में बातें करते। उनका अपनी गायों से लगाव इतना गहरा था कि रेल्वे में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने एक बकरी पाल ली, वह भी कदावर और सफ़ेद रंग की जो दिखने में छोटी-सी गाय लगती। वे कहते कि यहाँ रेल्वे के क्वार्टर में गाय रखना मुश्किल है तो बकरी ही ठीक है। ताऊजी भी पश्चिम बंगाल में रेल्वे में ही कार्यरत थे। उन्होंने तो गाय पालने की हिम्मत रखी। जीवनभर, यहाँ तक कि सेवानिवृत्ति के बाद कल्याणी में अपने निवासस्थान तक गाय उनके परिवार की सदस्या रही। उनके निधन के बाद ही उनका ग्वालघर शून्य बना। आम्रवृक्ष देखकर पापा की एक और बात याद आई।

वे कहते, ‘आम भी क्या खरीदकर खाने की वस्तु है? हमारे गाँव में आम जिसे चाहिए वे जिनके वहाँ आम्रवृक्ष है, हक़ से ले जाते थे।’

कुछ देर तक हम पापा के घर के आस-पास ही घूमते रहे। पडोश के एक और बुजुर्ग भी आ

गए। उन्हीं से हम ने प्रफुल्लचंद्र शील के बारे में पूछा। क़रीब पचास क़दम की दूरी पर ही उनका मकान था। उनकी गली में प्रवेश करते ही एक बुजुर्ग दिखाई दिए। बदन पर सिर्फ़ एक लुंगी पहने थे। हमने अपना परिचय दिया। उनके चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई जैसे कोई अपने से मिल रहे हो! दो-तीन बच्चे भी आ गए। एक सुंदर-सी महिला भी आई। मैंने तुरंत एक तस्वीर खिंचवाई।

मैं पापा के गाँव की सारी यादों को कैमरे में कैद कर लेना चाहती थी। अब एक और बुजुर्ग आ गए, प्रफुल्लचंद्र शील। मैंने देखा कि गाँव में किसी की किसी से स्पर्धा नहीं है। कितना सरल जीवन व्यतीत करते हैं यहाँ के लोग! हमें घर के अन्दर बिठाया गया। विभिन्न प्रकार का नाश्ता, शरबत परोसा गया। कमरे में एक बड़ा-सा रेफ्रिजरेटर था। मुझे अनहद ख़ुशी हुई। गाँव में बिजली आ गई थी! पापा हमेशा बिजली की सुविधा न होने की बात कहते।

बिजली से एक बात और याद आ गई। एक बार पापा ने कहा, ‘रात को अगर कोई आवाज़ दे तो एक बार में कभी जवाब नहीं देना चाहिए। दूसरी या तीसरी बार वही आवाज़ सुनाई दे तभी उत्तर देना चाहिए।’

मैंने पूछा, ‘क्यों?’

तब उन्होंने एक घटना का जिक्र किया कि उनके एक दोस्त अनिमेष को तालाब से मछलियाँ पकड़ने का बड़ा शौक़ था। एक बार रात को क़रीब तीन बजे अनिमेष को अपने दोस्त सुदीप की धीमी पुकार सुनाई दी। उसने तुरंत जवाब दिया।

तब दरवाजे से आवाज़ आई, ‘चलो मछली पकडने जाना है।’

वह तुरंत उठ खड़ा हुआ और दोनों दोस्त अंधेरे में चलते-चलते घर के पास वाले तालाब के किनारे जा बैठे। हुक डालकर मछली पकड़ने लगे। अनिमेष को थोडा अजीब लग रहा था कि साथ आया दोस्त सुदीप थोड़ी दूरी बनाए हुए बैठा था।

अनिमेष ने उसे कहा, ‘अरे! थोडा नज़दीक आ जाओ, हम साथ में मछली पकड़ते है न।’

सुदीप ने कहा, ‘मैं यहीं ठीक हूँ।’

कुछ ही मिनटों बाद अनिमेष को अहसास हुआ कि दोस्त सुदीप अपनी जगह पर नहीं है। थोडा डरते हुए वह अपने घर की तरफ़ भागा। दरवाजा खोलकर चुपचाप सो गया। सुबह उठकर वह सुदीप से मिलने गया, रात का तालाब से मछली पकड़ने का किस्सा कह कर पूछा कि उसे बिना बताए वह क्यों चला आया?

सुनकर सुदीप ने चौंकते हुए कहा, ‘मैं तो रात को कहीं गया ही नहीं, अभी तेरे बुलाने पर नींद से उठा हूँ।’

अनिमेष भौंचक्का रह गया। कितने दिनों तक बुखार में तपता रहा तब कहीं जाकर ठीक हुआ। पापा कहते थे गाँव में ऐसी आत्माएँ घूमती रहती है।

‘अरे नाश्ता तो लीजिए।’ उस महिला की आवाज़ सुनकर मैं वर्तमान में आ गई।

मैंने प्रफुल्लचंद्र जी से पूछा, ‘आप लोगों ने भारत विभाजन, फिर पाकिस्तान विभाजन की यातना सही, अब आप को यहाँ कैसा लग रहा है?’

उन्होंने सिर हिला दिया। मैंने देखा, उनकी आँखें छलक आई थी।

धीरे से वे इतना ही बोल पाए, ‘बहुत मुश्किल है यहाँ सुरक्षित जीवन बिताना, पर हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।’

मैंने उन्हें ज्यादा कुछ पूछना उचित नहीं समझा। उस कमरे में उनके परिवार के काफ़ी लोग, उनके दो बेटे, बहुएँ, पोते-पोतियाँ सब इकट्ठे हो गए थे। सब बड़े कुतूहल से हमारी बातें सुन रहे थे। उन की एक बहू मालती हमारी बातों में शरीक हो रही थी।

मैंने जब मेरे ताऊजी, सतीशचंद्र यानि श्यामल भैया के पापाजी की बात छेड़ी, वे तुरंत बोल उठी, ‘कल्पना अब कहाँ रहती है?’

मैंने कहा, ‘मालती, कल्पना तो अगरतला रहती है, अपनी ससुराल में। मेरा अब उनके कोई संपर्क नही है। फिर भी मैं चाहती हूँ कि एक बार अपनी तीनों बहनों से मिलने ज़रूर जाऊँगी, श्यामल भैया के साथ।’

वे तुरंत दूसरे कमरे मे गईं और एक पेटीकोट लेकर आईं, जिस में नीचे एक सफ़ेद रंग की लेस लगी हुई थी।

उसे दिखाकर वे बोली, ‘यह लेस मुझे कल्पना ने बुनकर दिया था, वह मेरी खास सहेली थी।’

वह फूट-फूटकर रोने लगी। मैं अपने आँसू रोक नहीं पाई। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘मालती, जब भी मैं कल्पना से मिलूंगी, जरूर तुम्हारे बारे में बताऊंगी और कोशिश करूंगी तुम्हें भी बता सकूँ उसके बारे में।’

ताऊजी की तीन बेटियों में से बड़ी बेटी झरणा और मझली बेटी कल्पना का विवाह अगरतला के दो परिवारों में हुआ है। वहाँ ताई माँ का मायका है। ताऊजी वर्ष 1947 भारत विभाजन के समय तो अपने वतन में ही रह गए थे, पर वर्ष 1971 में जब पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश बना, उन्हें बड़ी माँ और छोटी बेटी अर्चना के साथ वतन छोड़ना पड़ा। वे अगरतला अपनी बेटियों के पास ही चले गए।

मुझे याद है, श्यामल भैया ने अपने विवाह के अवसर पर ताऊजी, ताई माँ और अर्चना को कल्याणी बुलाया था। पापा अपने बड़े भाई और भाभी से करीब पचीस साल के बाद मिल रहे थे। दोनों भाई गले मिले। मैंने देखा, बड़ी देर तक दोनों के बीच ख़ामोशी छाई रही। उस पल दोनों के मनोभावों तक पहुँच पाना मुश्किल था। मैं ताऊजी को अहोभाव से देख रही थी। उनका चेहरा पापा के चेहरे से इतना मिलता था कि कोई भी कह सकता, दोनों भाई हैं! श्यामल भैया के साथ कुछ समय रहकर वे फिर अगरतला चले गए। अर्चना के विवाह के बाद कुछ ही वर्ष बाद ताऊजी का देहांत हुआ, कुछ समय बाद ताई माँ (सुनीति) भी चल बसी।

उस परिवार के सभी सदस्यों ने हमें बड़ा आग्रह किया उस दिन रुक जाने के लिए। भले ही वर्तमान संदर्भ में ये अवधारणा अपना औचित्य खोती हुई प्रतीत होती है, प्राचीन भारत का ‘अतिथि देवो भव’ का सांस्कृतिक दृष्टिकोण भारत से ही क्रमशः अलग राष्ट्र बने बांग्लादेश में अब भी मौजूद देखकर दिल को राहत मिली। हमारी विवशता थी, समय कम था। वर्ना दिल तो कह रहा था रुक जाने के लिए। खाने के लिए भी उन्होंने खूब आग्रह किया पर हम साथ में खाने-पीने का सामान लेकर चले थे।

क़रीब साढ़े तीन बजे हम वहाँ से निकले। हमें ढाका होकर अब मैमनसिंह जाना था, माँ के वतन में। रास्ता काफ़ी लम्बा था। राह अन्जानी थी। मोईनपुर से निकलते हुए मैं भावविभोर हो गई। मुझे लगा मैंने चारों धाम की यात्रा कर ली।

मन ही मन पापा से संवाद करते हुए मैं कार में बैठ गई। मुझे वर्ष 1950 में West Bengal Provincial Congress के अंतर्गत चल रहे Relief Centre के कैम्प इन्चार्ज द्वारा जारी किया गया, पापा के नाम का शरणार्थी सर्टिफ़िकेट याद आ गया जो अब तक मैंने संभालकर रखा है। इस सर्टिफ़िकेट में गाँव का नाम तो मोईनपुर ही लिखा है (बांग्ला भाषा में अक्षरों के ब्रॉड उच्चारण के कारण लिखते हुए मईनपुर-mainpur लिखेंगे पर उच्चार होगा-मोईनपुर), पर ज़िले का नाम है तिपेरा! दूसरा एक सर्टिफ़िकेट पापा के नाम है, जो तिपेरा ज़िले में स्थित ‘यूथ वेलफैर काउन्सिल’ द्वारा जारी किया था, उसमें शहर का नाम कोमिल्ला लिखा है!

मुझे इतिहास की जानकारी बहुत कम थी और पापा से त्रिपुरा तो सुना था पर तिपेरा कभी नहीं सुना। एक बार फिर मुझे गूगल का सहारा लेना पड़ा। स्वतंत्रता के पूर्व त्रिपुरा 1300 वर्ष तक एक ही, ययाति राजवंश के अधिकार में रहा। यहाँ के निवासी तिपेरा जाति के लोग थे। ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के बाद वर्ष 1808 तक यह ब्रिटिश भारत की रियायतों में से एक बना।

वर्ष 1905 में त्रिपुरा प्रदेश पूर्वी बंगाल और असम के नए प्रांत में मिला दिया गया। यह प्रदेश ‘हिल तिपेरा’ के नाम से जाना जाता था, जिसे ब्रिटिश भारत के शासन में तिपेरा ज़िला घोषित किया गया और जिसका प्रशासनिक कार्यालय कोमिल्ला में था। 15 अक्टूबर 1949 को त्रिपुरा भारत संघ में शामिल हो गया। शुरू में यह भाग-‘सी’ के अंतर्गत आने वाला राज्‍य था और वर्ष 1956 में राज्‍यों के पुनर्गठन के बाद यह केंद्र शासित प्रदेश बना। वर्ष 1972 में इसने पूर्ण राज्‍य का दर्जा प्राप्‍त किया। त्रिपुरा, बांग्लादेश तथा म्‍यांमार की नदी घाटियों के बीच स्थित है। इसके तीन तरफ बांग्लादेश है और केवल उत्तर-पूर्व में यह असम और मिज़ोरम से जुड़ा हुआ है।

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