नारद और महन्त
नारद जी ब्रम्हाण्ड का भ्रमण करते-करते आर्यावर्त के इस रेवा खण्ड के एक नगर में अवतरित हुए। यहां उन्होंने देखा एक पत्थर पर एक भगवा वस्त्र धारी ने सिन्दूर पोत दिया था। कुछ फूल चढ़ा दिये थे और अगरबत्तियां जला दी थीं। श्रद्धालुओं ने वहां आकर पूजा-पाठ करना और पैर पड़ना और आशीर्वाद पाना प्रारम्भ कर दिया था। श्रृद्धालु भावनाओं के सैलाब में बहकर धन चढ़ा रहे थे। पत्थर के आसपास और भी भगवा वस्त्रधारी आने लगे थे। जिसने सिन्दूर पोता था वह वहां महन्त के रुप में जम गया था। नारद जी सोच रहे थे कि मानव के सृजन में इतनी षक्ति होती है कि वह पत्थर को भी भगवान बना देता है।
तभी उस महन्त की दृष्टि नारद जी पर पड़ी। उनकी विचित्र वेशभूषा और उनके बनाव-श्रृंगार को देखकर वह उनकी ओर आकर्षित हो गया। उसने उनके पास जाकर उन्हें सम्मान पूर्वक आमंत्रित किया और ले जाकर उस पत्थर के पास ही उन्हें विराजमान कर दिया। उसने अपने चेलों को संकेत कर दिया। चेलों ने जाकर यह अफवाह फैला दी कि ईश्वर के चमत्कार स्वरुप एक देवदूत अवतरित हो गए हैं।
इस अफवाह के प्रभाव में लोग आने लगे और नारद जी को फूल, मालाएं और प्रसाद आदि चढ़ाने लगे। नारद जी अपना ऐसा स्वागत सत्कार देखकर गदगद हो गए। उन्हें जो चढ़ोत्री आदि चढ़ाई जा रही थी उसे वह महन्त रखता जा रहा था। नारद जी को कोई मोह तो था नहीं इसलिये वे इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहे थे। कुछ समय बाद जब नारद जी वहां से चलने के लिये उठे तो वह महन्त उनसे बोला- हे महाप्रभु! आप तो हमारे अन्नदाता हैं। आपके आने से हमारे भाग्य खुल गए हैं। आप अपनी कृपा हमारे ऊपर बनाये रखिए। आप कुछ दिन और हमारे पास ही ठहरियेगा। नारद जी ने उसके आग्रह को स्वीकार कर लिया।
दोपहर को उस महन्त ने नारद जी के भोजन आदि का प्रबन्ध किया। स्वादिष्ट भोजन करके नारद जी और भी अधिक प्रसन्न हो गए। वह उन्हें विश्राम के लिये छोड़कर चला गया। तभी पास ही का एक दूसरा महन्त उनके पास आया। वह बोला- हे प्रभु आप तो दीनबन्धु हैं। मुझ पर भी थोड़ी कृपा कीजिए। मेरा भी कुछ आतिथ्य स्वीकार कीजिए और मुझे अपनी सेवा का षुभ अवसर प्रदान कीजिए। नारद जी उसकी बातें सुनकर उसके साथ हो लिये। उसने भी नारद जी को ले जाकर एक दूसरे पत्थर के बगल में विराजित कर दिया। यह उस महन्त का पत्थर था और उसने उस पर काला रंग पोत कर तेल चढ़ाकर उसे भगवान बना दिया था।
अब वे लोग जो उस जगह पर नारद जी के पास जा रहे थे वे इस जगह नारद जी के पास आने लगे। यहां लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। खबर मिलने पर वह पहला महन्त अपने दल-बल सहित नारद जी को वापिस लेने वहां पहुँच गया। दूसरा महन्त भी अपने चेले-चांटों के साथ तैयार बैठा था। दोनों में संघर्ष छिड़ गया। गालियों की बौछारें होने लगी, लाठियां बजने लगीं। लोग घायल होने लगे। तमाशबीनों की भीड़ चारों ओर लग गई। इस दृश्य को देखकर नारद जी समझ गये कि माजरा क्या है।
जिसे वे भक्ति समझ रहे थे वह पाखण्ड था। जिन्हें वे सन्त व महन्त समझ रहे थे वे लुटेरे थे जो लोगों की आस्थाओं से खिलवाड़ कर उन्हें लूट रहे थे। उनकी इस अवस्था को देखकर और उनकी मनोवृत्ति को समझकर नारद जी बिना कुछ बोले और बिना कुछ बताये वहां से चले गये।