Dah-Shat - 25 books and stories free download online pdf in Hindi

दह--शत - 25

एपीसोड ---२५

        बुआ जी के सामने जब कविता की बात  खुल गई थी तो समिधा ने  उनसे अपना शक ज़ाहिर किया , “ बुआजी ऐसा लगता है वह अपने पति को कोई नशीली चीज खिलाती है। उससे शिकायत करे तो उस पर असर नहीं होता। वो इनसे मोबाइल पर ‘वल्गर टॉक्स’ करके इनके सोचने-समझने की शक्ति छीने ले रही है।”

“मैं जानती हूँ तुम समझदार हो। आजकल ‘इज़ी मनी’ कमाने का चक्कर भी शुरू हो गया है। ज़रा सम्भलकर रहना।”

“बुआजी! वो ऐसे लोग तो नहीं लगते लेकिन औरत  पक्की  बदमाश है।”

बुआजी घर सूना करके चली जाती है। इस इतवार को रोली व अक्षत भी नहीं आ रहे। बाई काम करके चली गई है। घर वही है लेकिन कैसा सूनापन मन को कचोट रहा है। वह अनमनी सी मेज़ पर खाना लगा रही है। वह प्लेट में सलाद रखती है, अपने पीछे किसी को खड़े होने का अहसास होता है। वह पीछे घूमकर देखती है, पीछे अभय भयावह चमकते चेहरे से खड़े हैं। अपने पर टिकी लाल वहशी आँखों को टालना चाहती है, “बैठिए, खाना लग गया है।”

वे अनसुना करके दहाड़ उठते हैं, “ये किसने कहा था कि उसका पति धंधा करवा रहा है?”

“किसका?”

“बनो मत। उसकी अच्छी  ख़ासी नौकरी है तो क्यों वह बीवी से धंधा करवायेगा।” अभय उसके चेहरे पर दो चाँटे मारते हैं।  

          “अभय! तुम्हें क्या हो गया है?” वह उनके भयानक तेवर देखकर कमरे में चली जाती है अभय वहाँ आकर उसकी कलाई पकड़ लेते हैं,“मैं तुम्हारा पति हूँ तो मैं कहूँ तो क्या तुम भी धंधा करोगी?”

“वॉट? तुम एक भयानक औरत के चक्कर में पड़ गये हो। वह कोई भयानक रंडी है।” वह स्वयं सकते की हालत में है, ये गंदा शब्द बोल जाती है।

अभय उसे झिंझोड़ देते हैं, “फ़ालतू उसकी बदनामी क्यों करती हो?” ऐसा करते अभय उसे एक पागल नजर आ रहे हैं। यंत्र चालित पागल! उनकी आँखों में भयावह सफेदी दिखाई दे रही है। वह आश्चर्य कर रही है। वह पिट रही है, उसे न रोना आ रहा है, न गुस्सा। हाँ, हतप्रभ है बच्चों तक को न मारने वाले पति की हालत पर उसे तरस आ रहा है। क्या ऐसी मानसिक अवस्था में कोई खून कर दे तब भी कानून उसे माफ़ कर देता है?

  उसे प्रतिवाद न करता देख वे अलग हो जाते हैं। वह पलंग पर बैठकर हाँफने लगते हैं।

वह सहज होकर कहती है, “मुझे भूख लग रही है। मैं खाना खा रही हूँ।”

वे भी सिर झुकाये मेज पर आ जाते हैं। वह खाना खा नहीं रही, निगल रही है। खाना खाने के बाद वॉश बेसिन में अपने हाथ धोते हुए आइने में अपना चेहरा देखती है, दाँये गाल पर गुलाबी निशान उभरे हुए हैं। उसे रो पड़ना चाहिए लेकिन वह एक विजयी की तरह मुस्करा उठती है, कैसे उसने महीनों पहले ही घोषणा कर दी थी, “ये औरत घरेलू हो ही नहीं सकती। इससे न जाने कितनी औरतों को पिटवाया होगा।”

क्या सच ही उसकी छठीं इंद्रिय तेज़ है? एक सड़क छाप औरत ने अपनी रणनीति उस जैसी पढ़ी लिखी तेज़ तर्रार औरत को पिटवा डाला। वाह! समिधा जी वाह !

वह अपने को भरसक सहज करके डबल   बैड  पर उनकी बगल में लेटते हुए कहती है, “नीता ने अपने यहाँ एक किटी पार्टी रखी है मुझे चार बजे जाना है।”

सहमे हुए अभय के फँसे गले से आवाज निकलती है,“अच्छा।”

वह चार बजे तैयार होती है। पर्स में रुमाल रखते हुए कहती है, “अभय! मैं तुम्हें इतने वर्षों से जानती हूँ, तुम इतने वहशी नहीं हो। उस भयानक औरत के पंजे से मैं ही तुम्हें निकालूँ गी। ``

***

कॉलोनी में यहाँ से वहाँ तक हड़कम्प है। ऐसा तो  कभी नहीं हुआ, ऐसा कैसे हो सकता है। किसी चीफ़ विज़िलेंस ऑफ़िसर ने इतनी हिम्मत नहीं की। एक के साथ इतनी बेअदबी उन्होंने की है तो दूसरे ऑफ़िसर्स के साथ भी ऐसा हो सकता है। एक ऑफ़िस से दूसरे ऑफ़िस, एक घर से दूसरे घर फ़ोन खटकाये जा रहे हैं। लोग राह चलते सड़क पर हॉस्पिटल में चर्चा कर रहे हैं ।

 “इतनी हिम्मत! एम.डी. तक से पूछा नहीं गया? नया ख़ून है न! अजी! इतना भी ज़ोश नहीं होना चाहिये कि ज़ोश में होश खो बैठो।”

चीफ़ विज़लेंस ऑफ़िसर ने एक अधिकारी को इतवार के दिन उनके बंगले पर जाकर गिरफ़्तार करवा दिया। वह अपने तीन मातहतों के साथ गोलमाल में लगे थे। पहले वे तीन पकड़े गये। उन्होंन सब उगल दिया। तब उनके अधिकारी पर हाथ डाला गया। वह भी बाकायदा लोकल टी.वी. चैनल्स व पत्रकारों को साथ ले जाकर। हर लोकल चैनल पर उन्हें उन्हीं के बंगले के कम्पाउंड में हथकड़ी पहनाकर पुलिस की जीप में बिठाकर ले जाते हुए दिखाया जा रहा है।

दुकानों के बाहर खड़े लोगों में चर्चा है, “बिचारे सिंह साहब को कितनी बुरी तरह पकड़ा है । आज की तारीख में हमाम में कौन नंगा नहीं है? पकड़े जाओ तो सौ रुपये की चोरी भी चोरी है। यदि पकड़े नहीं जाओ तो लाखों रुपये इधर-उधर करते रहो कोई पूछने वाला नहीं है।”

“फिर भी इतने बड़े अधिकारी पर हाथ डालना क्या ठीक है?”

“वाह ! साहब ! वाह ! तृतीय श्रेणी का स्टाफ़ पकड़ लिया गया है और जो लीडर है उसे क्यों नहीं पकड़ा जाये?”

“फिर भी।”  

सब हँस पड़ते हैं, “ये ऑफ़िसर्स का चमचा है।”  

“अब देख लेना विकास रंजन को कोई यहाँ रहने नहीं देगा।”  

“सौ टका उनका ट्रांसफ़र तो होगा ही।”  

विकास रंजन अर्थात मीनल के पति की जाँबाज़ी से सारी कॉलोनी थर्रा गई है। उनके नाम का आतंक फैल गया है। मीनल पर पता नहीं क्या बीत रही होगी? उनके घर जाने की हिम्मत नहीं होती, जाना ठीक भी नहीं है। नीता अपनी बहिन के यहाँ छुट्टियाँ लेकर गई थी। वहाँ से लौटते ही समिधा को फ़ोन करती है, “क्या विकास रंजन की बात सच है?”

“हाँ, सौ प्रतिशत।”

“इतना बोल्ड स्टैप ?”

“हाँ।”

“निशा दीदी के यहाँ मेरा वैसे ही ‘माइन्ड अपसेट’ हो गया था।”  

“क्यों?”  

“वहाँ कुछ  फ़िल्मों की सी.डी. मँगाकर देखी थी। बाप रे! उन सबमें एक न एक भयानक हीरोइन थीं।”  

“ये हॉरर मूवीज़ थीं?”

 “ना रे, ये ज़हरीली नागिनों जैसी औरतों की कहानियाँ हैं। मैं तो विश्वास नहीं कर सकती कि ऐसी औरतें भी होती हैं।”

“ज़हरीली नागिनें!” रिसीवर को पकड़ने वाला उसका हाथ काँप जाता है।

“तू भूलकर भी इन्हें नहीं देखना।”

उसे फ़िल्म देखने की क्या ज़रुरत है ? वह तो एक ज़हरीली नागिन  के हथकंडे देख क्या रही है भुगत रही है । वह कहती है, “फ़िल्मों के नाम भी बतायेगी या पूरी कहानी ही सुनाती ही जायेगी।”

“तो सुन ये फिल्म है ‘जिस्म’, ‘चेहरा’, ‘ज़हर’, ‘फ़िदा’, ‘शीशा’ व ‘वज़ह’।”

x x x x

दूसरे दिन शनिवार को वह  व अभय  स्कूटर पर घर लौट रहे हैं। कविता के फ़्लैट  की बालकनी में उसकी परछाई दिखाई दे रही है। वह ऊँगली ऊपर उठाकर गर्दन ऊपर का इशारा करती है। इस भयानक बेहयाई से उसका सिर चकराने लगता है। इतवार की सुबह फल वाला आवाज़ देता है तो वह गैस बंद करके बाहर आती है, देखती है अभय सीढ़ियों से उतर रहे हैं। तो क्या कल का इशारा छत पर कोई कंकड़ पत्थर में लिपटा संदेश भेजने के लिए था ? इस वहशी उन्माद से अभय को कैसे बचाये? वह खूंखार औरत इन्हें हर हथकंडे से, खुले आम उन्मत बनाकर खेल रही है।

दूसरे दिन वह अभय की डायरी में ऑफ़िस के लालवानी का फ़ोन नंबर ढूँढ़कर उन्हें फ़ोन  करती है, “मैं एक बड़ी परेशानी में हूँ।”

“कहिए।”

वह संक्षेप में सारी बात बताती है वह कहती है, “सोमेश जी से कहिए। इन पर नज़र रखकर इन्हें बचाये। इनकी मुझे बहुत चिंता है, ये हार्ट पेशेंट है।”

“भाभी जी। लगता है आप मेरी बात को सीरियसली ले गई हैं।”

“कौन सी बात?”

“मैंने एक बार आपसे मज़ाक किया था कि भाई साहब दो दिन ऑफ़िस से दो घंटे गायब रहे। वे अपने काम से बाहर गये होंगे और मैंने मज़ाक कर आपको चिढ़ा दिया था।”

“आपने यह मज़ाक के लिए कहा था लेकिन मैं गम्भीर हूँ। ऑफ़िस में इनका ध्यान रखिए।”

“सर, हमारे सीनियर हैं.....प्लीज़।”

“तो क्या हुआ? मैं इन्हें बचाना चाहती हूँ।” उसे अपने पर आश्चर्य हो रहा है। गाली स्वयं खा रही है, प्रताड़ित स्वयं है, बचाना उसे अभय को है।

गुरुवार को खबर  आ जाती है विकेश की माँ गुज़र गई है। अभय और वे उसके घर पहुँचते हैं। भीड़ में से लालवानी व सोमेश झिझकते से उससे नमस्ते करते हैं। उसे कोई शर्म नहीं है, मन पर अवसाद ज़रुर है। चलते समय वह रोमा से कहती है, “आज शाम का खाना मैं ला रही हूँ।”

प्रतिमा कहती है, “भाभी जी!  शनिवार तक खाने का इंतज़ाम हो गया है। इतवार को आप चौदह पंद्रह लोगों का खाना ले आइए। तब तक परिवार के सभी लोग आ जायेंगे।”

इतवार की शाम को बाई के साथ वह खाना बनाकर अपना व अभय का खाना भी पैक कर लेती है। विकेश की बहिनों से बरसों बाद मिलना होगा ।

विकेश के घर खाना खाने के बाद विकेश अभय वह बाहर के कमरे में नीचे बिछे फ़र्श पर बैठ जाते हैं। बाकी रिश्तेदार दूसरे कमरों में गप्पे मार रहे हैं। विकेश कह उठता है, “इंडिया में ही नहीं अमेरिका में भी औरतें पिटतीं हैं।”

बिना किसी संदर्भ के कही इस बात से वह चौंक पड़ती है। उससे कहे बिना नहीं रहा जाता, “ये सब भारतीय पुरुषों की उड़ाई बातें हैं जिससे वह अपनी पत्नियों को डरा सकें।”

“क्या भारतीय पत्नियाँ नहीं पिटती हैं?” वह उस पर आँखे गड़ाकर कहता है।

वह सशंकित होकर उसे देखते हुए कहती हैं, “कमज़ोर औरतें पिटती होंगी लेकिन अपने को बचाने के बहुत से कानून हैं।”

“पढ़ी लिखी औरतें भी कानून का सहारा लेने से डरती हैं वैसे ये पिटाई एक ‘एक्स्ट्रा मेरिटल एफ़ेयर’ के कारण होती है।”  

ऐसी बातों से अभय के चेहरे पर वही वहशी ज़ुनून उभर रहा है। वह बीच में बोल उठते हैं, “ये तो किसी का किसी से भी हो सकता है। एक आई.पी.एस. ऑफ़िसर का एक नौकरानी से......।”

“अभय....।” उसे क्रोध दबाना पड़ता है क्योंकि विकेश की बड़ी बहिन कमरे में आ रही है।

        चलते समय वह ख़ाली बर्तनों से भरा बैग सम्भालती है। विकेश उसे मुस्कराकर हिंस्त्र व कुटिल आँखों से देख रहा है। इस दृष्टि को वह अब खूब पहचानती है। कॉलेज में साथ पढ़ने वाली संजना, कविता की आँखों में यही ज़हरीला नशा हिलोरे मारते देख चुकी है लेकिन कविता की वे भयानक जानवर जैसी आँखें याद करके उसके बदन में आज भी झुरझुरी हो जाती है। उसे शक होने लगता है उसकी पिटाई की बात विकेश को तो नहीं पता? अभय को जब भी ऑफ़िस में देर होती है तो वे हमेशा ही क्यों कहते हैं कि विकेश से पूछ लो कि मैं कहाँ था जबकि अभय अंदर के ऑफ़िस में बैठते हैं, विकेश बाहर ।

          अभय की भागदौड़ बदस्तूर ज़ारी रहती है। तीसरे चौथे दिन वे अस्पताल ज़रुर जाते रहते हैं। उसके पास रहते हुए भी वे बहुत दूर हैं इस भागदौड़ का संबंध अस्पताल से है या उसके आस-पास के क्षेत्र से।

कैसे पूछताछ करें किसी से ? जान पहचान वाले तो बहुत हैं लेकिन किसी ने उस विशेष स्थान पर अभय को देखा हो तो ? हर कदम बेहद सम्भल कर उठाना है।

आकार विहीन काले तैरते तरल अदृश्य से भरे घर में अक्सर लंच के समय इंटरनल फ़ोन की एक रिंग कहीं से ज़रूर आती है। एक दिन अभय कहते हैं, “मुझे आज बैंक जाना है, बैंक डेढ़ बजे बंद हो जाता है। मुझे जल्दी निकलना पड़ेगा।”

वह अपना माथा ठोंक ले या क्या करे? अभय का दिमाग कुछ सोच नहीं पा रहा। घर में एक पढ़ी-लिखी बीबी है। वह कह उठती है, “बैंक तीन बजे बंद होता है।”

वह हकबकाये  से उससे पूछने लगते हैं ,``क्या सच ही तीन बजे बंद होता है ?``

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffmail.com

 

 

 

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