आधी दुनिया का पूरा सच
(उपन्यास)
28.
प्रसव के एक सप्ताह पश्चात् रानी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी । अस्पताल से छुट्टी होने के बाद अपने घर जाना रानी के भाग्य में नहीं था । अब उसके पास रहने के लिए निवास स्थान के नाम पर केवल फ्लाईओवर के नीचे का वह स्थान था, जहाँ वह पिछले लगभग एक माह से रह रही थी । अतः अपने नवजात शिशु को लेकर रानी पुन: फ्लाईओवर के नीचे अपने अस्थायी आवास पर लौट आयी।
दिसम्बर की ठंड में प्रसूता को नवजात शिशु के साथ फ्लाईओवर के नीचे रहते हुए देखकर आस-पास के कुछ संवेदनशील लोगों ने सामूहिक सहयोग से उसके खाने-पीने तथा पहनने-ओढ़ने के लिए भोजन और ऊनी कपड़ों - कम्बल आदि की व्यवस्था कर दी । डेढ़-दो महीने तक रानी तथा उसकी बच्ची के भोजन वस्त्रों की व्यवस्था इसी प्रकार होती रही, लेकिन रानी इस सत्य से भली-भाँति अवगत थी कि ऐसा अधिक दिनों तक नहीं चल सकेगा ।
अपनी बच्ची के रूप में रानी को जीने का एक बहाना - एक बड़ा लक्ष्य मिल गया था । यह लक्ष्य था - उस बच्घी के पालन-पोषण की बड़ी जिम्मेदारी, जिसका निर्वाह वह बहुत मनोयोग से कर रही थी । मात्र चौदह वर्ष की आयु मे दुर्भाग्य से माँ बनी रानी शरीर-बुद्धि से नितान्त अपरिपक्व और अनुभवहीन होने के बावजूद एक आदर्श माँ थी । वह दिन-रात अपनी बच्ची की सुरक्षा को लेकर चिन्तित रहती थी और स्वयं बेघर होने के बावजूद बच्ची के भविष्य को लेकर रंग-बिरंगे सपने बुनती रहती थी ।
समय के साथ-साथ बच्ची बड़ी होती जा रही थी । किसी पंडित-पुरोहित और आड़म्बर के बिना ही बड़े ही प्राकृतिक ढंग से बच्ची का नामकरण हो गया था । अत्यन्त सहज-सरल और स्वाभाविक प्रक्रिया से उसको 'लाली' नाम मिल गया था ।
लाली की शैशव की चेष्टाएँ रानी और चन्दू-नन्दू के लिए किसी खिलौने से कम नहीं थी । उसकी चंचल चेष्टाओं ने किसी मजबूत धागे की भाँति चन्दू-नन्दू को अपने साथ बाँध लिया था । लाली के प्रति उन दोनों की आत्मीयता इतनी बढ़ गयी थी कि दिन में कई बार वे दोनों अपना काम छोड़कर लाली के साथ खेलने के लिए चले आते थे । उनका लाली के साथ निर्मल-पावन रिश्ता दिन-प्रतिदिन दृढ़ से दृढ़तर होता जा रहा था । लाली के साथ चन्दू-नन्दू के इस जुड़ाव से रानी को एक भरा-पूरा घर-परिवार मिल गया था, जहाँ गरीबी और अभावों के बावजूद प्रतिपल एक सकारात्मक ऊर्जा बहती थी ।
समय बीतने के साथ ही धीरे-धीरे रानी को स्थानीय लोगों से मिलने वाली सहायता कम होने लगी थी । जिस अनुपात में सहायता घट रही थी, उसी अनुपात में रानी का जीवन कष्टप्रद होने लगा था । भोजन-वस्त्र जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करना कठिन होने लगा था । ऐसी स्थिति में जीविका चलाने के लिए रानी ने एक बार पुनः अपनी चाय की दुकान जमाई, लेकिन मात्र दो-ढाई माह की.बच्ची के साथ चाय की दुकान चलाना उसके लिए दुष्कर हो गया । उससे पर्याप्त आय भी नहीं हो पाती थी ।
यद्यपि रानी की तंगहाली को देखकर कई बार नन्दू-चन्दू उसके भोजन की व्यवस्था कर देते थे, किन्तु धन के अभाव के साथ-साथ अनुभवहीनता के कारण उनमें अभी इतना दायित्व-बोध नहीं था कि समय पर रानी और उसकी बच्ची के लिए भोजन-दूध और वस्त्रों की व्यवस्था कर पाते।
आसपास के अनेक स्थानीय लोग, प्राय: वहाँ से गुजरते हुए रानी के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते थे । रानी ने उनमें से बहुत से लोगों से प्रार्थना की कि वे जीविका चलाने में सहायता करने के लिए उसको अपने घर में काम पर रख लें ! वह उन सबसे एक ही निवेदन करती थी -
"मैं आपके घर का झाडू-पौंछा-बर्तन से लेकर कपडे धोने और खाना बनाने तक सारा काम करूँगी ! बस, मुझे पेट-भर दाल-रोटी के साथ रहने के लिए थोड़ी-सी जगह दे दीजिए ! मैं आपका यह एहसान जिन्दगी-भर नहीं भूलूँगी !"
किन्तु रानी का कहीं पर स्थायी ठोर-ठिकाना नहीं होने के कारण कोई भी उसको अपने घर में काम देने के लिए तैयार नहीं था । वह परिश्रम करके पेट पालने की अपनी छोटी-सी योजना में विफल हो गयी । बच्ची को दूध पिलाने के लिए उसका अपना पेट भरना आवश्यक था, इसलिए जब वह अपना और बेटी का पेट नहीं भर पाती थी, तो प्रायः बेटी को गोद में लेकर सुबह-शाम भगवान के प्रति पूर्ण समर्पित भाव से मन्दिर की सीढ़ियों पर जाकर बैठ जाती थी। उसकी सात्विक सोच और विनम्रता के परिणामस्वरूप भक्तगण और पुजारी उसके प्रति सद्भाव रखते हुए उसे पर्याप्त भोजन उपलब्ध करा देते थे।
सुबह-शाम मंदिर में जाकर भक्तगणों से प्राप्त प्रसाद और दिन में फ्लाईओवर के नीचे अपनी छोटी-सी अंगीठी पर चाय बनाकर बेचने से प्राप्त आय पर निर्भर रहकर रानी का अपनी बेटी के साथ जीवन व्यतीत होने लगा।
माँ की ममता और चन्दू- नन्दू के स्नेह के साथ लाली शारीरिक-मानसिक और संवेदनात्मक विकास के पथ पर तीव्र गति से अग्रसर होने लगी । थोड़ी बड़ी हुई, तो माँ की गोद से उतरकर अपने पैरों पर चलना सीखा । रानी ने उसकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए दो-ढाई मीटर की एक रस्सी लेकर उसका एक छोर लाली के एक पैर में और दूसरा छोर धरती पर लकड़ी का एक खूँटा गाड़कर उसमें बाँध दिया । अब लाली उस खूँटे के इर्द-गिर्द केवल चार-पाँच मीटर के गोल घेरे में ही चल-फिर सकती थी ।
लाली की शारीरिक-मानसिक क्षमताएँ प्रत्येक क्षण उत्तरोत्तर विकास कर रही थी, इसलिए वह उसके लिए माँ द्वारा परिसीमन की गयी भौगोलिक सीमाओं को लाँघने के लिए छटपटाने लगी । उस परिसीमित क्षेत्र में लाली को बाँधकर रखने का रानी जितना प्रयास करती थी, लाली बाहर निकलने के लिए उससे कई गुना ज्यादा प्रयास करती थी । वह अपना विरोध दर्ज कराते हुए रोती थी और अपने छोटे-छोटे नाजुक हाथों से पैर में बँधी रस्सी को खोलने का प्रयास करती थी और अपने प्रयास में असफल होकर फिर रोने लगती थी । बेटी की इन चेष्टाओं को देखकर रानी को उस पर प्यार बहुत आता था ! तब वह बेटी को अपनी गोद में उठाकर स्नेह से दुलारते हुए चूमकर कहती थी -
"कहाँ जाएगी मेरी लाड्डो ? वहाँ ? दूर ? चल, मैं तुझे वहाँ ले चलती हूँ !"
माँ के गोद में उठाने से लाली का गुस्सा और अधिक बढ़ जाता था । माँ की बातों के प्रत्युत्तर में लाली गोद से उतारने के लिए हठपूर्वक आग्रह करती हुई अपने छोटे-छोटे नाजुक हाथों से माँ के चेहरे पर प्रहार करती थी । तब रानी खुश होकर ऊसके साथ हँसती-खेलती थी ।
दूसरी ओर, चन्दू-नन्दू भी जब वहाँ रहते थे, लाली के साथ खूब खेलते थे । जब वे वहाँ से जाते थे, तब लाली को रेलवे स्टेशन पर घुमाने के लिए अपने साथ ले जाना चाहते थे । लाली भी उन दोनों के साथ जाने के लिए रोती-फड़फड़ाती थी । यह जानते हुए भी कि रानी अपनी बेटी को एक क्षण के लिए भी स्वयं से दूर नहीं करना चाहेगी, वे दोनों लाली की जिद्द पूरी करने के लिए उसका हाथ पकड़कर स्टेशन की ओर चल पडते । लेकिन, रानी अगले ही क्षण जल्दी-से झपटकर उनके हाथ से लाली का हाथ छुड़ा लेती थी । चन्दू-नन्दू रानी को समझाते हुए कहते -
"रानी, हम पर भरोसा रख.! हम इसको रेल दिखाके अभी थोड़ी देर में यही वापस छोड़ जाएँगे !"
"मैं मेरी लाली के लिए किसी पर भरोसा नहीं करूँगी और ना किसी के साथ कहीं भेजूँगी ! मैं नहीं चाहती हूँ, एक पल के लिए भी लाली मेरी आँखों से ओझल हो !"
रानी स्पष्ट शब्दों में कहती । रानी से सपाट शैली और कठोर शब्दों में ना सुनकर चन्दू-नन्दू दोनों उदास होकर रेलवे-जंक्शन की ओर चल पड़ते और लाली रो-रोकर उस समय रानी का वहाँ रहना दुश्वार कर देती । अन्त में लाली को चुप करने के लिए और रेलगाड़ी देखने की उसकी जिद पूरी करने के लिए उसको लेकर रानी को स्वयं रेलवे-स्टेशन जाना पड़ता था।
इसी प्रकार चलते-चलते लाली चार वर्ष की हो गयी । अब लाली चन्दू-नन्दू के साथ जाने या अपनी अन्य किसी बात को मनवाने के लिए केवल जिद नहीं करती थी, बल्कि अब वह माँ से प्रश्न पूछने लगी थी ।
इसी दौरान एक दिन लाली ने सुबह-सुबह स्कूल ड्रेस पहने हुए बच्चों के सामूह को रिक्शा में बैठकर सड़क पर जाते हुए देखा, तो स्कूल ड्रेस के लिए मचल उठी। रानी ने उस समय बेटी को समझा-बुझाकर स्कूल ड्रैस लाने का आश्वासन देकर शान्त किया और साहस जुटाकर सड़क के पार रह रहे एक परिवार से उनके बच्चे की पुरानी स्कूल-ड्रेस माँगकर ले आयी और लाली को पहना दी। स्कूल-ड्रेस पहनकर लाली बहुत प्रसन्न हुई और ड्रेस पहनते ही स्कूली बच्चों के साथ रिक्शा में बैठकर स्कूल जाने के लिए मचलने लगी । रानी ने लाली की जिद पर उसको समझाने का प्रयास किया -
"मेरी लाड्डो, ये सब बच्चे स्कूल जा रहे हैं, मैं तुझे स्कूल में नहीं भेज सकती !"
"ये सब स्कूल जा सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं जा सकती ?" लाली ने अपनी जिद को जायज ठहराते हुए प्रश्न पूछा ।
यद्यपि लाली यह नहीं जानती थी कि बच्चे स्कूल क्यों जाते हैं ? फिर भी स्कूल आते-जाते बच्चों को देखकर अपनी जिद पर अड़ी रही ।
लाली का आग्रह और जिद देखकर रानी की इच्छा हुई कि उन बच्चों की तरह वह भी अपनी बच्ची को स्कूल भेज दे ! लाली को स्कूल भेजने का विचार आते ही रानी को अपना अतीत याद हो आया -
"मैं अपनी कक्षा में पढ़ाई हमेशा प्रथम स्थान पर रहती थी । अपने स्कूल में होने वाले हर खेल में भी हिस्सा लेती थी, इसीलिए तो सब टीचर मुझे इतना प्यार करते थे । लाली भी मेरी तरह ही अपनी कक्षा में प्रथम आया करेगी ! यह है ही इतनी होशियार ! इसलिए स्कूल में सब टीचर इसको मुझसे भी ज्यादा प्यार किया करेंगे ! लेकिन ... !"
अतीत की सुखद यादों और उजले भविष्य के सपनों में खोयी हुई रानी धीरे-धीरे अपने काले अतीत में विचरने लगी कि कैसे एक छोटी-सी भूल के कारण उसने नरकातीत कष्ट भोगे हैं ! अपने नारकीय अतीत का स्मरण होते ही रानी का रोम-रोम काँपने लगा । किसी अज्ञात भय ने उसके ऊपर अपना नियन्त्रण कर लिया और एक मूक स्वर बार-बार उभरने लगा -
मेरी बेटी के साथ मै ऐसा नहीं होने दूँगी ! मैं एक पल के लिए भी उसे अपनी आँखों से दूर नहीं करूँगी ! मैं उसको स्कूल भी नहीं भेजूँगी !"
अगले ही क्षण उसके अंतःकरण से सकारात्मक ऊर्जा का प्रस्फुटन हुआ और पुनः एक मूक स्वर उभरा -
"मुझसे गलती इसलिए हुई थी, क्योंकि मेरी माँ ने कभी मुझे इस काली दुनिया का असली रूप नहीं बताया, सदा उजला रूप ही दिखाया था ! पर जिस साहस के साथ मैं नरक से भी ज्यादा दर्दनाक बड़े-बड़े दुखों के सागर पार करके आज भी जीवित हूँ, वह साहस मुझे मेरी माँ से ही मिला था ! मेरी लाली को भी अपनी माँ से साहस तो जन्मजात मिला ही है, दीन-दुनिया का ज्ञान इसको मैं सिखाऊँगी ! मैं अपनी लाली को दुनिया के उस रूप को भी दिखाऊँगी, जो सामने से दिखाई नहीं देता है !"
अपने इसी वैचारिक दृष्टिकोण को आधार बनाकर रानी ने अपनी बच्ची के ज्ञानवर्धन के लिए एक रणनीतिक योजना बनायी, जिसके अनुसार रानी के अपने जीवन में घटित घटनाओं को न केवल बेटी को सुनाना बल्कि उसको उन घटनाओं का कथ्य कंठस्थ भी कराना प्रथम कार्य और था। बेटी को अक्षर ज्ञान कराना ताकि वह पढ़ना-लिखना सीख सकें, उसकी योजना का द्वितीय कर्तव्य था। अपने वैचारिक पक्ष और रणनीतिक योजना का विश्लेषण करते हुए रानी ने एक बार पुनः सोचा -
"मेरे काले अतीत को सुनकर मेरी लाली के नन्हे-से मन पर कुछ बुरा असर तो नहीं पड़ेगा ?"
रानी के प्रश्न का उत्तर उसके हृदय और मस्तिष्क से एक स्वर आया - "मेरी माँ ने भी यही सोचकर इस दुनिया के उस काले-अंधियारे भाग के बारे में मुझे कभी नहीं बताया होगा, जिसने मेरी जिन्दगी में अंधेरा कर दिया और जिसको मैंने जीवन में भोगा है ! जिस बेटी को कोमल समझकर दुनिया के काले पक्ष को देखने-सुनने से भी दूर रखा गया, वहीं कोमल कमजोर बेटी उस सबको भोगने के लिए मजबूर हो गयी ! पर मैं मेरी बेटी के साथ ऐसा नहीं होने दूँगी ! मैं, मेरी नन्ही सी कली को अपने साथ घटित घटनाओं को कंठस्थ कराके इस दुनिया की वास्तविकता अवश्य बताऊँगी, ताकि वह अपनी कच्ची उम्र में भी समझ सके कि कोमल फूलों को निर्ममता से नोंचने वाले काँटे कहाँ-कहाँ किन-किन रूपों में मिल सकते हैं !"
लाली ने यह देखकर कि उसकी माँ उसकी जिद पर ध्यान न देकर अपनी विचारों की दुनिया में तन्मय है, अपना प्रश्न पुनः दोहराया -
"ये सब स्कूल जाते हैं, तो मैं क्यों नहीं जा सकती ?"
"तू अभी बहुत छोटी है !" रानी ने उसे समझाया, लेकिन लाली इतनी सरलता से समझने वाली नहीं थी ।
क्रमश...