Aadhi duniya ka pura sach - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

आधी दुनिया का पूरा सच - 10

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

10.

कुछ दूर पैदल चलकर रानी मुख्य सड़क पर आ गयी, लेकिन रात अधिक होने के कारण उसे बस या यातायात का अन्य कोई सार्वजनिक साधन नहीं मिल सका। साहस करके उसने स्टेशन तक पैदल चलने का निर्णय लिया और जैसा कि नर्स ने बताया था, स्टेशन की दिशा में पैदल चल दी। पिछले कई दिनों की बीमारी से दुर्बल होने के कारण रानी के शरीर में चलने की शक्ति नहीं थी, लेकिन माई से मुक्ति की आकांक्षा में उसके कदम बढ़ते चले गयै । तीन-चार किलोमीटर की पैदल यात्रा के बाद रेलवे स्टेशन-परिसर में प्रवेश करते ही वह अचेत होकर गिर पड़ी ।

जब रानी की चेतना लौटी, तब उसने स्वयं को अस्पताल में बिस्तर पर पड़ा पाया। पुलिस का एक सिपाही और डॉक्टर उससे पूछताछ करके जानकारी जुटाने का प्रयास कर रहे थे कि इतनी देर रात को स्टेशन-परिसर में अकेली क्या कर रही थी ? कहाँ से आई थी ? और कहाँ जा रही थी ? रानी ने अपना नाम, अपने माता-पिता का नाम तथा अपने मूल निवास स्थान का पता बताते हुए पुलिस तथा डॉक्टर को अपनी अब तक की सारी आप-बीती बता दी। रानी का बयान दर्ज करके पुलिस वापस चली गयी ।

रानी को चार-पाँच दिन तक अस्पताल में भर्ती रखा गया। इसके बाद अस्पताल से डिस्चार्ज करके उसको पुलिस की देखरेख में सौंप दिया गया। रानी के द्वारा अपने घर जाने के लिए निवेदन पर पुलिस इंसपैक्टर ने उसको आश्वासन देते हुए कहा -

"सरकारी प्रक्रिया पूरी होने के बाद शीघ्र ही तुम्हें तुम्हारे घर भेजा जाएगा ! तब तक के लिए तुम्हें सरकार द्वारा आश्रय प्रदान किया जाएगा।" यह कहकर रानी को बालिका-गृह भेज दिया गया।

बालिका-गृह में पहुँचकर रानी ने अनुभव किया कि एक बार फिर वह उसी अनाथाश्रम में आ पहुँची है, जहाँ से निकलने के लिए वह माई के चुंगल में फँसी थी। अंतर केवल यह था कि उस अनाथाश्रम में कम आयु वर्ग के अनाथ बच्चे-बच्चियाँ दोनों थे, जबकि बालिका-गृह में किशोरवयः स्त्री जाति थी, केवल स्त्री जाति।

कहने को तो वह बालिका-गृह बेसहारा बालिकाओं को आश्रय देने का के लिए बना था, परंतु वहाँ पर सहारे की आशा में जाने वाली बालिकाओं को सहारा कम प्रताड़नाऐं ही अधिक मिलती थी, जिन्हें वहाँ पर रहने वाली हर स्त्री अपना दुर्भाग्य समझकर सहन करती थी और अपना भाग्योदय होने की आशा- प्रतीक्षा में तड़पते हुए तिल-तिल करके मरती रहती थी। रानी भी उन्हीं में से एक थी। जब वह वहाँ पहुँची थी, उसी क्षण से ही वह उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगी थी, जब पुलिस सरकारी प्रक्रिया को पूरी करके उसको उसके माता-पिता के पास पहुँचाएगी ।

सरकारी प्रक्रिया से माता-पिता के पास भिजवाने की प्रतीक्षा करते करते रानी को कई माह बीत गए, लेकिन उसको उसके घर भेजने की प्रक्रिया कहाँ तक पहुँची ? रानी को यह बताने वाला वहाँ कोई नहीं था । सरकारी नौकरशाही के ढुलमुल रवैये से निराश होकर रानी ने किसी प्रकार की सरकारी प्रक्रिया के बिना ही वहाँ से निकलने का भी कई बार प्रयास भी किया, किन्तु वार्डन ने उसके मन:मस्तिष्क में यह भय भर दिया कि सरकारी-लिखा-पढ़ी के बिना वहाँ से निकलना एक बड़ा अपराध है और ऐसा करने पर पुलिस द्वारा ढूँढकर उसको जेल में डाल दिया जाएगा ! रानी ने जेल जाने की अपेक्षा प्रतीक्षा करना बेहतर समझा ।

समय का चक्र निरन्तर घूम रहा था। दिन महीनों में और महीने वर्ष में बदलते जा रहे थे, लेकिन रानी की प्रतीक्षा का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं मिला । इसी बीच अचानक एक दिन बालिका-गृह में आश्रिताओं की आशा से अधिक अभूतपूर्व स्वच्छता अभियान आरंभ हो गया। इतना ही नहीं, जिन कमरों में वर्षों से सीलन के कारण दुर्गंध भरी हुई थी ; जगह-जगह से दीवार टूटी हुई थी और प्लास्टर उतरा हुआ था, उन सब का जीर्णोद्धार कराया जाने लगा। परिसर में से बेतरतीब फैली हुई घास को काटकर फूल-पत्तियों के पौधे रोप दिए गये । इन सब कार्यों के लिए नारी-निकेतन की आश्रिताओं से भी पर्याप्त श्रमदान का सहयोग लिया गया।

कई दिनों तक श्रमदान करने के बाद रानी को पता चला था कि कोई राजनेता संस्था का दौरा करने के लिए आ रहे हैं। यह ज्ञात होते ही रानी ने अपने मन में निश्चय कर लिया कि अवश्य ही वह आगंतुक नेता से उसको घर भेजने की गुहार लगाएगी ! रानी को पूर्ण विश्वास था कि वहाँ पर आने वाले नेताजी भेजने की सरकारी प्रक्रिया पूरी कराकर या कराए बिना उसको उसके घर अवश्य भिजवा देंगे ।

शीघ्र ही वह दिन भी आ गया, जब बालिका-गृह में नेताजी का शुभागमन हुआ। नेता जी ने बालिका-गृह के कोने-कोने का निरीक्षण किया, व्यवस्था को देखा परखा और वहाँ के अधिकारियों को व्यवस्था में मिली खामियों के लिए फटकार भी लगायी । तत्पश्चात् नेता जी ने आश्रिताओं से भेंट करके उनकी कुशल-क्षेम पूछी । किन्तु, बहुत प्रयास करने के बावजूद भी नेताजी के साथ रानी की भेंट नहीं हो सकी । नेताजी से उन्हीं महिलाओं की भेंट कराई गई थी, जिनके नाम उस संस्था की प्रबंध समिति द्वारा पूर्व अनुमोदित सूची में सम्मिलित किए गए थे। रानी का नाम उस सूची में सम्मिलित नहीं था, इसलिए उसको नेताजी की परछाई के भी निकट तक नहीं पहुँचने दिया गया। अ्ततः निराश होकर रानी कमरे में जाकर अपने बिस्तर पर लेट गयी ।

रात को दस बजे बालिका-गृह की परिचारिका ने आकर रानी को झिंझोड़ते हुए कहा -

"चल, नेता जी से मिलना चाहती थी न तू ?"

परिचारिका की बात सुनते ही रानी प्रसन्नता से खिल उठी । उसको अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था । अतः उसने आश्चर्य से परिचारिका की ओर देखते हुए कहा -

"नेताजी तो चले गए थे न ?"

"कहीं दूर नहीं गए हैं नेता जी ! पास ही में एक पाँच सितारा होटल है, उसमें रुके हैं ! वार्डन साहब ने कहा है, नेताजी इंतजार कर रहे हैं, इसलिए जल्दी जाना है !"

"वार्डन साहब ने मुझे नेताजी से तब तो नहीं मिलने दिया था ! मैंने उनसे कितनी विनती की थी कि बस आधा मिनट के लिए नेताजी से मुझे मेरी समस्या कहने दें !"

"तुझसे मिलने के लिए खाली बैठे थे नेताजी ? तूने देखा नहीं था, नेताजी कितने बिजी थे !" परिचारिका ने अपना प्रभाव डालते हुए कहा।

परिचारिका का प्रस्ताव सुनकर रानी के मन:मस्तिष्क में कुछ क्षणों तक अनजाने भय-शंका और अपने घर लौटने के लिए नेताजी से सहयता-लोभ के बीच अन्तर्द्वंद्व चलता रहा । बहुत शीघ्र रानी का अन्तर्द्वन्द्व लोभ की विजय के रूप में प्रतिफलित हुआ और वह निर्णयात्मक मुद्रा में नेता जी से मिलने के लिए उठ खड़ी हुई । परिचारिका ने रानी का मार्गदर्शन करने की शैली में कहा -

"इत्ते बड़े नेता जी के पास ऐसे फटे-टूटे भेष में जाएगी ? थोड़े ढंग के कपड़े पहन-ओढ़ ले !" रानी ने दयनीय दृष्टि से परिचारिका की ओर देखा, मानो कह रही हो कि उसके पास इसके अतिरिक्त कोई अच्छे कपड़े नहीं हैं। रानी की मूक दृष्टि का तात्पर्य समझते हुए परिचारिका ने पुन: कहा -

"रुक, मैं लेकर आती हूँ !" यह कहकर परिचारिका कमरे से बाहर निकल गयी । तीन-चार मिनट में वह रानी के लिए नए कपड़े लेकर पुनः लौट आयी और रानी के सामने बिस्तर पर पटकते हुए डाँटकर कहा -

"जल्दी कर !" देर हुई तो नेताजी वार्डेन साहब पर बिगड़ेंगे और वार्डेन साहब मुझ पर चिल्लाएँगे !"

परिचारिका की डाँट सुनकर रानी सहम गयी। उस समय रानी को नये कपड़े देती हुई परिचारिका में माई का प्रतिरूप दिखाई पड़ रहा था और हृदय में भयजनित आशंका बढ़ रही थी। फिर भी, वह कपड़े उठाकर पहनने के लिए बाथरूम की ओर बढ़ गयी ।

बाथरूम में अपने पुराने कपड़े उतारकर नए कपड़े पहनते हुए रानी के कानों में अचानक साँवली के रूदन की चीख सुनाई पड़ी । रानी ने सशंकित होकर इधर-उधर देखा, साँवली की रोती-चीखती मायूस सूरत के अतिरिक्त उसे कहीं कुछ दिखायी नहीं पड़ा और कुछ ही क्षणों में पूरा बाथरूम साँवली की चीख-पुकार से भर गया । बाथरूम की दीवारों से लेकर कपड़ों तक जहाँ भी रानी की दृष्टि पड़ती, वहीं उसको भोली-भाली मासूम साँवली असहाय अवस्था में रोती हुई दिखाई पड़ रही थी ।

भय और आशंका से रोती-सुबकती हुई रानी कपड़े पहनना छोड़कर, अपनी आँखें बंद करके कानों पर हाथ रखकर बैठ गयी और स्वयं को साँवली की यादों से मुक्त करने का प्रयास करने लगी । किन्तु वह अपने प्रयास में नितांत असफल रही। उसकी बंद आँखों में भी निरंतर कभी रोते-चिल्लाते हुए साँवली दिखाई पड़ रही थी, तो कभी अपनी वीभत्स-डरावनी सूरत में माई उसके समक्ष आकर खड़ी हो जाती थी । बाथरूम में रानी का अनुमान से अधिक समय बीत जाने पर परिचारिका ने पुनः: ऊँचे स्वर में कठोरतापूर्वक घुड़कते हुए कहा -

"चलना नहीं है क्या ? नहीं चलना है, तो ना कह दे ! मैं अपने काम से लगूँ !"

परिचारिका की घुड़की सुनकर रानी का माई और सुन्दरी से कुछ ध्यान भंग हुआ। उसने स्वयं को समझाया -

"अपने घर मम्मी-पापा के पास लौटना है, तो नेताजी से सहायता मांगने के लिए उनसे मिलना ही पड़ेगा !" प्राणी मात्र को दुर्बल बनाने वाली लोभवृत्ति ने मासूम रानी को भय-शंका छोड़कर परिचारिका पर विश्वास करने के लिए प्रेरित किया।

"ये लोग नेताजी से मिलाने की जगह मुझे और कहीं ले गये तो ... ?" रानी को सावधान करते हुए अंतःकरण से एक और दूसरा स्वर उभरा।

"जो भी हो, भरोसा तो करना ही पड़ेगा ! इसके अलावा और कोई रास्ता भी तो नहीं है !" लोभवृत्ति ने रानी की विवशता को ढाल बनाकर तर्क का तीर छोड़ा। यह तीर सीधे लक्ष्य पर जाकर लगा और अपने आँसुओं को पोंछकर वह शीघ्रता पूर्वक कपड़े बदल कर परिचारिका के साथ चलने के लिए तैयार हो गयी ।

रानी परिचारिका के साथ कमरे से बाहर निकली, तो वार्डन को वहाँ पर पहले से ही प्रतीक्षा करते पाया। उन दोनों के आते ही वार्डेन चल दिया। परिचारिका और रानी भी चुपचाप उसके साथ चल दीं, जहाँ कमरे से कुछ दूरी पर एक कार खड़ी हुई थी । कार के निकट जाकर परिचारिका और वार्डन, दोनों रुक गये । रानी भी रुक कर उनके किसी निर्देश की प्रतीक्षा करने लगी । तभी वार्डन ने रानी को गाड़ी में बैठने का संकेत करते हुए कहा -

"चल, गाड़ी में बैठ !" हृदय में भय और आशंका लिए हुए रानी कार में बैठ गयी । उसी क्षण उसने देखा कि वार्डेन परिचारिका को वापस जाने का आदेश दे रहा है । यह सोचकर कि उसके साथ परिचारिका नहीं जा रही है, रानी की धड़कनें बढ़ गयी । लेकिन, उसने अपने भय को प्रत्यक्षत: चेहरे पर आने से रोकने का प्रयास किया।

परिचारिका को वापस भेजकर वार्डन उसी गाड़ी में बैठ गया और ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी। कुछ ही मिनट में अपेक्षित दूरी करके कार एक पाँच सितारा होटल के मुख्य द्वार पर जाकर रुक गयी, जहाँ पर नेताजी ठहरे हुए थे। गाड़ी रुकते ही वार्डन शीघ्रतापूर्वक नीचे उतरा और रानी को भी गाड़ी से नीचे उतर आने का संकेत किया। रानी गाड़ी से नीचे उतरी, तो वार्डन ने रानी को अपने पीछे आने का संकेत किया और आगे बढ़ चला।

क्रमश..

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