आधी दुनिया का पूरा सच - 11 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आधी दुनिया का पूरा सच - 11

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

11.

रानी आशंकित और भयभीत तो पहले से ही थी, पाँच सितारा होटल के ऊँचे शानदार भवन को देखकर उसके कदम ठिठककर वहीं रुक गये । वह आगे नहीं बढ़ सकी। उसके अंत: से अब एक ही मूक स्वर बार-बार उठ रहा था -

"अनाथ आश्रम और माई की झुग्गी में से निकलना ही मेरे लिए बहुत दुष्कर था, यहाँ फँस गयी, तो इस शीशमहल से निकलना कितना कठिन होगा ! यहाँ से निकलना तो असंभव हो जाएगा !"

रानी के कदम ठिठकते देखकर वार्डन ने डाँटते हुए कहा -

"जल्दी-जल्दी कदम उठाओ, नेताजी बाट जोह रहे होंगे !" वार्डेन की डाँट सुनकर रानी के रुके हुए कदम पुन: यंत्रवत उठने लगे। वार्डन ने रानी को साथ लेकर सेंसर लगे हुए काँच के दरवाजे से होटल के अंदर प्रवेश किया, तो किसी व्यक्ति के खोले बिना स्वयं दरवाजा खुलता और बन्द होता देखकर रानी और अधिक सशंकित और भयभीत हो गयी। उसको अनुभव हो रहा था कि वह किसी तिलस्मी में गुफा में आ गयी है, जहाँ से अब वह कभी बाहर नहीं निकल सकेगी। भय से उसके पैर काँपने लगे और वह लड़खड़ा कर वहीं गिर पड़ी। वार्डन ने रुककर रानी को उठाया और नम्रतापूर्वक कहा -

"आराम से संभलकर चल ! तुझे चोट आयी, तो नेताजी को अच्छा नहीं लगेगा ! नेता जी मुझ पर बिगडेंगे !"

रानी उठकर पुनः वार्डन के पीछे-पीछे चल दी । दस कदम चलकर वार्डन रुक गया और लिफ्ट का बटन दबाकर लिफ्ट आने की प्रतीक्षा करने लगा । रानी भी कुछ जाने-समझे बिना यंत्रवत् खड़ी हो गयी। लिफ्ट नामक यंत्र के विषय में नितांत अनभिज्ञ रानी ने जब वार्डन के आदेश से अपने जीवन में प्रथमतया लिफ्ट में प्रवेश किया, तो उसका सिर घूम गया और वह चेतना शून्य हो गयी । वार्ड ने उसे सहारा देकर सम्हाला । जब उसकी चेतना लौटी, तब उसने स्वयं को लिफ्ट से बाहर पाया। रानी ने देखा कि वार्डन की बाँहें उसको सहारा दे रही थीं और वह स्वयं तनाव के समुद्र में गोते लगा रहा था। वार्डन ने रानी से पूछा -

"तेरी तबीयत ठीक है ?"

वार्डन के विनम्र व्यवहार ने रानी के हृदय में आंशिक विश्वास बना दिया था। अतः वह अब उसके प्रति कुछ आश्वस्त हो रही थी। उसने उत्तर दिया-

"हाँ ! मैं पहली बार ऐसी किसी जगह आयी हूँ ! और पहली बार इसमें चढी थी, इसलिए सिर चकरा गया था ! अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ !"

रानी का सकारात्मक उत्तर पाकर वार्डन आगे बढ़ा । कुछ कदम आगे बढ़कर उसने एक कमरे की डोर-बेल बजायी, तो तुरंत दरवाजा खुल गया। ऐसा प्रतीत होता था कि पहले से ही वार्डन की प्रतीक्षा हो रही थी। वार्डन के पीछे रानी खड़ी थी । दरवाजा खोलने वाले व्यक्ति से मुखातिब होकर वार्डन ने रानी की ओर संकेत करके कहा -

"सर जी, ले आया !"

"ठीक है ! लड़की को अंदर भेज दो ! तुम जा सकते हो !" अंदर से आवाज आयी।

"नेता जी का आदेश नहीं सुना ? अंदर जा !" वार्डन ने रानी को आदेशात्मक स्वर में कहा।

"आओ अंदर ! घबराओ नहीं !" पुनः अंदर से नेता जी का मधुर स्वर उभरा ।

रानी ने अंदर झाँककर देखा, जहाँ नेताजी थे। नेताजी की उपस्थिति पाकर वह आश्वस्त हो गयी कि जिसके साथ मात्र क्षण-भर की भेंट के लिए वह दिन-भर निकेतन के छोटे-बड़े अधिकारियों से प्रार्थना करती थी, अब वह उसके समक्ष अपनी सारी समस्या कह सकेगी।

नेताजी को अपने सामने खड़ा पाकर रानी को अपने भाग्य पर कुछ भरोसा हुआ और अपने मन में थोड़ा-सा विश्वास धारण करके उसने कमरे के अंदर प्रवेश किया। रानी ने देखा, नेताजी के चेहरे पर प्रसन्नता की चमक और आँखों में तृप्ति का भाव था, जिसका निहितार्थ समझ पाना मासूम रानी की सामर्थ्य से परे था ।

नेता जी ने रानी को सोफे पर बैठने का संकेत किया और नौकर को उसके लिए पानी लाने का आदेश दिया । नेता जी लगातार उसके साथ बात कर रहे थे, इससे उसका भय धीरे-धीरे दूर हो रहा था । कुछ ही क्षणों में नेताजी के मृदु व्यवहार का अवलम्ब पाकर रानी के हृदय में आशा का संचार होने लगा था और विश्वास को थोड़ा संबल मिल गया था । तब तक नौकर ने पानी लाकर सम्मान से रानी की ओर बढ़ा दिया था । पानी पीकर रानी अपनी प्राकृतावस्था में आ गयी और नेताजी को अपनी सारी आप-बीती सुनाते हुए उसने हाथ जोड़कर रुंधे गले से प्रार्थना की -

"सर जी, मुझे मम्मी-पापा के पास भिजवा दीजिए !" नेताजी अपने स्थान से उठकर रानी के निकट आये । उसकी आँखों से बहते आँसुओं को अपनी अंगुली के पोर से पोंछकर उसके माता-पिता के पास भिजवाने का वचन देते हुए अपने सीने से लगाकर प्रेम से उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। नेताजी के सीने से लगकर अपने सिर तथा पीठ पर नेता जी के स्पर्श को रानी अपने पिता के स्पर्श का-सा अनुभव कर रही थी । नेताजी के मृदु व्यवहार और सरस मधुर वाणी में मम्मी-पापा के पास भिजवाने का वचन पाकर रानी को पूर्ण विश्वास हो गया था कि उसके जीवन की अमावस्या अब बीत चुकी है।

कुछ क्षणोपरांत नेताजी ने रानी को अपने सीने से हटाया और अंदर कमरे में बिस्तर पर लिटाते हुए बड़े प्रेम से पुन: आश्वस्त करते हुए कहा -

"कल हम तुम्हें तुम्हारे मम्मी-पापा के पास भिजवा देंगे ! तुमने हमें बता दिया, अब तुम निश्चिंत हो जाओ ! यह जिम्मा अब हमारा है !"

"जी, सर जी !" रानी ने स्वीकृति में विश्वास के साथ गर्दन हिलाकर उत्तर दिया। रानी के हृदय में अब नेताजी के प्रति श्रद्धा का सागर उमड़ रहा था, जिसकी लहरों का ज्वार बीते ढाई वर्ष की स्मृतियों के किनारे से टकराकर आँखों के रास्ते से आँसुओं के रूप में बाहर दिखाई पड़ रहा था।

नेताजी के प्रति अपनी श्रद्धा को रानी आँसुओं में नहीं बहाना चाहती थी, इसलिए उसने अपनी आँखें बंद कर ली। वह अतीत की स्नेहमयी मधुर समृतियों में डूबकर क्षण-भर में अपने मम्मी-पापा के पास पहुँच जाना चाहती थी । उसी क्षण उसके कानों में नेता जी का मधुर स्वर सुनाई पड़ा -

"रानी !" अपनी मम्मी-पापा के साथ कल्पना-लोक की सैर करती हुई रानी को अपना नाम पुकारे जाने पर एक क्षण के लिए ऐसा अनुभव हुआ कि उसके पिता उसको अपने पास बुला रहे हैं। क्योंकि 'रानी' नाम से उसको केवल उसका परिवार और उसका मित्र समाज पुकारता था। शेष सभी बाहर के लोग उसे रेणू नाम से जानते थे।

रानी ने अपने कानों में 'रानी' शब्द पड़ते ही बहुत उल्लास से दृष्टि उठाकर उधर देखा, जहाँ से अभी-अभी मधुर ध्वनि में उसका नाम गूँजा था । लेकिन, उसकी दृष्टि जिस तीव्रता से उठी थी, उसके हजारों गुना तीव्रता से पलकें नीचे झुक गयी, क्योंकि उसकी आँखों के समक्ष जो दृश्य उपस्थित था, उसके विषय में रानी ने आज से पहले न तो कभी देखा-सुना था और न ही कभी सोचा था । वह मात्र इतना देख पायी थी कि उसके पिता की आयु वाले नेताजी उसके सामने निर्वस्त्र खड़े हैं ! उस अनपेक्षित-अप्रत्याशित दृश्य को देखकर रानी थर-थर काँपने लगी। उसके कंठ से रुलाई फूट पड़ी और उसके मुँह से चीख निकलने वाली थी, इससे पहले ही नेता जी अपने हाथ से उसका मुँह बंद करके बोले -

"पागल हो गयी है छोकरी ? और तू रो क्यों रही है ? आज रात मेरे साथ मजे कर, ऐसी नशीली रात फिर कभी मिले न मिले !"

नेताजी उसके साथ क्या करना चाहते थे ? इसका सम्यक अनुमान करने में वह सक्षम नहीं थी, किन्तु उसको इतना आभास हो चुका था कि नेता जी की नीयत ठीक नहीं है और वह किसी विकट विपत्ति में फँस चुकी है । उसको अहसास हो रहा था कि अब तक उसके साथ जो कुछ अनुचित हुआ है, अब उससे बहुत अधिक अनुचित होने वाला है ! किसी बड़े संकट का अनुमान करके रानी ने नेता जी का विरोध किया । उसने अपने मुँह पर रखा नेता जी का हाथ हटाने के लिए अपनी सामर्थ्य-भर प्रयास किया। नेता जी ने रानी से ऐसे विरोध की आशा नहीं की थी । रानी द्वारा विरोध किये जाने से अपमानित नेता जी का पारा चढ़कर सातवें आसमान पर पहुँच गया । अपमान और आक्रोश के कारण आत्मनियंत्रण खो चुके नेता जी रानी पर चीखे -

"तुच्छ लड़की !"

नेता जी ने चीखते हुए रानी के मुँह पर तड़ातड़ कई थप्पड़ जड़ दिए और उसके कोमल तन को ढकने वाले वस्त्रों से अपनी शक्ति को तोलने लगे । दूसरी ओर, रानी ने भी नेता जी का अपनी सामर्थ्य-भर विरोध किया । रानी ने स्टूल पर रखा पानी से भरा हुआ जग उठाकर नेता जी के सिर पर दे मारा । एक स्टूल पर शराब की बोतल रखीं थीं, अपने बचाव में रानी उसको उठाकर नेता जी के ऊपर फेंकने वाली थी, लेकिन उसके हाथ से छूटकर बोतल नेता जी के बजाय दीवार से टकरायी और नीचे गिरकर टूट गयी । बोतल के टूटने के स्वर के साथ ही नेता जी के ठहाके का स्वर भी गूँजा -

"हा-हा-हा-हा ! बड़ी मजेदार है छोकरी तू ! हमारे पास शराब की कमी नहीं है । अभी तक कमी थी शराब के साथ चटपटी नमकीन की, वार्डन के सहयोग से अब उसकी भी कमी नहीं है !"

कहते हुए नेता जी ने अलमारी से अंग्रेजी शराब की एक बोतल निकाली और ढक्कन खोलकर स्टूल पर रखे गिलास में उड़ेलने लगे । रानी एक कोने में दीवार से सटकर खड़ी हुई हाँफ रही थी और आने वाले अगले क्षण में होने वाली किसी भी क्रिया-प्रतिक्रिया का अनुमान लगाने में असमर्थ नेताजी की हर हरकत को ध्यान से देख रही थी ।

नेता जी ने दो गिलासों में शराब डाली । एक गिलास उठाकर जल्दी-जल्दी उसकी मदिरा गटकने के पश्चात् दूसरा गिलास उठाया और नशे में झूमते हुए रानी की ओर बढ़े -

"ले, चखके देख, तुझे भी जीने का मज़ा आएगा !"

रानी ने कोई उत्तर नहीं दिया । अपनी ओर आते हुए नेता जी को घूरती रही । उसको समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे ? वह सोच रही थी कि अब क्या करे ? तभी नेता जी ने आगे बढ़कर रानी के मुँह से शराब का गिलास लगा दिया । रानी के विरोध करने पर नेता जी ने उसकी ठुड्डी के नीचे अपनी हथेली लगाकर अंगूठे और उंगलियों से उसका जबड़ा खोलकर बलपूर्वक मुँह में शराब उडेल दी और रानी को उसे गटकने के लिए विवश कर दिया । पहला घूँट गटकने के बाद भी नेता जी ने उसका मुँह नहीं छोड़ा और एक-एक घूँट करके शराब का पूरा गिलास बलात् रानी के उदर में उतार दिया । अपनी वासना की ज्वाला शान्त करने के लिए ग्यारह-बारह वर्षीय रानी के साथ संघर्ष करते-करते नेताजी का क्रोध शान्त हो चुका था । नेता जी को अब रानी के साथ इस खेल में मज़ा आ रहा था ।

इधर अपनी रक्षा हेतु नेता जी का विरोध करते हुए रानी के पैर में शराब की टूटी बोतल का एक टुकड़ा चुभ गया, जिससे दर्द से चीख के साथ रक्त की धार बहने लगी । अपने पैर से निकलती रक्त-धार को देखते ही रानी के मस्तिष्क में विचार कौंधा कि टूटी हुई काँच की बोतल को हथियार बनाकर वह अपनी रक्षा कर सकती है । उसने रोते-रोते दौड़कर बोतल का ऊपरी हिस्सा उठा लिया और विजय की आशा में एक बार पुनः मोर्चे पर डट गयी और तब तक नेता जी का विरोध करते हुए स्वयं की रक्षा में जुटी रही, जब तक उसके शरीर में थोड़ी-सी भी शक्ति शेष रही । जब उसके शरीर में विरोध करने की शक्ति शेष नहीं बची, तब भी वह रोती-चीखती रही । लेकिन, उसका रोना-चीखना सुनकर वहाँ कोई उसके आँसू पोंछने वाला नहीं था ।

उस रात रानी ने माई की झुग्गी में साँवली के रोने का कारण समझा था । उस रात उसके साथ क्या हुआ ? इसका वर्णन करना स्वयं उसके लिए भी कभी सहज नहीं रहा, अन्य किसी के लिए तो यह संवेदनहीनता की सीमा को लाँघने जैसा होगा ।

अपनी दैहिक-मानसिक पीड़ा से त्रस्त रानी रोते-बिलखते थककर कब सोई उसे स्वयं पता नहीं चला। प्रातः उसकी आँखें तब खुली, जब कमरे में खिड़की से सूर्यदेव झाँक रहे थे । उसने देखा, अब वह कमरे में अकेली है । वह बिस्तर पर वस्त्र-विहीन पड़ी है और उसके कपड़े बिस्तर के निकट फर्श पर अस्त-व्यस्त पड़े हैं । उसका पूरा शरीर टूटन का अनुभव कर रहा था । एक-एक मांसपेशी में असह्य पीड़ा हो रही थी । वह अर्द्धविक्षिप्त-सी धीरे-धीरे उठी और बिस्तर के निकट पड़े वस्त्र उठाकर अपने शरीर पर ढाँपते हुए बिलख-बिलख कर रोने लगी। उसको पिछली रात से लेकर उस दिन तक की सारी घटनाएँ सिलसिलेवार याद आने लगी, जब वह पड़ोसी अंकल से माँ को चोट लगने की सूचना पाकर उनके प्रस्ताव पर उनकी गाड़ी में बैठी थी । इस.समय वह जितनी दैहिक पीड़ा भोग रही थी, उससे अधिक उसको मानसिक कष्ट हो रहा था। अपने विश्वास पर एक बार फिर पिछली रात को लगी चोट से वह कराह उठी -

"इतना धोखा ! धोखा ही धोखा ! हर बात में धोखा ! हर जगह धोखा !"

उसी समय रानी को कमरे में किसी के प्रवेश करने की पदचाप सुनाई पड़ी । किसी के आने की आहट पाकर भी अब रानी के मन में न कोई भय था, न कोई आशा न उत्साह ! फिर भी उसे आभास था कि जिस कमरे में वह उपस्थित है, उस कमरे में किसी के आने-जाने का कुछ-न-कुछ प्रभाव उस पर अवश्य पड़ेगा !

क्रमश..