आधी दुनिया का पूरा सच - 5 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

आधी दुनिया का पूरा सच - 5

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

5.

तीन दिन तक रानी उसी आश्रम में रही । इन तीन दिनों में वह अपने घर जाने के लिए प्रार्थना करती रही, लेकिन वहाँ जाना जितना सरल था, निकलना उतना ही कठिन था । रानी ने अपनी प्रार्थना वहाँ की परिचारिका से लेकर वार्डेन और बडे अधिकारियों तक पहुँचायी, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। अधिकारियों की अनुमति के बिना उसका वहाँ से निकल पाना संभव नहीं था और वहाँ से अकेले जाने की अनुमति देने के लिए कोई अधिकारी तैयार नहीं था ।

चौथे दिन दोपहर के समय रानी ने देखा, एक वृद्धासन्न महिला वहाँ पर उपस्थित अधिकारी के समक्ष कह रही थी -

"साहब, दो सप्ताह पहले मेरी दस वर्षीय बेटी घर छोड़कर चली गई थी ! आज अभी मैंने अखबार में उसकी फोटो देखी, जिसमें लिखा था कि वह आपके अनाथ आश्रम में है ! मुझे मेरी बेटी दे दीजिए साहब, मैं जिंदगी-भर आपका एहसान मानूँगी !"

रानी के वहाँ पहुँचने पर अधिकारी ने संकेत से महिला को बताया - "यह लड़की है । तीन दिन पहले ही हमारे आश्रम में आई है ।"

अभी तक रानी को आशा थी कि अनाथ आश्रम की सहायता से वह अपने घर जा सकती है । लेकिन, उस महिला और अधिकारी के बीच चल रहे वार्तालाप को सुनकर न केवल उसकी आशा टूटने लगी थी, बल्कि किसी अनहोनी की आशंका भी सताने लगी थी । चूँकि पिछले तीन दिनों में वह देख चुकी थी कि कई बच्चों को उनकी इच्छा के विरुद्ध ऐसे लोगों को दिया जा चुका था, जिनसे वे बच्चे बिल्कुल अपरिचित थे । कहने को तो उन्हें गोद दिया गया था, किंतु रानी ने स्वयं अपनी आँखों से उस अधिकारी को उन लोगों से नोटों की गड्डियाँ लेते हुए देखा था और अनुमान लगाया था कि कुछ न कुछ अनुचित हो रहा है !

आश्रम के अधिकारी द्वारा उसके ऑफिस में बुलवा कर उसकी ओर संकेत करके आगंतुक महिला से बात करना उसको आशंकित कर रहा था । उसको अनुभूति होने लगी थी कि उसके लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं है। अतः उसने उल्टे पाँव भागने का प्रयास किया । किन्तु, जो परिचारिका रानी को वहाँ लेकर आयी थी, उसने तत्काल उस पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली। दूसरी ओर, आगंतुक महिला ने "अरी, मेरी बच्ची !" कहते हुए दौड़कर रानी को अपनी बाँहों में भर लिया । ऐसा करते हुए उस महिला की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी और होठों से उस अधिकारी के लिए माघ की बरसात की भाँति आशीष झड़ने लगे । उस एक क्षण को रानी कुछ समझ नहीं पायी थी, फिर भी, क्षण के हजारवें में भाग में वह महिला के भुजपाश से मुक्त हो जाना चाहती थी । लेकिन, उस बाहुपाश से वह निकलने का जितना प्रयास कर रही थी, महिला का बाहुपाश उसको अपने बंधन में उतनी ही अधिक कठोरता से जकड़ता जाता था ।

तीन-चार मिनट के बाद महिला ने रानी के शरीर पर से अपनी बाहों के घेरे का बंधन ढीला करते हुए कहा -

"साहब, यही है मेरी बेटी ! पिछले दो हफ्ते से खाना भी नहीं खा सकी मैं अपनी बेटी की फिकर में ! पल-पल यही चिंता सताती रही, मेरी बेटी कहाँ होगी ? कैसी होगी ? अब बेटी को अपनी आँखों से देखकर, सीने से लगाकर, कलेजे को शांति पड़ी है !" महिला की बाहों से छूटकर रानी ने चैन की साँस ली और अधिकारी की मेज पर रखे समाचार पत्र में छपी हुई अपनी फोटो के साथ लिखे शब्दों को पढ़ने का प्रयास करने लगी । समाचार पत्र में लिखा था -

"गुमशुदा बच्ची के अभिभावक बच्ची को पहचान कर संपर्क करें !"

उसी समय उसके कानों में अधिकारी का स्वर सुनाई दिया -

"हमें बहुत खुशी है, आपको अपनी बेटी मिल गयी और इस बच्ची को भी अपनी माँ मिल गयी ! आप दोनों को बहुत-बहुत बधाई ! थोड़ी-सी पेपर-फॉरमल्टी पूरी करके आप अपनी बेटी को अपने घर ले जा सकती है !"

"ठीक है साहब !" आगंतुक महिला ने अधिकारी को धन्यवाद करने की मुद्रा में कहा । रानी अब तक महिला और अधिकारी के बीच होने वाले वार्ता-व्यापार से समझ चुकी थी कि महिला उसको गोद लेने के लिए नहीं आयी है, बल्कि उसकी असली माँ बन कर आयी है । उसके झूठ को उजागर करने के लिए रानी ने उसी क्षण अधिकारी से कहा -

"सर जी ! यह मेरी मम्मी नहीं है ! मेरी मम्मी बहुत अच्छी है ! वह इसकी तरह झूठ नहीं बोलती है !"

"साहब, मेरी बच्ची बहुत गुस्सैल है ! मेरे जरा से डाँटने पर नाराज होकर घर छोड़ आयी और यह अभी नाराज है ! घर चली जाएगी, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा !" महिला ने फिर एक नया झूठ बोला।

"सर जी, क्या मैं मेरी मम्मी को नहीं पहचानूँगी ? मैं मेरी मम्मी से कभी नाराज नहीं होती हूँ, और न हीं मैंने गुस्से में कभी अपना घर छोड़ा था । सर जी, हमारे पड़ोसी अंकल मेरी मम्मी को चोट लगने की बात कहकर मुझे स्कूल के बाहर से लाए थे !" रानी ने आत्मविश्वास के साथ अधिकारी से कहा । उसके कथन पर अधिकारी को विश्वास भी हो गया था । अतः अधिकारी ने महिला से कहा -

"मैडम, बच्ची के कहे अनुसार आप इसकी माँ नहीं हैं, इसलिए हम इस बच्ची को आपके साथ नहीं भेज सकते हैं !"

अधिकारी का आदेश सुनकर महिला कुछ समय तक उस अधिकारी को अपने शब्द-जाल में फँसाने का प्रयास करती रही । अंत में बच्ची की माँ होने के प्रमाण लेकर आने के लिए कह कर अनाथ आश्रम से वापिस चली चली गयी । उस महिला के जाने के कुछ समय पश्चात आश्रम के अधिकारी भी वहाँ से प्रस्थान कर गये ।

इन चार दिनों में आश्रम में रहते हुए रानी वहाँ की व्यवस्था-अव्यवस्था से परिचित हो चुकी थी । आश्रम में अनेक बच्चों के साथ उसकी घनिष्ट मित्रता भी हो चुकी थी, जो आश्रम के अपने कटु अनुभवों को उसके साथ साझा करते थे । उन्हीं में से एक बच्ची मिंटो थी ।

उसी दिन शाम के लगभग पाँच बजे रानी आश्रम के पाँच-छः बच्चों के साथ कमरे में बैठी हुई थी । अचानक बगल के दूसरे कमरे से किसी बच्चे के रोने-चीखने का स्वर सुनाई पड़ा। साथ ही बच्चे के शरीर पर निरन्तर छड़ी और थप्पड़ पड़ने की आवाज भी आ रही थी । रानी आवाज सुनते ही रोने-चीखने के स्वर की दिशा में दौड़ी, लेकिन कमरे में उसके साथ उपस्थित बच्चों ने उसको रोक लिया और उसका हाथ खींचते हुए उसको अपने साथ लेकर कोने में बिछे एक तख्त के नीचे छिप गये । उन बच्चों के साथ तख्त के नीचे छिपने का उपक्रम करते हुए रानी ने उनसे पूछा -

"यह कौन रो रहा है ? किसकी पिटाई हो रही है ?"

"मिंटो की !" उनमें से एक बच्चे ने उत्तर दिया।

"हम सब मिलकर उसको बचाने के लिए चलें ?"

"श-श-श-श-श-श !" बच्चों ने होठों पर उंगली रखते हुए अत्यंत धीमें स्वर में कहा - "फिर हम सबको भी आंटी ऐसे ही मारेगी !"

"मिन्टों कल यहाँ से भागने की बात कह रही थी ! आंटी ने सुन लिया होगा !" एक दूसरे बच्चे ने रानी के कान में फुसफुसाया।

"या बंटी ने बता दिया होगा, वह आंटी का चमचा है न ! चुपके से सबकी बात सुनता फिरता है और फिर आंटी के कान भरता रहता है !" तीसरे बच्चे ने धीरे से कहा। तभी बच्चों को अपनी ओर आती पदचाप का स्वर सुनाई पड़ा । सभी कमरे में किसी के प्रवेश करने का अनुमान करके अपने कान-आँख और मुँह बंद करके शुतुरमुर्ग की भाँति निष्क्रिय होकर दीवार से चिपककर बैठ गये। इसी प्रकार निष्क्रिय अधलेटी अवस्था में बैठे हुए उन्हें कब नींद आ गयी और कब मिन्टो का पिटना और रोना बंद हुआ ? उनमें से किसी को ज्ञात नहीं रहा ।

जब उनकी नींद टूटी, तब तक रात ने घने अंधेरे की चादर ओढ़ ली थी। आश्रम में उपस्थित लगभग सभी प्राणी नींद के आगोश में सो चुके थे । पाँचों बच्चों को तेज भूख लगी थी, लेकिन तब तक आश्रम में भोजन मिलने का समय समाप्त हो चुका था । वार्डन या परिचारिका से इतनी रात को भोजन के लिए प्रार्थना करने का अर्थ था मार खाना। अतः पाँचों बच्चे भूखे ही पेट पकड़कर सोने का प्रयास करने लगे। वे सभी बच्चे भूखों-पेट सोने के साथ-साथ मार खाने की भी आदी थे, लेकिन आज उनमें से कोई भी पिटने को तैयार नहीं था । वैसे भी वे जानते थे कि इतनी रात को भोजन तो मिलेगा ही नहीं, फिर मार खाने से बेहतर है चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहें ।

क्रमश..