आधी दुनिया का पूरा सच
(उपन्यास)
27.
बातें करते-करते टिकट-घर पर पहुँचकर चन्दू और नन्दू रानी से बोले -
"अब तू यहाँ आराम कर ! सवेरे हम लोग आकर तेरी चाय की दुकान शुरू करवा देंगे !"
रानी ने उनकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया । रानी की ओर से किसी प्रकार की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में कुछ क्षणों तक वहाँ खड़े रहने के पश्चात् चन्दू और नन्दू चले गये ।
रानी की दृष्टि अपने आस-पास से गुजरते हुए लोगों की भीड़ पर टिकी थी, किन्तु वह समय भाव-शुन्य पत्थर की मूर्ति बनी हुई थी । इस हाल में मौसी के बिना कैसे जी पाएगी ? रानी को इस समस्या का कोई समाधान नहीं सूझ रहा था । ऐसा लग रहा था कि मौसी ने विषम परिस्थिति में जीवन जीने का जो संस्कार उसमें अंकुरित किया था, पुष्पित-पल्लवित होने से पहले ही मौसी के जाने के बाद वह संस्कार भी उन्हीं के साथ चला गया है । मौसी के सिखाये हुए अनेक व्यवहारों और सहायता करने की उनकी प्रकृति के विषय में सोचते-सोचते रानी के हृदय में एक हूक-सी उठी और वह निःशक्त होकर पंख कटे पक्षी की भाँति धड़ाम से वहीं धरती पर बैठ गयी ।
अगले दिन प्रातः निर्धारित समय से पहले ही चन्दू-नन्दू दोनों आ गये । उनके हाथों में चाय की दुकान आरम्भ करने के लिए कुछ आवश्यक सामान था । चन्दू ने आगे बढ़कर सहारा देकर रानी को खड़ा किया और तीनों मौसी की दुकान पर आ गये । चन्दू-नन्दू की सहायता से रानी ने अंगीठी सुलगाकर दुकान का शुभारम्भ किया। रानी की सहायता करने के लिए एक छोटे लड़के का भी प्रबन्ध नन्दू ने कर दिया था । इस प्रकार रानी की दुकान चल पड़ी ।
रानी की दुर्बल अवस्था को ध्यान में रखते हुए प्रतिदिन सुबह नंदू या चंदू ही उसको दुकान पर छोड़ते और शाम को वापस टिकट-घर पर छोड़ते थे । प्राय: दुकान चलाने के लिए आवश्यक सामान प्रायः चन्दू या नन्दू ही लाकर दे देता था । इस प्रकार रानी का जीवन चाय की दुकान और रेलवे जंक्शन के बीच पटरी पर दौड़ने लगा ।
काश रानी का जीवन ऐसे ही चलता रहता ! आठ- दस दिन के अन्दर ही तब उसके जीवन की रेल पटरी से नीचे आ गयी, जब रेलवे के एक गार्ड ने वहाँ सोने के बदले रानी से पैसे की की माँग कर डाली । अन्यथा की स्थिति में उसे वहाँ से क्रूरतापूर्वक धक्का देकर बाहर कर दिया गया ।
रात का समय था । चन्दू-नन्दू भी उस समय आस-पास नहीं थे, जिनसे वह किसी प्रकार की सहायता या सुरक्षा की आशा कर सकती थी । अतः विवश होकर भय से काँपती हुई रानी ने रेलवे परिसर के बाहर फुटपाथ पर लेटकर रात बितायी। सुबह चन्दू-नन्दू आये, तो टिकट-घर में रानी को नहीं पाकर चिन्तित हो गये । वहाँ पर उपस्थित लोगों से उसके बारे में पूछताछ की, तो रात की घटना के विषय में मिली आंशिक जानकारी के आधार पर रानी को ढूँढने के लिए निकल पड़े। कुछ ही समय के परिश्रम से वे दोनों रानी को ढूँढने में सफल हो गये । रानी से रात की घटना का सारा वृत्तांत सुनकर चन्दू-नन्दू को एक ओर रेलवे परिसर के गार्ड पर गुस्सा आ रहा था, तो साथ ही रानी की चिन्ता और उसको किसी सुरक्षित स्थान पर रखने की चुनौती भी उनके समक्ष सिर उठाए खड़ी थी। कुछ समय तक तीनों फुटपाथ पर बैठे चिन्ता के सागर में डूबते-उतराते रहे, लेकिन कोई उपाय नहीं सूझा। तभी एकाएक नन्दू ने उछलकर कहा -
"यार हम इतने परेशान क्यों हो रहे हैं ? यह प्लेटफार्म पर हमारे साथ रह सकती है न !"
"हाँ क्यूँ नहीं ! प्लेटफार्म तो तेरे बाप की जायदाद है, जहाँ मखमली बिस्तर इस की बाट जोह रहा है ! अबे, जिस गार्ड ने इसे टिकट-घर से बाहर निकाल दिया, वह प्लेटफार्म पर रहने देगा इसे !" चन्दू ने नन्दू के प्रस्ताव का विरोध करते हुए तर्क दिया। नन्दू ने भी उसका तर्क सहज स्वीकार कर लिया। कुछ क्षणोंपरान्त एक बार पुनः नन्दू ने अपनी चिन्तन-शक्ति का परिचय देते हुए विचार प्रस्तुत किया -
"जीटी रोड पर फ्लाईओवर के नीचे मैंने देखा है, वहाँ पर रात को कई लोग सोते हैं ! यह भी वहाँ रह सकती ! सिर पर छत भी हो जाएगी और इसकी अंगीठी भी वहीं रख जाएगी !"
"हाँ, वहाँ ठीक रहेगी ! पर वहाँ हमसे दूर हो जाएगी !"
"मैंने तो प्लेटफार्म का नाम भी लिया था ! ... फ्लाईओवर भी सौ-दो सौ मील दूर नहीं है, जहाँ जाकर हम सहायता नहीं कर सकते।" नन्दू ने अपनी सूझ-बूझ पर गर्वित होकर कहा । चन्दू ने मुस्कुराते हुए रानी से कहा -
"तू बता, तेरा क्या कहना है !" रानी ने कुछ नहीं कहा। केवल अपनी भाव-भंगिमा से सहमति व्यक्त कर दी।
"भाई नन्दू ! तुझे नाराज करना ठीक नहीं है, इसलिए तेरी ही बात मान लेते हैं ! चल, अंगीठी और सारा सामान उठा ले ! चलते हैं !"
अपने प्रस्ताव को स्वीकृति मिलते ही नन्दू ने प्रसन्नतापूर्वक अंगीठी उठा ली। चन्दू ने चाय के बर्तन तथा अन्य सामान से भरा हुआ थैला उठा लिया और जीटी रोड की ओर चल दिये ।
रानी चन्दू-नन्दू के समान तेज गति से चलने में समर्थ नहीं थी, इसलिए वह धीरे-धीरे चल रही थी। उसकी दयनीय दशा से द्रवित होकर चन्दू ने एक रिक्शेवाले को पुकारा और रानी को उसमे बैठा दिया। लगभग दस मिनट में वे तीनों जीटी रोड पर बने फ्लाईओवर के नीचे अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच गये । एक घंटे के अन्दर चन्दू और नन्दू ने रानी के निवास के लिए प्रासाद स्थापित कर दिया, जहाँ पर उसके सोने की व्यवस्था से लेकर खाने-पीने और चाय की दुकान चलाने की सुविधा थी। अब रानी को रात में सोने के लिए कहीं दूसरी जगह जाने की आवश्यकता नहीं थी।
रानी की दुकान आरम्भ हो गयी, लेकिन वहाँ पर चाय और भोजन के लिए पूरे दिन में कोई भूला-भटका इक्का-दुक्का ग्राहक ही आता था। चन्दू और नन्दू प्रतिदिन शाम को एक बार उसकी कुशल-क्षेम पूछने के बहाने आकर जरूरत-भर का सामान रख जाते थे। यद्यपि चन्दू और नन्दू दोनों ही रानी का पूरा ध्यान रखते थे, यथावश्यक उसकी सहायता करते थे और उसके प्रति पर्याप्त संवेदनशील थे, तथापि रानी को उठते-बैठते हुए कराहते देखकर दोनों उसका उपहास करते थे । कई बार ठहाके के साथ हँसते थे । तब रानी उन दोनों पर गालियों के बाण बरसाकर स्वयं के सशक्त होने के अपने मिथ्या भ्रम को पोषित करके प्रसन्न होती थी। रानी के जीवन में मनोरंजन का यही एक सुलभ साधन था।
जहाँ एक ओर बारह वर्षीय रानी को प्रसव संबंधी किसी प्रकार का ज्ञान और अनुभव नहीं था, वहीं दूसरी ओर उसकी देखरेख करने या किसी प्रकार का दिशा-निर्देश देने के लिए उसको किसी अनुभवी स्त्री का सान्निध्य भी उसको प्राप्त नहीं था । मौसी कुछ दिन तक रानी की देखरेख करते हुए उसको वह सब दिशा-निर्देश देती रही थी, जिसकी एक गर्भवती स्त्री को आवश्यकता होती है । किन्तु, अब मौसी की मृत्यु होने के बाद रानी के हाथ से वह सब कुछ भी छिन गया था, जो उसको मौसी से भौतिक-अध्यात्मिक प्रत्यक्षतः-अप्रत्यक्षतः मिलता था।
समय बड़ी तेजी से बीत रहा था । रानी के प्रसव का समय निकट आता जा रहा था । उसकी दुर्बलता भी बढ़ रही थी । ऐसी दशा में बैठ पाना कई बार उसके लिए अत्यन्त पीड़ादायक होता था । लेकिन, इस हालत में भी पेट भरने के लिए चाय की दुकान पर उसका बैठना जरूरी था । केवल बैठना ही पर्याप्त नहीं था, बल्कि चाय बनाने, ग्राहकों को परोसने और चाय के बर्तन धोने के लिए उठना भी उसकी अटल मजबूरी थी ।
इसी दौरान एक दिन दोपहर के समय शराब में धुत् एक अधेड़ व्यक्ति उसकी दुकान पर आया और वहाँ ग्राहकों के बैठने के लिए ईंट रखकर बनाये गये स्थान पर बैठकर रानी को चाय बनाने का आदेश दिया । रानी ने चाय बनाकर उस शराबी को परोस दी। शराबी ने नशे में झूमते हुए आधी चाय बिखेरी और कप में शेष बची चाय की चुस्कियाँ लेने लगा । जब उसकी चाय समाप्त हो गयी, रानी ने उसके सामने से खाली कप उठाया और एक कप चाय के पैसे भुगतान करने का निवेदन किया ।
चाय के पैसे माँगने पर नशे में धुत शराबी ने क्रोधित होकर पहले तो रानी को भद्दी-भद्दी गालियाँ दी और फिर उसको जोर से धक्का देकर भाग गया । शराबी का धक्का लगते ही रानी धरती पर गिर पड़ी । प्रसव-समय निकट आने और अत्यधिक दुर्बल होने के कारण उसमें गिरने के बाद उठने की सामर्थ्य नहीं थी । वह धरती पर पड़े-पड़े कराहती रही। आस-पास से गुजरने वाले कई लोग वहाँ से ऐसे गुजरे, जिन्होंने उसकी कराहट सुनने के बावजूद क्षण-भर रुककर देखने की भी आवश्यकता नहीं समझी । कई लोग कुछ क्षणों के लिए वहाँ रुके, लेकिन उसकी किसी प्रकार सहायता किए बिना ही वे आगे बढ़ गये ।
रानी को बार-बार रह-रहकर चन्दू और नन्दू की याद आ रही थी । बिना किसी सूचना के उनके उस समय वहाँ आने की कोई आशा नहीं थी । अब केवल ऊपर वाले का चमत्कार ही हो सकता था, जो कि नहीं हुआ । अन्त में वह साहस करके उठी और स्वयं पैदल चलकर अस्पताल जाने का निर्णय किया । किन्तु कुछ कदम चलते ही अत्यधिक पीड़ा के कारण उसका सिर चकराने लगा । उसके पश्चात् वह आगे बढ़ने की सामर्थ्य नहीं जुटा सकी और उसी क्षण धरती पर गिर पड़ी ।
जैसे-जैसे सूर्य का का ताप कम हो रहा था, पीड़ा सहन करने की रानी की सामर्थ्य भी घटती जा रही थी । दिन के तीसरे पहर में रानी की पीड़ा असह्य हो गयी । कई बार जब पीड़ा बढ़ती थी, तो रानी की चीख निकल पड़ती थी । न चाहते हुए भी उसके कराहने का स्वर तेज होता जा रहा था ।
धीरे-धीरे शाम हो गयी और फिर रात का अंधेरा बढने लगा था । सड़क पर स्ट्रीट लाइट का प्रकाश फैला गया था, लेकिन रानी के जीवन में घना अंधकार छाया था । फ्लाईओवर के नीचे रानी के अलावा और भी एक-दो बेसहारा लोग रह रहे थे, जो अब खर्रांटे ले रहे थे। रानी के चीखने-कराहने का स्वर उनके कानों के रास्ते होकर उनको नींद से जगाने में असमर्थ था ? या उनकी संवेदना को जगाने में असफल सिद्ध हो रहा था ? यह कहना कठिन था !
रानी को अनुभूति होने लगी थी कि उसके गर्भ में पल रहा वह.नन्हा अतिथि अब इस दुनिया में आने के लिए दस्तक दे रहा है, जो उसके अकेलेपन को दूर करके उसका सहारा बनेगा। इस क्षण एक ओर उसके हृदय में माँ बनने की प्रसन्नता थी, जिसका बीजारोपण पुजारी जी ने और पल्लवन मौसी ने किया था । दूसरी ओर उसका गर्भस्थ शिशु अवतरित होने से पहले उसको इतनी पीड़ा दे रहा था कि रानी को अपने जीवित बचने में भी संदेह हो रहा था।
असह्य प्रसव पीड़ा को सहन करते-करते रानी कई बार अचेत भी हुई । चेतना लौटते ही उसका चीखना-कराहना फिर आरम्भ हो जाता था, किन्तु वहाँ उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं था । प्रसव-पीड़ा निरन्तर बढ़ रही थी । दुर्बलता के कारण अब उसमें चीखने-कराहने की शक्ति नहीं बची थी, इसलिए चेतना होते हुए भी वह धीरे-धीरे चेतनाहीनता की दशा को प्राप्त हो रही थी ।
सड़क पर चलने वाले वाहन कम हो गये थे । दिन-भर यात्रियों से भरी रहने वाली सड़क लगभग खाली हो चली थी । रानी अर्द्ध चेतना की हालत में पड़ी थी । उस समय वहाँ से गुजरते हुए एक महिला ने को अचेत पड़ी देखा, तो उसके प्रति महिला की संवेदना जागृत हुई । उसने रानी को छूकर देखा, हिलाया-डुलाया और नाक के नुथनों से आती-जाती साँस से निश्चय किया कि अभी जीवित है ! रानी और उसके नवागंतुक गर्भस्थ शिशु के जीवन को बचाने की आशा से महिला ने कुछ लोगों की सहायता के लिए बुलाया। उस संवेदनशील महिला की पुकार पर कई लोग उसकी सहायता करने को तत्पर हो गये । उनकी सहायता से महिला ने रानी को अस्पताल में भर्ती कराने का निश्चय किया। ऐसा लगता था कि रानी के और उसके बच्चे के प्राण बचाने के लिए वह महिला ईश्वर की प्रतिनिधि बनकर आयी थी।
महिला के प्रयास से रानी को अस्पताल ले जाने की तैयारी चल ही रही थी, तभी वहाँ चन्दू और नन्दू आ पहुँचे । रानी को बेहोशी की हालत में देखकर चन्दू और नन्दू के होश उड़ गये । वे दोनों अत्यधिक आत्मग्लानि डूबकर ईश्वर से रानी तथा उसके बच्चे के प्राणों को बचाने की प्रार्थना करने लगे । चन्दू-नन्दू, उस महिला तथा वहाँ पर उपस्थित अन्य लोगों की सहायता से रानी को यथाशीघ्र अस्पताल ले जाकर भर्ती करा दिया गया ।
अस्पताल में भर्ती होने के दो घंटे पश्चात् रानी ने एक बच्ची को जन्म दिया, जो दुर्बल होने के बावजूद चंचल थी। बच्ची को जन्म देने के पश्चात् रानी कुछ प्रकृतिस्थ हुई, तो एक नर्स हाथ में पेन्सिल-पेपर लेकर उसकी फाइल बनाने के लिए आयी और उससे प्रश्न पूछने लगी -
"आपका नाम ?"
"रानी !" रानी ने धीमे स्वर में कहा।
"उम्र ?"
"चौदह साल !"
चौदह साल ?" नर्स ने चौंकर रानी को घूरकर देखा ।
"बच्ची के पिता का नाम ?"
रानी ने ऐसी कल्पना नहीं की थी कि नर्स आकर अचानक उसके बच्चे के पिता का नाम पूछेगी । रानी प्रश्न सुनकर मौन रही, परन्तु उसके माथे पर पसीने की बूंदें उभर आयी । उसके मन:मस्तिष्क में भी एक अनसुलझे प्रश्न का तूफान शोर मचाने लगा था -
"इस बच्ची के पिता का नाम क्या है ? कौन है इस बच्ची का पिता ?"
अपने ही अंतःकरण में उठने वाले अनुत्तरित प्रश्न के उस तूफान से विचलित होकर रानी का चेहरा विकृत होने लगा था। तभी उसके कानों में पुन: नर्स का स्वर सुनाई पड़ा -
"बच्ची के पिता का क्या नाम है ?"
रानी नर्स का प्रश्न सुनकर भाव-विहीन मौन दृष्टि से नर्स की ओर ताकने लगी । तभी आशा की एक छोटी-सी किरण के रूप में उसको याद आया, मन्दिर में पुजारी काका कहते थे कि इस बच्चे का पिता भगवान है ! पुजारी काका का स्मरण होते ही रानी के चेहरे पर चमक आ गयी । तब तक नर्स के प्रश्न की कड़क स्वर में पुनरावृत्ति हो गयी थी । रानी ने प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा -
"भ-भ- ग- भगवान !"
"मैंने बच्ची के पिता का नाम पूछा है !" नर्स ने रानी के उत्तर के प्रति अनिश्चय का भाव व्यक्त करते हुए कहा।
"अभी मैंने बताया है न, भगवान नाम है !" रानी ने थोड़े आत्मविश्वास से कहा, तो नर्स ने फाइल में बच्ची के पिता का नाम 'भगवान' दर्ज करके अगला प्रश्न पूछा -
"आवास का पता ?"
"------!" रानी चुप रही।
"कहाँ रहती हो ?" नर्स ने पुन: पूछा ।
"फ्लाईओवर के नीचे !"
"यह आवास का पता है ? तुम्हारे घर का पता पूछा है मैंने !" नर्स ने क्रोधित होते हुए कहा।
"फ्लाईओवर के नीचे ही रहती हूँ मैं !" रानी ने दयनीय स्वर में कहा। कुछ अन्य प्रश्न पूछकर नर्स अपनी फाइल सम्बन्धी औपचारिकताएँ पूरी करके दूसरे मरीज के पास चली गयी।
क्रमश...