तेरे शहर के मेरे लोग - 15 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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तेरे शहर के मेरे लोग - 15

( पंद्रह )

कुछ समय पूर्व मैंने अपने पुत्र की सगाई का ज़िक्र किया था। तो आपको अपनी बहू, यानी उसकी होने वाली पत्नी के बारे में भी बता दूं, कि वो कौन थी!
मेरे एक पुराने मित्र थे।
उनसे कई साल पुरानी दोस्ती थी। उनकी और मेरी दोस्ती का सबसे बड़ा आधार ये था कि वो भी मेरी तरह ख़ूब घूमते रहे थे।
घूमना हमारा शौक़ नहीं बल्कि व्यवसाय जैसा ही रहा था।एक बड़ा फ़र्क ये था कि मैं जिस तरह ज़मीन पर घूमा था वो पानी पर घूमते रहे थे।
वे मर्चेंट नेवी में रहे थे और उनके जलपोत किनारे छोड़ते- पकड़ते ही रहते थे। जब हम मिलते थे तो हम दोनों के पास ही एक- दूसरे को सुनाने के लिए ढेरों कहानियां हुआ करती थीं।
बीच - बीच में वो मुंबई भी आते तो मिलते रहते थे। मुंबई उनके लिए प्लेटफॉर्म जैसा था जहां से वो दुनिया की अलग - अलग दिशाओं में निकलते थे।
हम दोनों की मित्रता को हमारी पत्नियों ने और भी गहरा कर दिया था जब वो दोनों एक ही शैक्षणिक संस्थान में कार्य करने लगी थीं। अब छुट्टियों में, त्यौहारों पर कभी कभी मिलते रहते थे।
वे मुझे कहानियों के लिए पात्र भी दिया करते थे और घटनाएं भी!
मेरी पत्नी के देहावसान के कुछ वर्ष बाद एक दिन उनका फ़ोन आया कि वो मुझसे मिलने घर पर आ रहे हैं।
आम तौर पर जब किसी का इस तरह का फ़ोन आता था तो मुझे कुछ सजग होकर एक बार ये ज़रूर सोचना पड़ता था कि मेरी रसोई में, आने वाले मेहमान को चाय पिला पाने की क्या व्यवस्था है। क्योंकि अब मैं अकेला ही रहा करता था और मेरे घर की व्यवस्थाएं कुक या किसी नौकर के भरोसे ही रहती थीं।
किन्तु मुझे इस तरह की कोई चिंता नहीं करनी पड़ी क्योंकि रात को भोजन से निवृत्त होकर वो अकेले नहीं, बल्कि अपनी पत्नी के साथ आए।
और उनकी श्रीमती जी के सौजन्य से ही हमें गर्मागर्म कॉफी पीने को मिली।
इस कॉफी से उठते हुए धुएं ने हमारी मित्रता के रंग को और भी गहरा कर दिया।
घुमा - फिरा कर नहीं, आपको सीधे ही बताऊंगा कि उस रात उन्होंने महाराष्ट्र के एक प्रतिष्ठित संस्थान से डॉक्टरेट कर रही अपनी बिटिया के लिए मेरे बेटे से विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे अपने बेटे और सुपुत्री से बात करने के बाद मैंने ईश्वर को धन्यवाद देते हुए जल्दी ही मन की अंतरतम गहराई से स्वीकार कर लिया।
मुझे लगा कि मेरी पत्नी जैसे अब भी मेरे साथ ही है और वो मेरी मदद अब भी कर रही है क्योंकि मेरे मित्र की बिटिया कभी मेरी पत्नी की विद्यार्थी भी रही थी।
मैंने सोचा, मुझे अब कभी स्वप्न या कल्पना में भी अपनी पत्नी को ये समझाना नहीं पड़ेगा कि उसकी होने वाली "बहू" कैसी है? कौन है।
अब हम लोग धूमधाम से विवाह की तैयारियों में जुट गए।
अक्सर जब ज़िन्दगी की दौड़ में बहते किसी इंसान से उसका वांछित किनारा छूट जाता है तो वो उसे मिले हुए किनारे को बेहद अपनेपन से देखता है।
मैं भी परिचितों, परिजनों, मित्रों की निगाहों में इस मौक़े को यादगार बनाना चाहता था।
बच्चे तो दोनों ही बाहर अपने- अपने घर से दूर ही थे, हम तीनों ने कई मीटिंगें करके अपने इरादों को अमली जामा पहनाने की तैयारी शुरू कर दी।
आगे बढ़ने से पहले आप को बता दूं कि विवाह को लेकर मेरी मान्यताएं और सोचना कुछ अलग था।
मेरे पिता कहा करते थे कि विवाह किसी इमारत के चार खंभों पर खड़ा होने वाला उत्सव है।
इनमें एक खंभा दुल्हन का होता है, दूसरा दूल्हे का, तीसरा दुल्हन के मां- बाप का और चौथा दूल्हे के मां - बाप का।
मुझे इस अवसर पर कुछ ज़्यादा सतर्क रहना था क्योंकि मेरे पिता की परिभाषा का ये चौथा खंभा अकेले मुझे सजाना था।
अब यहां मेरी कथनी और करनी की तुलना मेरे अपने विवाह से बिल्कुल भी मत कीजिए। उस समय मैं युवा सोच और मानसिकता का कायल एक चढ़ती उम्र का नौजवान था।
अब मुझे मेरी ज़िन्दगी ने, समाज ने, अनुभवों ने बहुत कुछ सिखा दिया था। अब कम से कम इस मामले में तो मैं काफ़ी दकियानूसी, परंपरावादी और पौंगापंथी हो गया था। विवाह को लेकर मेरी सोच बिल्कुल बदल चुकी थी। मैं ये समझ गया था कि जिस तरह व्यक्ति का नाम उसके खुद के लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए होता है, ठीक उसी तरह व्यक्ति का विवाह भी सिर्फ़ उसके लिए नहीं बल्कि पूरे परिवार या समाज के लिए होता है। अतः ऐसे अवसर पर ये सोचना, कि केवल वही हो जो हम चाहें, किसी भी दृष्टि से सही नहीं।
हमें इस बात का मान और ध्यान भी रखना पड़ता है कि दूसरे क्या चाहते हैं। पूरी ज़िन्दगी में आपके ढेरों अपने, मित्र, सहयोगी, परिजन, शुभचिंतक होते हैं। उन्होंने समय- समय पर आपको बुलाया होता है, खिलाया होता है, अतः अब आपका भी उनके लिए कोई फर्ज़ बनता है।
मैं जानता हूं कि ये सब बातें आप मेरे कहे बिना पहले से ही जानते हैं और उन पर अमल भी करते हैं। अतः मैं तो ये सब बातें आपके बहाने अपने आप को समझा रहा हूं।
अब मुझे अपनी ज़बान से कुछ भी निकालने से पहले सौ बार इधर और उधर देखना था।
अब मुझे हर पल ख़्याल रखना था कि मेरे माता, चाचा, बुआ, फूफा, भाई, भाभियां, बहनें, बहनोई, साले, सलहजें, साढू, साली, सास, श्वसुर,समधी, समधन, बेटियां, दामाद, पोते, पोतियां, नाती, नातिनें, पड़ोसी, सहकर्मी, अफसर, अधीनस्थ, मित्र, विद्यार्थी, परिचित आदि भी हैं और विवाह तैंतीस करोड़ देवी देवताओं वाले इस देश में सभी देहरियों को पूजने का अनुष्ठान है।
इसके अलावा मुझे देश की अर्थव्यवस्था का ध्यान रखते हुए पंडित, हलवाई, किराना वाले, फल वाले, सब्ज़ी वाले, सुनार, कपड़े वाले, पानी वाले, सफाई वाले, नाई, धोबी, पान वाले, फूल वाले, गाड़ी वाले, घोड़े वाले, बैंक वाले, बैंड वाले, लाइट वाले, लॉन वाले, गिफ्ट वाले, पुलिस वाले, मजदूरी वाले, ठेले वाले, नेता, अफ़सर, पुजारी,छपाई वाले, कोरियर वाले, डाक वाले, रिक्शा वाले, फर्नीचर वाले, तम्बाकू वाले, गजरे वाले, मदिरा वाले आदि सभी को उनके हिस्से का कुछ न कुछ देना था।
ये बात और थी कि इस सब के बीच मैं "मैं" भी तो था न !
तो मैंने मन में सोचा कि मैं अब दूसरों की खुशी में ही ख़ुश रहूंगा। उन सबसे इस तरह मिलूंगा कि वो भी ख़ुश हों। उन सब को विवाह में बुलाऊंगा जो आकर ख़ुश हों।
और मैंने देखा कि सब ख़ुश थे।
हम लोग रोज़ सुबह ख़ुशी की तलाश में बाहर घूमने निकल जाते थे। कार में बैठ कर हम शहर की दूर - पास की अनेकों बस्तियों में घूमते।
मैं इस इंतजार में था कि बेटे की ओर से छुट्टियों का पक्का प्लान मिले तो मैं विवाह की तारीख़ निकलवाऊं।
इस बीच मैंने अपने मित्र और होने वाले समधी के साथ शहर के कई मैरिज गार्डन देख डाले।
हम दोनों का ही विचार था कि शादी को किसी डेस्टिनेशन वेडिंग की तरह शहर से दूर ऐसी जगह से संपन्न करें कि कम से कम दो तीन दिन तक तो किसी वाहन में बैठने की ज़रूरत ही न पड़े। शांति से परिवार के साथ वहीं रहें।
हम ये भी चाहते थे कि शादी के दौरान घर को तो बंद ही रखें अन्यथा परिजनों का घर और विवाह स्थल के बीच आना- जाना चलता रहेगा।
इधर हमारी आयोजना चलती रही, उधर बच्चों की ओर से उनकी छुट्टियों का प्लान भी आ गया।
अब आपको एक रहस्य पूर्ण नकारात्मक सोच की बात भी बताता हूं।
अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद से ही मुझे मन ही मन एक भय सताने लगा था कि अधिकांश लोग हमारी तरह नहीं सोचते हैं।
जैसे...जैसे मैं या मेरी पत्नी कभी भी अपने वास्तविक हक और परिश्रम के अलावा एक रुपया भी लेना पसंद नहीं करते थे। हमने पिछले बीस साल में अपनी कार के लिए किसी इंश्योरेंस कंपनी से एक कील का भी पैसा नहीं लिया। किसी स्वास्थ्य बीमा कंपनी से दवा तक का कोई लाभ नहीं लिया था। अपने या बच्चों के किसी भी काम के लिए कभी किसी की सिफ़ारिश या एक रुपए की रिश्वत का सहारा भी नहीं लिया था।
दूसरी ओर हम देखते थे कि हमसे आधे- एक चौथाई वेतन वाले लोग भी हमसे ज़्यादा गहने, कपड़े, शान शौकत के ठसके के साथ रहते थे।
इस कारण कभी - कभी मुझे भीतर से महसूस होता था कि लोग हमारी जीवन शैली से ईर्ष्या रखते थे। और इसीलिए कम से कम मैं अपने किसी भी कार्य के लिए दूसरों पर निर्भर रहने से बचता था।
वरना मैंने केवल पत्नी को ही तो खोया था, बाक़ी सभी लोग तो लंबे- चौड़े परिवार में थे ही। शादी विवाह जैसे काम में तो सबका साथ उपलब्ध था ही।
पर अपने मन का क्या करता, इसकी सुननी भी पड़ती थी और इससे डरना भी पड़ता था।
मैं कई लोगों के मुंह से ऐसा भी सुन चुका था कि "इस परिवार को किसी की नज़र लग गई"।
मज़े की बात ये कि मेरी होने वाली बहू के पिता अर्थात मेरे समधी भी मेरी ही तरह सोचते थे। वो अक्सर बच्चों को भी ये समझाइश दिया करते थे कि इंसान अपनी वास्तविक प्रोफ़ाइल से लो प्रोफ़ाइल में रहे तो ज़्यादा सुखी रहता है।
जबकि ज़माना "दो और दो पांच बराबर आठ"वालों का था।
कई दुब्बे यहां चौबे के भेस में छब्बे की टांग खींचने के लिए घात लगाए बैठे रहते थे।
मुझे ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए क्योंकि ज़िन्दगी ने कम से कम मुझे तो इतना दिया कि नसीब मेरी क्षमता से सदा दो कदम आगे ही चला।
हमने विवाह के लिए शहर के बाहरी इलाके का एक शांत और ख़ूबसूरत सा रिसॉर्ट चुना और शांति व शालीनता से शादी संपन्न हुई।
मेरे और मेरी पत्नी के सहकर्मियों और शुभचिंतकों ने बड़ी संख्या में शिरकत करके हमारे पुराने दिनों की स्मृतियों को ताज़ा कर दिया।
शादी के बाद मैं फ़िर से अकेला हो गया, किन्तु कुछ गतिविधियों ने मुझे काफ़ी व्यस्त कर दिया।
मैं रेडियो पर तो लगातार जा ही रहा था अब दो- तीन कार्यक्रम दूरदर्शन पर भी दिए।
लगभग एक घंटे के लाइव कार्यक्रम में तेज़ सर्दियों के मौसम में सुबह- सुबह जा बैठना एक अनूठा अनुभव रहा।
अपनी युवावस्था से ही टीवी देखते या रेडियो सुनते हुए हम लोग जो कुछ सोचा करते थे, उसे याद करके मुझे अब एक अजीबो- गरीब ख़्याल कभी - कभी आया करता था।
मैं सोचा करता था कि मैं या हमारी मित्र मंडली कभी भी ऐसे कार्यक्रम नहीं देखा करते थे जैसे अब हम लोग दिया करते हैं। मतलब इस तरह के साहित्यिक या परिचर्चा रूपी कार्यक्रम कभी सामने आने पर हम लोग या तो टीवी बंद कर देते थे या फ़िर टीवी के सामने से हट जाते थे।
इसी सोच के चलते मेरी रुचि कार्यक्रमों के प्रति कम हो जाती और मैं उनमें जाने के प्रति उदासीन हो जाता।
मुझे अपने कई मित्रों, परिवार वालों की टिप्पणियां याद हैं जो वो उस समय किया करते थे, मसलन... अरे ये टीवी में क्या बक- बक आ रही है, कोई इसे बंद कर दो या फ़िर अरे ये कौन लोग हैं, खोपड़ी चाट गए..!
अब हम लोग खुद ऐसे ही कार्यक्रम धड़ाधड़ देते थे, उनका सोशल मीडिया, मित्रों और परिजनों के बीच जम कर प्रचार करते थे और ख़ुश होते थे कि हम कितने महान!
इन कार्यक्रमों की तुलना में फ़िल्मों से संबंधित अथवा चुटीलेे हास्य की रचनाएं ज़्यादातर लोग पसन्द किया करते थे। बचपन में अपने अवचेतन में दबी रह गई इन्हीं स्मृतियों के कारण शायद मैं बीच - बीच में ऐसी रचनाओं पर कलम चलाने लग जाता था। और फिर इसी कारण मुझे शुभचिंतकों से ऐसी टिप्पणियां सुनने को मिलती थीं कि मेरे लेखन में गांभीर्य या कंसिस्टेंसी नहीं है।
मैं इसका जवाब किसी और को नहीं, केवल अपने आप को दिया करता कि लेखन में केवल गांभीर्य ही क्यों हो, ज़िन्दगी में नौ रस और दर्जनों रंग हैं, वो क्यों न हमारी कलमकारी में छलकें?
किसी एक ही विधा या एक ही तरह के लेखन में अपनी पहचान बनाने के ख्वाहिशमंद लेखक एक अजीब सी कुंठा में, आत्मकेंद्रित होकर जिस तरह पत्थर की शिला की भांति बैठे रहते हैं उन पर मुझे करुणा उपजती थी। और ये करुणा भी अपना असर खो देती थी जब ये हास्य मिश्रित करुणा में बदल जाती।
हास्य मिश्रित करुणा?
ये क्या? भला ये क्या बात हुई? किसी की करुणा पर हंसी क्यों अाए? किसी के हास्य में दयनीयता क्यों झलके?
ये सब मैं क्या जानूं? ये मेरा काम थोड़े ही है।
इन दिनों एक विचित्र अनुभूति मुझे और हुई।
सोशल मीडिया पर मुझसे कुछ कम उम्र के लोग भी संपर्क करते। कम उम्र माने सोलह सत्रह साल से लेकर पच्चीस साल तक के युवा।
मैं चाव से उनसे बात तो कर लेता, उनकी बातों में दिलचस्पी भी लेता, उन्हें गंभीरता से लेकर उनके सवालों के जवाब भी देता, मगर बाद में अकेले में बैठ कर सोचता कि आखिर मुझसे इतने छोटे बच्चों ने क्या सोच कर संपर्क साधा होगा?
मैं अपनी कल्पना से ही खोज- खोज कर इसके कई जवाब निकालता?
कभी - कभी मुझे लगता कि शायद ये लड़कियां हैं जो अपनी पहचान छिपा कर मुझसे इसलिए संपर्क बनाना चाहती होंगी कि मैं कई महिला शिक्षण संस्थानों से जुड़ा हूं, और इन्हें भविष्य में प्रवेश, नौकरी आदि के कामों में मुझसे किसी सहयोग की जरूरत होगी।
नहीं, इक्का- दुक्का मामलों को छोड़ कर ऐसा नहीं होता था। ये युवक ही होते थे।
तो फ़िर ये ऐसे बच्चे होंगे जो भविष्य में पढ़ने के लिए इस बड़े और शिक्षा का "हब" कहे जा रहे शहर में आना चाहते होंगे और इन्हें राजधानी में किसी की अंगुली पकड़ लेने की तलाश होगी जिससे यहां इनके रास्ते सुगम हो जाएं।
हां, कुछ- कुछ... लेकिन कुछ मामले इससे भी कहीं आगे जाते थे।