कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर
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पूरे सप्ताह की मेहनत के पश्चात जहाँ अंग्रेज महिलाओं की शामें पब में गुजरतीं हैं वहीं एशियन स्त्रियाँ या तो दुकानों पर अपने पति का हाथ बँटा रही होतीं या फिर कुछ पढ़ी-लिखी अपने बच्चों को स्कूल का काम करवा रही होतीं। दूसरे देशों से ब्रिटेन में आए लोगों की इस सोच को भी झुठला नहीं सकते कि इतना अपमान सह कर भी कड़वा घूँट पीकर वे यहाँ चुपचाप इसलिए काम कर रहे हैं जो अपने बच्चों को अच्छा जीवन दे सकें। उन्हें पढ़ा कर इस काबिल बना दें कि वह इस देश में इन लोगों के मुकाबले में सिर उठा कर बराबरी में खड़े हो कर दिखाएँ। अच्छी नौकरियाँ प्राप्त करें। इस काम में बच्चों ने भी उनका पूरा साथ दिया।
अच्छी नौकरियाँ हासिल करने के लिए अंग्रेजी भाषा का खुल कर प्रयोग करना भी आना चाहिए। किसी चीज को सीखने के लिए उसका अनुभव और अभ्यास बहुत आवश्यक है। अनुभव के लिए उसका अधिक से अधिक प्रयोग करना। बच्चे सारा दिन तो घर से बाहर अंग्रेजी भाषा में बात करते ही हैं घर पर भी माता-पिता उन्हें अंग्रेजी बोलने पर टोकना तो दूर बल्कि प्रोत्साहित करने लगे। ऐसा करने से केवल लाभ ही हुआ हो यह कहना उचित न होगा। ऐसा करने से बच्चे अपनी संस्कृति और भाषा से दूर होने लगे। कुछ पाने के लिए कभी-कभी बहुत कुछ खोना भी पड़ जाता है।
जहाँ कुछ लोगों के बच्चे अपनी संस्कृति और भाषा को अच्छे जीवन की खातिर दाँव पर लगा रहे थे वहीं गुजराती कम्युनिटी एक गुट होकर आगे बढ़ रही थी।
लेस्टर के बेलग्रेव तथा मेल्टन रोड व उसकी आस-पास की सड़कों में अधिक से अधिक गुजराती लोगों की दुकानें व मकान बढ़ने लगे। जहाँ देखो आभूषण, कपड़े, खाने-पीने आदि की दुकानों के गुजराती मालिक कहलाने लगे। खाने पीने की दुकानें खुलने का परिणाम यह निकला कि अंग्रेज लोग वहाँ से घर बेच कर बेलग्रेव रोड से दूर भागने शुरू हो गए।
भारतीय और अंग्रेजी खाने में जमीन आसमान का अंतर है। जहाँ अंग्रेज उबला और फीका खाना खाते हैं वहीं भारतीयों के मसालों की फैलती हुई खुशबू से कोई बच नहीं सकता। इसमें अंग्रेजों को भी कोई क्या दोष दे। उनके लिए इस प्रकार की खुशबुएँ बर्दाश्त से बाहर हो गई थीं। अंगरेजों के मकान बिकते गए व बेलग्रेव और आस-पास की स्ट्रीट्स में एशियंस फैलते गए।
हर इनसान की पहचान उसके धर्म से मानी जाती है। लेस्टर में विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों का बसेरा है। भारतवंशियों में तो धार्मिक भावना कूट कूट कर भरी होती है। घरों में भी भगवान की मूर्तियों के आगे दीपक जला कर पूजा करना व सारा दिन जलता हुआ दीपक छोड़ देना तो आम सी बात थी। घरों में हर समय जलता दीपक देख कर अंग्रेज इस बात से भी डरते थे कि ये अपना घर तो जलाएँगे ही साथ में हमें भी ले डूबेंगे।
डरने की बात होती ही है जब पड़ोसी के घर से निकलता हुआ धुआँ दिखाई दे। जान तो सबको प्यारी है चाहे वो गोरा हो या काला। यहाँ तक कि जंगल में आग जलती
देख कर जानवर भी जान बचाने के लिए विपरीत दिशा में भागने लगते हैं। एक तो यहाँ लकड़ी के घर दूसरे साथ जुड़े हुए। पड़ोसी से ज्यादा उन्हें अपने घर की चिंता सताने लगी क्यों कि आग की लपटें फैलते देर नहीं लगती।
पड़ोस के घर से धुआँ क्या उठा कि सायरन बजाती हुई दो फायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ आ गईं। आस-पड़ोस के लोग घरों से बाहर आ गए। कुछ ऐसे भी थे जो खिड़कियों से परदे हटा कर पता लगाने का प्रयत्न करने लगे कि आग किस घर में लगी है।
फायर ब्रिगेड वाले शीघ्रता से अपने काम में लीन हो गए। दो कर्मचारी पानी का बड़ा सा पाइप घसीटते हुए घर के पिछवाड़े भागे तो कुछ दरवाजा खटखटा कर घर के अंदर घुस आए...
"वेयर इज दा फायर... सब बाहर निकलिए। हमें सूचना मिली है कि इस घर में आग लगी है।"
घर मेहमानों से भरा हुआ था। सब लोग एक दूसरे का मुँह देखने लगे।
"आफिसर आप को गलत सूचना दी गई है यहाँ कोई आग नहीं लगी।"
पता चला कि छोटे बेटे के मुंडन के बाद घर में हवन रखा गया था। यह धुआँ उसी छोटे से हवनकुंड से उठ कर खिड़की से बाहर आ रहा था। जिसे देख कर पड़ोसी अंग्रेज घबरा गया। ऐसी छोटी मोटी घटनाएँ होना तो अब मामूली सी बात हो गई थी। कसूर इसमें किसी का भी नहीं कहा जा सकता क्यों कि दोनों की संस्कृतियों, रहन-सहन, खान-पान में इतना अंतर है कि यह सब होना स्वाभाविक सा लगने लगा था।
एशियंस के यहाँ आकर बस जाने से लेस्टर ही नहीं ब्रिटेन की इकोनमी पर भी बहुत अच्छा असर दिखाई दिया। अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिलने लगा, कारखानों में प्रोडक्शन बढ़ने लगा, ऑडर्स से रजिस्टर भरने लगे, तरह-तरह के भारतीय खानों के रेस्तराँ खुलने लगे, एशियन बच्चों ने स्कूलों में भी अपनी मेहनत से पूरा योगदान दे कर यहाँ के बच्चों की भी पढ़ाई की ओर रुचि बढ़ाई...। ब्रिटिश लोगों का रवैया भी इनके प्रति थोड़ा बदलने लगा। इकोनोमी के बढ़ने से सरकार ने भी इनके परिवारों को भारत से यहाँ आने में कोई आपत्ति न जताई।
उस समय अंग्रेज आपत्ति जरूर जताते थे जब एशियन के घर में कोई पूजा-पाठ होती हो। सड़कों पर ही नहीं उनके घरों के आगे भी कारों का ताँता, ढोलक मंजीरे की तेज आवाजें, छोटे से घर में इतना भीड़-भड़का सब कुछ उनकी सहनशक्ति से बाहर होता जा रहा था।
अंग्रेजों की आए दिन की शिकायतें सुन कर सरकार ने एशियंस को अपने मंदिर बनाने की अनुमति ही नहीं दी बल्कि उन्हें मंदिर के लिए ग्रांट की भी मंजूरी दे दी गई जो ये लोग घरों में नहीं मंदिर में जा कर अपने धार्मिक कार्यों को पूरा करें।
ग्रांट मिलने के पश्चात लेस्टर में सबसे पहला मंदिर "गीता भवन" के नाम से खुला। यह केवल इनका पूजा पाठ का स्थान ही नहीं था बल्कि एक कम्युनिटी सेंटर भी था। दिन में यहाँ घर के बुजुर्ग इकट्ठे मिल कर बैठते व शाम को हिंदी, गुजराती, पंजाबी आदि भाषाएँ सिखाने की कक्षाएँ लगने लगीं। सरकार की ओर से प्रोत्साहन मिलते ही कुछ और मंदिर भी खुल गए। पहले डरते-डरते फिर खुल कर लोगों ने अपने त्यौहार मनाने शुरू कर दिए। अंग्रेज भी जान गए थे कि अब यह लोग यहाँ से जाने वाले नहीं हैं तो क्यों न मिल कर रहा जाए।
इनके देखा देखी दूसरे धर्मों के लोगों को भी अपने सेंटर खोलने का साहस मिल गया।
अभी अफ्रीका से लोगों का आना बंद भी नहीं हुआ था कि पाकिस्तान से मुसलमान व बंगलादेश से बंगलादेशी काफी संख्या में आने आरंभ हो गए। बंगलादेशियों ने तो आकर यहाँ का माहौल ही बदल दिया जिसका प्रभाव ब्रिटेन की वेलफेयर स्टेट पर काफी पड़ा।
एक बंगलादेशी परिवार में आठ-दस बच्चे होना मामूली बात है। जब काम न करने पर भी सरकार से बच्चों का लालन-पालन करने के लिए पैसा व रहने के लिए बड़े घर मिलने लगे तो इन्होंने अधिक से अधिक लाभ उठाने का प्रयत्न आरंभ कर दिया।
ब्रिटिश सरकार की यह विशेषता है कि एक परिवार जिसमें छोटे बच्चे हैं उन्हें कभी दर-दर भटकने नहीं देगी। जब तक इनके लिए ठीक से रहने का इंतजाम नहीं हो जाता इन्हें टेंपरेरी शैल्टर्ड अकामोडेशन में रखा जाता है। घर के जितने सदस्य होते हैं उन्हीं के अनुसार घर जुटाने का प्रयास किया जाता है। इन्हें रहने खाने के लिए भत्ता भी दिया जाता है। जब बैठे बिठाए सब कुछ मिल रहा था तो बंगलादेशियों ने इस बात का भरपूर लाभ उठाया।
यह लोग सरकार से पैसा भी लेते और चुपचाप बंगाली दुकानों पर काम भी कर रहे थे। जब दुकानदारों को भी सस्ते मजदूर मिल रहे हों तो क्यों ना इनको काम दें। यह सब सरकार की नाक के नीचे हो रहा था।
यदि बेलग्रेव और मेलटन रोड एरिया हिंदू प्रधान था तो मुसलमानों ने हाइफील्ड, और एविंगटन की ओर रुख किया जहाँ मकानों के साथ इनकी हलाल मीट की दुकानें भी खुलने लगीं। क्योंकि अधिकतर लोग अनपढ़ थे और कारखाने लेस्टर और उसके आस पास थे इस लिए जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगी। साथ में ही मकानों की कीमतों में भी बढ़ोतरी दिखाई देने लगी। बंगलादेशी अधिकतर लेस्टर के पास ही एक गाँव लॉफ़्बरो में जाकर बस गए।
लॉफ़्बरो में मकान अभी लेस्टर के मुकाबले में सस्ते थे। वैसे भी लॉफ़्बरो अपनी होजरीस के लिए मशहूर था ही साथ में यहाँ जहाज व इंजन के पुर्जे बनाने वाला कारखाना ब्रश व दवाइयाँ बनाने वाली मशहूर फाइजन कंपनी, जुराबें बनाने वाला मैराथन नाम का कारखाना व प्लास्टिक के डिब्बे आदि बनाने वाले कारखाने भी मौजूद थे। उस समय लॉफ़्बरो ही एक ऐसी जगह थी जहाँ बैल फोंडरी पाई जाती थी जहाँ की बनी हुई चर्च की घंटियाँ पूरे ब्रिटेन के चर्च में प्रयोग होती थीं इस लिए काम की कोई कमी नहीं थी।
अभी अंग्रेज लोग भारतीयों के खाने और मसालों को थोड़ा समझ ही रहे थे कि बंगलादेशियों ने आकर सोने पर सुहागे का काम कर दिया। बंगाली तो बिना मछली खाए रह नहीं सकते। उनका मछली पकाने का ढंग भी ऐसा कि महक अगली स्ट्रीट तक जाए। बेचारे वहाँ रहने वाले लोग परेशान हो उठे। जब उनकी सरकार ने ही उन्हें यहाँ रहने की आज्ञा दी है तो वो क्या कर सकते हैं। हाँ आए दिन इनमें आपस में टकराव के चर्चे समाचार की सुर्खियों में जरूर रहने लगे।
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दो बुजुर्गी अंग्रेज महिलाएँ कंधे पर पर्स लटकाये बातें करती हुई जा रही थीं कि फुटपाथ पर इतने सारे खून के धब्बे देख कर परेशान हो उठीं... .
"अरे ये फुटपाथ पर जगह-जगह खून के धब्बे कैसे पड़े हुए हैं। लगता है यहाँ कोई बहुत बड़ी दुर्घटना हुई है। कहीं यह एशियंस और अपने लोगों के बीच झगड़ा तो नहीं हो गया।"
"अब हम कर ही क्या सकते हैं जब थर्ड वर्ड देशों से इतने लोग यहाँ आकर बस जाएँगे तो यह सब तो होगा ही। वैसे देखा है तुमने उन लोगों के पास तहजीब नाम की तो कोई चीज ही नहीं है। कैसे सड़क के दोनों किनारों पर खड़े हो कर जोर-जोर से चिल्ला कर बातें करते हैं। अरे भई सड़क पार करके एक स्थान पर खड़े हो कर पढ़े लिखों के समान आराम से बात करो। उनमें इतने मैनर्स हों तब न। इन्हें तो न कपड़े पहनने का ढंग न खाने का तरीका। इसका प्रभाव हमारे सभ्य समाज पर भी पड़ रहा है। उन्हें देख कर हमारे बच्चे भी तो बिगड़ सकते हैं।"
"तुम्हारा कहना भी ठीक है सूजी। आखिर हम ही क्यों उन से डर कर अपना घर बार छोड़ कर भागें। अपने ही देश में हमें अपने ढंग से जीने का अधिकार नहीं है...।"
"अरे देखो तो यह खून के धब्बे तो पूरे फुटपाथ पर बिखरे दिखाई दे रहे हैं..." अभी उन दोनों की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि एक बंगलादेशी खून थूकता हुआ उनके पास से निकल गया।
उस आदमी का हुलिया देख कर ऐसा लग रहा था जैसे अभी किसी जंगल से पकड़ कर लाया गया हो। मटमैला सफेद लंबा चोगा, लंबी पूरे मुँह पर फैली हुई दाड़ी, ऊबड़ खाबड़ सिर की खेती पर पहनी हुई टोपी और मुख से निकलती हुई पीक। उस आदमी के मुख से खून निकलता देख कर दोनों बुजुर्ग महिलाओं को दया आ गई।
"पुअर मैन... लगता है इस आदमी को मुँह पर चोट लगी है। बेचारे का कितना खून बह रहा है। चाहे कोई भी हो आखिर है तो इनसान ही न... ऐ मिस्टर... उन्होंने उस जाते हुए व्यक्ति को रोका। रुकने से पहले उस व्यक्ति ने फिर एक बार थूका। इस बार खून की पीक और दूर तक गई।
"हम दूर से यह खून के धब्बे देखती आ रही हैं...। लगता है आप का किसी से झगड़ा हुआ है और आपको सहायता की आवश्यकता है। देखो ना मुँह से बहुत खून बह रहा है। आप यहीं रुकिए हम एंबुलेंस बुलाते हैं...।"
"नो... नो एंबुलेंस..." उसने टूटी-फूटी अंग्रेजी में जवाब दिया, "यह खून नहीं पान की पीक है" और उसने जेब से पान की डिब्बी निकाल कर उन्हें दिखाई कि "हम यह चीज चबाते हैं जिससे लाल रंग निकलता है। यह जमीन पर वही धब्बे हैं...।"
"हाऊ डिस्गस्टिंग... यू इलमैनर्ड पीपल..." और वह दोनों बुरा सा मुँह बना कर वहाँ से चली गईं। बंगलादेशी को कुछ समझ में नहीं आया कि इन दोनों को हुआ क्या है और ये क्या बोल कर गई हैं। वह थोड़ी देर उन बूढ़ी औरतों को जाते देखता रहा फिर कंधे झटक कर अपने रास्ते चल पड़ा।
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निशा कॉलेज से घर आई तो क्या देखती है कि नानी बहुत उदास सी कोने की कुर्सी पर बैठी हैं। माँ अभी काम पर से नहीं आईं। नानी दूर कहीं अपने ही ख्यालों में खोई हुई हैं। वह तब चौंकी जब निशा ने पीछे से उनके गले में अपनी बाँहें डाल दीं।
"क्या नानी मैं कब से सामने खड़ी हूँ और आप देख भी नहीं रहीं..."
"अरे निशा बेटा तुम कब आई?"
"पहले यह बताइए आप कहाँ खोई हुई थीं। नवसारी की बहुत याद आ रही है नानी...? नानी मुझे अपना वादा याद है। बस थोड़ा सा और इंतजार कर लीजिए फिर मैं जरूर आपको नवसारी ले कर जाऊँगी। बस तीन साल और..."
"पता नहीं तब तक तुम्हारी नानी कहाँ होगी बेटा। यहाँ कल का भरोसा नहीं फिर तीन साल किसने देखे हैं..." नानी की आवाज में मायूसी साफ झलक रही थी।
"हम देखेंगे नानी। हर बात का एक समय होता है। सोचिए जब हम हवाई जहाज में बैठे होंगे। मेरा भी तो मन करता है अपने संबंधियों से मिलने का। हमें बस सही समय का इंतजार है जो जल्दी आएगा। जहाँ इतनी प्रतीक्षा कर ली वहाँ यह तीन साल क्या हैं। फुर्र से उड़ जाएँगे। बस आप खुश रहा करिए।"
"चल तू बैठ मैं तेरे लिए चाय बना कर लाती हूँ।" नानी उठ कर किचन में चली गईं।
पढ़ाई के सही रास्ते पर चलने के कारण निशा शीघ्र ही अध्यापकों की चहेती बन गई। अब तो स्वयं अंग्रेज बच्चे उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने लगे। निशा की कक्षा में ही एक लड़की पढ़ती है लिंडा। दोनों में गहरी दोस्ती हो गई। जब विचारों में शुद्धता आती है तो आँखों से नफरत भी मिट जाती है। रंग-रूप का भेद-भाव भी समाप्त हो जाता है। जब दो विभिन्न संस्कृतियों के बच्चे एक हो जाते हैं तब बड़ों को भी अपने विचारों की दिशा को मोड़ देना ही पड़ता है। हाँ अपने व्यवहार को बदलने में उन्हें समय अवश्य लग जाता है।
निशा और लिंडा दोनों को ही लेस्टर की डीमॉटफर्ट युनिवर्सिटी में आगे पढ़ने के लिए जगह मिल गई है। दोनों बहुत खुश हैं।
लिंडा निशा के कुछ नोट्स पढ़ने के लिए घर ले गई थी यह कह कर कि वह कल उसे लौटा देगी।
सुबह दोनों कॉलेज पहुँची तो बातें करते हुए निशा ने पूछा "लिंडा मेरे नोट्स तो ले आई हो ना मुझे युनिवर्सिटी जाने से पहले कुछ तैयारी करनी है।"
"ओह आई एम सो सॉरी निशा वहीं घर की मेज पर ही भूल आई हूँ...।" कुछ सोचते हुए वह बोली...
"वैसे भी निशा आज मेरा जन्म दिन है। मम्मा तो मेरा जन्मदिन शनिवार को मनाएँगी। तुम चलो ना मेरे घर। अपने नोट्स भी ले लेना और डैड ने मेरे जन्मदिन पर एक बहुत अच्छा विडियो गेम भेजा है हम दोनों वो भी खेलेंगे।"
"कहाँ से भेजा है लिंडा, तुम्हारे डैड कहीं बाहर गए हुए हैं।"
"नहीं मेरे डैड तो यहीं थोड़ी दूर सायस्टन में ही रहते हैं।"
"क्या मतलब डैड तुम्हारे साथ नहीं रहते?"
"अरे, तुम नहीं जानती क्या... मेरे मॉम और डैड तो वर्षों से अलग रहते हैं। उनका तलाक हो गया है।"
"तलाक... आई एम सॉरी लिंडा, मुझे नहीं मालूम था।"
"कोई बात नहीं निशा। कॉलेज में सभी जानते हैं मैने सोचा तुम्हें पता होगा। खैर छोड़ो, मॉम और डैड का तलाक जरूर हो गया है लेकिन मुझे दोनों प्यार करते हैं बल्कि मेरी स्टेप मदर भी।"
"क्या... तो, तुम्हारे डैड ने दूसरी शादी कर ली?"
"हाँ... मैं तो अभी बहुत छोटी थी जब मॉम और डैड अलग हो गए थे। मॉम उस दिन के बाद से कभी डैड से नहीं मिलीं किंतु उन्होंने मुझे डैड से मिलने से कभी नहीं रोका। मैं अक्सर अपनी छुट्टियाँ बारबरा और डैड के साथ बिताती हूँ। मेरा एक छोटा हाफ ब्रदर जेमी भी है।"
"तुम्हारी मॉम को बुरा नहीं लगता जब तुम उनके साथ जा कर रहती हो।"
"बिल्कुल नहीं। वह मेरे डैड हैं। उनका भी पूरा हक है मेरे साथ समय बिताने का। फिर मुझे अच्छा भी लगता है। वहाँ जेमी है, बारबरा है, डैड हैं।"
"तुम अपनी स्टेप मदर को नाम से बुलाती हो तो तुम्हारे डैड कुछ नहीं कहते।"
"नहीं... और क्या बुलाऊँ... बारबरा ने मेरे डैड से शादी जरूर की है किंतु वह मेरी मॉम नहीं हैं।"
निशा कुछ देर लिंडा को देखती रही। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात करे। बात को आगे बढ़ाने के लिए वह पूछ बैठी... "लिंडा तुम्हारी मॉम ने कभी डैड से मिलने की इच्छा प्रकट नहीं की।"
"नहीं... कहीं न कहीं इस सब के लिए मॉम स्वयं को दोषी मानती हैं। इसमें उनका कोई कसूर नहीं था। उस समय मैं बहुत छोटी थी जब मॉम और डैड अलग हुए थे।" इससे आगे निशा ने कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा।
"सॉरी लिंडा, मैंने तुम्हारे जन्मदिन वाले दिन तुम्हारा दिल दुखा दिया। बस एक बात मेरे दिमाग में घूम रही है, इस बात को इतने साल हो गए। तुम्हारे डैड ने दूसरी शादी कर ली। क्या तुम्हारी मॉम ने फिर से शादी करने की नहीं सोची।"
"नहीं निशा... मुझे लगता है मॉम आज भी डैड से बहुत प्यार करती हैं। मैंने कई बार मॉम को अकेले में डैड की तसवीर से बातें करते और रोते देखा है। जो हो गया उसमें मॉम की कोई गल्ती नहीं थी। मॉम के मन में बचपन से ही एक डर बैठा हुआ था…
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