कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर - 3 Neena Paul द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर - 3

कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर

3

"मम्मा यह लोग तो यहाँ बढ़ते ही जा रहे हैं..." सामने वाले घर में इतने सारे लोगों को आते जाते देख कर मिडल एवन्यू स्ट्रीट के लोग घबरा गए।

"घबराओ मत बेटा यह लोग कुछ समय के लिए ही यहाँ पर हैं। कुछ साल यह यहाँ ब्रिटेन में काम करके, अधिक से अधिक धन कमा कर वापिस अपने देश चले जाएँगे तब तक तो हमें इन्हें झेलना ही होगा।"

"अपने देश तो यह लोग बाद में जाएँगे मम्मा पहले तो यह भी पता नहीं चल रहा कि सामने वाले इतने छोटे से घर में कितने लोग रहते हैं कुछ समझ में नहीं आता।"

"हाँ बेटा जब से सामने वाले घर में रहने वाली महिला जून की मृत्यु हुई है तब से हमारी स्ट्रीट का माहौल ही बदल गया है। मना करने पर भी उसकी बेटी इन लोगों को मकान बेच कर लंदन चली गई है। उसे तो बस पैसों से मतलब था।"

"जी मम्मा... एक छोटा सा तीन बेडरूम का घर और सुबह शाम इतने नए चेहरे दिखाई देते हैं। इतने लोग सोते कैसे होंगे माँ।"

"पता नहीं बेटा... जब तक यह किसी नियम का उल्लंघन ना करें हम कुछ कर भी तो नहीं सकते।"

गोरों की उत्सुकता अपने स्थान पर सही भी थी। एक तीन बेडरूम के घर में दस से भी अधिक लोग रहते हैं। यह लोग शिफ्टों में काम करते हैं। कुछ लोग दिन में और कुछ रात में। किसी का भी परिवार साथ न होने के कारण पाँच बिस्तर को दस लोग प्रयोग में लाते हैं। जो लोग दिन में काम करते वह रात को जिन बिस्तरों पर सोते हैं उन्हीं पर रात को काम करने वाले दिन में सोते हैं। इस प्रकार वह अधिक से अधिक पैसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं जो शीघ्र ही या तो अपने देश वापिस चले जाएँ या अपना स्वयं का घर ले कर परिवार को यहाँ बुला सकें।

अंग्रेज तो ऐसा कुछ करने के विषय में कभी सोच भी नहीं सकते थे। उनके लिए ये सब दूसरी ही दुनिया की बातें थीं। जब लोगों ने वापिस भारत जाने के स्थान पर अपने परिवारों को ब्रिटेन में ही बुलाने की बात ब्रिटिश सरकार के सामने रखी तो वह कुछ न कर सकी। सबके पास रहने के लिए वीजा जो थे। एक दूसरे की सहायता से लोगों ने अपने घर खरीदने आरंभ कर दिए जो उनका परिवार आराम से रह सके और वह बच्चों को अच्छा जीवन दे पाएँ।

***

रविवार का दिन था।

अँगड़ाइयाँ लेते हुए निशा ने खिड़की खोल दी। बाहर पक्षियों के शोर से वातावरण भरा हुआ था। खुला मैदान हो... सुबह का समय हो... तो पक्षी भी कहाँ खामोश रहने वाले हैं। सुबह के समय हवा भी ठंडक भरी होती है। ब्रिटेन के हर मौसम की कुछ अपनी ही विशेषताएँ हैं। दिन चाहे कितना भी गर्म क्यों ना हो परंतु सूर्य के ढलते ही हवाओं में एक हलकी सी नमी महसूस होने लगती है। निशा अपने घर की खिड़की से बीकन हिल को साफ देख सकती है। जहाँ विभिन्न आकार और रंग की चट्टानें सिर उठा कर मुस्कुरा रही हैं।

बीकन हिल की दूसरी ओर नीचे उतरते ही पेड़ पौधों से भरा खुला मैदान है। थोड़ा आगे चल कर पानी से भरा तालाब है जिसमें सैंकड़ों बतखें मस्ती में इधर से उधर तैर रही हैं। स्कूल की छुट्टियों में तो इस तालाब के चारों ओर का दृश्य ही कुछ और होता है। जब हर उम्र के बच्चे माता पिता की उँगली थामे हाथों में डबलरोटी से भरा थैला बतखों को खिलाने के लिए ले कर आते हैं। कभी बतखें डबलरोटी लेने के लिए बच्चों के पीछे भागती हैं तो कभी बच्चे इनके पीछे भागते हैं। चारों ओर बस बच्चों का और बतखों का शोर सुनाई देता है।

शोर तो यहाँ की हवाएँ भी खूब करती हैं। रात के सन्नाटे में मस्ती से झूमती हुई पेड़ों की डालियों के बीच से छन्न कर आती हुई सड़क की बत्तियों की रोशनी... जैसे सैंकड़ों साये हाथ थामे चल रहे हों... हरियाली और मौसम में गमीं होने के कारण सुबह के समय चट्टानों पर हलकी सी धुंध बिछ जाती है।

उस गीली मटमैली धुंध को देख कर यूँ प्रतीत होता है... मानों किसी गृहणी की दही बिलोती, चिटक कर टूटी मटकी का झाग से भरा मट्ठा सारी चट्टानों पर इधर से उधर बह रहा हो। उस बिखरे झाग के नीचे से झाँकती हुई भीगी शरारती चट्टानें... ज्यूँ चोरी से माखन खाते हुए किसी नटखट बालक का लिबड़ा हुआ मुखड़ा... सुबह के समय के मंद मंद हवा से लहराते पेड़ और पूरे मैदान में बिछे जंगली फूल... अपनी सोंधी खुशबू से पूरे वातावरण में एक नशीली सुगंध भर देते हैं।

खुली खिड़की से फूलों की सुगंध से भरा ठंडा हवा का झोंका आया और निशा की पतली सी नाइटी के अंदर तक उसके बदन को छूता हुआ निकल गया। एक हल्की सी सिहरन निशा के सिर से पैर तक दौड़ गई। उसने शीघ्रता से खिड़की के पलड़े बंद कर दिए। उसकी साँसें तेज चल रही थीं। निशा का जी चाहा कि एक बार फिर से खिड़की खोल कर उस सिहरन को महसूस करे जो सारे बदन में एक हलकी सी गुदगुदी कर के निकल गई थी...।

महसूस करने की चीज तो ब्रिटेन का मौसम है जो ना जाने कब कौन सी करवट लेकर बैठ जाए।

जैसे इनसान का मस्तिष्क।

यह इनसानी मस्तिष्क भी कहाँ स्थिर रहता है। छोटा सा दिमाग जिसमें इतनी सारी जिज्ञासाएँ भरी हैं... जिनमें अनेक सवाल जवाब अपनी खिचड़ी पकाते रहते हैं। मस्तिष्क का शरीर के सबसे ऊपरी भाग, सिर में होने का भी कोई तो कारण अवश्य होगा...। शायद शरीर के सबसे ऊपरी भाग में होने से वह पूरे शरीर की गतिविधियों पर नजर रख सकता है। यहीं से यह सारी इंद्रियों को कार्य करने के संकेत भेजता रहता है जिससे शरीर का संतुलन बिगड़ने ना पाएँ।

मस्तिष्क विचारों का केंद्र है और विचार ही एकत्रित हो कर आविष्कार करते हैं। आविष्कार हुए, तो आकांक्षाएँ, जिज्ञासाएँ और भी बढ़ने लगीं, जिससे व्यक्ति जीने के, उन्नति करने के नए तरीके खोजने लगा।

ये आकांक्षाएँ ना होतीं तो मनुष्य अभी तक ना जाने कौन सी सदी में विचरण कर रहा होता। माना कि जीवन को आगे बढ़ाने के लिए इच्छाओं की आवश्यकता है परंतु हर चीज का अपना एक सीमित दायरा भी होता है। जब कोई यह दायरा तोड़ कर अपनी बाँहें चारों ओर फैलाने का प्रयत्न करता है तो अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी कष्टदायी सिद्ध होता है।

निशा एक खूबसूरत जवान लड़की है। उसके दिमाग में भी इच्छाओं की सरिता प्रवाहित होती रहती है जैसे बारिशों में बहती उफानी नदिया। नदिया का क्या भरोसा... वह तो एक दिन जा विशाल सागर की आगोश में समा कर अपना आस्तित्व तक खो देती हैं। इतने विशाल, खारे पानी के सागर में उसकी मिठास का महत्व ही समाप्त हो जाता है लेकिन निशा के दिमाग में अनगिनित उठते सवाल एक दिन जवाब खोज कर ही दम लेंगे...।

यह जवाब भी अपने में कई सवाल लिए होते हैं...। बीकन हिल की चोटी पर खड़े हो कर जब भी निशा दूर धरती और आकाश का मिलन देखती तो सोचने लगती कि ये बादलों के उस पार का जीवन कैसा होगा...। क्या वहाँ भी हमारे जैसे लोग रहते होंगे। ...अभी तो मैंने इस पार की जिंदगी को ही पूरी तरह से नहीं पहचाना तो फिर उस पार को जानने की तीव्र इच्छा मन में क्यों जागृत हो रही है। ...उस पार ...जिसे माँ ने भी कभी नहीं देखा लेकिन फिर भी हमेशा हमारा देश कह कर संबोधित करती है...। कैसा होगा वह देश जिसे देखने की ललक माँ के दिल में सदैव पनपती रहती है और जिसकी याद मात्र से नानी की पलकें भीग उठती हैं।

नानी को तो उस देश को छोड़े एक अरसा बीत गया है। क्या इतने वर्षों में वहाँ कोई परिवर्तन न आया होगा। ...जिस देश को माँ और नानी इतने मान के साथ अपना कह कर याद करती हैं क्या इतने समय के पश्चात उस देश के वासी उन्हें अपनाएँगे? ...बस इसी उधेड़बुन में खोई निशा माँ से अकसर उलटे सीधे सवाल कर के जवाब ढूँढ़ का प्रयत्न करती रहती है जिसका सीधा जवाब उसे आज तक नहीं मिला...।

सवाल करना हर बच्चे का अधिकार है पर सामने वाले के पास सही जवाब भी तो होने चाहिए...। निशा बचपन से माँ की जुबानी सुनती आ रही है कि हम भारत देश के रहने वाले हैं। हम कहीं भी रहें लेकिन हमारी जड़ें भारत में रहेंगी। निशा अक्सर सोचती...

वह पेड़ कैसा होगा जिसकी जड़ें तो भारत में हैं और शाखाएँ सारे संसार में फैली हुई हैं...। यदि कभी समय और मौसम की मार खाकर उस पेड़ की जड़ें खोखली होकर धरती में ही धँस गईं तो उन शाखाओं का क्या होगा जिन पर हजारों लोग घरौंदे बना कर रह रहे हैं। क्या वो घरौंदे टूट कर बिखर नहीं जाएँगे... आखिर अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए वह माँ से सवाल करने लगती...

"जब शाखाएँ ही उस पेड़ से अलग हो जाएँगी क्या तब भी हम उस देश से जुड़े हुए कहलाएँगे जिसमें कभी वह पेड़ पनप कर बड़ा हुआ था माँ।"

"बेटा तेरे सवाल तो कभी-कभी मुझे भी उलझन में डाल देते हैं...।

इन्हीं उलझनों का ही तो निशा हमेशा हल ढूँढ़ती रहती है। क्षितिज के उस पार जाने की उसकी इच्छा और भी तीव्र होने लगती है...।

"माँ आप बता सकती हैं कि उस पेड़ की नींव किसने रखी होगी। मैं उनसे मिल कर सब कुछ जानना चाहती हूँ। उस विशाल पेड़ को छूना चाहती हूँ..."

"बेटा मैं भी यही अपनी माँ से और शायद मेरी माँ अपनी माँ से सुनती आ रही हैं कि इस विशाल पेड़ की नींव हमारे पूर्वजों ने रखी थी। यह पूर्वज कितनी पीढ़ियों पुराने हैं इसका इतिहास बताना तो बहुत कठिन है...। मैंने जो अपने बड़े बूढ़ों से सुना है वही तुम्हें बता सकती हूँ कि हमारे पूर्वज भारत देश से हैं। हम संसार के किसी भी कोने में क्यों न चले जाएँ मगर कहलाएँगे भारतवंशी ही।"

"लेकिन माँ हमारा देश तो वही होना चाहिए न जहाँ हम पैदा हुए हैं। जहाँ हम रहते हैं। यह बात मेरी समझ से परे है मॉम कि हम रहें कहीं और कहलाएँ किसी और देश के... जहाँ हम रहते हैं, खाते कमाते हैं, क्या उस देश के प्रति हमारा कोई कर्तव्य नहीं? उस देश के साथ तो नाइंसाफी होगी न माँ...।"

"नाइंसाफी की सोचो तो क्या हमारे साथ कम हुई है, तब भी हम अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं। हमने अपनी पहचान नहीं छोड़ी..."

"मनुष्य की पहचान यदि उसके देश से होती है तो आप किस देश की कहलाएँगी माँ... भारत, अफ्रीका या ब्रिटेन...? नानी जी भारत से हैं, आप अफ्रीका में पैदा और बड़ी हुईं हैं। भारत देश आपने कभी देखा नहीं। अब पिछले कई वर्षों से आप ब्रिटेन में रहती हैं तो आप किस देश की कहलाएँगी माँ। मेरे बच्चे या उन के बच्चे किस देश को अपना देश कहेंगे या फिर दर-दर भटकते खानाबदोश कहलाएँगे..."

खा़नाबदोश ही तो हैं हम... निशा की नानी सरला बेन जो दूर बैठी माँ बेटी की बातें बड़े ध्यान से सुन रही हैं मन ही मन सोचने लगीं। जिस युगांडा देश को अपना घर जान कर जी जान तोड़ मेहनत की। तिनका-तिनका जोड़ अपना और बच्चों का पेट काट कर कितने अरमानों से एक आशियाना सजाया था यह सोच कर कि यह घर हमें और हमारे बच्चों को सुरक्षा देगा। जब उसी की छत उड़ गई तो फिर बचा ही क्या अपना कहने के लिए...। इधर सरोज जो स्वयं ही सवालों में घिरी हुई है वह बेटी को क्या जवाब दे।

जवाब तो सरला बेन निशा की नानी भी बरसों से कई सवालों के ढूँढ़ रही है...। दो भाइयों की लाड़ली बहन सरला बेन जो गुजरात के एक शहर नवसारी में अपने परिवार के साथ रहती थी। घर में छोटी होने के कारण सब की चहेती थी। माँ तो अपनी बेटी को नवसारी से बाहर अहमदाबाद तक भेजने को तैयार नहीं थी मगर क्या जानती थी कि उनकी बेटी की तकदीर में कुछ और ही लिखा है। शादी के समय माँ ने गले लगाते हुए ठीक ही कहा था "जा बेटा तुझे तखता हम देते हैं बखता ऊपर वाला दे...।" माँ-बाप बेटी के लिए अच्छा घर तो ढूँढ़ सकते हैं किंतु विरासत में अच्छी तकदीर नहीं दे सकते।

सरला बेन के पति पंकज भाई के चाचा जो युगांडा में रहते थे उनकी अचानक मृत्यु हो गई। वे पीछे पत्नी और दो बेटियों को छोड़ गए थे। अच्छा खासा उनका वहाँ किराना स्टोर चल रहा था। उसे अब सँभालने के लिए घर में कोई पुरुष न था। यह वह समय था जब महिलाएँ काम के लिए घर से बाहर नहीं जाती थीं। कमाना केवल पुरुषों का ही काम था। नौकरों के भरोसे किसी व्यापार को कब तक छोड़ा जा सकता। घर वालों ने सलाह करके पंकज भाई व उनकी नई नवेली पत्नी सरला बेन को युगांडा भेज दिया। उनका सोचना अपने स्थान पर उचित था कि कुछ वर्षों पश्चात वहाँ का काम समेट कर सब वापिस भारत आ जाएँगे। मगर वह जो ऊपर बैठा है न, वह मनुष्य की सोच से बहुत आगे सोचता है और सदा ही अपनी मनमानी करता है...। तकदीर ने कुछ ऐसा चक्कर चलाया कि एक बार उनके कदम अपने देश से बाहर क्या निकले कि फिर पलट कर वापिस न आ पाए। उन्हें एक देश से दूसरे देश में ले गए।

सरला बेन अकसर सोचतीं कि... पहले जन्म स्थान छूटा, फिर कर्म स्थान छूटा अब यह धर्म स्थान देखो कब तक पनाह देता है। धर्म स्थान इसलिए कि सब के पास ब्रिटिश पासपोर्ट होने के कारण ब्रिटिश सरकार को बिना कोई सवाल उठाए इन्हें अपने देश में पनाह देनी ही पड़ी...।

सवाल तो सरोज भी कभी खुल कर अपनी माँ सरला बेन से नहीं कर पाई कि वह किस देश की कहलाएगी। युगांडा जहाँ वह जन्म से लेकर जवानी तक रहीँ उसे वह कैसे भूल जाएँ जिसे कुछ वर्षों पहले बड़े गर्व से वह अपना देश कहती थी।

वह भी क्या समय था। देखते ही देखते कितने ही भारतीय जो अधिकतर गुजरात और पंजाब से थे, आ कर अफ्रीका के विभिन्न शहरों में बसने लगे। जिनमें हिंदू, मुसलमान भी और सिख भी थे। सबसे विशेष बात तो यह थी कि इन सब में आपस में भाईचारे की भावना थी। इनके मन में रंग रूप, जाति पांति का कोई भेद भाव नहीं था। पंजाबी जितनी अच्छी तरह से गुजराती बोल सकता था उससे कहीं अच्छी एक गुजराती पंजाबी बोलता था...। एक ही बिल्डिंग के लोग एक परिवार के समान रहते और मिलते जुलते थे। एक दूसरे के त्यौहारों में शामिल होते थे। अधिकतर लोगों का अपना कारोबार था। विशेषकर किराना स्टोर वगैरह जिसमें एशियन मसाले, दालें, चावल, घी, तेल आदि सामान मिलता था।

गुजराती जहाँ भी जाएँगे वहाँ एशियन खाने पीने की कभी भी कमी नहीं हो सकती। गुजराती अपना खाना पीना और अपनी संस्कृति को साथ लेकर चलते हैं। अफ्रीका में हर चीज का अलग-अलग बाजार लगता है। चूड़ी बाजार, मछली बाजार, सब्जी बाजार आदि...। इन सब बाजारों में एशियंस की दुकानें थीं। गरीबी के कारण थोड़े से पैसों में घरों और दुकानों पर काम करने के लिए वहीं के निवासी अफ्रीकन मिल जाते थे।

युगांडा में बहुत गरीबी थी जिसका फायदा एशियंस ने उठाया। वहाँ के रहने वालों के मुकाबले में एसियंस थोड़े पढ़े-लिखे थे। वह पैसा कमाना जानते थे।

वैसे तो अफ्रीका में खुले मैदान व बहुत जमीन है। परंतु जमीनों पर खेती बाड़ी करने के लिए भी तो धन की आवश्यकता होती है जो वहाँ के गरीब निवासियों के पास नहीं था। एशियंस के घरों व दुकानों पर वह दिन रात काम करते थे। जब पेट में दाना न हो और बच्चों की लाइन लगी हो तो इनसान क्या करे। वह स्वयं तो भूखा रह लेगा किंतु बच्चों को भूख से बिलखता कोई नहीं देख सकता। इस लिए चोरी-चकारी का भी काफी डर रहता था। उन के रंग व गरीबी के कारण वह लोगों की मनमानी और हर प्रकार के जुल्म भी सहते थे। अपने बच्चों का पेट भरने की खातिर हर अपमान सहना उनकी मजबूरी थी।

मजबूरी इनसान से क्या नहीं करवाती। इस पापी पेट को काट कर फेंका भी तो नहीं जा सकता। कोई किसी भी रंग का क्यों ना हो भूख सब को लगती है। पेट ना होता तो कौन काम करता। अफ्रीका से देश निकाला मिलने के पश्चात जब ब्रिटेन में आकर पुरुषों को ही नहीं महिलाओं को भी कारखानों में मेहनत मजदूरी करनी पड़ी तब आटे दाल की कीमत समझ में आई। ब्रिटेन जैसे महँगे देश में घर गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए जब तक मियाँ बीवी दोनों काम ना करें निर्वाह होना बड़ा कठिन है। जुबान से तो कोई भी नहीं बोल सकता था लेकिन जिस युगांडा देश ने उन्हें पनाह दी थी उसी देश के वासियों पर अत्याचार करने का परिणाम सामने आ गया कि सब को देश निकाला मिल गया।

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