मेरा स्वर्णिम बंगाल - 3 Mallika Mukherjee द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मेरा स्वर्णिम बंगाल - 3

मेरा स्वर्णिम बंगाल

संस्मरण

(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)

मल्लिका मुखर्जी

(3)

मेरे स्वर्णिम बंगाल

आमि तोमाय भालोबासि

वर्ष 2012 के नवम्बर माह के पहले सप्ताह में जब रांगा मौसी ने फोन पर कहा कि फरवरी 2013 को वे बांग्लादेश जाने का सोच रही है, मैंने एक पल का भी विलंब किए बिना उन्हें कह दिया, ‘मैं भी जाऊंगी आपके साथ।’ किसी भी विषय पर इतना त्वरित निर्णय मैंने कभी नहीं लिया। मेरे माता-पिता की जन्मभूमि, अखंड भारतवर्ष के बंगाल राज्य में स्थित मैमनसिंह जिले का गाँव ‘रायजान’ और कोमिल्ला जिले का गाँव ‘मोईनपुर’ जो अब बांग्लादेश का हिस्सा है -ओह! यह तो एक सपने से कम नहीं कि मैं इस जीवन में कभी माँ और पापा की जन्मभूमि को देख पाऊँ! ‘जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरियसी’ यह पंक्ति हर इन्सान को प्रिय है जो इस धरती पर जन्म लेता है। देश विभाजन के फल स्वरूप जन्मभूमि पूर्व बंगाल (अब बांग्लादेश) से विस्थापित होने के बाद माँ और पापा अपनी जमीन और उनसे जुड़ी यादों को कभी भुला नहीं पाए। जीवन के अंतिम साँस तक वे अपने वतन को याद करते रहे।

नोर्मन विन्सेंट पील की सकारात्मक विचार-शैली को पापा ने आत्मसात कर लिया था। मुझे लगता है उन बीते दिनों की स्मृति से ही वे अपने जीवन मे आई हर मुश्किल से लड़ने की ताकत जुटा पाए। पापा ने अतीत को नींव बनाकर ही वर्तमान की इमारत खड़ी की और सुनहरे भविष्य की ओर अग्रेसर हुए। वे अतीत से मुक्त नहीं हो पाए, पर अपने आत्मविकास में उन्होंने अतीत को एक अविभाज्य अंग बनाया। भविष्य को सुन्दर बनाने की दिशा में बढते रहे। मेरे लिए यह एक उत्कंठा-झंखना थी। मौसी का फोन आते ही यह झंखना तीव्र से तीव्रतर फिर तीव्रतम होती गई। बस, एक बार जाना है मोईनपुर और रायजान, बिलकुल जैसे माँ से बिछड़ी संतान माँ से मिलना चाहती हो। मैंने अपनी इच्छा को ही अपना लक्ष्य बना लिया। मेरे जीवन का सब से बड़ा सपना बन गया माँ और पापा की जन्मभूमि देखना। बंगाल, पूर्व बंगाल, पूर्वी पाकिस्तान फिर बांग्लादेश, एक ही भूमि के कितने नाम! मौसा जी भी उनके पापा की जन्मभूमि ढाका जिले के कनकसार गाँव को देखना चाहते थे।

वर्ष 1947 में स्वतंत्र भारत के विभाजन के फल स्वरूप पंजाब के साथ-साथ बंगाल भी दो हिस्सों मे बँटा। बंगाल का हिन्दु बहुल इलाका भारत के साथ रहा और पश्चिम बंगाल के नाम से उसकी पहचान बनी। मुस्लिम बहुल इलाका पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बना जो बाद में पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना गया। हम सभी देश के विभाजन की कहानी जानते हैं, लेकिन इससे उपजी त्रासदी जिन परिवारों ने सही उनकी पीड़ादायक अनुभूतियों का लेखा-जोखा नहीं हो सकता; बस महसूस किया जा सकता है। विभाजन के समय हुई कौमी हिंसा के कारण प्रताड़ित हुए लाखों हिन्दु-मुस्लिम परिवारों में माँ और पापा का परिवार भी शामिल था। किशोरावस्था में ही उन्हें पाकिस्तान का हिस्सा बनी अपनी जन्मभूमि पूर्व बंगाल से हिन्दुस्तान आकर पश्चिम बंगाल के शरणार्थी शिविर में आश्रय लेना पड़ा।

नाना जी के अपने परिवार के सभी सदस्यों को पश्चिम बंगाल भेजने के निर्णय के पीछे एक अहम् कारण था, वहाँ स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार। विभाजन की त्रासदी की मार स्त्रियों पर ही अधिक पड़ी। अमृता प्रीतम ने अपने उपन्यास ‘पिंजर’ में, भारतवर्ष के विभाजन से पूर्व के पंजाब के एक गाँव की लड़की पूरो के दुखों की कहानी कहते हुए, सन् 1947 में भारत-पाक विभाजन (उपन्यास का केन्द्रबिंदु) के समय हुए दंगों की स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है। वे लिखती हैं, ‘जिस तरह खरबूजा फाँक-फाँक हो जाता है, उसी प्रकार शहरों में, गाँवों में, मनुष्यों से मनुष्य फटते जाते थे।’ स्त्रियों के साथ जिस तरह जबरदस्ती की गई, यह स्थिति सम्पूर्ण मानव जाति को शर्मसार करने वाली स्थिति थी।

पूरो की मनोभावना दर्शाते हुए लेखिका लिखती हैं, ‘पूरो के मन में कई प्रकार के प्रश्न उठते, पर वह उनका कोई उत्तर न सोच सकती। उसे पता नहीं चलता था कि अब इस धरती पर, जो कि मनुष्य के लहू से लथपथ हो गई थी, पहले की भाँति गेहूँ की सुनहरी बालियाँ उत्पन्न होंगी या नहीं.....इस धरती पर, जिसके खेतों में मुर्दे सड़ रहे हैं, अब भी पहले की भाँति मकई के भुट्टों में से सुगंध निकलेगी या नहीं...क्या ये स्त्रियाँ इन पुरुषों के लिए अब भी संतान उत्पन्न करेंगी, जिन पुरुषों ने इन स्त्रियों के, अपनी बहनों के साथ ऐसा अत्याचार किया था...।’

सच कहूँ तो यह पढ़ते हुए मेरे तन में एक सिहरन पैदा होने लगी थी और मन में उन राजनेताओं के प्रति नफ़रत के भाव उभरने लगे थे। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण देश के टुकड़े कर दिए और लोगों के दिलों में कभी न मिटनेवाला जहर भर दिया! घर का मुखिया अगर गलत निर्णय लेता है तो उस घर के सदस्यों को दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं, पर जब देश का मुखिया कोई गलत निर्णय लेता है तब समग्र देश के लाखों लोगों की ज़िंदगी तबाह हो जाती है। बरसों बीत गए उन्हें अपने जीवन को सामान्य बनाने में। नानी माँ तो अपनी तीसरी पीढ़ी तक भी देश विभाजन की व्यथाओं को नहीं भूला पाईं। जब भी वे अपने भव्य अतीत के बारे में बताती, लगता उसी समय में लौट गई हैं। माँ, बड़ी माँ, ताऊजी, जब भी अखंड भारत की स्मृतिओं को झकझोरते, मुझे लगता वे फिर उसी समय में लौट जाना चाहते हैं।

स्मृति की परम्परा धर्म की परम्परा से कुछ ज्यादा ही प्रगाढ़ और मजबूत होती है, जैसा कि कमलेश्वर जी ने कहा है। पापा भी तो अपनी जन्मभूमि की स्मृति को कभी नहीं भुला सके! अपनी जन्मभूमि की स्मृति का एक सिरा हमेशा उनके अतीत से बंधा रहा, जिससे वे अपना वर्तमान सँवारते रहे। कोई दिन ऐसा नहीं बीता होगा जब उन्होंने अपने अतीत से संवाद न किया हो! इस स्मृति का धर्म के साथ कोई रिश्ता-नाता नहीं था। उनकी यादों में था उनका घर, आँगन, उनकी गैया, खेत, तालाब, पेड़-पौधे, उनकी पाठशाला, पगडंङियाँ, मौसम, उनके दोस्त, परिवार, रिश्तेदार, उत्सव, मेले...। अपने गाँव में हर परिवार से उनकी आत्मीयता थी, वे चाहे हिन्दू हो या मुसलमान। उनका बचपन धर्म से परे था तभी तो देश विभाजन के समय प्रताड़ना की चरम अवस्था से गुज़रने के बाद भी उन्होंने कभी हमें धार्मिक वैमनस्य नहीं सिखाया। पापा को मैं नमन करती हूँ। वे बताते थे कि राजनीति के घिनौने खेल के फल स्वरूप अखंड भारत वर्ष के विभाजन की ऐतिहासिक घटना घटी। लोगों को अपना ही घर छोड़ने के लिए बाध्य होकर अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा।

एक त्रासद कथा को वे हमेशा बिना किसी कटुता से पेश करते। पहली संतान होने के नाते मैं पापा के क़रीब थी। मैं एक अच्छी श्रोता थी। पापा अक्सर अपने गाँव की कोई न कोई घटना का जिक्र करके अपने बचपन, लडकपन की स्मृति को जीवंत कर लेते। मैं उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनती और मन में उन जगहों का, उन घटनाओं का रेखाचित्र बनाती। पता नहीं क्यों, मुझे अच्छा लगता, उस अनजानी दुनिया में सफ़र करना! मेरे लिए वो सपनों की दुनिया थी, पापा के लिए खोई हक़ीकत। पापा अतीत के सागर में गोते लगाते, मैं उस सागर की सतह पर कल्पना की नाव पर सवार सपनों की लहरों के संग सैर करती रहती। उनकी स्मृति में अपने वतन की ऐसी सुखद और सुन्दर अनुभवों की यादें संग्रहित थी जिन्हें याद करते ही उनका चेहरा प्रसन्नता से खिल उठता। साथ ही अपना घर, अपना वतन छोड़ने की पीड़ा भी उन की बातों में जरूर झलकती।

जीवन के अंतिम साँस तक वे अपने वतन को याद करते रहे, पर कभी मैंने उन्हें यह कहते नहीं सुना कि एक बार फिर वे अपने गाँव को देखना चाहते हैं। वतन छोड़ते समय जो दर्द, पीड़ा और यातना उन्होंने सही होगी, चाहे कितना भी छुपा लें, उनके चेहरे पर स्पष्ट प्रतीत होता था। उस समय का माहौल, मज़बूरी- पता नहीं अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए उस समय उन्हें कितनी भयावह परिस्थितियों से गुजरना पड़ा होगा!

वर्ष 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के वक्त मेरी उम्र 15 वर्ष की थी। उस समय का डरावना माहौल तो याद है, सारे देश में ब्लैक आउट घोषित किये जाने की वजह से शाम होते ही सारे देश में अन्धकार छा जाता। कोई भी घर से बाहर न निकलता। बड़े बुजुर्गों की निगाहें आसमान में टिकी रहती, हर पल हवाई हमले का डर सताता। तब मुझे इतिहास में इतनी रूचि नहीं थी। युध्द के परिणाम स्वरूप पाकिस्तान का एक और विभाजन हुआ और पाकिस्तान से अलग होकर पूर्व पाकिस्तान (पूर्व बंगाल), बांग्लादेश बना। अब बांग्लादेश का इतिहास जानना मेरे लिए निहायत जरुरी था। मैंने इंटरनेट पर सर्च करना शुरु किया। बांग्लादेश, जो कभी अखंड भारत के बंगाल राज्य का हिस्सा था, आज दक्षिण जंबूद्वीप का एक राष्ट्र है।

स्वाधीनता आंदोलन के फल स्वरूप सन 1947 में भारत को स्वाधीनता मिली पर राजनैतिक कारणों से अखंड भारत, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में विभाजित हुआ। पाकिस्तान बनने के साथ ही वहाँ अप्रत्यक्ष रूप से एक और बँटवारा हो गया था। पश्चिमी क्षेत्र में सिंधी, पठान, बलोच और मुहाजिरों (उर्दू बोलने वाले मुस्लिम जो दिल्ली, उत्तरप्रदेश, हैदराबाद और अन्य प्रांतों से पाकिस्तान गए उन्हें वहाँ बसने और सम्मिलित होने में बहुत कठिनाइयाँ आईं। इन शरणार्थियों को मुहाज़िर का नाम दिया गया) की बड़ी संख्या थी। पूर्वी हिस्से में बांग्ला बोलने वालों का बहुमत था। दोनों क्षेत्रों की जनता का धर्म एक होते हुए भी उनके बीच भाषा और जातिगत दूरियाँ काफ़ी थी। पश्चिमी पाकिस्तान ने भाषा की श्रेष्ठता के आधार पर पूर्वी पाकिस्तान के साथ सौतेला व्यवहार करना आरंभ कर दिया। बांग्ला भाषी पाकिस्तानियों का शोषण होने लगा और उन्हें पाकिस्तान में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाने लगा।

जमींदारी प्रथा ने इस क्षेत्र को बुरी तरह झकझोर रखा था। जिसके खिलाफ़ वर्ष 1950 में ही एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ था। वर्ष 1952 में बांग्ला भाषा आंदोलन भी शुरु हुआ। वर्ष 1955 में पाकिस्तान सरकार ने पूर्वी बंगाल राज्य का नाम बदलकर पूर्वी पाकिस्तान कर दिया। यहीं से उनकी दमन और उपेक्षा की शुरुआत हुई। पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों में श्रेष्ठता का दंभ था। इस कारण पाकिस्तान बनने के बाद जो विकास कार्य हुआ, वह पश्चिमी पाकिस्तान में ही हुआ। ऐसे में बांग्ला भाषी पाकिस्तानियों की आर्थिक स्थिति में भी निरंतर गिरावट आती रही। इस सौतेलेपन के विरुद्ध पूर्वी पाकिस्तान ने आवाज़ बुलंद की। सत्तर का दशक आते-आते यह तनाव चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। इसका परिणाम यह हुआ कि उनकी आवाज़ को कुचलने के लिए कई बार सैनिक कार्रवाई भी की गई।

अंततः शेख़ मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में अवामी लीग का गठन हुआ। समस्त पूर्वी पाकिस्तान सौतेलेपन और शोषण के विरुद्ध एकजुट हो गया। पाकिस्तान के सैन्य शासक याह्या ख़ान ने वर्ष 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में सेना भेज दी। इन सैनिकों ने विद्रोह पर आमादा लोगों पर जमकर अत्याचार किए। 25 मार्च 1971 को यहाँ भारी नरसंहार हुआ। अमानवीयता की हदें पार हो चुकी थी। इन सैनिकों ने पूर्वी पाकिस्तान की बहू-बेटियों के साथ सामूहिक रूप से बलात्कार किए। लोगों के क़त्ले-आम में बच्चों को भी नहीं बख्शा गया। इससे पाकिस्तानी सैन्य में काम कर रहे पूर्वी क्षेत्र के निवासियों में रोष इतना बढ़ा कि उन्होंने अलग मुक्तिवाहिनी बना ली।

मुक्तिवाहिनी एक छापामार संगठन था जो पाकिस्तानी सेना के खिलाफ़ गुरिल्ला युद्ध लड़ रहा था। निरपराध, हथियारविहीन लोगों पर अत्याचार जारी रहे। पूर्वी पाकिस्तान के भयभीत लोग हिंदुस्तान के सीमावर्ती प्रांतों में शरण लेने के लिए मजबूर हो गए। वर्ष 1971 के नवंबर माह तक पूर्वी पाकिस्तान के एक करोड़ शरणार्थी हिंदुस्तान में प्रविष्ट हो चुके थे। विधि की विडंबना थी कि जो लोग कभी अखंड भारत के निवासी थे, भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान में रहे, वही लोग आज शरणार्थी बन हिन्दुस्तान में आए। इन शरणार्थियों की उदर पूर्ति करना तब भारत के लिए एक समस्या बन गई थी। ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान ने पाकिस्तान के बर्बर रुख़ के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवता के हित में आवाज़ बुलंद की। इसे पाकिस्तान ने अपने देश का आंतरिक मामला बताते हुए पूर्वी पाकिस्तान में घिनौनी सैनिक कार्रवाई जारी रखी। छह माह तक वहाँ दमन चक्र चला।

इसके पश्चात पाकिस्तान ने 3 दिसम्बर, 1971 को हिन्दुस्तान के वायु सेना ठिकानों पर हमला करते हुए उसे युद्ध का न्योता दे दिया। पश्चिमी हिन्दुस्तान के सैनिक अड्डों पर किया गया हमला पाकिस्तान की ऐतिहासिक पराजय का कारण बना। हिन्दुस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस जुल्म का विरोध करते हुए मुक्तिवाहिनी को समर्थन देने का फैसला किया। तीनों सेनाध्यक्षों के साथ मिलकर योजना बनाई। फ़ील्ड मार्शल जनरल मानेक शा से परामर्श किया। 13 दिसंबर को हिन्दुस्तान की सेनाओं ने ढाका को सभी दिशाओं से घेर लिया। 16 दिसंबर को जनरल नियाजी ने 93 हज़ार पाक सैनिकों के साथ हथियार डाल दिए। उन्हें बंदी बनाकर हिन्दुस्तान ले आया गया। शीघ्र ही बांग्लादेश के रूप में एक नए राष्ट्र का जन्म हुआ और पाकिस्तान पराजित होने के साथ ही साथ दो भागों में विभाजित भी हो गया। हिन्दुस्तान ने बांग्लादेश को अपनी ओर से सर्वप्रथम मान्यता भी प्रदान कर दी। इसके बाद कई अन्य राष्ट्रों ने भी बांग्लादेश को एक नए राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी। आगे का इतिहास मैं नहीं दोहराना चाहती।

मौसी का फ़ोन पाकर मुझे महसूस हुआ कि मैं अपने माता-पिता की सपनों की दुनिया में प्रवेश कर सकूंगी। मेरी यह तमन्ना इतनी प्रबल थी कि आर्थिक संकट के रहते भी मैंने बांग्लादेश जाने का निर्णय ले ही लिया। हमें तो अपने जीवन में थोडा बहुत संघर्ष करना पड़ा, पर यहाँ बात उन इन्सानों के संघर्ष की थी जिन्होंने हमें जीवन दिया। अपनी सकारात्मक सोच से संघर्षपूर्ण जीवन को कैसे आसान बनाया जा सकता है, यह पाठ पढाया। उनके ख़ुशनुमा अतीत की झाँकी का मौका मिल रहा था, संदेह की कोई गुंजाइश ही न थी। मैंने बांग्लादेश की मुलाक़ात को अपना लक्ष्य बनाते हुए उसी रात को श्यामल भैया को फोन लगाया। अब वे ही थे जो हमें मोईनपुर का पता बता सकते थे क्यों कि सन् 1950 में आठ साल की उम्र में वे ही पापा के साथ भारत आए थे। वर्तमान में रेल्वे विभाग से सेवानिवृत्त होकर कल्याणी में ही परिवार के साथ रहते हैं।

पापा वतन में संयुक्त परिवार में रहते थे। बड़े भैया सतीशचंद्र भौमिक का परिवार, चचेरे भाई अनिलचंद्र और अखिलचंद्र का परिवार सब साथ में रहते थे। पापा बचपन में ही माता-पिता को खो चुके थे। अपनी भाभी को ही वे माँ मानते थे। ताऊजी सतीश चन्द्र की तीन बेटियाँ झरना, कल्पना, अर्चना और एक ही बेटा, श्यामल भैया थे। पापा श्यामल भैया को ताऊजी की अनुमति से ही पश्चिम बंगाल में लाए थे। पापा के चचेरे बड़े भाई अनिलचंद्र भौमिक अपने परिवार के साथ 1947 में ही पश्चिम बंगाल में आ चुके थे। उन्हें रेल्वे में नौकरी मिल गई थी। ताऊजी के परिवार के साथ ही श्यामल भैया की परवरिश हुई। पापा को भी बाद में बॉम्बे स्टेट के पश्चिम रेल्वे में नौकरी मिल गई।

सेवानिवृत्ति के बाद ताऊजी नदीया जिले के कल्याणी शहर में स्थायी हुए, पापा ने भी उनके साथ ही अपने परिवार के लिए आवास बनाया ताकि रिटायरमेंट के बाद अपने भाई के परिवार के साथ रह सके, पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। सिर्फ़ 56 वर्ष की आयु में पापा का निधन हो गया। ताऊजी और बड़ी माँ अब नहीं रहे, माँ भी नहीं रही।