आधी दुनिया का पूरा सच
(उपन्यास)
25.
एक दिन रानी प्रात: उठी, तो मौसी उसको अपने आस-पास कहीं दिखायी नहीं पड़ी। घंटों तक वह मौसी के आने की प्रतीक्षा करती रही। वह प्रतीक्षा करते-करते थक गयी, किन्तु मौसी नहीं आयी । भूख भी लग आयी थी। मौसी के बताए अनुसार रानी को अनुभूति हो रही थी कि भूख उसको नही, बल्कि उसके गर्भस्थ शिशु को लगी है, इसलिए वह बार-बार अपने पेट पर हाथ रखकर मन-ही-मन कह उठती -
"मैं तो दिन-भर भूखी रह सकती हूँ ! पर तू अभी बहुत छोटा है न, इसलिए तुझे अभी भूख सहन करने की आदत नहीं है !"
रानी कुछ क्षणों तक इधर-उधर की बातें सोचती हुई मौसी को ढूँढती और फिर कहती -
"पर तू चिन्ता नहीं कर ! मौसी को आज अपने घर से आने में देर हो गयी होगी, इसलिए वह सीधे अपनी दुकान पर चली गई होगी !"
यह सोचते-सोचते रानी के कदम मौसी की दुकान की ओर उठ गये । कुछ ही मिनटों में वह मौसी की दुकान पर पहुँच गयी, किन्तु मौसी वहाँ पर भी नहीं थी । वह सोचने लगी -
"मौसी इतनी देर से तो कभी नहीं आती ! आज इतनी देर ... ?"
"कोई बात नहीं ! कुछ काम लग गया होगा ! आ जाएगी मौसी ! तब तक मैं अंगीठी सुलगा देती हूँ !" रानी ने स्वयं ही उत्तर देते हुए स्वयं को संतुष्ट करने का प्रयास किया और अंगीठी सुलगाने लगी ।
कुछ क्षणों तक अंगीठी में डाले हुए ईंधन से धुआँ उठने के पश्चात् आग धधक उठी, किन्तु आग पर पकाने के लिए कुछ सामान उपलब्ध नहीं था। धीरे-धीरे अंगीठी की आग ठण्डी राख में परिवर्तित हो गयी । दूसरी ओर रानी की जठराग्नि प्रज्ज्वलित होकर प्रचंड से प्रचंडतर होती जा रही थी, जिसको सद्य शान्त करने का उसको कोई उपाय नहीं सूझ रहा था।
धीरे-धीरे क्रमशः दिन चढ़ा और ढल गया, परन्तु मौसी का कहीं कोई अता-पता नहीं था। रानी को भूख से दुर्बलता का अनुभव होने लगा। जब उसकी आँखें बंद होने लगी, उसे अपनी भूख शान्त करने का एक उपाय सूझा। वह कुछ दूरी पर चल रहे ढाबे पर गयी और मौसी की दुकान की ओर संकेत करके ढाबे के स्वामी से प्रार्थना की -
"मैं वहाँ मौसी के साथ उनकी दुकान पर रहती हूँ ! आज अभी तक मौसी नहीं आयी हैं ! मुझे बहुत जोर से भूख लगी है ! मेरा बच्चा भूख से तड़प रहा है ! आप मुझे थोड़ा-सा खाना दे दो, बदले में मैं आपके बर्तन धोने और सब्जी छीलने-काटने का काम कर दूँगी !"
रानी की प्रार्थना स्वीकार करके ढाबा-स्वामी ने ढाबे पर काम करने वाले बावर्ची को आदेश दिया कि रानी को भरपेट भोजन करा दे। जब रानी ने भोजन कर लिया, तब ढाबा-स्वामी ने उससे भोजन के बदले काम नहीं कराया और आत्मीयता से आराम करने के लिए कहकर वहाँ से भेज दिया। रानी पुनः मौसी की दुकान पर आकर बैठ गयी । रानी को मौसी की प्रतीक्षा में दुकान पर बैठे-बैठे रात हो गयी, तब तक भी मौसी नहीं आयी, नही उसको मौसी की कोई सूचना मिली । अंत में देर रात होने पर वह उठकर रेलवे जंक्शन के टिकट-घर लौट में आयी और भूखे पेट सो गयी ।
प्रातः आँखें खुली, तो धरती पर लेटे-लेटे उसकी दृष्टि ने मौसी को खोजने का प्रयास असफल किया । चूँकि वह रात भी भूखी सो गयी थी, इसलिए उठते ही उसने अनुभव किया कि गर्भस्थ शिशु भूख से बेचैन है !
भूख से तड़पते हुए बच्चे के प्रति कर्तव्य निर्वहन के विचार से प्रेरित होकर रानी उठी और मौसी की दुकान की ओर चल दी। रास्ते में वही ढाबा था, जहाँ उसने पिछले दिन अपने पेट की ज्वाला शान्त की थी। ढाबे के निकट पहुँचते ही रानी के कदम ठिठककर रुक गये । वह कुछ क्षणों तक वहीं खड़ी रही और ढाबे पर रखे भोजन को ललचायी दृष्टि से निहारते हुए भोजन की सुगंध लेती रही। सुगंध से भूख शान्त होने के स्थान पर और अधिक प्रचंड होने लगी ।
आज रानी ढाबा स्वामी से भोजन मांगने का साहस नहीं जुटा सकी। पिछले दिन यदि ढाबा-स्वामी भोजन के बदले उससे काम करा लेता, तो शायद आज वह भोजन मांगने की हिम्मत कर सकती थी ! उसने आशा की कि स्वयं ढाबा-स्वामी या बावर्ची उसे भोजन देने का प्रस्ताव दे दे, तो ... !"
लेकिन ऐसा नहीं हुआ और वह कुछ क्षणोपरान्त वहाँ से प्रस्थान करके मौसी की दुकान पर आकर बैठ गयी ।
धीरे-धीरे सूरज अपनी गति से ऊपर चढ़ने लगा। दोपहर होते-होते धूप तेज हो गयी और दिन गरम हो चला। दूसरी ओर भूख बढ़ने से रानी की बेचैनी बढ़ने लगी, लेकिन पेट भरने का कोई सुलभ साधन नहीं था। भीख मांगकर तिरस्कार की रोटी खाने में उसकी रुचि नहीं थी और रोटी के बदले उसको काम देने के लिए कोई तैयार नहीं था, न ही वह काम करने की दशा में थी ।
बैठे-बैठे रानी को अपनी भूख शान्त करने का एक उपाय सूझा -
"क्यों न मैं किसी मन्दिर में ईश्वर की शरण में जाकर बैठ जाऊँ, जहाँ प्रसाद पाकर पेट की ज्वाला कुछ शान्त हो सके !"
अपनी सोच के अनुसार रानी अपने स्थान से उठी और मन्दिर की दिशा में चल पड़ी। वह कुछ ही दूर चल सकी थी कि भूख, दुर्बलता और धूप के कारण उसका सिर घूमने लगा । ऐसी स्थिति में वह आगे एक भी कदम नहीं बढ़ा सकी और वापिस मौसी की दुकान पर सब-कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़कर आँखें बंद करके धरती पर लेट गयी ।
दोपहर ढलने के पश्चात् दो युवक उधर से गुजरे और रानी पर छींटाकशी करने लगे। युवकों की फब्तियाँ सुनकर रानी ने बहुत परिश्रम से अपनी आँखें खोली और देखा - ये दोनों वही युवक थे, जिन्होंने मौसी की दुकान पर उसके आने के दो-तीन दिन पश्चात् पहली बार छींटाकशी की थी और मौसी उन्हें गालियाँ देते हुए डण्डा लेकर उनके पीछे दौड़ी थी और उनके जाने के बाद रानी को भी ऐसी परिस्थितियों से दो-दो हाथ करना सिखाया था। किन्तु, आज रानी में इतनी शक्ति शेष नहीं बची थी कि मौसी की शिक्षाओं को कार्यरूप में परिणत कर सके। वह चुपचाप आँखें खोलकर उनकी ओर देखती रही । कुछ समय तक दोनों युवक अपनी वाणी तथा संकेतों से उसके प्रति अनपेक्षित व्यवहार का प्रदर्शन करते रहे। रानी की ओर से अपने अभद्र व्यवहार की आशानुरूप प्रतिक्रिया ने पाकर दोनों युवक रानी के और अधिक निकट आकर बोले -
"मौसी की बाट जोह रही है ? अब मौसी नहीं आने वाली तेरी सहायता करने के लिए !" एक युवक ने कहा ।
"रोज तो बड़ी ईट-पत्थर फेंकती थी, गालियों के साथ डण्डा लेकर दौड़ती थी, चुप क्यूँ है मेरी छम्मो रानी ?" दूसरा युवक बोला ।
"आज फेंक हमारे ऊपर पत्थर ! आज दे गालियाँ ! आज पत्थर नहीं फेंकेगी ? आज गालियाँ नहीं देगी ? हा-हा-हा !" कहते हुए दोनों युवक ठहाका लगाकर हँस पड़े !
इतने पर भी रानी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। रानी को इस प्रकार मूक-शान्त देखकर दोनों युवकों में फुसफुसाट्ट आरम्भ हो गयी -
"शायद इसको पहले ही पता लग चुका है !" एक युवक ने फुसफुसाते हुए धीमे स्वर में कहा।
"नहीं, हमारे सिवा इसको कौन बता सकता है ?" दूसरे युवक ने प्रतिवाद किया।
"तू भी सही कह रहा है ! तबीयत तो खराब नहीं हो गयी है इसकी ?"
"चल, पूछ लेते हैं !" पहले युवक ने कहा और दोनों रानी के बिल्कुल निकट आ गये । एक युवक ने रानी को हाथ से छूकर पूछा -
"तेरी तबीयत तो ठीक है ?"
युवक के हाथ का स्पर्श पाते ही रानी के हृदय में भय के साथ क्रोध का संचार हुआ। उसने युवकों का प्रतिकार करने के लिए उठने का प्रयास किया, किन्तु विफल रही। अन्त में कटु वाणी में कुछ अस्पष्ट शब्दों का उच्चारण किया। रानी के अस्पष्ट शब्दों को सुनकर उनमें से एक युवक बोला-
"उठने-भर का दम नहीं है, फिर भी गाली देने में कम नहीं है ! हा हा हा !" दोनों विद्रूप हँसी हँस पड़े।
"चल यार, हम उठा देते हैं !" कहते हुए पहला युवक पुन: आगे बढ़कर रानी को उठाने का प्रयास करने लगा। रानी ने उस युवक के सहयोग से उठने में कोई रुचि नहीं ली और पूर्ववत अत्यन्त क्षीण वाणी में अस्पष्ट गालियाँ उच्चारती रही । अतः वह युवक भी उसको उठाने के अपने प्रयास में सफल नहीं हो सका । लेकिन रानी को उठाने का प्रयास करते हुए उसको एहसास हो गया था कि भोजन-पानी न मिलने के कारण रानी का शरीर अत्यधिक दुर्बल हो गया है। अतः उसने अपने साथी दूसरे युवक से कहा -
"नन्दू ! जा, जल्दी पानी लेके आ ! इसका मुँह सूख रहा है ! शायद यह इसीलिए नहीं उठ पा रही है और न ही ठीक से बोल पा रही है !"
नन्दू दौड़कर वहाँ से कुछ दूरी पर चल रहे ढाबे से पानी ले आया और रानी की ओर बढ़ा दिया। पानी को देखते ही रानी के प्राण हरे हो गये । वह अपनी पूरी शक्ति के साथ उठ बैठी और बिना कुछ सोचे-समझे, बिना कुछ बोले युवक के हाथ से गिलास लेकर पूरा पानी एक साँस में गटागट पी गयी । उसको पानी पीते देखकर युवक एक बार पुन: ठहाका लगाकर हँसे-
"अब तो तुझमें पत्थर फेंकने और गाली देने की ताकत पड़ गयी होगी ?"
रानी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, चुपचाप बैठी रही । बैठे-बैठे भी दुर्बलता से उसकी आँखें बार-बार झपक रही थीं । उसकी इस दशा को देखकर पहले युवक ने पूछा -
"खाना खाएगी ?"
रानी को तेज भूख लगी थी । वह जानती थी कि भोजन करने के पश्चात् उसकी दुर्बलता कुछ सीमा तक दूर हो जाएगी, किन्तु उसके अन्तःकरण से एक मौन स्वर उभरा -
"इनका दिया हुआ भोजन करने से तो मर जाना बेहतर है !"
अगले ही क्षण प्रतिवाद स्वरूप एक और स्वर उभरा -
"तू मरेगी, तो इस दुनिया में आने से पहले ही तेरा बच्चा भी मर जाएगा ! भूल गयी ? पुजारी काका ने और मौसी ने कहा था, बच्चा ईश्वर का रूप होता है ! एक माँ के लिए अपने बच्चे की सेवा, ईश्वर की सेवा है !"
अपने ही अंत:करण से दो परस्पर विरोधी विचार उठने के कारण रानी ने कोई उत्तर नहीं दिया। रानी के अंन्तर्द्वंद्व का दोनों युवक अनुमान लगा सकते थे। अतः चन्दू ने पुन: आदेश दिया -
"जा, नन्दू ! इसके लिए ढाबे से थोड़ा-सा खाना ले आ !"
शीघ्र ही नन्दू ने निकट के ढाबे से दाल-रोटी तथा एक बोतल पानी लेकर रानी के सामने लाकर रख दिया। भोजन देखते ही रानी के मनःमस्तिष्क ने कहा-
"खा ले रानी !"
वह रोटी का टुकड़ा तोड़कर मुँह में डालने वाली थी, तभी न जाने किस शक्ति ने उसके हाथों को आगे बढ़ने से रोक दिया। रानी को निष्क्रिय देखकर चन्दू ने कहा - "खा ले ! तेरे लिए ही मंगाया है ! कुछ खाएगी नहीं, तो डंडे-पत्थर मारने और गाली देने की ताकत कहाँ से आएगी ! हा-हा-हा !
"तुझे यह डर तो नहीं है कि हमने तेरे खाने में कुछ मिला दिया होगा ? हा-हा-हा !"। नन्दू ने कहकर ठहाका लगाया । रानी अभी भी निष्क्रिय चुप बैठी थी।
"देख रानी ! हम लोग वैसे बिल्कुल नहीं है, जैसा तू सोच रही है ! हमें मौसी ने ही भेजा है !" चन्दू ने रानी को आश्वस्त करते हुए कहा ।
क्रमश...