आधी दुनिया का पूरा सच
(उपन्यास)
24.
प्रात:काल स्त्री का चिर-परिचित मृदु-मधुर स्वर सुनकर रानी की नींद टूटी, तो वह आश्चर्य से चौंक कर उठ बैठी -
"आंटी, आप ! इतनी सुबह !"
"फिर अंटी कहा तूने ! मौसी बोलने में जीभ जलती है तेरी ?"
"नहीं मौसी, मैं भूल गयी थी ! पर आज आप इतनी जल्दी यहाँ ?"
"क्यूँ ? मैं यहाँ जल्दी नहीं आ सकती !"
"मौसी, मेरा यह मतलब नहीं था !"
"पता है मुझे तेरा मतलब ! चल खड़ी हो ! दुकान पर नहीं चलना है ?"
"चलना है, मौसी !" यह कहते हुए रानी मन में उत्साह भरकर उठ खड़ी हुई और आँखें मलते हुए स्त्री के साथ चल पड़ी । उसे ऐसा अनुभव हो रहा था कि मझधार में डूबते हुए उसे एक तिनका नहीं बल्कि नाव पर आश्रय मिल गया है, जिसकी सहायता से वह अपने जीवन में आये हुए तूफान को अवश्य पार कर जाएगी ।
बिना दीवार और बिना छत की अपनी दुकान में पहुँचकर स्त्री ने अपने सामानों में से सर्वप्रथम खाने की कुछ खट्टी-मीठी चीजें निकाली और रानी की ओर बढ़ाते हुए कहा-
"ले, खा ले ! तेरे पेट का जीव भूख से तड़प रहा होगा ! कह रहा होगा, नानी भूखा रखती है !" कहकर स्त्री अंगीठी सुलगाने लगी।
रानी मुस्कुराते हुए स्त्री के हाथ से खाने की खट्टी-मीठी चीजें लेकर खाने लगी । कुछ ही मिनटों में स्त्री ने चाय बना कर दो प्यालों में छान ली और दोनों ने बैठकर पी। तत्पश्चात् दिन-भर रानी ने ग्राहकों को चाय और सब्जी-रोटी परोसी, झूठे बर्तन भी धोये, किन्तु साथ ही साथ आज स्त्री ने एक आदर्श माँ की भाँति रानी का विशेष ध्यान रखा ।
रानी का हृदय आज बहुत दिनों बाद किसी के व्यवहार से कुछ थोड़ी-सी तृप्ति की अनुभूति कर रहा था। आज उसे कुछ ऐसा अनुभव हो रहा था कि परिवार में न सही पर किसी रिश्ते-नातेदार के परिवार के साथ अवश्य है। उस दिन के पश्चात् दिन-प्रतिदिन रानी और मौसी में परस्पर आत्मीयता का भाव और अधिक प्रगाढ़ होता गया, किन्तु दोनों में प्रगाढ़ आंत्मीयता के बावजूद अभी भी रानी को गाजियाबाद रेलवे जंक्शन के टिकट-घर के हॉल में जाकर ही सोना पड़ता था।
आठ-दस दिन पश्चात् एक दिन शाम को एक आकस्मिक घटना घटी। रानी दुकान पर बैठी ग्राहकों के झूठे बर्तन धो रही थी। तभी तीन-चार युवक वहाँ आकर मौसी से बोले -
"मौसी, यह छैल-छबीली तितली कहाँ से पकड़ लायी है ? देखने में तो चटपटी लग रही है !"
रानी समझ चुकी थी कि वे शोहदे यह सबकुछ उसी के बारे में बोल रहे हैं, फिर भी वह चुपचाप बैठी बर्तन धोती रही । मौसी ने भी उनके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और अपनी गर्दन दूसरी ओर घुमाकर काम में लग गयी । अपने भद्दे मज़ाक का कोई जवाब न पाकर शोहदो ने रानी को लक्ष्य करके अश्लील शब्दों-संकेतों के साथ छींटाकशी करना आरंभ कर दिया। कुछ क्षणों तक मौसी यह सब देख-सुनकर भी मौन रही। मौसी को आशा-अपेक्षा थी कि रानी उन आवारा युवकों की अभद्र टिप्पणियों का विरोध अवश्य करेगी, परन्तु जब रानी ने स्वयं किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं की, तब मौसी ने युवकों को गाली देना आरम्भ किया -
"बेटी है यह मेरी ! हरामी पिल्लो, इसकी तरफ गलत नजर से देखा भी, तो तुम्हारी आँखें नोंच लूँगी !"
युवक उस समय तो कुछ क्षणों लिए वहाँ से हट गये, किन्तु वे मौसी की धमकी को मानने वाले नहीं थे । कुछ ही क्षणोंपरान्त वे पुनः वहाँ आकर अपने शोहदेपन का परिचय देने लगे। मौसी ने रानी से अपनी आशा-अपेक्षा इस बार भी युवको का विरोध करने की कुछ क्षणों तक प्रतीक्षा की, लेकिन इस बार भी रानी ने अपना विरोध प्रकट करने के लिए किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, चुपचाप नीचे दृष्टि करके अपने कार्य में व्यस्त रही। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मौसी रूपी कवच की सुरक्षा में रहते हुए रानी ने इसकी आवश्यकता का अनुभव ही नहीं किया था । अतः मौसी ने रानी को डाँटते हुए कहा -
"अरी, इन लफंगों के बाणों से बिंध के भी तू बुत बनके क्यूँ बैठी है ! ले, अंगीठी की इस जलती लकड़ी से इन्हें एक बार ऐसा दाग दे, कि जिंदगी-भर दुबारा इधर का रुख करने की हिम्मत ना कर सकें !"
रानी ने दृष्टि उठाकर मौसी की ओर एक बार देखा, तब तक मौसी पत्थर का एक छोटा-सा टुकड़ा लेकर शोहदों की ओर दौड़ पड़ी थी-
"हरामी ! कुत्ते की औलाद ! तुम्हारी बोटी-बोटी को ऐसे कच्चा चबा जाऊँगी, कि तुम्हारी ल्हाश का भी कहीं नामोनिशान ना मिलेगा ! घर वाले ढूँढते फिरेंगे, कहाँ गया ? कहाँ गया ?"
मौंसी की गालियाँ सुनकर दोनों आवारा लड़के भाग गये । उनके जाने के बाद मौसी ने रानी को समझाते हुए कहा -
"सड़क पर बैठके दुकान ऐसेई ना चलाई जाती है बेटी ! पत्थर की तरह बज्र होना पड़ता है ! इतना बज्र कि कोई टकराए, तो खुद चोट खाए ! ऐसे कोमल-कमजोर बनके रहेगी, तो हरामी आवारा-लफंगे मर्द तेरा कोरमा बनाके चाट जायेंगे ! समझी तू !"
"समझ गयी मौसी !" रानी ने स्वीकृति में अपनी गर्दन हिलाकर कहा।
उस दिन के बाद भी कई बार ऐसी घटनाएँ घटित होती रही थीं । हर बार ऐसी परिस्थितियों से निबटने के लिए मौसी ने रानी को कई युक्तियाँ और ढेर-सारी गालियाँ सिखायी । शीघ्र ही ऐसा समय आ गया, जब किसी शोहदे के अनचाहे क्रियाकलाप पर अपने गर्भस्थ शिशु के विकास से फूले हुए पेट के साथ भी रानी खूँखार घायल शेरनी का रूप धारण कर लेती थी। रानी के उस रूप को देखकर मौसी को अपना परिश्रम सार्थक अनुभव होता था। तब वह मुस्कुराकर कहती थी -
"शाबाश, रानी ! अब तू इस दुनिया में आराम से जी सकती है !"
मौसी की पहली बार शाबाशी सुनकर रानी को अच्छा लगा था, किन्तु उनके वक्तव्य को न समझ पाने की मुद्रा में मायूस प्रश्नात्मक दृष्टि से मौसी को देखने लगी थी । तब मौसी ने पुनः समझाने की शैली में कहा था -
"दूसरों का जीना हराम करने वालों को सबक सिखाने की ताकत जिसमें होती है, वही इस दुनिया में सुख-चैन से रह सकता है ! वरना, दुनिया में सीधे-सादे इंसान को ऐसे लोग जीने नहीं देते हैं ! समझी।" रानी ने मौसी की सहमति में मुस्कुराते हुए गर्दन हिला दी।
मौसी की पहली शाबाशी के बाद से किसी की भी अनुचित बात का विरोध करने का रानी का उत्साह दिनोंदिन बढ़ने लगा और दुकान पर आने वाले ग्राहकों के किसी भी अनुचित व्यवहार का विरोध करके वह मौसी की शाबाशी कमाने लगी ।
अब रानी को अपने माता-पिता न मिलने पर भी मौसी के संरक्षण में ऐसा लगता था कि धीरे-धीरे उसका जीवन पटरी पर आ रहा था। दूसरी ओर शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भाँति दिन-प्रतिदिन उसका पेट बढ़ता जा रहा था । मौसी एक सुघड़ माँ की तरह बराबर उसकी देखभाल कर रही थी। उसके खाने-पीने का क्षण-प्रतिक्षण ध्यान रख रही थी। कई बार सरकारी अस्पताल में उसकी जाँच भी करा चुकी थी ।
मौसी को जब भी थोड़ा खाली समय मिलता, तभी रानी को बताना आरम्भ कर देती कि गर्भवती स्त्री को कैसे लेटना चाहिए ? किस मुद्रा में बैठना चाहिए ? क्या खाना चाहिए ? क्या नहीं खाना चाहिए ? क्या करना चाहिए ? और क्या नहीं करना चाहिए ? शिशु को जन्म देने के पश्चात् माँ को अपनी और अपने बच्चे की देखभाल कैसे करनी चाहिए ? ताकि माँ और शिशु दोनों स्वस्थ रहें ! मौसी की हर एक बात को रानी ध्यानपूर्वक सुनती और ग्रहण करती थी। ध्यान से मौसी की बातें सुनते हुए उसके मनःमस्तिष्क में सदैव एक प्रश्न कौंधता रहता था और कई बार वह अपनी जिज्ञासा को सीधे सपाट सरल शब्दों में मौसी के समक्ष अभिव्यक्त कर चुकी थी -
"मौसी, बच्चा पेट से बाहर कैसे आएगा ?"
"अरी मेरी रानी, तू इस सबकी चिंता मत कर ! बच्चे पैदा कराने का काम डॉक्टर-नर्स कर लेंगे ! तू इस फिकर में क्यूँ पड़ रही है ! तू बस इतनी सोच, जितना तुझे करना है !"
कहते हुए मौसी मुस्कुराकर उसके गाल पर स्नेह की एक चपत लगाती और उसके सिर पर हाथ रखकर ढेरों आशीष दे डालती। ऐसा करते हुए प्राय: मौसी की आँखों से दो बूंद आंसू की टपक जाती, तब रानी अनायास पूछ बैठती -
"मौसी, आप क्यों रो रही हो ? क्या डॉक्टर-नर्स मेरा पेट चीरकर बच्चे को बाहर निकालेंगे ?"
रानी के प्रश्न को सुनकर और उसके चेहरे पर भय मिश्रित चिन्ता के भाव देखकर मौसी वातावरण को हल्का करने के लिए खिलखिला कर हँस पड़ती और कहती -
"डर और चिन्ता जैसी कोई बात नहीं है ! आने तो दे उस सुभ दिन को, जब मेरी बेटी माँ बनेगी और मैं नानी बनूँगी !"
मौसी का उत्तर सुनकर रानी उस समय चुप हो जाती, किन्तु उसकी जिज्ञासा शान्त नहीं करने की उसकी शिकायत मौसी से बनी ही रहती। तब मौसी स्वयं को आरोपमुक्त करने के लिए अपने पक्ष में सफाई देते हुए कहती-
"मेरा कोई बच्चा होता, तो मैं तुझे जरूर बताती रानी ! जितना मुझे पता है, तुझे बताती-सिखाती रहती हूँ !"
समय निरन्तर आगे बढ़ता जा रहा था। प्रकृति की अपनी विकास प्रक्रिया के अनुरूप रानी का गर्भस्थ शिशु जितना बड़ा होता जा रहा था, उसी अनुपात में रानी का पेट बढ़ता जा रहा था। ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे थे, त्यों-त्यों रानी का प्रसव-समय निकट आता जा रहा था । और ज्यों-ज्यों रानी का प्रसव-समय निकट आ रहा था, त्यों-त्यों उस एक शुभ क्षण की कल्पना करके मौसी के मन में उत्साह और चिन्ता तथा रानी के हृदय में शीघ्र आने वाले अज्ञात अभुक्त क्षण के प्रति भय बढ़ता जा रहा था।
मौसी को अब रानी की चिन्ता पहले की अपेक्षा कुछ अधिक होने लगी थी। रानी की चिन्ता करके उसके साथ मौसी भी अब रेलवे जंक्शन के टिकट-घर में लेटकर कुछ समय बिताने लगी थी और कई बार वह देर रात तक वहीं पर रानी के साथ लेटी रहती थी। जब रानी नींद के आगोश में सपनों की दुनिया में विचरण करने लगती, तब मौसी वहाँ से उठकर अपने निवास पर जाती और प्रात: रानी की नींद टूटने से पहले रानी के पास लौट आती थी । भोली-भाली मासूम रानी को यह आभास भी नहीं हो पाता था कि रात भर मौसी की अनुपस्थिति में भीड़ के बीच अकेली सोयी थी । उसको एकमात्र यह एहसास रहता था कि मौसी के रहते उसे चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है और वह हर पल उसके साथ है ।
लगभग एक महीने से जब रानी की नींद टूटती थी, तब उसे सर्वप्रथम मौसी के ममतामयी उदारमना व्यक्तित्व के दर्शन होते थे। उस प्रथम दर्शन से लेकर रात को सोने तक दिन-भर मौसी अपने पुराने मैले थैले से कुछ ना कुछ खाने की चीजें निकाल कर रानी को देती रहती थी। कई बार रानी खाने के लिए मना करती, तो मौसी स्नेहपूर्वक डाँटती थी -
"यह तेरे लिए नहीं है, तेरे पेट के बच्चे के लिए है ! बच्चा भूखा रहेगा, तो तेरे साथ- साथ मुझे भी श्रापेगा ! ले, चुपचाप खा ले !" तब रानी मुस्कुराते हुए चुपचाप मौसी का दिया हुआ खाद्य पदार्थ खा लेती। मौसी का स्नेह पाकर रानी प्रायः सोचती रहती थी -
"ईश्वर ने मुझे मेरे माँ-पापा से अलग करके कम-से-कम एक ऐसी मौसी से तो मुझे मिला दिया, जो मुझे माँ की तरह दुलारती हैं, देखभाल करती है और ढाल बनकर पल-पल मेरी रक्षा करती है !"
क्रमश..