आधी दुनिया का पूरा सच - 23 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आधी दुनिया का पूरा सच - 23

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

23.

दुकान पर चाय-भोजन की तलाश में धीरे-धीरे ग्राहकों का आना आरम्भ हो गया था ।दुकान के स्तर के अनुरूप वहाँ पर आने वाले सभी ग्राहक दुर्बल आय-वर्ग से संबंध रखने वाले थे। दुकान की स्वामिनी स्त्री ने ग्राहकों की माँग के अनुसार चाय और भोजन बनाना आरम्भ कर दिया। रानी से ग्राहकों को चाय-भोजन परोसने से लेकर उनके जूठे बर्तन धोने तक का कार्य कराया और पारिश्रमिक के रूप में उसको यथोचित समय पर भरपेट भोजन दिया।

आश्रय के साथ भोजन पाकर रानी सन्तुष्ट थी और इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद दे रही थी । यद्यपि यह कुछ निश्चित नहीं था कि उस ढाबे नुमा दुकान की स्वामिनी उसको कब तक आश्रय और भोजन दे सकेगी, किन्तु हृदय में एक आशा अवश्य थी कि उसकी जीविका यहाँ सरलता से चलती रहेगी । रात होते-होते यह भी निश्चित हो गया। जैसे ही अंधेरा होने लगा, स्त्री ने दुकान में दिन-भर के उपयोग से बची शेष सामग्री समेटकर एक बड़े थैले में भरी और अंगीठी एक ओर सरका दी। स्त्री की इन क्रियाओं को देखकर रानी ने जान लिया कि स्त्री दुकान बन्द करके अपने घर जा रही है। रानी ने स्त्री से पूछा-

"मैं भी आपके साथ आपके घर चल सकती हूँ ?"

"नहीं ! किराए का एक कमरा है ! बहुत छोटी जगह है । मैं और मेरा आदमी उस जगह में मुश्किल से रह पाते हैं !"

स्त्री ने सपाट शैली में उत्तर दिया। उत्तर देकर वह चलने के लिए उद्यत हुई, लेकिन रानी को वहाँ आश्रयविहीन छोड़कर अपने घर जाना शायद उसके लिए सहज नहीं था। वह एक क्षण के लिए रुकी और पीछे मुड़कर कुछ सोचने की मुद्रा में क्षणभर खड़ी रही। कुछ क्षणोपरान्त स्त्री ने अंगीठी को एक ओर सरकाकर जगह बनाते हुए कहा -

"यहाँ सो जाना ! मैं तुझे मेरे साथ नहीं ले जा सकती ! मेरा घर वाला ठीक नहीं है ! वह दारूबाज है ! काम करने को अपाहिज बनता है और दारू पीकर वह जानवर बनकर मेरे साथ ... !"

यह कहते हुए स्त्री वहाँ से प्रस्थान करने लगी । कुछ कदम चलकर स्त्री पुन: रुकी, वापिस मुड़ी और रानी के पास आकर हाथ पकड़कर आदेशात्मक स्वर में बोली -

"आ चल, मेरे साथ चल ! यहाँ तेरा अकेले रहना ठीक नहीं है !"

रानी स्त्री के साथ-साथ चल दी। कुछ मिनट की पैदल यात्रा करके दोनों गाजियाबाद रेलवे-जंक्शन पर पहुँच गयी और टिकट-घर के खुले बड़े हॉल में जाकर एक स्थान निर्देशित करते हुए बोली -

यहाँ ठीक रहेगी ! पास ही पुलिस भी है ! डरने की कोई जरूरत नहीं है ! कोई कुछ कहे, तो फौरन पुलिस को बुला लेना ! सवेरे मेरी दुकान पर आ जाइयो !"

रानी चुपचाप स्त्री की बातें सुनती रही । स्त्री के जाने के पश्चात् वह.स्त्री द्वारा निर्देशित स्थान पर सोने की कल्पना करके वहाँ पर अपनी सुरक्षा-असुरक्षा के विषय में सोचने लगी । यद्यपि अपनी छोटी सी आयु में बड़ी बड़ी विपत्तियों को पार करके उसके हृदय में भय का कोई स्थान नहीं था। तथापि उसको एहसास हो रहा था कि वह वहाँ पर अपेक्षाकृत सुरक्षित है । इसलिए कुछ क्षणों तक वहाँ खड़े रहने के पश्चात् रानी ने वहाँ सो जाना ही बेहतर समझा।

पूरी रात गाजियाबाद रेलवे जंक्शन के टिकट-घर में गुजारी और प्रातः होते ही वापिस उसी चाय की दुकान में लौट आयी । जिस समय रानी दुकान पर पहुंँची, तब तक स्त्री वहाँ पर नहीं पहुँची थी । रानी ने वहाँ पर बैठकर स्त्री की प्रतीक्षा की ।

स्त्री के आने पर रानी ने पिछले दिन की भाँति अंगीठी सुलगाने में उसकी सहायता की । स्त्री ने भी पिछले दिन की तरह ही चाय बनाकर उसको भी दी और स्वयं भी पी । चाय पीते हुए रानी ने स्त्री से पूछा -

"आंटी, मुझे आप काम पर रख लो ! काम के बदले किराए के लिए कुछ पैसे मिल जाएँगे, तो मैं अपने मम्मी-पापा को ढूँढ लूँगी !"

"अंटी-फंटी किसको बोली तू ! मौसी नहीं बोल सकती !"

"मौसी ! मौसी बोलूँगी अब मैं ! मौसी मुझे काम पर रख लोगी ना !"

मैं सड़क पर छोटी-सी अंगीठी रखकर बिना दीवार और बिना छत यह छोटी सी दुकान चला रही हूँ, इसमें किसी दूसरे को मैं क्या काम पर रखूँगी ! दो छाक की रोटी और तन ढकने को फटे-पुराने कपड़े मुश्किल से निकाल पाती हूँ इसमें ! कभी-कभी तो वह भी नहीं मिलता ! मेरा घरवाला हरामी दारू पीकर मेरी दिन भर की कमाई के सारे पैसे छीन ले जाता है ! जब तक मेरी दुकान पर रहेगी, तुझे चाय रोटी दे सकती हूँ !"

यद्यपि रानी के मन में एक ही लग्न और जीवन का प्रथम उद्देश्य अपने माता-पिता को ढूँढना था, तथापि उसके लिए चाय-रोटी का आश्वासन भी बड़ा सहारा था। अतः उसने स्त्री की किसी बात का प्रतिवाद नहीं किया। पूरे दिन रानी ने एक सुलक्षणा बेटी की तरह स्त्री के कार्यों में सहयोग किया। स्त्री ने भी एक आदर्श माँ की भाँति रानी को स्नेह भी दिया और भोजन भी ।

धीरे-धीरे रानी के हृदय में स्त्री के प्रति विश्वास दृढ़ से दृढ़तर होता गया। विश्वास की इसी पृष्ठभूमि पर रानी ने एक दिन अपने साथ बीती हुई उस हर एक बात को शब्द-चित्र के माध्यम से स्त्री के समक्ष प्रस्तुत कर दिया, जो उसने अब तक उसको नहीं बतायी थी । रानी की संघर्ष-गाथा सुनकर स्त्री की आँखों में पानी भर आया। वह गर्व से सीना तानकर उठी और रानी को स्नेहपूर्वक सीने से लगाकर उसकी पीठ थपथपाते हुए मुस्कुराकर कहा -

"जब तक तेरी असली माँ नहीं मिलती, तब तक तेरी यह मौसी अपनी इस बहादुर बेटी की देखभाल करेगी !"

रानी ने स्त्री के मुख से निसृत शब्द नहीं सुने, किन्तु स्त्री के सीने से चिपककर उसको माँ के आँचल की छाया की अनुभूति हो रही थी और अपनी कमर पर रखे हुए स्त्री के हाथ से माँ की उस शाबाशी और प्रशंसा का एहसास हो रहा था, दुश्वार विकट परिस्थितियों को पार करके जिसकी वह वास्तव में अधिकारी थी ।

इसी प्रकार बातें करते-करते, ग्राहकों को चाय परोसते और उनके झूठे बर्तन धोते हुए दिन बीत गया। रात होने लगी, तो स्त्री ने पिछले दिन की भाँति दिन भर के उपयोग से शेष बचे हुए सामानों को समेटना आरंभ कर दिया । रानी को आशा थी कि आज अवश्य ही स्त्री उसे अपने साथ घर ले जाएगी, जहाँ वह तब तक सुरक्षित और चैन से रह सकती है, जब तक उसके माता-पिता नहीं मिल जाएँगे । लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। स्त्री उसको लेकर आज भी गाजियाबाद रेलवे-जंक्शन के टिकट-घर पर गयी और एक कोना उसको सोने के लिए निर्देशित करते हुए उसके हाथ में एक पुरानी चादर थमाते हुए कहा -

"इसे बिछा लेना, रात नंगे फर्श पर ठीक से नहीं सो पायी होगी !"

रानी ने चादर हाथ में ले ली, किंतु उसके चेहरे पर उसकी आशा टूटकर निराशा में बदलता भाव स्पष्ट झलक रहा था। स्त्री भी उसके हृदय की आशा-निराशा को भली-भाँति समझती थी, परन्तु रानी को उसने ऐसा कुछ आभास नहीं होने दिया और यथाशीघ्र वहाँ से प्रस्थान करने लगी। रानी ने पीछे से धीमे स्वर में बड़ी ही मायूसी से कहा -

"मेरी माँ मुझे ऐसे अकेली छोड़कर कभी नहीं जाती !"

रानी का मायूस स्वर सुनकर स्त्री ने पीछे मुड़कर कहा -

"जहाँ मैं रहती हूँ, उस जगह मैं तुझे नहीं रख सकती, इसलिए तुझे यहाँ छोड़कर जा रही हूँ ! तू वहाँ से यहाँ ज्यादा ठीक रहेगी !"

यह कहते हुए स्त्री तेज कदमों से टिकट-घर से बाहर चली गयी ।

रानी ने देखा, टिकट-घर से निकलते हुए स्त्री की आँखों में आँसू तैर रहे थे । वे आँसू एक ऐसी मूक कहानी कह रहे थे, जिसका अर्थ रानी की समझ से परे था। स्त्री के जाने के पश्चात् रानी चादर बिछा कर सो गयी ।

क्रमश..