धूप का गुलाब
‘शकुन बेटा ! दो कप चाय बना लाओ’
ड्राइंगरूम तथा लाबी को पार करती हुई सहाय साहब की आवाज किचन में काम कर रही उनकी इकलौती बहू शकुन के कानों में पड़ी | शकुन शाम के भोजन की तैयारी में जुटी थी | गर्मी बढ़ गई थी | बहुत रात तक पसीने से लथपथ हो किचन में काम करते रहना शकुन को पसंद नहीं था इसलिए सूरज की किरण छिपने से पहले ही वह आधा काम निपटा देती थी और फिर आँगन में लगे मोगरा और हरसिंगार के पास बैठकर चितकबरे बादलों से सजे लाल होते आकाश को देखती रहती थी | हर पल बदलने वाले बादलों के झुंड को देखना शकुन को बहुत अच्छा लगता था | मिसेज सहाय उसी समय पौधों में पानी डालती थीं और शकुन का तीन साल का बेटा मिसेज सहाय के आगे-पीछे इतनी भाग-दौड़ करता जैसे यदि वह न होता तो पेड़-पौधों की सिंचाई का काम हो ही न पाता | शाम धुंधुला जाने तक शकुन यह सब देखती बैठी रहती, फिर सब घर में आते और वह किचन में घुसती बचे काम निपटाने के लिए |
सहाय साहब की आवाज सुन प्याज काटते उसके हाथ रुक गए | उसने हाथ साफ किया तथा गैस जलाकर चाय का पानी चढ़ा दिया | ड्राइंगरूम से हंसने की तेज आवाज आई तो उसने लाबी से झांक कर देखा – अरे,ये तो वही किरायेदार है जो आठ-दस दिन पहले ही पड़ोस में आया है | यहाँ अकेला ही रहता है, ये तो वह रोज देखते-देखते समझ गई थी | अब इसने सहाय साहब से दोस्ती भी कर ली है | उसे इस दोस्ती का परिणाम मालूम है | अब उसके ड्राइंगरूम में रोज देश की बड़ी-बड़ी समस्याओं से लेकर घर के गैस सिलेंडर तक पर चर्चा हुआ करेगी और उसे किचन में भजिए-पकौड़े, चाय-काफी, शरबत से लेकर मठ्ठा-लस्सी तक बनाना पड़ेगा | लेकिन उसे झुंझलाहट नहीं है | घर में हंसी-मजाक होंगे, चेतन हँसेगा, माँ हँसेंगी, वह भी हँस लेगी | ठीक ही तो है ये सब | चाय बन चुकी थी | कुछ बिस्किट-नमकीन के साथ वह चाय लेकर ड्राइंगरूम में आई |
आगन्तुक कह रहा है –‘ कैनवास पर मनुष्य के रहस्यात्मक अंतः सम्बन्धों की मधुर गूंज होती है | ब्रश और कैनवास में एक आंतरिक लय होती है | चित्र चित्रकार का शौक नहीं, उसके भीतर का सैलाब होता है | जैसे किसी अच्छी कविता का एक-एक शब्द बोलता है, ठीक वैसे ही ब्रश का हर स्ट्रोक बोलता है | उसे दिल और दिमाग दोनों से देखकर समझना पड़ता है |’
‘ ये तो आप ठीक कह रहे हैं कि किसी भी कला को समझने के लिए दिमाग के साथ-साथ दिल का भी इस्तेमाल करना पड़ता है, लेकिन चित्रकार महोदय ! कविता के प्रत्येक शब्द दिमाग में उतरते चले जाते हैं तथा शब्दों के सही अर्थ और अर्थ के उस पार से ध्वनित होती आवाज दिल में स्थान बना लेती है, पर आपके चित्र तो बिना व्याख्या के समझ में ही नहीं आते |’
‘ यही तो ... यही तो पीड़ा देने वाली बात है | किसी भी चित्रकार के लिए सबसे कठिन पल तब होता है जब कोई चित्र को देखते ही पूछ बैठे कि इस चित्र में आपने क्या बनाया है ?’
‘अब देखिये भाई, बुरा मत मानिये, सीन-सीनरी की बात छोड़ दें तो ये जो मार्डन आर्ट है, वह तो आप ही लोग बनाते हैं और आप ही लोग समझते हैं | हम जैसे लोगों को तो वह काला अक्षर भैंस बराबर ही लगता है |’ चित्रकार और सहाय साहब ठठाकर हँस पड़े | शकुन चाय रख, औपचारिक अभिवादन कर वापस किचन में आ गई | चाय पीते-पीते चित्रकार ने सहाय साहब से पूछा – ‘ये आपकी बेटी थी ?’
‘नहीं ...बहू, लेकिन आप इसे मेरी बेटी मान सकते हैं | पहले यह मेरी बहू अधिक थी बेटी कम, अब बेटी अधिक है बहू नहीं |’ सहाय साहब की आँखे कुछ भीगीं, लेकिन थूक गटक कर उन्होंने आँसू पी लिया |
सहाय साहब का एक बेटा था- गौरव | चार साल पहले बड़ी धूम-धाम से उन्होंने उसकी शादी की | बहू के आते ही घर खुशियों से भर गया था | अरसे से दिल में दबी बेटी की चाह पूरी हुई थी | शकुन चहकती तो पूरा घर खुश होता, उसके खाने-पीने, पहनने से लेकर बनाव-श्रृंगार तक में मिसेज सहाय रुचि लेतीं | खुशियाँ उस घर में जैसे ठहर-सी गई थीं, लेकिन अभी शादी को चार-पांच महीने ही हुए थे कि एक काली छाया उस घर पर मडराई और उस परिवार के होठों से हंसी छीन ले गई – एक सड़क दुर्घटना में गौरव चल बसा | बस, तब से उस घर में मुर्दा-घाट जैसा सन्नाटा छा गया | मिसेज सहाय खामोश रहने लगीं | सहाय साहब किताबों में पता नहीं क्या तलाशते दिन बिताने लगे | और शकुन - उसकी हँसी चूड़ियों की खनखनाहट , शब्दों से टपकता रस, सब कुछ न जाने कहाँ गायब हो गया | जब गौरव का देहांत हुआ तो शकुन माँ बनने वाली थी | उस परिवार को घिसट-घिसट कर जीने के लिए बस यही एक कारण बचा था |
मानने को तो सहाय साहब शकुन को बेटी मानते, लेकिन उसे बेटी कहते ही वे खुद को दायित्व के गहरे बोझ तले दबा हुआ पाते थे | यदि शकुन बेटी है तो उसे ताउम्र मायके में क्यों बिठाना ?क्यों नहीं बेटी की तरह उसे विदा कर रहे हैं , क्या उनका स्वार्थ आड़े आ रहा है ? शकुन और चेतन के बिना वह कैसे जी पाएंगे, क्या यह चिंता उन्हें अधिक सता रही है ? पत्नी से कई बार इस विषय पर बात कर चुके हैं, लेकिन उनकी पत्नी ने भी कभी अपनी सहमति नहीं जताया | शायद वो भी डर रही होंगी शकुन की विदाई से – ‘ कह रहीं थी एक बेटा है | कौन उससे शादी करेगा ? खैर ये तो बाद की बात थी, लेकिन उन्होंने प्रयास ही कितना किया ? यूँ भी अभी शकुन की उम्र ही क्या है ? उम्र तो अब शुरू होगी | पहाड़ जैसा जीवन पड़ा है उसके सामने | कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो ? कितनी बदनामी होगी ! वैसे तो सहाय साहब का बड़ा दबदबा है | पीठ पीछे कोई कुछ भी कहे, किंतु सामने कोई मुँह नहीं खोल सकता, लेकिन कुछ कहा भी नहीं जा सकता | सिक्का उलटते कितनी देर ? शकुन का सपाट चेहरा, शांत आखें और मरघट जैसी चुप्पी देखकर सहाय साहब संतुष्ट होते थे कि शकुन के कदम नहीं डगमगायेंगे | वह उनकी और उनके घर की लाज रखेगी | शकुन की तरफ से वे आश्वस्त थे, परन्तु खुद पिता के कर्तव्य में पीछे रह जाने का बोध होते ही सहाय साहब विचलित हो जाते थे |
शकुन सबेरे उठती, साफ-सफाई के बाद किचन सम्भालती, सास-ससुर को खाना बनाकर खिलाती, खुद भी खाती- बस पेट भरने के लिए | रात होने का इंतजार करती और पड़ जाती बिस्तर पर | रोती खूब रोती | अब तो उसने खुद को समझाने का तरीका भी सीख लिया था | तभी तो घंटों रोने के बाद खुद ही उठकर हाथ-मुँह धोती और तैयार हो जाती अपने कुनबे को दाना-पानी देने के लिए | ऐसे ही दुःख और अवसाद में उस परिवार के दिन बीत रहे थे |
जब से चित्रकार पड़ोस में आया है, उस घर में भी थोड़ी ख़ुशी आ गई है | शाम होते ही वह सहाय साहब के पास चला आता है, फिर घंटो अनेक विषयों पर चर्चा होती रहती है |
चित्रकार का नियम है कि जिस भी शहर में उसके चित्रों की प्रदर्शनी लगनी होती है वहाँ चार-पांच महीने पहले चला जाता है और उसी शहर में प्रदर्शनी के लिए चित्र बनाता है | उसका मानना है कि जिस शहर में प्रदर्शनी हो उस शहर की बारीकियों को चित्रों में उकेरा जाये तो लोग अधिक प्रभावित होते हैं | यहाँ भी चित्रकार के चित्रों की प्रदर्शनी लगने वाली है, इसलिए कुछ महीनों के लिए वह यहाँ आया है |
हर शाम सहाय साहब चित्रकार का इंतजार करते हैं | वह अनजाने ही सहाय साहब के परिवार का एक हिस्सा बनता जा रहा था | जिस दिन भी चित्रकार उसके घर न आता, सबकी शाम खामोशी में ही बीत जाती | न जाने क्यों शकुन भी उदास हो जाती | शकुन को भी चित्रकार के आने का इंतजार रहने लगा था क्या ! उसे हर शाम चित्रकार की आदत पड़ गई थी या फिर कुछ और उमड़ रहा था उसके दिल में ! वह तो उससे कभी बोलती भी नहीं थी | हाँ, चाय-पानी ले जाकर देती थी और अगर चित्रकार कुछ पूछ बैठता तो धीरे से जवाब दे देती थी | उसने कई बार महसूस किया था कि चित्रकार उसे बड़े गौर से देखता है, उसकी बनाई चाय की तारीफ करता है | धीरे-धीरे न जाने कैसे शकुन दिन के तमाम घंटे बस चित्रकार के बारे में ही सोचने लगी |
जब चित्रकार सहाय साहब से बात करता तो शकुन घर के अंदर से बड़े ध्यान से उसकी बातें सुनती और इसी सुनने में वह जान गई थी कि चित्रकार का नाम अजय सक्सेना है | जब वह बहुत छोटा था तभी से उसे चित्र बनाने का शौक है | जब स्कूल में टीचर गणित समझा रहे होते थे तो वह चित्र बना रहा होता और बार-बार सजा पाता था | पांचवी कक्षा में लगातार दो बार फेल होने की वजह से उसे स्कूल से निकाल दिया गया था | फिर उसके पिता के विशेष आग्रह पर उसे दुबारा लिया गया था | इसी तरह गिरते-गिराते वह बारहवीं तक पहुँचा था, लेकिन अब उसे स्कूल से सजा नहीं मिलती थी | उसके चित्र धूम मचाने लगे थे | स्कूल का नाम चमकने लगा था | प्रिंसिपल खुश रहने लगे थे | बारहवीं की बोर्ड परीक्षा नजदीक थी | प्रिंसिपल के विशेष आदेश पर उसे पास करवाने के लिए कालेज में ही उसकी अकेले की ही अतिरिक्त क्लाश ली जा रही थी | एक दिन जब छुट्टी के बाद भी रुककर एक टीचर उसे पढ़ा कर जाने लगे तो वह उठा और पास आकर बोला, ‘सर ! आज मैंने बड़े ध्यान से आपका लेक्चर सुना, अगर यह केमेस्ट्री है तो सर, ये बहुत कठिन है, मैं इसे नहीं पढ़ पाऊंगा |’ टीचर ने अपना माथा पीट लिया- ‘अभी मैं तुम्हें केमेस्ट्री नहीं फिजिक्स पढ़ा रहा था, जब तुम्हें विषय का ज्ञान ही नहीं तो पढ़ोगे क्या ? अब तो तुम्हारा भगवान ही मालिक है |’ ये बताते समय चित्रकार खूब हँसा था | नतीजा वही हुआ जिसका डर था | वह फेल हो गया | उसे समझ में नहीं आ रहा था कि पढ़ाई इतनी जरूरी क्यों है ! जब जिन्दगी के तमाम पहलू को वह बखूबी समझकर अपनी कल्पना से ढालने की क्षमता रखता है तो वह जिन्दगी जी कैसे नहीं पायेगा ! वह तो जिन्दगी की बारीकियों को समझ चुका है | उसके लिए तो जीवन जीना अब अधिक सरल हो गया है | उसे डिग्री की क्या जरूरत ! बहुत प्रयास के बाद उसके पिता ने भी हथियार डाल दिये और वह स्वतंत्र होकर चित्र बनाने लगा |
वह एक दार्शनिक की तरह दिखता था | उसकी बातों में बड़ा रहस्य होता था, और शकुन को यही बहुत अच्छा लगता था |
एक दिन जब चित्रकार आया तो सहाय साहब घर में नहीं थे | शकुन ने ही दरवाजा खोला था | ‘पापा जी नहीं हैं’ यह बताकर उसने धीरे से मुस्कुरा दिया था | पहले तो चित्रकार ने उसपर गहरी नजर डाली फिर कहा, ‘ आपकी मुस्कान बड़ी हृदयस्पर्शी है, लेकिन इसमें इतना दर्द क्यों समाया है ?’
‘कुछ नहीं – बस ऐसे ही’’ कहकर वह फिर मुस्कुराई थी | चित्रकार थोड़ी देर में चला गया, लेकिन शकुन के कानों में चित्रकार के शब्द गूंजते ही रह गए | क्या इसी मुस्कान की वजह से वह उसे देखता है! क्यों कुछ लोगों को दर्दभरी टीस ही आकर्षित करती है ? उसे याद आया – कालेज के दिनों में उसके साथ पढ़ने वाला एक लड़का अचानक एक दिन उसके सामने आकर बोला था – ‘आप मुस्कराती हैं तो बहुत अच्छा लगता है |’ चिढ़ गई थी वह – ‘ तुम कौन होते हो मेरी मुस्कान देखने वाले ? अपनी भद्दी स्टाइल से लडकियों को इम्प्रेस करते घूमते हो | तुम्हें किसी की हँसी और मुस्कुराहट की समझ कब से आ गई ? आइन्दा कुछ बोलने की हिम्मत की तो ... लेकिन आज चित्रकार ने जब उसकी मुस्कान के बारे में बात की तो उसे गुस्सा नहीं आया, बल्कि वह तो पूछना चाहती थी कि इस दर्द की पहचान तुम्हें कैसे हुई ? इतनी गहरी पैठ रखते तो तुम ! उसके पति भी उसकी मुस्कान की तारीफ करते थे | क्यों है उसकी मुस्कान ऐसी जो किसी के दिल को खींच लाती है और जोड़ देती है उसके दिल के तारों से ?
उसने आईने में अपना चेहरा देखा, मुस्कुराई, फिर जल्दी से हट गई | क्यों हो गई है वह इतनी भावुक ! जरूरी तो नहीं कि चित्रकार ने दिल से कुछ कहा होगा | उसे कुछ बोलना था इसलिए बोल दिया होगा | क्या हो गया है उसे ! क्यों वह चित्रकार के हर हाव-भाव को खुद से जोड़ लेती है ? यह गलत है | क्यों भूल जाती है कि वह विधवा है, उसकी शादी हुई थी, उसका पति था, एक छोटा बच्चा है | एक ब्याहता के दिल में किसी पर-पुरुष का खयाल आया ही कैसे ! क्या वह अकेलेपन से घबरा गई है या प्यार कभी भी किसी से भी हो सकता है ! एक भुतहे दिल में भी प्यार उमड़ सकता है ? हाँ, वर्षों से वह एक भूत की तरह ही तो जी रही है ... बिलकुल भूत की तरह, खुद को भूलकर | शायद यह चित्रकार उसे फिर से शकुन बना दे | और गलत भी क्या है, अपने अतीत को यादकर अपना पूरा जीवन क्यों खाक करदे ? उसके ससुर की भी तो यही इच्छा थी कि वह दूसरी शादी कर ले | पहली बार उनके मुँह से शादी की बात सुनकर वह कितना रोई थी | कैसे कर सकती है वह दूसरी शादी ! जिस दिल में उसके पति का रोम-रोम समाया है वहाँ कोई और ! नहीं, हो ही नहीं सकता | और अगर कर भी ले तो पति की आत्मा को क्या जवाब देगी ? बस हो गया ! इतना ही प्यार था उसे ! उसे चिंता ही क्या है ? उसके पास उसके पति की स्मृति रूपी इतनी अनमोल धरोहर है जिसके सहारे वह एक तो क्या कई जन्म अकेले ही बिता सकती है | क्यों करे वह दूसरी शादी ? बड़ी सख्ती से मना कर दिया था उसने कि दुबारा उससे ऐसी बात न की जाये | लेकिन अब ? इस चित्रकार के आने के बाद सब कुछ कैसे बदल गया ! कैसे उसके मन में होने लगा कि उसके ससुर ...|
उफ ! क्या हो गया है उसे ? आखिर वह चाहती क्या है ? उसके दिल को वर्तमान भा रहा है लेकिन दिमाग में अतीत नागफनी की तरह सर उठाये खड़ा है | अतीत और वर्तमान की घटनाओं का कैसा मेल ? जो हुआ वह उसका अतीत था, जो हो रहा है वह वर्तमान है| जीवन के प्रति उसका बदला रुख, उसका संजीदापन, खुद के रख-रखाव में इतनी सजगता, यही उसका वर्तमान है | क्यों डरती है वह इसे स्वीकार करने में ? ... नहीं, उसके लिए अब वर्तमान महत्व नहीं रखता, उसे सिर्फ अतीत में जीना है | अतीत के सहारे वर्तमान को लांघते हुए भविष्य में जाना है | उसका अतीत इतना हरा-भरा था कि अब उसके सामने नीरस वर्तमान और भविष्य मायने नहीं रखते |
शकुन उठी और कमरे की खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई | खिड़की के बाहर सामने के मकान में चित्रकार अपने कमरे में अधूरे चित्र के साथ बैठा है – एक हाथ में सिगरेट पकड़े, अपने ब्रश की ही तरह सिगरेट के धुएँ से भी रहस्यवाद का चित्र बनाते हुए | पास पड़ी तिपाई पर शराब की बोतल खुली पड़ी है | चित्रकार पैग पर पैग पिए जा रहा है | क्या सोच रहा होगा वह ? क्या उसके मन में भी ऐसी ही कोई उलझन होगी या चित्र के पूरा न होने की खीझ, जिसे वह शराब और सिगरेट में दबा देना चाहता है ! लेकिन यह क्या तरीका है ? समस्याएं बहुत हैं, पूरी दुनिया समस्याओं से बिलबिला रही है, चौकस होकर उनसे निपटना पड़ेगा | इस तरीके से दिल और दिमाग विचलित होने लगेगा तो भला कैसे काम चलेगा ? उसका दिल हुआ कि वह पहुंच जाये चित्रकार के पास, छीन ले हाथ से सिगरेट और फेक दे शराब की बोतल | क्यों पीता है वह इतना ? पूरा स्वास्थ खराब करके रख लेगा तब मानेगा क्या ? एकाएक उसके दिमाग में कुछ कौंधा – कौन है वह उसकी ? चित्रकार मात्र उसका पड़ोसी है जो कुछ दिन पहले आया है और कुछ दिन बाद चला जायेगा | उसके दिल ने चाहे जितनी नजदीकियां बना ली हों लेकिन प्रत्यक्षता परायेपन की रेखा अभी भी उतनी ही मोटी है, और शायद ये कभी धुंधली भी नहीं हो पायेगी |
शुरू शुरू में जब वह यहाँ रहने आया था तो उसका अस्त-व्यस्त कमरा, बे-तरतीब ढंग से पड़े ब्रश, कैनवास, स्टैंड, जगह-जगह फैले रंग | सब कुछ उसे नागवार लगता था | दिन में तो ठीक, लेकिन रात को चित्रकार के कमरे की रोशनी जलते ही सब साफ-साफ दिखाई पड़ता था | ऊपर से उसका पीना | लगता था अब बालकनी में निकलना मुश्किल हो जायेगा | लेकिन न जाने कब और कैसे उसे वही सब अच्छा लगने लगा | और यह अच्छा लगना भी खास किस्म का अच्छा लगना था, जहाँ सारी मान्यताएं, सारे सिद्धांत, सारे विचार धरे के धरे रह जाते हैं | रह जाता है एक सच्चा समर्पण जो विश्वास की पराकाष्ठा को पार करते हुए कई बार आहत भी होता है |
शकुन घंटों बालकनी में खड़ी होकर चित्रकार को चित्र बनाते देखती रहती थी | कैसे शुरू हुआ था ये सिलसिला,यह बता पाना बड़ा कठिन है | कब और कैसे चित्रकार की कौन सी बात उसे इतना प्रभावित कर गई, वह खुद भी नहीं जान पाती | हाँ, आजकल के लड़के-लडकियों की तरह मुँह खोलकर कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी थी, उसे तो नारी हृदय की सहज चेतना ने यह सब बता दिया था | और चित्रकार भी बिना बताये ही सब कुछ समझ गया था | ठीक उसकी तरह | शायद उसके भी दिल में ऐसा ही कुछ चल रहा होगा, तभी तो चित्रकार की भी नजरें जाने-अनजाने इधर उठने लगी थीं | लेकिन नजरें इधर उठना इस बात का प्रमाण कैसे है कि वह जो कुछ चित्रकार के बारे में सोचती है, वह भी वैसा ही सोचता होगा| चित्रकार का रोज उसके घर आना, सहाय साहब से घंटों बातें करना, उसके अकेलेपन से उपजी मजबूरी है! शकुन उसका कारण कैसे हो गई ? उसने अपने अंतर्मन को टटोला ... मात्र कुछ महीनों में वह चित्रकार को जान ही कितना पाई है ? फिर क्यों उसका मन ...? इस ‘क्यों’ का कोई उत्तर नहीं है, वह जानना भी नहीं चाहती, पर उसे इतना जरूर समझ गया है – और एकदम सही समझ गया है कि जब भी वह बैठक में जाती है तब सहाय साहब से बात करते-करते चित्रकार की आँखें अनायास ही उसकी तरफ नहीं उठ जाती | यद्यपि वह बेख़ौफ़ उसके चेहरे की तरफ नहीं देख पाता किंतु जमींन में आँखें गड़ाकर वह उसके पैरों की उगलियों को निहारते हुए ढेर से संकोच के साथ एक गहरी चुभन छोड़ देता है और इस चुभन को शकुन बखूबी जान लेती है | इससे अधिक उसे कुछ जानना भी नहीं है |
दो दिन बाद शहर के एक प्रतिष्ठित हाल में चित्रकार के चित्रों की प्रदर्शनी लगी | सहाय साहब और मिसेज सहाय भी प्रदर्शनी देखने गए | शकुन को भी ले जाना चाहते थे, लेकिन वह नहीं गई | उसके हृदय में चित्रकार के चित्र अति श्रेष्ठ स्थान बना चुके थे | लियो-नारदे-द-विंसी या पाब्लो पिकासो भी उतने अच्छे चित्र नहीं बनाते रहे होंगे | बड़े चित्रकार नाम से चलते हैं, लेकिन ये चित्रकार भोगवाद, यथार्थवाद, रहस्यवाद सबके एकदम सटीक चित्र बनाता है | उसे पूरा विश्वास है और अपने इस विश्वास पर वह एक भी धब्बा लगने नहीं देगी | वह उन्हें नजदीक से देखकर अपने दिल और दिमाग में किसी प्रकार का तर्क उत्पन्न करना नहीं चाहती |
प्रदर्शनी के बाद जब चित्रकार उसके घर आया तो बहुत खुश दिख रहा था | आँखों में गजब की चमक थी | यह ख़ुशी उसकी साधना की सफलता से उपजी थी | चित्रों को बहुत सराहा गया था | बिक्री भी अच्छी हुई थी | वह सहाय साहब से कह रहा था – अब उसके चित्रों की प्रदर्शनी मुम्बई में होने वाली है | दो-चार दिन बाद वह वहाँ के लिए प्रस्थान कर जायेगा | वह बहुत उदास हो गई, लाख प्रयास के बाद भी उसकी मुस्कान कहीं खो गई | उसके दिल में जितने भी चित्र उभरे थे, सब एक एक करके संक्रमण के शिकार होने लगे |
आज सबेरे ही चित्रकार उसके घर आया था, सबसे बहुत हँस-हँस कर बातें की थी– शकुन से भी | आज वह यहाँ से जा रहा है, इसका तनिक भी गम उसके चेहरे पर नहीं था| क्या सचमुच नहीं था या वह छिपा रहा था? कितनी सरलता से ‘फिर मिलेंगे’ का औपचारिक वाक्य फेंककर वह बाहर निकल गया था|
चित्रकार के घर के सामने गाड़ी खड़ी है | लगता है इसी गाड़ी से वह यहाँ से जायेगा | चित्रकार का सामान – हाँ, सामान ही कह सकते हैं – कलर के डिब्बे, ब्रश की पेटी, कैनवास के बंडल, दो-चार सेट कपड़े तथा एक पुरानी कोट से भरा बैग गाड़ी में रखा जा रहा था | थोड़ी देर बाद चित्रकार ऊपर से उतरा, शकुन बालकनी में खड़ी थी | गाड़ी में बैठने के पहले चित्रकार ने एक दर्दभरी नजर बालकनी में डाली और मुस्कुराकर एक झटके में गाड़ी में बैठ गया | गाड़ी दमघोंटू धुँआ छोड़ती हुई आगे बढ़ गई | गाड़ी की आवाज के साथ ही शकुन ने कुछ टूटने की भी आवाज सुनी | लेकिन क्या ? उसे लगा कोई उसे अपनी ओर खींच रहा है, क्या चित्रकार ? नहीं वह तो गया, किसी स्वप्न की तरह कभी न लौटने के लिए | फिर वह किधर खिंच रही है ? उसने पलट कर देखा, उसका तीन साल का बेटा उसकी साड़ी पकड़े खड़ा था, उसने उसे गोद में उठा लिया और अंदर अपने कमरे में आ गई | कमरे में कुछ भी नहीं बदला था, सब पूर्ववत ही था – उसके पति की सुगंध भी |
आशा पाण्डेय