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महामाया - 33

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – तैंतीस

आज ठंड ने कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ लिया था। अखिल ने हीटर जलाया और पलंग पर बैठकर पत्रिका का फायनल प्रूफ देखने लगा। तभी किसी ने जोर से उसका दरवाजा भड़भड़ाया। इतनी रात कौन हो सकता है? साचते हुए अखिल ने दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही देशी शराब का भमका उसके नथुनों से टकराया। अखिल ने देखा सामने जग्गा खड़ा था। उसके हाथ में एक पैकेट था। जग्गा को इतनी रात गये इस हालत में देख अखिल को थोड़ा अचंभा हुआ।

जग्गा बिना पूछे सीधे कमरे में घुस आया। नशे के कारण उसके पैर लड़खड़ा रहे थे।

‘‘मैंने थोड़ी लगाई हुई है। पर आपको जरा भी तंग ना करूंगो। असल में के है कि आश्रम में एक यो ही नशो अलाऊ ना है। इब गांजा में पी ना सकूं। सिर पर चढ़े है साला.....ऽऽ।’’ बोलते-बोलते जग्गा नीचे फर्श पर बिछे कालीन पर बैठ गया। उसने अपने साथ लाये पैकेट से एक बोतल बाहर निकाली.....। शंका से चारों ओर देखा। फिर बांयी आँख दबाते हुए बोला -

‘‘कोई आणे तो ना वाला है कमरे में रात को?’’

अखिल ने नाराजगी से जग्गा की ओर देखा। वह उसे डपटने ही वाला था कि जग्गा ने उसके गुस्से को भांपते हुए अपने दोनों कान पकड़ लिये। ‘‘साॅरी......साॅरी.....मैं तो मजाक कर रहा था। आप तो पढ़े-लिखे आदमी हो। किताबें लिखो हो। मैं जो पढ़ा-लिखा होता तो मैं भी यहाँ की कहानियाँ लिखता। एक से एक कहानियाँ है मेरे पास।

‘‘जग्गा.....आज तुझे नशा ज्यादा हो गया है। चुपचाप जाकर सोजा’’ अखिल ने जग्गा को वहाँ से टरकाना चाहा।

जग्गा ने जैसे अखिल की बात सुनी ही नहीं। वह फर्श पर पैर फैलाकर अर्ध लेटी मुद्रा में आ गया।

‘‘आपको कुछ मालूम ना है। जग्गा सब जाणे है। पर चुप।’’ जग्गा ने एक ऊंगली होठों पर लगायी ‘‘चुप रहणा पड़े है। किसी से कोई कुछ ना कह सके। ये समाधि का खेल दिखाके खूब पैसा बटोरे है बाबाजी। पर हम लोग ना होवें तो समाधि फेल है। ये सूर्यानंद.....बड़े महंत बणे हैं...। अभी उस रात जग्गा ना होता तो समाधि में ही टें बोल जाते।’’ जग्गा ने कहते-कहते बोतल मुँह से लगायी और एक लंबा घूंट भरकर बोतल नीचे रखी।

‘‘अब आप तो हमारे अपणे हो। आप भी सब जाणते होंगे। आप भी सोचते होंगे कि ये जो भी यहाँ हो रहा है। बाबाजी जो कर रहे हैं। वो सब ठीक ना है।’’ ये बात जाणे सब है। पर कोई बोले कुछ ना है। ये कौशिक बेहन का......बाबाजी का पक्का जासूस है। उसके सामने कोई बात मत करियो...वरना....।’’

अखिल को समझ में नहीं आ रहा था कि वो जग्गा को कैसे संभाले। जग्गा होंश में नहीं था। अखिल पलंग से उठकर जग्गा के पास फर्श पर बैठ गया और उसके कंधे पर हाथ रखकर प्यार से समझाते हुए कहने लगा।

‘‘तुमने आज बहुत पीली है जग्गा। अब चुपचाप यहीं सो जाओ।’’ अखिल ने पलंग से एक तकिया उठाया और जग्गा को दिया। जग्गा ने तकिया पलंग के सहारे लगाया और उठकर तकिये से टिककर बैठ गया।

‘‘अरे मैंने पी ना है अखिल भैया। म्हारे को तो वो घोल के पी गई है।’’

‘‘कौन?’’

‘‘अरे निर्मला माई और कौन। कहीं का ना छोड़ा उसने मुझे। अब मैं भी न उसको छोड़ सकूँ। ना साथ रह सकू हूँ। मैंने उससे कितनी कही कि चल भाग चलें। मेहनत करेंगे, रुखी-सूखी खायेंगे। साथ रहेंगे। पर ना! उसको तो आदत पड़ी है ऐशो आराम की। जग्गा की जरूरत तो उसको बस घंटे भर की है। फिर जग्गा का के काम। फिर तो बाबाजी ही दिखे है उसे।’’ कहते-कहते जग्गा रोने लगा।

अखिल ने जग्गा के कंधे पर हाथ रखा और दूसरे हाथ से उसके आँसू पोंछते हुए कहा

‘‘बस अब चुप हो जा जग्गा और सोजा’’ अखिल ने जग्गा को लिटाने की कोशिश की लेकिन जग्गा ने अखिल का हाथ झिटक दिया।

‘‘चुप ही तो रेवे हैं हम। हमें क्या मिले है चुप रहणे का। ये निर्मला माई, इनकी पहली समाधि हुई थी सांसाराम में। पहली ही रात को डर गई अंधेरे गड्ढे में। जग्गा ने ही मिट्टी में तार दबाके अंदर बल्ब जलाया था। चद्दर हटा के रात-रात भर जग्गा बात करे था इस निर्मला से। और ये सूर्यानंद.....इसकी तो नौगाँव में फट ही गई थी। उस दिन जग्गा ना होता तो निपट ही जाता सूर्यानंद। तीन दिन बाद लाश बाहर निकलती सूर्यानंद की। जग्गा ने ही तिरपाल हटा के हवा दी। पेशाब निकल गया था इस सूर्यानंद का। पेशाब से भरी पाॅलिथीन किसने फेंकी रात को? जग्गा ने। बात करे हैं साले सब दिव्य लोक की। इनसे तो अच्छी समाधि आप और हम कर लें। कोई साधु ना है महाराज। यहाँ सब ठग हैं ठग। वो बेचारी काशा का सारा माल हजम कर लिया। उसको पागल बनाके हिमालय में छोड़ दिया। वो ओंकार कहाँ गया मालूम है आपको?

‘‘कौन ओंकार महाराज?’’

‘‘वो ही जो महाअवतार बाबा बणके काशा के सामने ना आवे था। कालीचोर मंदिर वाला साधु। दिव्य लोक का साधु बणके चार पैसे कमाने आया था। अब इस लोक में है या दिव्य लोक में किसी को ना पता। यहाँ तो चुप रहणे में ही भलाई है। आप भी चुप रहणा। मैं भी चुप रहूँगो।’’ कहते-कहते जग्गा के चेहरे पर भय की लकीरें उभर आयी।

अखिल को लगा कि जग्गा अपने आपे से बाहर जा रहा है। उसने कुछ सोचकर जग्गा से कहा ‘‘तुम आराम करो मैं अभी आता हूँ’’ अखिल एक शाॅल लपेटकर दिव्यानंद जी को ढूंढने चला गया। दिव्यानंद जी उनके कमरे में सो रहे थे। उनके कमरे का दरवाजा खुला था। अखिल ने उन्हें झिंझोड़ा, वो हड़बड़ाकर उठ बैठे।

‘‘अखिल बाबू आप, इतनी रात को.....क्या बात है?’’

‘‘जरा आप मेरे साथ मेरे कमरे में चलिये। जग्गा पी कर आ गया है। अंटशंट बक रहा है। बिल्कुल होश में नहीं है जग्गा। मुझे तो घबराहट हो रही है दिव्यानंद जी।’’

दिव्यानंद जी अखिल के साथ उसके कमरे में आये। जग्गा फर्श पर एक तरफ लुढ़का पड़ा था। दिव्यानंद जी ने उसे जोर से झिंझोड़ा। जग्गा ने मुश्किल से आँखें खोली। सामने दिव्यानंद जी को देख के कुछ क्षण के लिये उसका नशा हिरन हो गया। ‘‘साॅरी महाराज जी। वो ठेकेदार के आदमी ने थोड़ी पिला दी थी। पर मैंने अखिल भैया से कुछ ना कही.....सच्ची।’’

‘‘खड़ा हो। सीधे वहीं ठेकेदार के आदमियों के पास जाकर सो। बाबाजी को पता चलेगा तो तू कहीं का नहीं रहेगा। समझा। चल उठ....दिव्यानंद जी ने जग्गा को हाथ पकड़कर खड़ा कर दिया। जग्गा लड़खड़ाता हुआ कमरे से बाहर निकल गया। दिव्यानंद जी ने अखिल से कहा

‘‘थोड़ी खिड़की खोल दो प्रभू शराब की दुर्गंध बाहर निकल जायेगी।’’

‘‘अरे....नहीं बाहर कितनी ठंडी हवा है महाराज।’’

‘‘तो चलो आज रात आप हमारी कुटिया में ही आ जाओ।’’

अखिल भी इस पूरे घटनाक्रम के बाद थोड़ा असहज महसूस कर रहा था। इसलिये उसने कमरे में ताला लगाया और दिव्यानंद जी के साथ चल दिया।

दिव्यानंद जी के कमरे में भी अखिल को बहुत रात तक नींद नहीं आयी। तरह-तरह के विचार उसके मन को परेशान करते रहे। जग्गा और निर्मला माई की दोस्ती है। इस बात का तो उसे अहसास तो था लेकिन निर्मला माई को लेकर जग्गा इतना गंभीर होगा यह उसने नहीं सोचा था। इतना गैर गंभीर दिखायी देने वाला यह जाट इस वक्त कितना असहाय है। यह सोचकर उसे जग्गा पर दया आयी।

समाधि वाले मामले में भी जग्गा जो कुछ नशे की हालत में कह रहा था क्या वह सब सही है? वह झूठ क्यों बोलेगा? वैसे भी सूर्यानंद जी और दोनों माईयों को देखकर कौन कहेगा कि ये लोग समाधि को उपलब्ध हैं। तो फिर क्या ये समाधि का आयोजन महज एक ढोंग है? यदि यह सब ढोंग है तो बाबाजी समाधि का यह ढोंग क्यों कर रहे हैं? किसके लिये कर रहे हैं? आखिर सच क्या है? धर्म, अध्यात्म, मोक्ष, ईश्वर, ध्यान, समाधि इन सब में भी कोई सच्चाई है या ये सिर्फ कल्पना है? अखिल जितना सोचता उतना उलझता जा रहा था। उसने पलंग से उठकर पानी पिया।

‘‘क्यों अखिल प्रभू, नींद नहीं आ रही’’ दिव्यानंद जी भी जाग रहे थे।

‘‘हाँ महाराज जी। समझ में नहीं आ रहा कि आखिर आश्रम में चल क्या रहा है।’’

दिव्यानंद जी उठकर बैठ गये। अखिल भी आलथी-पालथी मारकर पलंग पर बैठ गया।

समझ में तो हमारे भी नहीं आ रहा प्रभू। थोड़ा बहुत देख सुन तो बहुत दिनो से रहे हैं। पर विश्वास नहीं होता था। बाबाजी पहुँचे हुए संत है। उन्होंने बरसों हिमालय में कठोर साधना की है। हमारा तो मन कहता है कि ऐसा नहीं हो सकता। जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है।’’

‘‘पर जग्गा झूठ क्यों बोलेगा महाराज। वह बता रहा था कि कोई ओंकार महाराज काशा महाअवतार बाबा बनके दर्शन देते थे।’’

‘‘अरे इन विदेशियों की बात छोड़ो प्रभू। ये तो होते ही आधे पागल हैं। हो सकता है ये काशा ही बाबाजी के ज्यादा पीछे पड़ी हो। इसलिये उन्होंने इसका मन समझाने के लिये यह नाटक किया हो। बाबाजी पे हमको पूरा विश्वास है। किसी के साथ धोखाधड़ी नहीं करेंगे।

‘‘पर, काशा तो महाअवतार बाबा को लेकर सीरियस है। एक और बात निर्मला माई.....यदि जग्गा से प्रेम करती है तो वो जग्गा के साथ चली क्यों नही जाती?’’

निर्मला माई की बात सुनकर दिव्यानंद जी के चेहरे पर दुख की लकीरें उभर आयी।

‘‘हम जानते हैं प्रभू! अब निर्मला माई को कौन समझाये। साधु का बाना पहिना है तो संयम का जीवन तो जीना ही पड़ेगा। देखो कभी मौका देखकर समझायेंगे माई को। रही बात काशा की तो तुम्हारी बात सही है। हमने भी देखा है। वह महाअवतार बाबा को लेकर गंभीर है। चलो थोड़ी देर सो लें। सुबह बहुत काम है। सुबह उठते से ही ठेकेदार से फिर वहीं रेतीर्, इंटा, गिट्टा को लेकर झिक-झिक शुरू हो जायेगी। हमारा जीवन भी क्या है प्रभू। आये ये हरिभजन को ओटन लगे कपास।’’

दिव्यानंद जी ने एक लंबी साँस बाहर फेंकी और पैर फैलाकर पलंग पर लेट गये। अखिल भी लेट गया। दोनों सोने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन दोनों की आँखों में नींद नहीं थी।

क्रमश..

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