तेरे शहर के मेरे लोग - 12 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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तेरे शहर के मेरे लोग - 12

( बारह )


मेरा जीवन बदल गया था।


मैं अकेलेपन की भंवर में फंस कर कई सालों तक शहर दर शहर घूमता रहा था किन्तु अब परिवार के साथ आ जाने के बाद मैं फ़िर से अकेला हो गया था।


मेरे छोटे से परिवार के चार सदस्यों में अब कोई शहर से दूर, कोई देश से दूर, कोई दुनिया से दूर!


अब तक मेरे ही परिवार के साथ रहती मेरी मां भी अब मेरे बड़े भाई के घर रहने के लिए चली गई थीं।


लेकिन आपको सच बताऊं, अपने अकेलेपन का कई उन बड़े- बूढ़ों की तरह रोना- झींकना मुझे ज़रा भी नहीं सुहाता था जो ज़माने में आए बदलाव और तकनीकी सुविधाओं से लैस होकर तो बैठे रहते हैं पर अपने समय की ही माला जपते हुए आज के समय को कोसते रहते हैं।


मुझे तो ये एकांत अच्छा लगता था और मनमाफिक जीने और मनपसंद काम करने का मैं भरपूर आनंद उठाता था।


अब मेरे सामने कुछ बुनियादी सवाल थे।


पहला और सबसे अहम सवाल तो ये था कि अब नई परिस्थिति में मैं कहां रहूं?


क्या अकेला इसी तरह अपने ही फ्लैट में रहता रहूं?


या पुनः अपने पुराने घर में लौट जाऊं?


या फिर अपने भाइयों में से किसी के साथ रहने चला जाऊं?


या शहर के किसी पेइंगगेस्ट आवास में शिफ्ट हो जाऊं? या विश्वविद्यालय के प्रस्ताव के अनुसार उसके परिसर में रहने चला जाऊं?


ये मेरा भाग्य था, या पिछले कर्मों का फल, कि ये सभी विकल्प मेरे लिए खुले थे, और मुझे किसी दबाव में नहीं बल्कि अपनी मर्ज़ी से फ़ैसला करना था।


दूसरा सवाल ये था कि मैं कहां नौकरी करूं। क्योंकि अभी मैं सरकारी नियमानुसार रिटायर नहीं हुआ था। अभी मेरी उम्र कुल पचपन साल की थी।


मेरी पुरानी प्रशासन व जनसंपर्क अधिकारी की नौकरी तो बरक़रार थी ही। उससे मैंने त्यागपत्र नहीं दिया था। दूसरे, मुझे अपनी दिवंगत पत्नी के ही विश्वविद्यालय से निदेशक पद का जो प्रस्ताव मिला था, उस पर निर्णय लेने के लिए दी गई मियाद भी अभी गुजरी नहीं थी।


"जागो पार्टी" के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कहना था कि दुर्भाग्य से ही सही, पर समय ने आपको जो संकेत दे दिया है उसे समझो, और मन में देश के लिए कुछ करने का जज़्बा लेकर मैदान में कूद पड़ो।


बैंक के कुछ पुराने मित्र और शुभचिंतक कहते थे कि यदि बैंक के मैनेजमेंट को अपनी परिस्थिति बताते हुए एक आवेदन हाथ में लेकर केंद्रीय कार्यालय में मिल लोगे तो आपका रिकार्ड ऐसा है कि बैंक आपको दोबारा सेवा में लेे लेगा। ये बात मुझे यथार्थ से ज़्यादा भावुकता की लगती थी और इसे मैं अपनी निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल नहीं करना चाहता था। यद्यपि इस बीच बैंकों को फ़िर से अपने कार्मिकों की भर्ती को लेकर सरकार की ओर से काफ़ी स्वायत्तता मिल गई थी।


मुंबई की एक पत्रिका ने मेरे पारिवारिक हादसे पर बाकायदा "संपादकीय" लिखा और मुझे वापस मुंबई आकर पत्रिका और उसके साथ ही संचालित हो रहे उनके प्रकाशन से पार्टनर के रूप में जुड़ने का प्रस्ताव दिया।


मेरे कुछ आत्मीय मित्रों का कहना था कि समय ने मुझे "स्वतंत्र लेखन" के लिए खुली चुनौती दी है, और अब मुझे कुछ और बेहतर लिखने की दौड़ में शामिल होना चाहिए।


राजस्थान की एक आध्यात्मिक संस्था ने मुझे समाज सेवा के उनके कार्य से जुड़ जाने का प्रस्ताव भेजा।


कुछ मित्रों व सहयोगियों ने निष्क्रिय हो गए मेरे अपने एनजीओ को पुनर्जीवित करके सरकारी परियोजनाएं फ़िर से लेने की राय दी।


जयपुर के एक प्रतिष्ठित मुद्रण संस्थान ने उनकी एक नई यूनिट का प्रबंध संभाल लेने का आकर्षक प्रस्ताव दिया।


मेरा मन शुरू से ही "सुनो सबकी,करो मन की" का आदी रहा था।


मैंने तय किया कि मैं कुछ समय के लिए फ़िलहाल कुछ न करके घूमने- फिरने को ही अपना समय दूंगा। और उसके बाद अपने मन को स्थिर करने पर ध्यान दूंगा।


मैंने सबसे पहले कुछ समय के लिए बेटे के पास अमरीका चले जाने की योजना बनाई।


वो उस समय न्यूयॉर्क के पास एक विश्वविद्यालय में था।


बेटे के साथ कुछ दिन रहने से मन का वो बोझ कुछ हल्का सा हुआ जो पत्नी के दिवंगत हो जाने के बाद से बेटे से न मिल पाने पर किसी पथरीली चट्टान की तरह जमा हुआ था। वो कुछ मित्रों के साथ फ्लैट लेकर वहां रहता था। उसके मित्रों से मिलकर और उनके साथ रह कर मैं कम से कम इस बात के प्रति तो आश्वस्त हो गया कि उसका अकेलापन मेरे अकेलेपन की भांति विषैला नहीं है। वैसे भी उसकी पढ़ाई पूरी होने तक यही व्यवस्था सबसे उत्तम और आरामदेह थी।


अमेरिका, जिसे भारत में हम अमरीका कह देते हैं, की इस यात्रा ने मुझसे अपनी नई किताब "थोड़ी देर और ठहर" लिखवाई। इसमें मेरी नई कहानियों के साथ कुछ पुरानी कहानियां भी शामिल थीं।


इसे बाद में दिल्ली के दिशा प्रकाशन ने छापा।


इसकी शीर्षक कहानी "थोड़ी देर और ठहर" एक लम्बी कहानी थी और यात्रा के अनुभवों को छूती थी। कुछ पुरानी कहानियां उस कड़ी को जोड़ने मात्र के लिए थीं जो कुछ वर्षों का अंतराल हो जाने के कारण पाठकों की स्मृति से संभवतः ओझल हो गई थी।


वहां पढ़ रहे बेटे और उसके मित्रों के साथ ख़ूब घूमना फिरना, चर्चा करना, खेलना, फ़िल्में देखना होता और हम सब इस बात पर खूब हंसते कि हम भारतीय लोग आराम से दूसरे देशों के नाम अपनी सुविधा से बदल देते हैं, और हमारे रखे हुए इन नामों को उन देशों के वासी जानते तक नहीं।


जैसे हम रशिया को रूस कह देते हैं, चाइना को चीन। सिंगापोर हमारे लिए सिंगापुर है।


मैं उन बच्चों को समझाता था कि हम लोग अपने अवचेतन में सारी दुनिया से क्रोधित होकर अंग्रेज़ों द्वारा भारत को "इंडिया" बना देने का बदला लेते हैं।


मेरे तर्क पर वे सब खूब हंसते।


मैंने वहां चर्चा के दौरान उन लोगों के साथ कुछ ऐसे आधारभूत सवाल उठाए जैसे "वीसा" क्या है?


वस्तुतः हम जिसे "वीजा" कह कर विदेश जाने की अनुमति समझते हैं वो "विजिटर्स इंटेंशन टू स्टे अब्रॉड"(पर्यटक का विदेश में रहने का इरादा) है। जिसके अनुमोदन को हम वीसा कहते हैं।


किसी नए देश या नए शहर को युवाओं के साथ घूमना ही वास्तविक पर्यटन है। इससे शहर उसकी सुविधाओं, असुविधाओं, संस्कृति, अप संस्कृति के साथ आपके समक्ष आता है।


अपने घरों से हज़ारों मील दूर चले आए ये बच्चे देशों की अच्छाई - बुराई देख पाने का विश्वसनीय पैमाना होते हैं। ये बच्चे भारतीय राज्यों के बेहतरीन शिक्षण संस्थानों के टॉपर्स होते हुए भी यहां दुनियाभर के चुनिंदा, मेधावी बच्चों के साथ और भी प्रामाणिक हो जाते हैं। हम अपने देश में इन्हें चाहे "डॉलर कमाने के लालच में देश छोड़ गए युवा" कहते रहें, किन्तु ये ही वो पुल हैं जिन्हें पार करके हमारे देश के छोटे- छोटे गांव ढाणियां तक आज हाथ में अत्याधुनिक तकनीक लेकर गर्व और प्रमाद से बैठे रहते हैं।


अगर हमारे देश के ये महत्वाकांक्षी युवा समय - समय पर अपनों को और अपने वतन को छोड़ कर इस तरह नहीं आते तो हमारे देश को दुनिया की बेहतरीन तकनीक मिलना तो दूर, कोई इसके बारे में बताता तक नहीं।


आसमान में चंद्रमा को देख कर रोटी खाने और तारों को देख कर पानी पीने वाले हम देशों की खुशहाली की फेहरिस्त में न जाने किस मुकाम पर होते।


कुछ बहुत निकट के और खुली व्यावहारिक मानसिकता के मेरे मित्र कभी - कभी मुझसे एक सवाल और पूछा करते थे। लेकिन उसका ज़िक्र करने का कोई फ़ायदा नहीं है। क्योंकि चंद लोग न तो उन मित्रों का सवाल पचा पाएंगे, और न मेरा जवाब।


उन्हें लगेगा, छी छी...ऐसी बातें भी कोई करता है भला?


यानी आपके सामने कोई अपनी तमाम ज़िन्दगी की दास्तान भी खोल कर रख दे, पर केवल वही कहे जो आपके कानों को सुहाए। सच्चाई बयां हो या न हो, उनकी बला से!


और मज़ेदार बात ये है कि ख़ुद उनके कानों को यही बातें सुहाती हैं, कनपटी लाल हो जाती है उनकी। केवल चुन चुन कर वो ये ही तो सुनना चाहते हैं।


पर मजबूरी है, दुनिया को "शुभ्र वस्त्रावृता" जो दर्शाना है।


लेकिन आप आत्मकथा पढ़ रहे हैं। कोई लेखक जो सोच रहा है वो जानना भी आपका हक़ है।


आपको बताना ही पड़ेगा।


मेरे मित्र मुझसे ये पूछते थे कि क्या कोई आदमी कुल पचपन साल की उम्र में तन - मन से निवृत्त होकर बैठ सकता है? उनका तर्क होता था कि सरकार तक साठ साल तक तो आपको काम का मानती ही है।


और मैं ऐसे लोगों को क्या जवाब देता था, वो भी आपको बताता हूं।


मैं कहता था कि किसी के मानने न मानने से कुछ नहीं होता। क्या सरकार जिन्हें काम का मानती है वो सभी काम कर ही रहे हैं? तो कुछ ऐसे लोग क्यों नहीं हो सकते जो काम के होते हुए भी काम से छुट्टी ले लें।


बहस छिड़ जाती। वो कहते काम का आदमी बेकार बैठ ही नहीं सकता। और अगर कोई हाथ पे हाथ धर के बैठा है तो वो किसी काम का नहीं!


वो मेरा मनोबल बढ़ाते और मुझे कुरेदते रहते। एक मित्र तो बहुत पीछे पड़े कि चलो मैं कुछ लोगों से मिलवा दूं।


लेकिन मेरे उन मित्र की मुझसे मित्रता वजनदार होते हुए भी मैंने उनकी बात को कभी वज़न नहीं दिया।


मेरे पास जितनी दीवारें थीं उनसे कहीं ज़्यादा मेरी धर्मपत्नी की तस्वीरें थीं। फ़िर मैं घर में टांगने के लिए कोई अजनबी तस्वीर क्यों लाता?


इसके फ़ायदे से कहीं ज़्यादा इसके नुक़सान थे।


मुझे किसी भी कीमत पर अपने बच्चों और परिजनों के लिए अपने घर को अस्पृश्य नहीं बनाना था।


मुझे अपना अतीत बेचना नहीं था।


इस कदम से शायद लोगों को मेरे अत्याधुनिक सोच का होने की गंध ज़रूर आती क्योंकि कई कलाकारों- साहित्यकारों का तो ये प्रिय शगल रहा। फ़िर भी मेरे मन में ये ख्याल कभी नहीं आया, न सोते में, न जागते में! और जो बात ख़्याल तक में न आए उसे हक़ीक़त में लाने की कौन सोचे? क्यों सोचे!


इस बीच पूरी दुनिया की ही शिक्षा व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन आया। इसकी शुरुआत हमारे देश में भी तत्कालीन प्रधानमंत्री ने एक ओपन विश्वविद्यालय खोल कर काफ़ी पहले ही कर दी थी। ये परिवर्तन मूल रूप से उन लोगों को पढ़ने की सहूलियत देने का था जो किसी भी आर्थिक या सामाजिक कारण से स्कूल कॉलेज का मुख नहीं देख पाए थे किन्तु जिंदगी की दौड़ में रोटी कमाने की जद्दोजहद में ही उलझ कर काफ़ी कुछ सीख गए थे। इन्हीं लोगों को औपचारिक शिक्षा देकर यथायोग्य उपाधियां देने की कोशिश की गई ताकि ये लोग शिक्षित कहला भी सकें और अपनी तरक्की पर कुछ ध्यान दे सकें।


पर ये सब मैं आपको क्यों बता रहा हूं मेरी कहानी में?


इसलिए कि अमेरिका से लौट कर जब मैंने इस नए विश्वविद्यालय में कार्यग्रहण किया तो मुझे पहले दूरस्थ शिक्षा का ही निदेशक बनाया गया।


संयोग देखिए कि उस समय कई शहरों में इसके लिए अध्ययन केंद्र खोले जा रहे थे जिनके लिए मेरा इन शहरों में जाना हुआ। मैंने राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के कुछ शहरों के साथ साथ झारखंड और ओड़िशा तक की यात्रा की।


इन्हीं दिनों अखिल भारतीय साहित्य परिषद की प्रदेश इकाई की ओर से मेरी किताब "थोड़ी देर और ठहर" को कहानी का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया जिसमें मुझे दस हज़ार रुपए की राशि भी दी गई।


नागपुर के एक तकनीकी संस्थान में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में मुझे उनका अखिल भारतीय रवीन्द्र नाथ टैगोर पुरस्कार प्रदान किया।


इस बीच मेरा दो- तीन बार अमेरिका जाना और हुआ और मुझे इस बात से गहरी राहत मिली कि उसका कोर्स पूरा हो जाने के बाद मेरे बेटे को अमेरिका में ही एक अच्छी और उसकी मनपसंद नौकरी मिल गई।


उसके वहां रहने के कारण अब लगभग हर वर्ष ही कुछ समय के लिए मैं वहां हो आता था। मैंने वहां के कई नगर और पर्यटन स्थल भी देख डाले थे।


मुझे एक बड़े खालीपन के रूप में ये सोच कभी कभी घेर लेती थी कि बेटे को उसके मुकाम तक पहुंचता हुआ देखने के लिए मेरी पत्नी दुनिया में रुकी नहीं थी जबकि शिखर की इस यात्रा के लिए उसे तैयार करते वक़्त तलहटी में ही उसे ज़िन्दगी की ऊंच- नीच समझा देने का काम उसने बेहद कुशलता से अंजाम दिया था।


मुझे लगता था कि जीवन में सब कुछ किसी के देख पाने से ज़्यादा अहम है किसी सफ़र का अपने लक्ष्य तक मुकम्मल हो जाना।


बीज के मिट्टी में गुम हो जाने पर ही तो बिरवे पनपते हैं।


ज़िन्दगी में वैसे तो इंसान की अपनी आयोजना से कुछ नहीं होता है फ़िर भी मेरी पत्नी के न रहने के कारण मैंने अपने बेटे के विवाह के दिवास्वप्न देखने शुरू कर दिए थे।


सपनों की सबसे अच्छी बात ये है कि सपने देखने में आपकी उड़ान पर कोई पाबंदी नहीं होती।


सारा आकाश आपकी सीमा है!


* * *