महामाया - 32 Sunil Chaturvedi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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महामाया - 32

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – बत्तीस

महाअवतार बाबा के दर्शन कर काशा प्रफुल्लित थी। उसकी आँखों से महाअवतार बाबा की मूरत गायब ही नहीं होती थी। सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते हर पल वो ‘ऊँ महाअवतार बाबा नमः’ का जाप करती रहती। उसकी एक ही साध थी महाअवतार बाबा के दर्शन। अपनी इस इच्छा के लिये वह बाबाजी से खूब अनुनय विनय करती ‘‘प्लीज बाबाजी एक बार.....सिर्फ एक बार और हमें महाअवतार बाबा से मिलवा दीजिये।’’

लगभग एक सप्ताह बाद फिर से काशा की महाअवतार बाबा से मुलाकात करवायी गई। थोड़ी देर तो वो अपलक महाअवतार बाबा को देखती रही। फिर उसने दोनों हाथों से ऊपर से नीचे तक उन्हें छुआ और उनके घुटनों पर सर रखकर रोने लगी। इस बार बाबा पूरे समय खामोश रहे। जिस तरह साधु पहले प्रकट होकर अंर्तध्यान हुआ था इस बार भी उसी तरह प्रकट होकर आधे घंटे बाद अंर्तध्यान हो गया।

काशा अब पूरी तरह महाअवतार बाबा की दीवानी हो चुकी थी। उसे लगता था महाअवतार बाबा पूरे समय छाया की तरह उसके साथ हैं। उसने अपना कमरा अच्छे से सजाया। पलंग पर नया गद्दा और चादर मंगवाकर बिछायी। पलंग पर दीवार के सहारे नये गाव-तकिये लगाये। खुद रात को नीचे चटाई पर सोती और खाली पलंग पर महाअवतार बाबा की छाया को सुलाती। किसी दिन सुबह पलंग पर एकाध सलवट देखकर नाचने लगती। उसकी आँखों से आँसू झरने लगते। दिन में वो पलंग पर छाया का आभास पाकर अकेले ही खूब बतियाती।

काशा की इस हालत की चर्चा अब आश्रम में भी होने लगी थी। दबे-छुपे लोग बातें करते और काशा को पागल करार देते। अखिल ने बाबाजी से एक दिन काशा की इस मनःस्थिति के बारे में बात की तो बाबाजी ने उसे मीरा का उदाहरण दिया। ‘‘ये भक्तियोग है बेटा। साधक अपने साध्य में इतना लीन हो जाता है कि पूरे समय चारों ओर उसे अपने साध्य की ही मूरत दिखाई देती है। वो पूरी तरह से अपने आराध्य में डूब जाता है। काशा भी इसी भावदशा में है। कुछ दिनों में सब ठीक हो जायेगा बेटे।’’

उधर, ओंकार महाराज बाबाजी द्वारा उनके साथ किये गये सख्त व्यवहार से क्षुब्ध थे। उनका मन तो होता था कि वो बाबाजी को दो टूक जवाब दे दें। या फिर बना-बनाया खेल बिगाड़ दें। पर उन्हें बाबाजी की ताकत का अंदाजा था। इसलिये वे मन मसोस कर रह जाते।

सूर्यगिरी जी से जब उन्हें यह पता चला कि काशा इन दिनों पूरी तरह महाअवतार बाबा पर न्यौछावर है। वह अपना सब कुछ महाअवतार बाबा को भेंट चढ़ा देना चाहती है। तो ओंकार महाराज के मन में एक विचार आया। उन्होंने सोचा कि जब काशा उन्हें ही महाअवतार बाबा मानती है तो क्यों न सीधे काशा से मिलने की जुगत भिड़ाई जाय। इससे काशा का पूरा धन उन्हें मिल जायेगा। कोई हिस्सा बांट भी नहीं करनी पड़ेगी। फिर बाबाजी को भी ओंकार गिरी की ताकत का अंदाजा हो जायेगा। वह दो-तीन दिन काशा से मिलने की योजना के बारे में सोचते रहे। आश्रम में काशा से अकेले मिलना संभव नहीं था। हर जगह बाबाजी के भेदिये थे। काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने काशा के नाम एक पर्चा लिखा। रात को किसी तरह काशा का कमरा ढूंढ धीरे से पर्चा दरवाजे के नीचे से सरकाया। फिर तहखाने में लौट आये और निश्चिंत होकर सो गये।

सुबह काशा को वह कागज का पर्चा मिला। उसने पर्चे को खोलकर देखा उसमें हिन्दी में कुछ लिखा था। इसलिये वह कुछ समझ नहीं पायी। आखिर पर्चे में क्या लिखा है? किसने लिखा है? वह हाथ में कागज का पर्चा लिये दिव्यानंद जी को खोज रही थी। तभी सामने से सूर्यगिरी जी आ गये। काशा ने सूर्यगिरी जी से यह जानना चाहा कि आखिर पर्चे में क्या लिखा है?

सूर्यगिरी जी ने पर्चा पढ़ा। पढ़ते-पढ़ते उनका चेहरा स्याह हो गया। सूर्यगिरी जी के चेहरे के बदलते रंग को भांपते हुए काशा ने पूछा

‘‘समथिंग सीरीयस, महाराज जी’’

‘‘नो...नो...नथिंग सीरीयस, इट्स नाॅट फाॅर यू। बाय मिस्टेक समबडी ड्राप इट इन यूअर रूम।’’

‘‘देन ओ.के.। नाओ आइ एम रिलेक्स......बाॅय बाॅय महाराज जी’’ कहते हुए काशा अपने कमरे की ओर चली गई।

सूयगिरी जी पर्चा लेकर सीधे बाबाजी के पास पहुंचे। कमरे में बाबाजी अकेले थे। सूर्यगिरी जी ने बिना कुछ कहे पर्चा बाबाजी की ओर बढ़ा दिया।

‘‘यह क्या है बेटे?’’ बाबाजी ने पर्चा हाथ में लेते हुए पूछा।

‘‘ओंकार महाराज ने काशा को पत्र लिखा है’’ ओंकार महाराज के प्रति सूर्यगिरी जी का क्रोध स्पष्ट झलक रहा था।

बाबाजी ने पत्र खोलकर पढ़ा।

बेटी काशा,

महायोगी ने हमारा सम्मान ठीक से नहीं किया। इसलिये हम नाराज है। हमने संकल्प किया है कि हम महायोगी के आश्रम में कभी नहीं आयेंगे। लेकिन हम तुमसे प्रसन्न हैं। तुमसे मिलना भी चाहते हैं। आश्रम के सामने वाली पहाड़ी पर एक भैरव मंदिर है। हम कल शाम चार बजे तुम्हे वहीं मिलेंगे। अकेली आना। इस बारे में किसी से कुछ मत कहना।

तुम्हारा गुरू

महाअवतार बाबा

पर्चा पढ़ते-पढ़ते बाबाजी के माथे पर सलवटें उभर आयी। उन्होंने पर्चा सूर्यगिरी को लौटाते हुए सिर्फ इतना कहा

‘‘मूर्ख है। इसने अपना ही नुकसान कर लिया। बेटे, कौशिक को साथ ले जाकर इसे अच्छे से समझा दो।’’

‘‘जी बाबाजी’’ कहते हुए सूर्यगिरी जी कमरे से बाहर निकल गये।

कौशिक के साथ सूर्यगिरी जी जब तहखाने में पहुंचे तो ओंकार महाराज झोले में अपना सामान समेट रहे थे। उन्होंने जब दोनों को सामने खड़े देखा तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। जैसे उन्हें भागने की तैयारी करते हुए पकड़ लिया गया हो। फिर उन्होंने हिम्मत जुटाकर पूछा -

‘‘क्यों महाराज? दोनों मूर्ति सवेरे-सवेरे। वो भी गुस्से में।’’

सूर्यगिरी जी ने बिना कुछ कहे पर्चा ओंकार महाराज के सामने पटक दिया।

‘‘ये..... क्या है महाराज?’’

ओंकार महाराज पर्चा देखकर हकला गये। ‘‘ये....ये.....’’ उनके मुँह से कोई बोल नहीं फूटा।

‘‘आपने तो महाराज अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। बाबाजी ने तो आपके जीवन भर की पेंशन का इंतजाम कर दिया था। थोड़े-थोड़े दिन में महाअवतार बाबा बनकर प्रकट होते रहते। मोटी भेंट पाते रहते। पर आपने तो सोचा कि सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है। एक ही बार में ही पेट काट लो।

‘‘नहीं महाराज......वो बात नहीं है।’’ ओंकार महाराज की आवाज लड़खड़ा रही थी।

‘‘महाराज इतना तो सोचते कि महाअवतार बाबा दिव्य लोक के संत हैं। उन्हें किसी से कुछ कहना है तो चिट्ठी लिखने की क्या जरूरत है। वो तो आकाशवाणी कर सकते हैं। जरूरत पड़ने पर खुद प्रकट हो सकते हैं। फिर एक अंग्रेजन को पत्र लिखा। वो भी हिन्दी में। अरे अंग्रेजन हिन्दी कैसे पढ़ेगी?’’

कौशिक ने ओंकार महाराज की जटायें पकड़कर उन्हें ऊपर उठाते हुए कहा ‘‘आपने क्या सोचा था महाराज, बाबाजी को झांसा देकर काशा का सारा माल खुद हड़प् कर जाओगे। चलिये बाबाजी के पास। वो ही आपका निर्णय करेंगे।’’

दोनों ओंकार महाराज को धकिया रहे थे। ओंकार महाराज उनके साथ घिसटते हुए चल रहे थे।

इस घटना के बाद काशा ने कईं बार बाबाजी से मन्नत की। अनुनय विनय की। लेकिन काशा को महाअवतार बाबा के दर्शन नहीं हो सके। काशा महाअवतार बाबा के दर्शनों की चाह में अपनी सुध-बुध भूला बैठी थी। वो दिन-दिन भर पागलों की तरह आश्रम के सामने वाली पहाड़ियों में भटकती रहती। हर किसी को रोककर महाअवतार बाबा के बारे में पूछती। फिर निराश होकर रोने लगती। कुछ दिनों बाद काशा अपनी जीवनभर की कमाई बाबाजी को भंेट कर महाअवतार बाबा की खोज में हिमालय की गहराईयों में चली गई।

ओंकार महाराज को सूर्यगिरी जी और कौशिक जिस दिन बाबाजी के पास लेकर गये थे। वह उसी दिन से गायब थे। उनका झोला अभी भी तहखाने में वैसा ही पड़ा था जैसा वह छोड़ गये थे।

क्रमश..