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पापा की मुक्ति

कहानी

पापा की मुक्ति

डॉ. हंसा दीप

घनन-घनन फोन की घंटी बजी और जैसे घर का सब कुछ स्वाहा हो गया। हँसता-चहकता वह घर करुण क्रन्दन से भर गया। पापा को ऑफिस में हार्ट अटैक का दौरा पड़ा और उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया। इस समय उन्हें शव-गृह में रखने की व्यवस्था की जा रही थी। मम्मी विश्वास ही नहीं कर रही थीं। चीख-चीख कर कह रही थीं- “नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता- अभी गोल्डी आएगी ड्राइव-वे में, और वे हमेशा की तरह उतर कर आएँगे।” अपनी सुनहरे रंग की कार को पापा गोल्डी कह कर ही पुकारते थे। उसे भी कहाँ विश्वास हो रहा था कि पापा इस तरह कहीं खो जाएँगे!

धीरे-धीरे एक के बाद एक सब जान-पहचान वाले जमा होने लगे। उनका अपना यहाँ है ही कौन! बस, पापा, मम्मी, बबलू और वह स्वयं। कुछ पापा के दोस्त। चूँकि मम्मी रो रही थीं, और आंटियाँ उसे भी अपनी गोद में जबरन सुलाकर सिर पर हाथ घुमा रही थीं, इसलिए वह भी रो रही थी वरना रुलाई उसे कहाँ आ रही थी? ढेरों प्रश्न छटपटा रहे थे मम्मी से पूछने के लिए-

“पापा की दवाई साथ ले जाने के लिए क्यों नहीं दी?”

“दर्द होने पर पापा ने तुरन्त डॉक्टर को क्यों नहीं बताया?”

“पापा ने जरूर ज्यादा दौड़-धूप की होगी!”

पर यह भीड़ छंटे तब तो। रो-रोकर उसका गला पूरी तरह सूख रहा था। इच्छा हो रही थी, फ्रीज में से एक बोतल पानी निकाल कर गटागट पी ले। पर कैसे? सारा कमरा अजीब से कोलाहल से भरा हुआ था। मम्मी की चीखें उसे अंदर तक छेद रही थीं। हालांकि वह भी मुँह से आवाज निकालने की पूरी कोशिश कर रही थी, पर आँसू तो सारी कोशिशों के बावजूद बह नहीं रहे थे। दिमाग तेजी से चल रहा था। पापा के बगैर कैसे रहेगी वह? कैसे रहेगी मम्मी? पहले की तरह अब रोज चाय-नाश्ता-खाना भी मिलेगा कि नहीं? और स्कूल, स्कूल का क्या होगा? स्कूल तो उसे रोज पापा ही छोड़ने जाते थे। उफ! ये लोग कब जाएँ और वह मम्मी के पास बैठ कर पापा को याद करे।

इस बीच पापा के भाई और उनकी पत्नी भी आ गए थे और मम्मी के साथ रो रहे थे, जिन्होंने पापा के रहते कभी सीधे मुंह बात भी नहीं की थी। उसे अच्छी तरह याद है वह दिन, जब इनके झगड़ा करके जाने के बाद पापा दहाड़े मार कर रोए थे। उसका जी चाहा, चीख-चीख कर कहे उनसे और बातें याद दिलाकर खदेड़ दे अपने घर से बाहर। किसी को कोई जरूरत नहीं है रोने की, ऊपर-ऊपर से व्यर्थ सहानुभूति जताने की। पापा के न रहने से बिगड़ा तो सिर्फ उनका, मम्मी-बबलू-उसका और इस घर का। सब अपने-अपने घर क्यों नहीं चले जाते?

बेचारा बबलू सारी शैतानियाँ भूल कर कैसा सहमा-सहमा रहने लगा है। कुछ देर रोकर चुपचाप सो गया है। छोटा है ना! कितना अच्छा होता यदि वह भी बबलू-सी छोटी होती। तब उसे यह सब सोचने समझने की झंझट नहीं उठानी पड़ती।

इस तरह दस-ग्यारह दिन निकल गए। आज रोज की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही लोग आ गए थे। मिठाई भी मंगवाई गई थी, खाना भी बन रहा था-पूरी, सब्जी, रायता....। पता नहीं पापा के न रहने पर सब खुशी मना रहे थे या गम! मम्मी की कान छेदती चीखें उसे नितान्त कृत्रिम लग रही थीं। वह जानती थी, मम्मी आज तक चीख-चीख कर कभी नहीं रोईं। उस दिन भी नहीं जिस दिन नानाजी की मौत हुई थी। हाँ, उसने मम्मी को उदास कई बार देखा था। ऐसी उदासी, जिससे सारा घर खामोश हो जाता था लेकिन वह उदासी जल्दी ही दूर भी हो जाती थी और सारा घर फिर से चहकने लगता था।

यही तो वह चाह रही थी कि पहले की तरह घर की हँसी-खुशी लौट आए। मम्मी का लाड़-दुलार, पापा का प्यार। पर कहाँ! पापा तो अब हैं ही नहीं! तो क्या मम्मी भी अब उसे पहले की तरह प्यार नहीं करेंगी! समझ में नहीं आ रहा था कि मम्मी यह सब क्यों कर रही हैं। पापा को तो रोना-धोना बिल्कुल पसंद नहीं था।

आने-जाने वालों के प्रति उसके मन में घृणा—सी उपजने लगी थी अब! ये लोग दुख घटाने नहीं बढ़ाने आ रहे हैं। इन्हीं लोगों के कारण बेचारी मम्मी न तो ठीक से सो पाईं न ठीक से खा-पी पाईं। वह स्वयं भी तो चुपचाप बैठी रहती थी, कोई आकर उसे खाने के लिए ले जाता तो चली जाती। थोड़ा बहुत खाया न खाया और वापस। इतने दिनों में उसने बाहर झाँका तक नहीं था। इच्छा हो रही थी, पहले की तरह बबलू के साथ लॉन में खूब धींगा-मस्ती करे, खेले और दोस्तों से बतियाती रहे।

न जाने यह तमाशा कब खतम होगा? किसी किताब में उसने पढ़ा था- “मौत का सन्नाटा कभी-कभी आदमी की बर्दाश्त से बाहर हो जाता है” कैसा होता होगा वह सन्नाटा! वह देखना चाहती थी, महसूस करना चाहती थी। यहां तो कितना हो-हल्ला मचा हुआ है। इतने लोगों की चहल-पहल, मिठाइयों की सौंधी-सौंधी महक, किसी अजनबी को निश्चित ही कोई खुशी मनाए जाने का आभास दे रही होगी। कैसा अजूबा था! एक ओर हाहाकार मचाता क्रन्दन और दूसरी ओर मेहमानों के लिए बनती पूरियाँ, मिठाइयाँ!

सामने वाली दीवार पर पापा का मुस्कुराता फोटो लगा है। ऐसी जीवंतता है चेहरे पर, मानों अभी खिलखिलाते हुए पापा उसका माथा सहलाएँगे और मम्मी से कहेंगे- “सुमी देखना, तुम्हारी बेटी तुमसे कहीं दो कदम आगे ही रहेगी।”

तब मम्मी कुछ प्यार से, कुछ व्यंग्य से उसकी ओर मुंह बिचका देंगी।

एक बार पापा ने उससे कहा था- “बेटे, आकस्मिक मौत इंसान को अथाह शांति दे जाती है। वह अपनी सारी जिम्मेदारियों, परेशानियों और दुनियादारी की कष्टप्रद यातनाओं से मुक्ति पा जाता है- हमेशा-हमेशा के लिए।”

क्या पापा को भी इसी तरह की परेशानियाँ रही होंगी? रही ही होंगी, तभी तो पापा-मम्मी का कभी-कभी जमकर झगड़ा होता था। पापा गुस्से में बड़बड़ाते हुए चले जाते और मम्मी सारे दिन उदास रहतीं। खाना भी नहीं बनातीं। बनातीं तो भी सिर्फ रोटी, जिसे अचार के साथ खाना पड़ता। उस दिन रात में पापा बहुत देर से आते थे। मम्मी तकिए में सिर छुपाए गुमसुम रहती।

चलो, अच्छा ही हुआ पापा को सारे झगड़ों-टंटों से मुक्ति मिल गई। वरना जब भी पापा को किसी बात से दुख होता था। तो वह मन ही मन मम्मी को बहुत कोसती थी। इतने अच्छे पापा को मम्मी ही, कुछ तो भी बोलकर दुखी कर दिया करती हैं। उन्हें गुस्सा दिलाती हैं, फिर खुद भी नहीं खाती और सभी को भूखा रखती हैं। तो क्या अब मम्मी भी मन ही मन में राहत महसूस कर रही होंगी?

आज भीड़ थोड़ी छँट गई है। बहुत दिनों के बाद मम्मी ने अच्छी तरह नहा कर बाल सँवारे हैं। घर का माहौल थोड़ा-सा अलग लगने लगा है। वह मम्मी से लगातार बात करने का बहाना ढूंढ़ रही है। पर न जाने क्यों मम्मी उसे मौका नहीं दे रही हैं या वह खुद झिझक रही है। इतने दिन वह मम्मी से बिल्कुल अलग ही अलग रही, शायद इसीलिए वह पसरा हुआ मौन टूट नहीं पा रहा है। वह कभी मौका ढूँढ़ती, कभी शुरुआती शब्द। पर हर बार वह शब्दों को अन्दर ही अन्दर चबाती रहती और हाथ आया मौका निकल जाता। बबलू भी मम्मी के आसपास ही मंडरा रहा है, पर अपने गर्दन हिलाते शेर से खेलते हुए। उसने बड़े साहस के साथ धीरे से शब्दों पर जोर देते हुए कहा -

-मम्मी!

मम्मी ने आश्चर्य से उसकी तरफ प्रश्नवाचक नजर डाली। दोनों की आँखे मिलीं। वह मम्मी की आँखों में झाँकती हुई पूछती है-

मम्मी वो.... पापा की दवाई....।

एक चीखती-सी आवाज उसे झंझोड़ देती है- “बस-बस, बहुत हो गया। क्या पापा....पापा...पापा....। कुछ और काम नहीं है करने के लिए?”

और हाथों से अपना सिर ठोकते हुए दूसरे कमरे में चली जाती हैं मम्मी। अचानक उसके सोच के दायरे विस्तृत हो जाते हैं - अपने प्यारे पापा की मुक्ति पर।

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