नीली धारियों वाला लिफाफा Hansa Deep द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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नीली धारियों वाला लिफाफा

कहानी

नीली धारियों वाला लिफाफा

डॉ. हंसा दीप

जब-जब आदमी ने किसी प्रश्न का उत्तर नहीं पाया, तब-तब उसे रात नींद नहीं आई। गहराती रात और बढ़ती उलझनों का सम्बंध भी उतना ही गहरा है जितना प्रश्न और उत्तर के बीच का फासला।

आज मेरे साथ ऐसा ही हो रहा है। एक भयानक-सा प्रश्न खड़ा है सामने। 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना'! खामख़्वाह दूसरों के हालात् पर नए-नए प्रश्न खड़े करना और स्वयं को उलझाए रखना, शायद मेरी पुरानी आदत है। इस ताजे प्रश्न की शुरुआत तब से हुई जब से हम मिस्टर केदार के पड़ोसी बने।

बड़ी चहल-पहल थी उनके यहां। अनवरत रिश्तेदारों का आना-जाना लगा था। माहौल को देखकर लग रहा था, जैसे किसी शादी की तैयारी हो रही हो। लेकिन बाद में पता चला कि केदार साहब कुवैत से आए हैं एक महीने के लिए, फिर चले जाएंगे। इसीलिए सभी लोग उनसे मिलने आ रहे हैं। सारे मामा-मामी, चाचा-चाची, दूर के मौसेरे-चचेरे भाई-बहन रिश्तेदारों की कतार में शामिल थे। शायद थोड़ा-सा लालच यह भी रहता होगा कि कुवैत से लाई कोई गिफ्ट उन्हें मिल जाए। जो भी आता केदार साहब की किस्मत पर रश्क़ करता। करे भी क्यों न! घर में एक-एक चीज कुवैत की जो थी। एक से एक बढ़िया क्वालिटी। आने वालों के सामने प्रदर्शनी लगा दी जाती। छोटा चुन्नू इस काम के लिए तैनात था।

“ये देखिए अंकल, यह मिक्सर चार हज्जार का है। यह थर्मस फलास्क एक हज्जार का। ये सभी सूटकेस देख रहे हैं न! सभी वहीं के हैं। यह देखिए वी.सी.आर. ... डी.वी.डी. प्लेयर भी पापा ने खरीद लिया है पर अभी लाए नहीं हैं।”

मिसेज केदार भी बोल उठतीं- “यह देखिए रजाईनुमा कम्बल, जिसे देखते ही सोने की इच्छा हो जाए और ये साड़ियाँ... इस बार तो दस ही लाए हैं। पिछली बार पन्द्रह लाए थे। क्योंकि इस बार इन्होंने दूसरा बहुत सारा सामान ले लिया था। यह सोने की अंगूठी देख रही हैं आप! यह इस बार की है, पिछली बार काफी मोटी चैन थी। अब करें क्या, लाने को तो बहुत कुछ ले आएँ पर हज्जारों रुपया कस्टम भरना पड़ता है न!”

और वे चले गए। पहले मैं सोचती थी नौकरी का चक्कर भी आदमी को कहाँ से कहाँ ले जाता है। ट्रांसफर की वजह से बेचारे को घर-परिवार से दूर रहना पड़ रहा है। पर जैसे-जैसे आना-जाना बढ़ा मालूम हुआ कि अब वे वहाँ नई नौकरी पर गए हैं और निश्चित नहीं कि वापस कब आएँ। तब मुझे यथार्थ बोध हुआ। मन वितृष्णा से भरने लगा। अच्छा तो यह कुवैत जाकर अमीर बनने का प्रलोभन उन्हें अपनी पत्नी बच्चों से अलग कर गया है। यही तो प्रश्न है मेरा?

उन्हें गए दस दिन हो गए। मिसेज केदार ने बताया, हर बार जाने के दसवें दिन रजिस्टर्ड पत्र मिल जाता है। इसलिए आज सुबह से उन्हें इन्तजार है, साइकिल से आते डाकिए का। जो आएगा, पत्र लाएगा। लेकिन दस, फिर ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पन्द्रह दिन हो गए, लेकिन कोई पत्र नहीं आया।

“ऐसा तो पिछले तीन सालों में कभी नहीं हुआ। ‘ये’ तो पहुँचते ही पत्र डाल देते हैं।”

अखबार टटोले गए पर ऐसा कोई समाचार नहीं था कि विदेश से आने वाली डाक में लेट-लतीफी हो रही हो। खबरें ध्यान से सुनी जातीं। मैं पड़ोसिन का कर्तव्य निबाहती रही। रोज़ जाकर सान्त्वना दे आती और उनका रोना-धोना सुन लेती।

“न खाने में मन लगता है न पीने में। नींद का तो हाल ही मत पूछिए। हर पल बेचैन करवटों में गुजरता है। आखिर पत्र क्यों नहीं आया?”

मैं करती क्या? सिवाय यह कहने के कि – “पोस्टमैन की राह देखिए, एक न एक दिन तो आएगा ही।” जितना दु:ख उन्हें था उससे कहीं ज्यादा मुझे था। मुझे अपने प्रश्न का उत्तर जो पाना था। मिसेज केदार की पीड़ा मैं महसूस करती थी। याद है अच्छी तरह मुझे। जब प्रशान्त पन्द्रह दिनों के लिए पुणे ट्रेनिंग में गए थे। हर रोज उनका एक पत्र मिलता था, एक मैं लिखती थी। फिर भी नींद, खाना-पीना सब दुश्वार हो गया था। वह पहला मौका था, प्रशान्त से दूर रहने का। इतने दिनों की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। प्रशान्त स्वयं ऐसे मौकों को टाल जाते थे। यहां तो कोई मजबूरी नहीं थी। अगर कोई मजबूरी थी भी तो सिर्फ पैसा।

रोज की तरह दिनचर्या से निवृत्त हो मैं उनके घर गई तो देखा, मिसेज केदार ने नई साड़ी पहन रखी है। माथे पर सिन्दूर का बड़ा टीका दमक रहा है। चेहरे पर चमक है। हाथों में मिठाई की प्लेट है और गैस पर पकौड़ियाँ तली जा रही हैं।

“अरे भई, कौन आ रहा है? भीनी-भीनी खुशबू से घर महक रहा है?”

“आ रहा नहीं, आ गया। ये देखिए दो-दो पत्र एक साथ आए हैं।”

नीली धारियों वाले लम्बे सफेद लिफाफे दिखाते हुए उन्होंने कहा।

“अरे वाह! तभी! क्या लिखा है? क्यों लेट हो गया पत्र?”

“अरे, ये मुए डाकखाने वाले सब गड़बड़ कर देते हैं। उन्होंने तो पहुँचते ही पत्र डाल दिया था। ये देखिए तेरह तारीख डली हुई है।”

“मैंने कहा था न, इतनी दूर से डाक आती है तो कभी-कभार देरी होना स्वाभाविक है। चलिए, आज आप खूब सोइएगा।”

“अरे सोना कहाँ? नींद तो फिर भी नहीं आएगी। पर हाँ, रोज की तरह करवटों में वह बेचैनी नहीं रहेगी। लीजिए मिठाई खाइए।”

उनकी खुशी में शरीक हो मैंने मिठाई खाई और चली आई। मेरा वह प्रश्न और क्रूर होता जा रहा था। प्यार के एक-एक पल की कीमत विदेश यात्रा!

यात्रा? शायद नहीं, इसे तो जिन्दगी के एक सबसे ख़ुशनुमा हिस्से का पड़ाव कहना चाहिए। सदियों से पैसा और प्यार दोनों तराजू पर तोले जाते रहे हैं। अब तक तो मैं निःसंकोच अपनी बात कहती थी, पर मिजेस केदार की पड़ोसन होने के नाते मेरा प्यार डगमगा गया था।

अब मुझे उनके हर ख़त का मजमून जानने की इच्छा रहती थी कि शायद नौकरी छोड़कर आ रहे हों या आश्वासन ही दिया हो। पर हर बार – “यह खरीदा – वह खरीदा”।

“इसका ये करना –उसका वो करना, बच्चों को पढ़ाना, आज चालीस हजार का चेक रवाना किया है, बैंक भेज देना”, आदि-आदि। सभी पत्र सामान्य होते थे। बच्चों के लिए वही, पत्नी के लिए वही। कुशल हूँ और कुशलता के समाचार। एक बार मैंने साहस करके पूछ ही लिया -

“आपके लिए अलग पत्र क्यों नहीं आता?”

वे नई-नवेली-सी शरमा गईं।

“आप तो मजाक करती हैं। नई-नई शादी तो हुई नहीं। फिर लिख देते हैं यही क्या कम है? समय ही कहाँ मिलता है उन्हें? मालूम है आपको, कुवैत तो इतना अमीर देश है कि नौकर तो मिलते ही नहीं वहाँ। सारा काम खुद करके ड्यूटी पर जाना, शाम को घर आकर खाना बनाना, बरतन साफ करना, कितना थक जाते होंगे! यहाँ तो कभी एक कप चाय भी नहीं बनाई। आदमी जैसा पखेरू कोई नहीं । आज यहाँ तो कल वहाँ...।”

और एक लम्बी साँस खींच, वे मानसिक रूप से कुवैत पहुँच जातीं। पहले मैं उनसे सहानुभूति जताती थी पर अब मुझे गुस्सा आने लगा है। डरती हूँ कहीं कोई अपशब्द न निकल जाए। आखिर पति के साथ पैसों का लालच उन्हें भी रहा होगा। तभी तो सब कुछ छोड़कर, जाने देने को राजी होती रहीं। ऐसा पैसा किस काम का? मैं उनकी जगह स्वयं को बैठा महसूस करने लगूँ तो दो दिन में ही दम घुट जाए। पत्र आने के पहले दर्द, नीरसता और मायूसी का माहौल और पत्र आने के बाद क्षणिक खुशी। कभी-कभी कोई विशेष चीज खरीदने की थोड़ी लम्बी खुशी। यह सब उस परिवार के लिए आम बात हो गई थी।

“कब आएँगे?”

प्रश्न के जवाब पर वे हँस देतीं, एक खोखली हँसी।

“अभी तो गए ही हैं, अभी आने के बारे में लिखने का तो सवाल ही नहीं।”

कितना धैर्य था उनमें। बिरली पत्नी ही यह सब सह सकती है। हर क्षण की चिन्ता, पति की, पति के पत्र की, बच्चों की, पढ़ाई की.... चिन्ताएँ, चिन्ताएँ और सिर्फ चिन्ताएँ।

न जाने क्यों वह क्षण अब भी याद है मुझे जो मेरे लिए असह्य हो उठा था, जिस दिन मिस्टर केदार जा रहे थे। मोड़ पर मुड़ते हुए उन्होंने एक नजर भी घर पर नहीं डाली थी जहाँ उनकी पत्नी थोपी हुई मुस्कान होठों पर रचाए खड़ी थी। उन्हें तब अपनी बस की, फ्लाइट की चिन्ताएं ज्यादा रही होंगी। उस समय सामान के नाम पर ब्रीफकेस में एक जोड़ी कपड़े, टावेल और खाने का टिफिन था जिसमें पूड़ी-साग के अलावा दो सौ पचास ग्राम सेव और दो सौ पचास ग्राम के करीब ही घर के बने पेठे थे। वापसी में एक मेटाडोर जितना सामान हो जाता है जिसे देखते-देखते पत्नी-बच्चे पूरा साल गुजार देते हैं।

उन्हें देख मैं महसूस करती, स्त्री के मन को काठ मार गया है। न गुस्सा, न शिकायत, न उलाहने, न पत्नी का पत्नीत्व। एक बेबसी, तटस्थता और निर्विकार चेहरा, हर परिस्थिति में जीने के लिए तैयार। हर मजबूरी को स्वीकार करने के बजाय उससे लड़ा भी तो जा सकता है। एक पत्नी को अधिकाधिक तृप्त कनरे के लिए क्या अंगूठियाँ, जेवर, साड़ियाँ ये सब पर्याप्त हैं?

आज वे खुश हैं, बहुत खुश। मैं भी सुनती हूँ तो प्रश्न का उत्तर पा लेती हूँ।

“सच, वे नौकरी छोड़कर मई तक आ जाएँगे, फिर यहीं कोई काम करेंगे।”

हम रसोई में गरमागरम अदरक की चाय पी रहे हैं। तभी पोस्टमैन एक और नीली धारियों वाला लिफाफा पकड़ा जाता है। मैं उमगती हूँ-

“लीजिए तारीख़ आ गई, यह भी पता चल जाएगा कि वे कौन-सी तारीख को आ रहे हैं।”

लिफाफा फाड़ा गया। पढ़ा गया। मिसेज केदार के चेहरे पर कई लकीरें खिंचीं-मिटीं और वही खुशी जैसा कुछ छा गया चेहरे पर।

उन्होंने लिखा है – “दो-तीन साल और वहाँ रहकर, खुद का बड़ा बंगला बनाने लायक पैसा हो जाए, तब छोड़ देंगे वहाँ की नौकरी। ठीक भी तो है। जिन्दगी भर किराए के मकानों में तो नहीं रहना पड़ेगा।”

मैं उनके बच्चों को देखने लगी। वे इस सोच में मशगूल हो गए थे कि नया मकान कैसा होगा, मेरी नज़र उनकी चौदह वर्षीय निधि पर थी। कहीं तीन साल बाद उन्हें याद आ गया कि बच्ची बड़ी हो रही है, उसकी शादी की व्यवस्था करके ही जाएँ तो!

मेरा प्रश्न नीली धारियों वाले लिफाफे से जुड़ गया है।

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