मुझसे कह कर तो जाते Hansa Deep द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • शून्य से शून्य तक - भाग 40

    40== कुछ दिनों बाद दीनानाथ ने देखा कि आशी ऑफ़िस जाकर...

  • दो दिल एक मंजिल

    1. बाल कहानी - गलतीसूर्या नामक बालक अपने माता - पिता के साथ...

  • You Are My Choice - 35

    "सर..."  राखी ने रॉनित को रोका। "ही इस माई ब्रदर।""ओह।" रॉनि...

  • सनातन - 3

    ...मैं दिखने में प्रौढ़ और वेशभूषा से पंडित किस्म का आदमी हूँ...

  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

श्रेणी
शेयर करे

मुझसे कह कर तो जाते

कहानी

मुझसे कह कर तो जाते

हंसा दीप

जीवन में ऐसे क्षण कभी-कभी ही आते हैं जब ऐसी तृप्ति महसूस होती है, बड़ी तृप्ति। छोटी-छोटी तृप्तियों की तो गिनती करना भी संभव नहीं हो पाता जो रोज़ ही महसूस होती हैं। जैसे बढ़िया चाय पीने के बाद के हाव-भाव हों, या फिर गुलाबजामुन के मुँह में जाने के बाद शरीर के हर अंग की मुस्कान हो, या फिर दाल-चावल और पापड़ खाकर डकार लेने के बाद की लबालब नींद से भरी अंगड़ाई हो।

बड़ी तृप्ति तो यदा-कदा ही महसूस की जा सकती है ठीक उसी तरह जिस तरह इन दिनों बड़ा घर लेने की खुशी हम सबके रोम-रोम से झलक कर बाहर आ रही थी। ऐसा घर जिसे शायद हमारे लिए ही बनाया गया हो। बड़े-बड़े पत्थरों को गोल आकार में तराश कर रचा गया वह भव्य स्वरूप जो एक झलक में ही सबको मोहित कर लेता। यकीन नहीं होता था कि यह घर अब हमारा है। कभी ऊपर सीढ़ियाँ चढ़ कर जाते तो कभी नीचे आकर निहारते। धड़कनों की गति इस कदर बढ़ती रही कि बिना रुके एक के बाद एक हर कमरे की, हर कोने की बारीकियाँ देख चुके थे। कभी छत की नक्काशी देखते तो कभी स्काय लाइट से आती रोशनी का आनंद उठाते।

यह हमारा नया घर था जो हर कोण से सफ़ेदी की चमकार था। चाहे किचन के केबिनेट हों या दीवारें, बाथरूम का फर्श हो या छत की नक्काशी, सब कुछ एकदम सफ़ेद। इसीलिए इसे व्हाइट हाउस कहते हैं हम। हमने कोई कसर नहीं छोड़ी इसे सजाने में। अच्छा-सा पुराना फर्नीचर है जिसे एंटीक फर्नीचर कहकर वही अनुभूति लायी जा सकती है। गोल-गोल गुंबद की तरह बने पिल्लर हैं। भूतपूर्व और वर्तमान राष्ट्रपतियों की तस्वीरें जिस तरह व्हाइट हाउस का कल, आज और कल बताती हैं वैसे ही हमारे इस घर में भी इनकी जगह मेरे और प्रवी के मम्मी-पापा के सुंदर-से पोट्रेट ने ले ली है। पूजा घर में गणेशजी के साथ कई देवी-देवताओं के भी कला चित्र विराजमान हो गए हैं जो अपने घर का इतिहास और भूगोल दोनों को समझाने में मदद करते रहेंगे।

ऐसी सुंदरता जिसे किसी की भी नज़र लग जाए। सबसे पहले मैंने काला टीका लगा दिया था। विदेश में भी नज़र लगने का डर बहुत सताता रहता है। चाहे हमारा पड़ोसी हमें पहचानता न हो पर उसकी बुरी नज़र तो हम पर ही होती है। काला टीका लगा कर हम एक बात पक्की कर लेते हैं कि जो भी नज़र लगाने वाला है उसे वह काला टीका निकलकर ऐसी दुलत्ती मारेगा कि लौटकर कभी देखेगा भी नहीं वह हमारे घर को। जिस तरह बच्चे को कान के पीछे काला टीका लगाते हैं ठीक उसी तरह मैंने भी मुख्य द्वार के पास वाली खिड़की के पीछे काला टीका लगा दिया था। एक छुपे हुए सिक्यूरिटी गार्ड की तरह वह हम सबको, खास तौर से मुझे निश्चिंत कर अपनी ड्यूटी बजा रहा था।

रोमांच और खुशी दोनों की मिली-जुली अनुभूति मिल रही थी अपने व्हाइट हाउस से। ऐसे खास शब्दों को अपने आम जीवन में महत्व देने का अलग ही सुख होता है। जब प्रवी मुझे क्वीन एलीज़ाबेथ कहते हैं तो सचमुच मैं खुद को वहाँ पाने लगती हूँ। रानी तो रोज की कहानी हो जाती है पर क्वीन के साथ जो एलिज़ाबेथ शब्द जुड़ जाता है तो बकिंघम पैलेस की शानो-शौकत मेरे चेहरे-मोहरे से झलकने लग जाती है।

धीरे-धीरे बड़े घर का यह रोमांच धूमिल होता गया। कमरे ज़्यादा लोग कम। हम दो हमारे दो के लिए सात कमरों का घर सहूलियत कम और काम ज़्यादा बढ़ाने लगा। बड़े-बड़े कमरे हमें चिढ़ाने लगे। बड़े-बड़े बिल आने लगे। कभी हीटिंग का तो कभी पानी का तो कभी इलेक्ट्रिसिटी का। चादर और पाँव का गणित देखकर अपनी मास्टरी भी चिढ़ाने लगी।

आनन-फानन में मीटिंग की गयी लाइब्रेरी की गोल मेज के आसपास। मैं प्रवी और बच्चे। गोल मेज मीटिंग चली, विचार विमर्श हुआ। बच्चे भी सक्रिय थे। ऐसे समय पर बड़ा बेटा और छोटा बेटा दोनों दिल खोलकर परामर्श देते थे। गहन सोच-विचार के बाद हमने तय किया कि क्यों न इतने कमरों में से किसी एक को किराए पर दे दिया जाए। कभी ऐसा किया नहीं है पर ऐसा करके देखने में तो कोई हर्ज नहीं है। सबसे पहले अनुभव लेने के लिए निचली मंजिल का एक कमरा किराए पर दे दिया जाए जैसा कि आम तौर पर लोग यहाँ किया करते हैं।

बड़े ने एयरबीएनबी की प्रथा का खुलकर जिक्र किया। यह प्रथा भी बेशक इन बढ़ते बिलों की आवश्यकताओं से उत्पन्न हुई होगी। इतनी देर में छोटे ने धड़ाधड़ कई वेब साइट खोल लीं जिनमें एयरबीएनबी के विज्ञापन थे, सुविधाएँ थीं और नि:संदेह एक कमरे, दो कमरों, तीन कमरों का दैनिक किराया खुले आम लिखा हुआ था।

इस समय हमारी भी जरूरतें ज़ोरों पर थीं सो एयरबीएनबी की तरह पूरी मंजिल तो नहीं पर उसी की शैली में एक कमरा किराए पर दे दिया जाए यह फैसला बहुमत से ले लिया गया। “सात कमरों के आलीशान मकान में एक कमरा किराए के लिए उपलब्ध।” कई ई-मेल का आदान-प्रदान हुआ और आखिर सोच-समझकर एक शोध छात्र को पंद्रह दिन के लिए कमरा किराए पर दे दिया।

आखिरकार वह दिन आ ही गया जब उसे पहुँचना था। हम उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। हर आहट जैसे उसके आने की दस्तक थी। अंतत: वह आया। एक सीधा-सादा, भोला-भाला-सा चेहरा। कुल मिलाकर कहा जाए तो एक सपाट चेहरा जो शिष्टाचार के मामले में हमसे कई कदम आगे था। हमारी हर बात का सिर्फ एक मुस्कान से उत्तर दिया उसने।

पहला अनुभव अच्छा रहा तो राहत की साँस ली हमने। उसका कमरा दिखाकर, उसे सब कुछ समझाकर परिवार के सदस्यों का परिचय करवा दिया। पैसों का लिफ़ाफा उसने थमाया तो करकराते नोटों की गर्मी महसूस हुई। बच्चे बहुत खुश थे उनका जेब खर्च उनकी जेब में जाने वाला था।

रात बीती और एक अनजान रिश्ता शुरू हुआ उस अजनबी से। ये पंद्रह दिन हमारे जीवन के वे दिन थे जो हमारी दिनचर्या को पूरी तरह बदल चुके थे। सुबह उठकर दाँत माँजना उतना जरूरी नहीं था जितना जरूरी था यह देखना कि वह उठा या नहीं। बेचारे को उठते से ही चाय-कॉफी मिल जाए इसलिए सब इंतज़ाम कर दिया था मैंने। एक कोने में नया खरीदा हुआ कॉफी मेकर था, चाय, कॉफी और शक्कर के पैकेट थे। कुछ चिप्स और बिस्किट के पैकेट भी थे। नए तौलिए और चादरें भी थीं। कुल मिलाकर अच्छे मकान-मालिक होने के सारे सबूत पेश कर दिए गए थे।

उसके कमरे से कोई आवाज़ नहीं आती थी। उठने के बाद सिर्फ बाथरुम से पानी की बौछारें हल्का-सा शोर करती थीं। मैं चाहती थी कि वह हम सबसे बात करे। कुछ मांगे। कुछ कहे। तारीफ नहीं करे तो शिकायत ही कर दे, कभी ठंड लगने की तो कभी गर्मी लगने की। हमसे बात करे, अपने बारे में बताए। वह सिर्फ गर्दन हिलाता था। कुछ बोलता नहीं था। गूंगा भी नहीं था क्योंकि टैक्सी वाले को पैसे देते समय वह बात कर रहा था।

वह कितने बजे आता है, कितने बजे जाता है। कमरे की बत्ती जल रही है, बुझ गयी है। और भी न जाने कितने कयास लगते, कितने आभास होते और कितने प्रयास किए जाते उसके बारे में जानने के। वह न बोला तो न बोला। मेरा नियत क्रम हो चुका था उसकी चिन्ता करना -“उसने खाना खाया या नहीं”

“उसने कपड़े बदले या नहीं”

“लांड्री चलायी या नहीं”

“क्या वह हमारे व्हाइट हाउस में खुश नहीं है”

“क्या अपने परिवार को हमारे बारे में बताता है”

“हमारे बारे में क्या सोचता है”

ऐसे कई सवाल मेरा पीछा करते और मैं अपने घर वालों को इसमें शामिल कर लेती। ऐसा भी नहीं था कि हम सब फुरसत में थे या उसके बारे में सोचने के अलावा हमारे पास कोई और काम नहीं था। दिन भर काम करके सब लौट कर घर आते, बच्चे स्कूल से आते तो मुख्य चर्चा का विषय यही होता।

उसके आने के पहले मुझे खूब चेतावनियाँ दे दी गयी थीं – “बार-बार कुछ पूछना मत”

“ज़्यादा बातें मत करना”

“अपने और घर के बारे में सब कुछ मत बता देना”

“किचन में थोड़ी शांति रखना”

और उसके आने के बाद मैं चाह कर भी बात नहीं कर पायी क्योंकि उसका चेहरा हमेशा बर्फ की चादर ओढ़े रहता। ठंडा और कठोर। बर्फ पर आकार बनाने की कोशिश हमेशा जैसे पत्थर से टकरा कर खत्म हो जाती। कोई आदमी इतना तटस्थ कैसे हो सकता है, मेरे लिए यह समझना मुश्किल था। वह यहाँ दो सप्ताह के लिए आया है तो क्या हुआ, इसका मतलब यह तो नहीं कि अपनी पसंद-नापसंद का इज़हार तक न करे। मुझे उसकी चुप्पी, उसकी तटस्थता खलने लगी। शिष्टता की ऐसी नयी परिभाषा मुझे स्वीकार नहीं थी। इस तरह मौन रहकर हमें चुनौती देना कौनसा शिष्टाचार है।

खुद से कई प्रश्न करने को मजबूर कर रहा है यह शालीन व्यक्तित्व। रोज़ शाम को चुपचाप आना और रोज़ सुबह बाथरुम में हाजिरी लगाकर चले जाना। कभी अपने साथ बाज़ार से भी कुछ नहीं लाता था। उसे अपने कमरे में न तो कभी पानी पीते देखा, न चाय, न कुछ नाश्ता। जबकि हमारे किचन में अच्छी-खासी खटर-पटर होती रहती थी।

प्रवी आकर दोहरा देते थे कि – “दाल बघारने का काम संभलकर करना। तुम्हारा तड़का लगाना सबको खाँसने पर मजबूर कर देता है।”

मेरा तड़का अब छोटा-सा ‘छूँ’ ही बजा कर रह जाता, दाल में एक हल्की-सी सिहरन पैदा करता और ठंडा हो जाता। खटर-पटर वाले सारे काम अब एक सहनीय आवाज़ की सीमा तक ही होने लगे थे। हर तरह से अपने मेहमान का ध्यान तो रख रही थी मैं। पैसे दे रहा था तो क्या, था तो अतिथि ही न। पैसे लेकर बुलाया गया मेहमान। मेहमान अपने साथ यह विचार लेकर न जाए कि भारतीय घरों में बहुत शोर होता है, खाने में बहुत तगड़ी गंध होती है।

रोज़ शाम को गरम रोटी बनती तो उसका ख़्याल जरूर आता - “उससे खाने के लिए पूछूँ क्या?”

“रोटी खाने के लिए? न, न ममा ऐसा सोचना भी मत। कौन खाता है रोटी?”

बड़ा अपनी रोटी खाने की मजबूरी को जाने-अनजाने ज़ाहिर कर ही देता है। ये बच्चे तो रोटी के नाम पर ऐसे मुँह बनाते हैं जैसे पीज़ा और पास्ता खा कर ही पैदा हुए हों। बचपन से लेकर आज तक गरम रोटी खा रहे हैं पर कभी गरम रोटी का न महत्व समझ पाए, न स्वाद समझ पाए और न जरूरत समझ पाए।

मेरी खीज हमेशा की तरह रोटी का ही पक्ष लेती - “अच्छा बेटा जी, क्या मतलब है तुम्हारा, रोटी कोई खराब खाना है क्या! किस्मत वालों को ही नसीब होती है ऐसी गरम-गरम रोटियाँ।”

मम्मी सब कुछ सुन सकती हैं पर अपनी गोल-गोल फूली हुई रोटियों के बारे में कभी कुछ बुरा नहीं सुन सकतीं। छोटा जानता था इस बात को। झट से बोला - “बिल्कुल ठीक कहा ममा आपने” वह कितना भी शरारती हो जाए पर ममा के बचाव के लिए हमेशा आगे आता है।

“ममा का स्पून” बड़ा हाथ के चम्मच को हिलाता छोटे को आँख दिखाता बोला।

“हा हा स्पून की हिन्दी सीख लो पहले फिर कहना”

इन सबसे बेखबर प्रवी अपनी अख़बारी खबरों में उलझे थे। मैं सब को खाना खिलाऊँ और अपने ही घर में रह रहे एक सदस्य से पूछूँ भी नहीं, ऐसे तो मन मानता ही नहीं था। आज ही नहीं जब से वह आया है तभी से मैं इस उहापोह से गुज़र रही हूँ।

“प्रवी सुनो” बच्चों के पापा का समर्थन पाना जरूरी हो गया था अब।

“हाँ सब सुन रहा हूँ, आखिर क्यों चिंता करती हो इतनी” नाक के नीचे उतरे हुए चश्मे को ठीक करते हुए बोले प्रवी।

“चिंता नहीं मैं तो बस.....”

मेरी बात पूरी नहीं होने दी प्रवी ने, बीच में ही काट दी - “ये युवा लोग हैं अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं। उन्हें अकेले रहना अच्छा लगता है।” प्रवी हर शब्द को चबा-चबा कर बोल रहे थे। यह शायद मुझे चुप रहने का इशारा था।

“लेकिन प्रवी वह हमारी दुनिया में है अभी। हमारे घर का एक कमरा उसका घर है। अपने बच्चों से थोड़ा ही तो बड़ा है। वह भी किसी का बच्चा है। उसकी भी माँ होगी जो रोज़ उसे पूछती होगी - खाना खाया कि नहीं...”

प्रवी की बड़ी होती आँखें और गरदन को हिलाता चेहरा कह रहे थे कि – “बस बहुत हो गया बंद करो अब।”

चुप होने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा तो चुपचाप अपने लिए खाना परोस लिया मैंने। गले से नीचे नहीं उतरा निवाला। एक बार पूछने के बाद अगर वह मना कर दे तो कोई बात नहीं पर ये पूछने भी तो नहीं देते। मैं अकेली एक ओर दूसरी ओर ये तीनों। इस समय तो कोई सुनने वाला नहीं है, चुप रहने में ही भलाई है।

चुप तो कर देते हैं सब मुझे लेकिन मेरे भीतर चल रही सोच को विराम नहीं दे पाते। पढ़ा-लिखा तो है यह, अच्छी-खासी नौकरी भी करता है। एक बार मुस्कुराकर बात कर ले तो क्या खुद उसे ही अच्छा नहीं लगेगा। मैं कोई उसकी निजी ज़िंदगी में तो दखल दे नहीं रही सिर्फ उसकी थोड़ी-सी चिन्ता कर रही हूँ। बात करने से मुँह के कीटाणु भी निकल जाते हैं और मन के भी। मन के अच्छे बुरे सारे भावों को आवाज़ मिल जाती है तो दिल का बोझ हल्का हो जाता है। तन और मन स्वस्थ करने का इससे अच्छा उपाय क्या हो सकता है भला।

ठीक ही कहते हैं प्रवी, इन्हें अकेले रहना पसंद होता है, अपनी दिमागी दुनिया में। लेकिन क्यों, आज के युवा इतने भावशून्य क्यों होते हैं। ऐसा क्या है इनके जीवन में जो ये लोगों से साझा करने में कतराते हैं। इन्हें पता नहीं कि खुशी बाँटने से बढ़ती है और दु:ख बाँटने से कम होता है। क्या बड़ा-छोटा भी कहीं जाते हैं तो ऐसे ही रहते हैं...। अलगे-अलगे। अलग-थलग रहना नयी संस्कृति है शायद। अपने काम से काम रखो यह बात समझ में आती है पर किसी को पूरी तरह से उपेक्षित करो यह समझ में नहीं आता। तकनीकी तनावों में जीती है यह युवा पौध। एक क्लिक करके सब कुछ पाने-देखने वाली यह पीढ़ी उंगलियों की पोरों पर सारी दुनिया को तो रखती है पर अपने आसपास के लोगों से कोसों दूर रहती है।

कैसे बताऊँ इसे कि मुझे सिर्फ पैसे लेकर तसल्ली नहीं होगी। मैं उसे घर वाला अपनापन देना चाहती हूँ। मुझे उसकी फिक्र है।

दिन पर दिन निकलते रहे, हमारी बात का सिलसिला शुरू ही नहीं हो पा रहा था।

भूलना चाहती थी लेकिन मैं भूली नहीं। रह-रह कर एक ही बात कौंधती कि कम से कम एक बार तो खाने का पूछ लूँ। घर में मेहमान हो और उसे मेरी पाक कला के बारे में पता ही न हो ऐसा कैसे हो सकता है। एक दिन आखिर मैंने तय कर ही लिया कि उसे भारतीय खाने पर बुला लेंगे और बात करेंगे। थोड़ी-सी हील-हुज्जत के बाद बच्चे और प्रवी भी राजी हो ही गए। कई दिनों की बेताबी थी। बहुत सारे सवाल थे उससे पूछने के लिए।

“आखिर उसे परेशानी क्या है”

“क्या यही उसका स्वभाव है”

“या फिर हमारे घर में रहते हुए उसे कोई तकलीफ़ है”

आलू की टिक्की बनायी मैंने, लज़ीज छोले भी बनाए, मसाला भी कम डाला ताकि उसे मिर्च न लगे। रोटी का विचार तो बहुत आया परन्तु कड़े विरोध के सामने यह प्रस्ताव पारित न हो सका।

चलो रोटी न सही मेरी आलू-टिक्की भी तो बहुत स्वादिष्ट होती है। उसके मुँह से ‘आहा’ नहीं निकला तो इन हाथों का करिश्मा ही क्या। हम सब अपना काम छोड़ कर कमर कसकर तैयार थे उसे खुश करने के लिए, अपनी मेहमाननवाज़ी के स्मरणीय क्षण उसे देने के लिए।

रोज जिस समय वह आता था उसके आने का समय हुआ। कुछ पल बीते, मिनट बीते, घंटा बीता, घंटे बीते। वह नहीं आया। हमारे सब्र की सीमाएँ टूट चुकी थीं। माथा ठनका। चला तो नहीं गया। पंद्रह दिन हो गए क्या?

तारीख़ चेक की, आज उसका पंद्रहवाँ दिन था। हम उसके बारे में इतना सोचने लगे थे कि उसके जाने की तारीख़ के अलावा सब कुछ याद था हमें। हम दौड़े उसका कमरा देखने के लिए। वह खुला पड़ा था। बिस्तर, चादर, तकिए सब वैसे ही थे जैसे हमने उसे दिए थे। उसका कोई सामान नहीं था वहाँ। सच्चाई हमारे सामने थी, वह चला गया था। हम सब एक दूसरे का मुँह देखते रह गए। उसे दी हुई घर की चाभी खोजने लगे तो वह मेल बॉक्स में मिल गयी।

प्रवी ने फैसला सुना दिया – “बस अब किसी भी कमरे को किराए पर नहीं दिया जाएगा।” इस हिटलरी आदेश से बच्चों का जेब खर्च सबसे ज़्यादा प्रभावित होना था। दोनों ने बुझी-बुझी आँखों से एक दूसरे को देखा। ठीक उन देशों की तरह जो व्हाइट हाउस से अपने बारे में हो रही घोषणा सुनते हैं कि फलां-फलां देश का दाना-पानी बंद।

मेरी उत्साही नज़रें उस कमरे तक जातीं और खाली हाथ लौट आतीं।

वह कमरा उसके कमरे के नाम से जाना जाने लगा जो हमेशा उसकी उपस्थिति का आभास दिलाता। मैंने कलम उठाई तो लगा कि इस लंबी ज़िंदगी का एक पन्ना वह अपने नाम लिख गया है। मुझे उसके लिए यह पन्ना स्याही से भरना होगा। अब तो एक ही दिली ख़्वाहिश है कि एक बार, बस एक बार, कहीं जीवन के किसी मोड़ पर मिल जाए तो कहूँगी जरूर, शिकायत करते हुए नहीं प्यार और स्नेह से कहूँगी – मुझसे कह कर तो जाते।

********************************