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पिघलती बर्फ

कहानी

पिघलती बर्फ

डॉ. हंसा दीप

आज एक बार फिर कुछ टूटा है भीतर और इतनी जोर से टूटा है कि धमाके के अलावा सब कुछ शांत है। ऐसी शांति जिसमें आदमी खो जाता है हमेशा के लिए।

खुद को खोने और ढूँढने का खेल खेलना शायद उसकी आदत बन गई है। भारत से केन्या, केन्या से कैनेडा और कैनेडा से अमेरिका के रास्तों में खोती रही वह, टूटती रही, बिखरती रही, जुड़ती रही और इस लुका-छिपी के खेल में ढूँढती रही स्वयं को। कभी सी.एन. टावर की ऊँचाइयों में तो कभी ट्विन टावर की सुलगती राख में, कभी सफेद बर्फ की चादर में तो कभी हरी दूब के लिहाफ़ में परन्तु अपनी छोटी-सी ज़िन्दगी के इन लम्हों को जीते हुए कभी थकी नहीं वह।

छोटे-छोटे बच्चों को लेकर उसने जब देश छोड़ा था तो वह अच्छी तरह जानती थी कि वापसी नामुमकिन होगी। न जाने कितने परिचित और दोस्त थे जो हमेशा स्वदेश लौटने की कसमें खाते थे पर लौटते कभी नहीं थे।

“भारत तो भारत है, यहाँ रखा ही क्या है! डॉलर, डॉलर और बस डॉलर, पैसे के पीछे कब तक भागेंगे?”

और उनके ऐसे कई भारतीय पल जो बीते दिनों की जुगाली के अलावा कोई सार्थक अंत नहीं देते। खैर, उसकी मन: स्थिति तो हमेशा से स्पष्ट थी – “जहाँ रहो, खुश रहो।” वक्त का तकाज़ा होगा तो वापसी भी ख़ुशनुमा ही होगी। यूँ भी एक बार जब पौधे को जड़ से उखाड़ दिया जाए तो दूसरी जमीन उसे पनपने के लिए समय तो मांगती है, चाहे वह देश हो या विदेश। कई बार यह समय पौधे की जड़ें ही नष्ट कर देता है। कई लोग ऐसे भी थे जो अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर विदेश में बसते और फिर समय के दिए घावों को ताउम्र झेलने को मजबूर हो जाते।

उसके सामने तो एक उद्देश्य था, अपने बच्चों की शिक्षा का। एक जिजीविषा थी, एक मकसद था जाने का, बच्चों के सुनहरे भविष्य का। विदेशों में पढ़ना कितने लोगों के नसीब में होता है। अब जब वह मकसद पूरा हो गया तो क्या वह जीना छोड़ दे? इस प्रश्न चिन्ह के घेरे में वह कैद होकर क्यों रह गई है, यह घेरा तोड़ने का साहस क्यों नहीं करती? क्यों नहीं स्वीकारती वह कि उसकी बगिया की कली अब फूल बन चुकी है जिसे नया बगीचा तलाशना ही होगा।

कली, उसकी नन्हीं-सी बच्ची, बीस वर्ष की होते-होते ग्रेजुएट होकर एक बड़ी कंपनी में मैनेजर के पद पर काम करने लगी तो उसका सीना गर्व से चौड़ा हो गया। कहते नहीं थकती सबसे – “मेरी कली ये....मेरी कली वो....।”

सुनने वाले अपने बच्चों को कली का उदाहरण देने लगते – “देखो, सीखो उससे, कितनी छोटी उम्र में कहाँ से कहाँ पहुँच गई है। हज़ारों डॉलर कमाती है और एक तुम लोग हो खेलने-खाने, पार्टी-वार्टी से फुर्सत ही नहीं मिलती।”

तब उसे लगता उसका सारा बलिदान, सारा संघर्ष सार्थक हो गया। स्वदेश से दूर होने के बरसों के गिले-शिकवे दूर होने लगे। क्यों अपना देश छोड़ा, क्यों अपनों से नाता तोड़ा? सारे प्रश्नों के उत्तर कली की सफलता में मिलते चले गए। ज़रा-सी बच्ची में गजब का आत्म विश्वास था, गजब की क्षमता थी बड़े-बड़े फैसले करने की। व्यक्तित्व ऐसा उभरा कि बिजनेस सूट पहन कर, काला बैग लिए घर से ऑफिस के लिए निकलती तो देखते ही बलाइयाँ लेने को जी करता।

“मेरी छोटी-सी बच्ची को किसी की नज़र न लग जाए!”

वही छोटी-सी बच्ची आज अचानक बड़ी हो गई है। कुछ दिनों से वह रोज़ देर से घर आने लगी थी। देरी से आने का राज़ जब खुला तो वह न तो गुस्सा कर पाई, न झल्ला पाई और न ही समझाईश के दो शब्द कह पाई। बस यही प्रश्न उसका पीछा करता रहा कि यदि यह लड़का उसके अपने समाज का होता तो वह खुशी-खुशी हाँ कर देती। सुंदर-सुशील अपने पाँव पर खड़ा एक होनहार जिम्मेदार अधिकारी, ऐसा ही तो लड़का ढूँढना चाहती थी वह अपनी कली के लिए। तो फिर यह ऐतराज़ क्यों? क्योंकि वह भारतीय नहीं अमेरिकन है! वह कोई राजीव नहीं रॉजर है! क्योंकि वह अपने समाज का नहीं इसलिए सभ्यता-संस्कृति से कोसों दूर है!

आज उसे जीने की सारी परिभाषाएँ बदलती क्यों दिख रही हैं? एक इंसान से दूसरे इंसान तक प्रेम का संदेश पहुँचाने के अपने सिद्धांत हवा होते क्यों नज़र आ रहे हैं! आज तक वह अपने सारे परिचितों की, दोस्तों की उलझनें सुलझाती रही। उनकी मुश्किलों को कम करके सहानुभूति देती रही। आज जब ख़ुद की बारी आयी तो ख़ुद ही प्रश्न बनने लगी!

जब रेखा के बेटे अजय ने नैन्सी से मेल-जोल बढ़ा लिया था तो रेखा के बहते आँसू उसी ने तो पौंछे थे। उसे ढाढस बंधाया था –

“तू परेशान क्यों होती है रेखा, यह थोड़ा मिलना-जुलना दोस्ती हो सकती है, शुरुआती आकर्षण हो सकता है, बस इससे ज़्यादा कुछ नहीं। अपने बच्चे तो सब समझते हैं। गोरों से सगाई-शादी की बात तो सोच भी नहीं सकते।”

साल भर की जद्दोजहद के बाद भी अजय और नैन्सी के रिश्तों की प्रगाढ़ता कम होती न दिखी। रेखा की व्याकुलता वह समझती थी – “अभी और थोड़ा धीरज रखो रेखा, पानी सिर से तो नहीं गुज़रा है अभी। भगवान पर विश्वास रखो।”

पर इन सांत्वना भरे शब्दों से क्षणिक राहत ही मिल पायी रेखा को। कुछ ही दिनों के अंदर जब अजय ने नैन्सी से शादी की घोषणा कर दी तो सुलझे हुए व्यक्तित्व को ओढ़े वह कह रही थी रेखा से – “बहू के लिए बेटा मत खो रेखा, समय से समझौता कर ले। लकीर के फकीर बने रहने में किसी की भलाई नहीं है। पीढ़ियों के अंतर को हम ख़त्म नहीं कर सकते तो कम करने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। और फिर हम जैसे पढ़े-लिखे लोग बहु-संस्कृति को तवज्जो नहीं देंगे तो और कौन देगा?”

आख़िरकार, अजय और नैन्सी की शादी हो गयी, पहले मंदिर में और फिर चर्च में। सुबह पंडित ने सात फेरे लगवाए तो शाम को पादरी ने पति-पत्नी का खिताब दिया। आज भी रेखा छोटी-छोटी बातों को लेकर शिकायत करने से नहीं चूकती। कभी बिना उबली चाय को लेकर तो कभी नाश्ते में पराठों की याद को लेकर। यह बात और है कि शिकायत तो तब भी होती जब भारतीय बहू होती परन्तु हाँ उन शिकायतों का स्वरूप कुछ और ही होता।

उसमें तो इतना साहस भी नहीं कि किसी को अपनी व्यथा कहे। आज तक उसका किरदार तो सबको व्यथा मुक्त करने का रहा है। सबको दिलासा देकर हमेशा कहती रहती थी – “टेंशन, फ्रस्ट्रेशन, चिंता-फिक्र इन शब्दों को अपनी डिक्शनरी से निकाल दें। अरे, खुशी तो अपने भीतर होती है। कब तक हम अपने बच्चों में, अपने पति में ढूँढते रहेंगे?”

पर आज वह खुद इतने टेंशन में है, उसका अपना ही हथियार उसपर वार करने को तत्पर है। पैरों तले जमीन थर्राने-सी लगी है। एकाएक सब कुछ बेमानी-सा लगने लगा है।

रात भर की कशमकश ने रोज़ की तरह सुबह के उजाले का स्वागत नहीं करने दिया उसे। वे पौधे जो हर सुबह मुस्कुराते थे आज मुँह चिढ़ा रहे हैं। मनी प्लांट के हरे पत्ते हैरान हैं कि उनकी प्यास क्यों नहीं बुझ रही है। बड़े उत्साह से सजाया हुआ कली का कमरा उसकी बेबसी पर ठहाके लगा रहा है।

क्या करे वह, रेखा को फोन करे दिलासा के चंद शब्दों की उम्मीद में!

क्या वाकई वह भी इतनी ही कमज़ोर है कि उसके मन को किसी के दिलासों से राहत मिलेगी? नहीं, उसने हमेशा अपनी लड़ाई खुद लड़ी है। कभी कमज़ोरी उसे छू तक नहीं गई फिर आज क्यों किसी के सहारे की ज़रूरत पड़ने लगी है। क्या यह माँ की ममता की पराकाष्ठा है! क्या वह भी पीढ़ियों के अंतर को पाटने में असमर्थ है! क्या वह भी उन सभी परम्पराओं को निभाते लकीर का फकीर बनकर अपने और अपने बच्चे के बीच फासले बढ़ने देगी! नहीं, कली के सिवा कौन है उसका इस दुनिया में। अगर उसी से संबंध टूटने लगे तो ज़िंदगी जीना तो मुश्किल, मौत भी नामुमकिन हो जाए।

क्या कोई ऐसा रास्ता नहीं कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे! कली का विरोध कैसे करे? अपनी कुर्बानियों का हवाला देकर या फिर अपनी ममता की कीमत मांग कर या फिर इस कहानी को अधलिखी छोड़कर!

बाहर खाली सड़क पर नज़रें टिकी हैं। न जाने आँखें बंद हैं या खुलीं, दूर-दूर तक कहीं चर्च नहीं है पर कानों में चर्च की घंटियाँ सुनाई देती हैं।

कुछ आकार उभरते हैं, धुंधले-से, गुलदस्ता – दो हाथ – एक परी सुंदर-सी, बिल्कुल कली जैसी!

आँखें टिकती हैं खिड़की के बाहर, महीनों से जमी लॉन की बर्फ पिघलने लगी है और दूब झाँकने लगी है।

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