वह सुबह कुछ और थी Hansa Deep द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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वह सुबह कुछ और थी

कहानी

वह सुबह कुछ और थी

हंसा दीप

“नमस्ते जी, आज तो जल्दी निकल पड़े हो।” खन्ना साहब की आवाज सुनकर चौंका नील। आज से पहले कभी काम पर जाते हुए उनसे मुलाकात नहीं हुई थी। शाम को टहलते समय ही मिलते थे कभी-कभी। आज से पहले इतनी जल्दी तैयार होकर बाहर निकला भी नहीं था वह।

“हाँ जी, खन्ना साहब, मौसम खराब है तो थोड़ा मार्जिन रखकर जाना बेहतर है आज, वरना लेट होने के पूरे चांस हैं।” रात से ही तय करके सोया था कि ऐसे मौसम में घर से निकलने का समय एक घंटा पहले होगा और बिस्तर छोड़ने का समय भी एक घंटा पहले। वह घड़ी के काँटों को जल्दी अलार्म देने के लिए मजबूर करके ही सोया था।

खन्ना साहब का मिलना इस बात का संकेत था कि वाकई वह जल्दी उठा है। सबसे पहले बिल्डिंग से अगर कोई निकलता था तो वे खन्ना साहब ही थे। वे टैक्सी चलाते थे। जहाँ सुबह-सुबह खराब मौसम हर किसी के लिए परेशानी का सबब बनता था वहीं उनके लिए खराब मौसम सोना-चांदी उगलता था। उनकी टैक्सी का किराया भी डबल हो जाता था और खूब सवारियाँ भी मिलती थीं।

रात से बर्फ के तूफ़ान की चेतावनियाँ टीवी पर दोहरायी जा रही थीं। शून्य से बीस डिग्री कम तापमान और बर्फीला तूफ़ान। मौसम के ऐसे कहर में काम पर जाने वाले किसी भी व्यक्ति को पैसा खर्च करना नागवार नहीं गुज़रता। कुछ पैसे खर्च करके काम पर सही सलामत पहुँचना कहीं भी रास्ते में अटकने से तो बेहतर ही था।

अपनी गाड़ी की चाभी को घुमाते हुए खन्ना साहब बोले - “खराब तो रोज़ ही होता है आज बहुत खराब है, तेवर ही अलग हैं मौसम के।” यह उनकी आवाज़ की लय थी जो सिक्कों की खनक का अहसास देते हुए खन्ना साहब की आज की कमाई को आँक रही थी।

“सब कुछ धीरे चलने वाला है आज। हर जगह प्रतीक्षा, लम्बी-लम्बी कतारें, सब-वे की तेज़ ट्रेनों में, बस स्टॉप पर और हर जगह।” नील ने अपनी परेशानियों की सूची को बढ़ाते हुए कहा। एक के बाद एक अपनी आने वाली मुश्किल घड़ियों का विवरण देते हुए मन को बहुत शांति मिलती है। इंसानी फितरत को छोटी से छोटी परेशानी को बड़ी बनाना बहुत अच्छी तरह आता है।

“कोई गल नहीं जी, मैं छोड़ दूँ?” सुना था उसने खन्ना जी के बारे में। दिल के बहुत साफ हैं और लोगों की मदद करने में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता उनकी इस बिल्डिंग में। उसका कभी काम नहीं पड़ा था। देर से काम पर जाने वाले कभी उनसे नहीं मिल पाते थे। वे ठहरे परिंदों के साथ उठकर कामकाजी सवेरा जीने वाले और नील ठहरा नींद की भरपूर सुबह जीने वाला। कभी एक दूसरे का आमना-सामना होना संभव ही नहीं था।

“अरे नहीं, नहीं जी, आप बिल्कुल तकलीफ न करें आपका रास्ता कहीं ओर मेरा कहीं ओर?” नील ने अपनी राह अलग करते कहा।

“आपको कहाँ जाना है जी?” खन्ना साहब की अच्छाइयों के बारे में सुना जरूर था पर उतना भी नहीं कि वे दो कदम आगे बढ़ कर इस तरह किसी की परेशानी को कम करने का प्रयास करेंगे।

“मैं डाउन टाउन जाता हूँ खन्ना साहब, वहीं है मेरा ऑफिस।” कुछ इस तरह शब्द निकले कि जैसे कह रहा हो ‘वहाँ तो आपको जाना ही नहीं है।’

“लो जी, आज तो मैंने भी वहीं जाना है, चलो बादशाहो बैठो गड्डी में.....” अपनी लिमोजीन के पास जाकर बड़े प्यार से सहलाया उन्होंने उसे जैसे कोई सम्राट अपने घोड़े पर चढ़ कर राज्य की सैर करने के लिए निकल रहा हो। बहुत ही अदब से मुस्कुराते हुए नील के लिए दरवाज़ा खोल दिया उन्होंने।

अब तो ना-नुकूर का सवाल ही नहीं था। नेकी और पूछ-पूछ। ‘सब-वे’ की ट्रेन तक का बर्फ में चलने का रास्ता कम हो गया और वहाँ से ऑफिस तक पहुँचने का भी दो ब्लॉक का रास्ता कम हो जाएगा। गाड़ी में बैठकर लगा ‘हर दिन’ नयी चुनौती देता उगता है परन्तु आज तो वह ‘हर दिन’ नहीं लगता। आज कुछ तो ‘खास’ है।

गाड़ी ने गति पकड़ी तो बेहद आरामदेह सफ़र लगा। बिना किसी अटके-झटके के ‘स्मूथ राइड’। वाह क्या बढ़िया चलती है यह गाड़ी। पहली बार लिमोजीन में बैठना वह भी बगैर किराया दिए एक पेशेवर ड्राइवर के साथ, मानो गाड़ी किसी राष्ट्रपति को बैठा कर ले जा रही थी। जब तक खुद को राष्ट्रपति के रूप में तब्दील करने की सोच आगे बढ़े तब तक तो खन्ना जी ने गाड़ी ऑफिस की इमारत के अंदर ले ली थी। ‘हो सकता है खन्ना साहब की बोनी का समय है तो टैक्सी का किराया देना पड़ जाए। अगर ऐसा हुआ तो सुबह-सुबह पचास डॉलर की चपत लग जाएगी। लग भी जाए तो अब क्या, ओखली में सिर तो दे ही दिया है।’

यूँ शान से ऑफिस पहुँचना एक अलग ही सुख दे रहा था। कई सारी योजनाएँ आकार लेने की कोशिश कर रही थीं – ‘अब जाकर आराम से बैठकर सुबह का नाश्ता करूँगा।’

‘बहुत सारे काम हैं जो लेट पहुँचने से हो नहीं पाते थे आज पूरे हो जाएँगे।’

‘सारे देर से आने वाले लोग आज नील की समय की पाबंदी को दाद देंगे।’

‘आज सबसे रुककर दुआ सलाम करने के बाद ही काम शुरू करेगा वह।’

‘मिस माधुरी से भी थोड़ी गपशप करनी तो बनती है।”

और भी बहुत कुछ। अपनी खुशी को अपने में समेटता मन खन्ना साहब से बात भी कर रहा था और खुद की उड़ान भी भर रहा था। अपनी मंजिल पर पहुँचकर गाड़ी से उतरते हुए जेब में हाथ डालने लगा तो खन्ना साहब समझ गए।

“घर वालों से पैसे नहीं लेता जी मैं” उनके चेहरे की मुस्कुराहट में इतनी आत्मीयता थी कि वह कुछ नहीं कह पाया। बस दिल से शुक्रिया अदा किया और ऑफिस की इमारत की ओर कदम बढ़ा दिए।

आज नील की चलने की गति और चेहरे की खुशी का सामंजस्य अलग ही था। आत्मविश्वास से भरा ऐसा सुकून जहाँ कोई हड़बड़ी नहीं थी। रोज़ की तरह नज़रें चुराते अपनी टेबल पर पहुँचने की जल्दी भी नहीं थी। आज तो मन में आवेश था सुबह जल्दी उठने का। स्वयं से किया वादा पूरा करने का। सुबह की नींद ही इतनी प्यारी होती है। किसी स्वप्न लोक से खींच कर उठा देता है अलार्म। वे सुबह के पल जितने बेशकीमती होते हैं उतने ही मदहोशी भरे भी होते हैं जो वापस मीठी नींद सुला देते हैं। नींद के आगोश में इस बात का ज़रा भी अहसास नहीं होता कि जितनी देर लगेगी उठने में, उतनी परेशानियाँ उठानी पड़ेंगी पूरे दिन। हर काम में लेट-लतीफ़ी होगी। सब कुछ जानते समझते भी नींद का चैन ही कुछ ऐसा होता है कि बस नींद के आगोश में ही ले जाता है, दिन की भागमभाग से दूर बहुत दूर। बस अपनी मस्ती में अलार्म भी बंद हो जाता है। फिर से नींद भी लग जाती है। और जब तक नींद की खुमारी दूर होती है तब तक समय हाथ से निकल चुका होता है।

ऑफिस की इमारत में घुसते हुए आज हर चेहरा चाहे वह पहचाना हो या अनजाना हो एक प्राकृतिक मुस्कान लिए था, बगैर किसी लाग-लपेट वाली। जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। ऐसा भी तो हो सकता है कि उसकी नज़रों का दोष हो। चूँकि वह खुश है तो हर कोई उसे वैसा ही लग रहा है। रोज़ वह लेट आने के अपराध भाव से ग्रस्त होता है तो सभी उसे घूरते नज़र आते हैं। वे ही नज़रें उसे हिकारत भरी लगती हैं। मानों हर कोई चीख-चीख कर कह रहा हो – ‘देखो इस इंसान को जो कभी समय का ध्यान नहीं रखता।’

ऑफिस में पहुँचकर देखा तो बॉस के अलावा कोई नहीं पहुँचा था अब तक। बॉस के पास बैठकर नाश्ता करने का सौभाग्य कितने लोगों को मिलता है, आज उसे मिला चार साल की नौकरी में पहली बार। आज के मौसम में जब कोई नहीं आ पाया तब उसकी हाजिरी एक अचूक काम कर गयी। बगैर निशाना साधे ही तीर निशाने पर लगना एक अलग ही अनुभूति दे देता है।

अपना काम शुरू करते हुए ख्याल आया आज मिसेज त्रिवेदी से लेकर प्लम्बर जोसेफ तक ने छुट्टी ले ली थी। हर कोई घर बैठे मजे ले रहा था सिवाय नील के। दुबे जी जो अकाउंटेंट हैं अखबार उठाने निकले तो उसे देखकर बोल पड़े थे - “नील जी बड़े सिनसियर हो आप तो। चल दिए काम पर। काम तो रोज़ ही करना होता है कभी-कभी तो मौसमी फल खा लिया करो।”

दुबे जी की घिघियाती आवाज़ न कभी अच्छी लगी थी न लग सकती थी। ये सारे पारिवारिक लोग तो अपने-अपने घरों में बैठकर क्रिकेट देख रहे होंगे या फिर किचन में अपनी-अपनी बीवियों के साथ खटर-पटर बढ़ा रहे होंगे।

दुबे जी बाल बच्चे वाले हैं उनके घर से जो यदा-कदा ऊँचा शोर होता है वह कभी-कभी परेशान करता है। खन्ना जी के परिवार में पत्नी और बेटी हैं। बेटी कभी-कभी दिखाई देती है, कहीं और पढ़ती है। एक मेहता जी हैं जिनका परिवार कभी-कभी आता है। उनकी पत्नी किसी और शहर में काम करती है। दो-चार और अभारतीय परिवार हैं जिनसे ‘हाय-हलो’ होती है पर ज़्यादा कुछ जानकारी नहीं है उनके बारे में। इन सभी परिवारों के बीच एक ‘छड़ा’ आदमी, फायदे ही फायदे थे। सब घरेलू आंटियों में होड़ लगी रहती थी उसे खाना खिलाने की। सभी को अच्छा लगता था एक युवा, आकर्षक, अकेले रह रहे लड़के से बात करना और उसे अपने पाक कौशल से परिचित करवाने की कोशिश करना।

कभी आहट से, कभी सुगबुगाहट से, तो कभी फुसफुसाहट से, आने वाले कदम उसकी आज़ाद उड़ान को भाँपने की कोशिश करते। ‘नील बाबू कब आते हैं, कब जाते हैं और क्या करते हैं’ यह जानने की उत्सुकता सबको होती थी। कम बोलने वाले व्यक्ति के बारे में जल्दी ही ‘ऐसी-वैसी’ बातें हवा में उड़ जाती हैं। उसके बारे में भी उड़ती ही होंगी। पर इन सबसे बेखबर होने का नाटक करते वह लजीज़ खाने का फायदा उठाता था और अपनी किसी भी निजी बात को बताने से कन्नी काट लेता था।

“अरे नील तुम, इतने खराब मौसम में बिल्कुल समय पर पहुँच गए। क्या बात है!” बॉस के शब्द जैसे कानों में शहद की वर्षा कर गए। बगैर सोच-विचार के, बगैर किसी प्रयास के ही आज तो अच्छा-खासा मक्खन लग गया है।

“जी सर, आप भी तो आ गए इतनी जल्दी।” एक कूटनीतिज्ञ की भांति अपनी प्रशंसा को कम कर दिया नील ने ताकि सामने वाला व्यक्ति खास तौर से यदि वह बॉस हो तो दीर्घकालीन ‘इमेज’ बन जाए उसके मन में।

सच पूछो तो कुछ पेपर्स उठाने के लिए आए थे बॉस, पर वे भी नील को देखकर थोड़ा रुक गए। कर्मचारियों के सामने उदाहरण होता है बॉस का। काम में व्यस्त और इतना व्यस्त बॉस कि समय का स्मरण कराने के लिए भी कोई हो, पत्नी का फोन हो या फिर ताला लगाने वाले सुरक्षा कर्मी हों। आज तो एक ही कर्मचारी उपस्थित था फिर भी ऐसे कैसे पिंडोल करके जा सकते थे बॉस। आ बैठे नील के पास। अच्छे मूड में थे यह देखकर कि काफी समर्पित लोग हैं उनके ऑफिस में। चाय के साथ उससे बात करने लगे। उनका सानिध्य मिला नील को तो कई राज पता चले। एक घंटे की अनावश्यक मुलाकात में बहुत कुछ पता चला ऑफिस के बारे में, लोगों के बारे में। अच्छा बॉस वही होता है जो अपने कर्मचारियों के बारे में पूरी जानकारी रखे। ये सारी बातें ऑफिस के काम को, माहौल को प्रभावित करने की पूरी क्षमता रखती हैं।

“मिस माधुरी शादी करने वाली है।”

“जॉन फिलिप दूसरी कंपनी में जा रहे हैं।”

“अपने नेटवर्क के इंचार्ज माइकल तलाक ले रहे हैं।”

“मिसेज़ ठाकुर की अपनी सास से रोज़ लड़ाइयाँ होती हैं।”

“बिश्नोई जी अब अपने बेटे को सब कुछ सौंपकर रिटायरमेंट लेने वाले हैं।”

और एक खास और जरूरी सूचना कि – “अब कोई भी ऑफिस में काम के अलावा किसी और नेटवर्क की साइट पर जा नहीं पाएगा। कर्मचारीगण वेब के उचित और अनुचित फायदे उठाने में कामयाब नहीं हो पाएँगे अब।”

पिछले महीने कई लोगों को नोटिस जारी किए गए थे जिन्होंने काम के अलावा वेब सर्फिंग के मजे लिए थे।

नील के लिए भी एक अवसर मुहैया करा दिया बॉस ने यह कहकर कि – “अगर मौका मिले तो वह आगे की पढ़ाई के लिए आवेदन कर सकता है। पढ़ते हुए काम करने की शैली को विकसित किया जा रहा है कंपनी की पॉलिसी में।”

दोनों अकेले थे। एक के बाद एक फोन आते रहे लोगों के – “आज काम पर नहीं आ पाएँगे”। मौसम विभाग की चेतावनी के चलते किसी भी कर्मचारी पर दबाव नहीं बना सकता था कोई भी बॉस। जिसे फोन अटेंड करने होते हैं वे मिस रोज़ा भी खुद फोन करके बता चुकी थीं कि – “वे आज नहीं आ पाएँगी।”

बॉस आखिर कब तक बॉस होने का ढोंग करते। अंदर का इंसान कुलबुला रहा था घर जाने के लिए। कुछ ही देर बाद वे बोले – “हम भी घर चलते हैं। क्योंकि मौसम तो और भी खराब होने वाला है। चलो मैं तुम्हें छोड़ दूँगा।”

मन बल्लियों उछलने लगा। वाह री किस्मत! आते हुए लिमोजीन से आना और लौटते हुए बॉस की कार से घर पहुँचना। आज तो वह जो कुछ भी चाहे, जो कुछ भी मांगे, सब कुछ मिल जाएगा। याद करने लगा आज सुबह उठकर किसका मुँह सबसे पहले देखा था उसने। निश्चित रूप से अपना ही देखा होगा। बालों की बड़ी चिन्ता रहती है उसे। हमेशा बिस्तर छोड़ते ही बाल ठीक करने लग जाता है। रोज़ ही खुद का मुँह देखता है, किसी और का नहीं।

गाड़ी घर के सामने रुकी तो नील ने औपचारिकता निभाते हुए कहा बॉस को – “आइए न सर मेरे गरीबखाने पर, चाय पीते हैं।”

“नहीं, निकलता हूँ, चाय फिर कभी।” खिड़कियों से कई निगाहें देख रही थीं उसके ठाठ। वह भी मुस्कुराता हुआ अपने अगले आकस्मिक सुख के बारे में सोचने लगा। अब क्या हो सकता है, दोपहर होने वाली है। भूखे भजन न होय गोपाला – ‘बेटा नील लग जा किचन में कुछ बना ले वरना इतनी अच्छी सुबह की कोई कीमत नहीं रह जाएगी।’

अपने घर के आगे जाकर चाभी निकाल रहा था वह कि आवाज़ आई – “नील जी रुको” पास वाली आंटी थीं।

“हमारे घर किटी पार्टी थी कुछ खाना है आपके लिए।” आंटी ने एक के बाद एक डिब्बे पकड़ाने शुरू किए।

“अरे वाह, शुक्रिया आंटी।” खाने के डिब्बों का वजन महसूस करके भूख और बढ़ गयी। इसके पहले कि खाना ठंडा हो उसे फटाफट खा लेना चाहिए। डिब्बे खोले तो खुशबू से ही कमरा भर गया। एक से एक बढ़िया व्यंजन। पालक-पनीर, मलाई कोफ़्ता, बिरयानी, गुलाब जामुन सब कुछ देखते ही स्वर्ग का नज़ारा कैसा होता होगा इसकी झलक मिल गयी थी उसे। खा-पीकर डकार ली तृप्ति की, संतृप्ति की।

शाम को देखने के लिए ऐसा कुछ था नहीं कि मस्त खाना खाने के बाद दिन खत्म हो सके। यह सोचने भर की देर थी कि पास वाले मेहता जी का फोन आया। उनके पास टिकट हैं आइस हॉकी के, ‘टोरंटो मैपल लीफ’ के गेम के लिए। उसकी पसंदीदा टीम खेल रही है। खूब मजे लिए खेल के। पॉपकॉर्न और कोक के साथ ‘नाचोज़ चिप्स’ और फिर घर वापसी।

बस वह समझने की कोशिश कर रहा था कि आज के दिन का श्रेय खुद को दे या उन लोगों को जो उसके आसपास हैं। ये सब तो रोज़ ही वहीं होते हैं। ‘आज’ ‘रोज़’ भी तो हो सकता है। आज का दिन खत्म होते-होते भी मेहरबान था। क्या कुछ नहीं मिला! इतना सब कुछ एक दिन में हो गया। और उस दिन हुआ जब वह पूरी तरह तैयार था रास्ते की हर मुसीबत से लड़ने के लिए। क्यों न हर दिन यही सोचकर बिस्तर से उठा जाए कि आज का दिन मुश्किल होगा तो कई मुश्किलें यूँ ही आसान हो जाएँगी। खुशनुमा जीवन की छोटी-छोटी खुशियाँ।

नींद आने से पहले आज की सुबह की शुरुआत उसकी आँखों से गुज़रने लगी। रोज सुबह एक कौआ काँव-काँव कर जगा देता था लेकिन आज उसका कहीं अता-पता नहीं था। शायद वह जल्दी उठा था तो रोज़ वाली कोई बात उसे परेशान नहीं कर रही थी। सुबह की मीठी नींद में कोई भी खलल हो तो वह ‘चेंचें’ दिन भर दिमाग में रहती है। लेकिन वही ‘चेंचें’ उठने में भी मदद करती है। इतने शोर में तो कोई चाह कर भी सो नहीं पाए। रोज़ तो अलसायी सुबह होती है आज तो चुस्ती-फुर्ती वाली थी। बड़ा भाग्यवान दिन था। हालांकि जल्दी उठ कर अपना दिन तो खुद ही सँवारा था पर श्रेय भाग्य को ही जाना था। जीवन के इन जीवंत क्षणों को कैद करके रख लिया जाए तो कैसा रहे। जब भी जरूरत हो भुना लो उन्हें।

और एक खुशनुमा दिन की मीठी नींद वाली रात निकल गई, एक दिवा स्वप्न छोड़कर।

अगली सुबह असली सुबह में बदल गयी थी। भूल चुका था वह कि – ‘जल्दी उठना है अब हर रोज़’। कल तो बीत चुका था और आज वही हुआ जो रोज़ होता था।

‘कल तो ‘कल’ ही रहेगा ‘आज’ कैसे हो सकता है।’

उनींदी आँखें खुलीं मगर कोई परवाह नहीं की जल्दी उठने की। वही अलार्म बजना, वही हड़बड़ाना और वही अलार्म बंद कर सो जाना। वही भागमभाग। वही मुसीबतों का पहाड़। वही एक के बाद एक अपना चेहरा दिखाती परेशानियाँ। फ्रिज़ खोला तो दूध नहीं था। सीरियल का डिब्बा भी खाली था। काली चाय बनाने के लिए भी चाय की पत्ती नदारद थी।

खिड़की के बाहर मुंडेर पर बैठा कौआ अपनी चोंच में ब्रेड का टुकड़ा दबाए हुए था। काग के भाग! वह ललचायी आँखों से देख रहा था कौए को अपना ब्रेकफास्ट करते हुए।

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