एपीसोड ---१५
इन दिनों मौसम बहुत ख़राब चल रहा है । न बादल खुल के बरसते हैं, न हल्की रिमझिम बंद होती है । दिन भर काली-काली बदरियाँ चमकती रोशनी निगले रहती है । तीज के कार्यक्रम से दो दिन पहले इतवार को समिधा को पता नहीं क्या सूझा वह रोली व अभय से ज़िद कर बैठी, “रात को बाहर कुछ खायेंगे ।”
रोली घर आती है तो ढीले-ढाले कपड़ों में घर पर आराम करने के व मॉम के हाथ का कुछ स्पेशल खाने के मूड में होती है इसलिए उसी ने हँगामा अधिक किया, “ओ नो मॉम ! घर पर ही कुछ खा लेंगे ।”
“मेरा खाने में शॉर्ट कट मारने का भी मूड नहीं है ।”
“तो मैं ब्रेड बटर खा लूँगी ।”
समिधा किसी तरह उन दोनों को ठेल ठालकर रेस्तराँ ले गई । अपने पसंदीदा रेस्टोरन्ट में बाहर ‘मकई फ़ैस्टीवल’ का बैनर देखकर वह खिल गई । उन लोगों ने मकई पाव भाजी, मकई कोफ़्ते, मकई पुलाव का ऑर्डर दे दिया । उसने घोषणा कर दी, “ये ट्रीट मेरी तरफ़ से है ।”
ये ट्रीट इतनी दुखदायी होगी उसे पता न था । समिधा सुबह बुखार में तप रही थी । उधर किसी इंफेक्शन से डायरिया हो गया था वह अलग । अभय को तो जैसे बहाना मिल गया था, “मैं तो पहले ही मना कर रहा था कि बारिश में बाहर खाना ठीक नहीं है ।”
“पापा ! चाँस की बात है । आज मैं सूरत नहीं जाती, रुक जाती हूँ ।”
“बेटू! तू जा । थोड़ा बुखार है । ये तो चलता ही रहता है ।” समिधा को अपनी चिन्ता नहीं थी, उसे चिन्ता थी तीज के कार्यक्रम में अपनी नृत्यनाटिका की ।
कविता ने उसकी बीमारी की ख़बर सुनी तो दौड़ी चली आई अभय के लंच के समय । उसने कुर्सी पर बैठते हुए इठलाकर कहा, “भाईसाहब तो ऑफ़िस चले जाते हैं । आपके बच्चे बाहर है । आप बीमार हैं । हाय !हाय ! आपको तो घर में पानी के लिए पूछने वाला भी कोई नहीं है ।”
“हमारी माँ नौकरी करती थी । हमें उन्होंने इतना मज़बूत बनाया है कि हम अकेले बीमारी में रह सकते हैं फिर आऊट हाऊस वाली तो है ।”
इस जवाब से उसका चेहरा स्याह हो गया ।
अभय ने पूछा, “आप के लिए चाय बनवाऊँ ।”
कविता ने नाक चढ़ाई, “ये ठीक हो जायेंगी तभी हम चाय पियेंगे ।”
अभय एक प्लेट में बिस्कुट रख कर ले आये, “ये तो खाइए ।”
कविता के शरीर में जैसे सारे नाज़ो नखरे जाग उठे । उसने पूरे शरीर को लचकाते हुए आँखें व भौंहे नचाते हुए कहा, “आप लाये हैं....तो हम ज़रूर खायेंगे ।”
समिधा एक क्षण सोचती रह गई, बाज़ारू औरतें भी ऐसे शरीर लचका कर बातें करती होंगी क्या ? वह कैसे झेल रही है इस औरत को अपने आस-पास? अभय कविता के सामने मंत्रमुग्ध से प्लेट रख रहे थे ।
समिधा ने आवाज़ लगाई, “वर्षा ! साहब का खाना लगाना ।”
कविता ने उससे कहा, “आप प्रोग्राम तो क्या कर पायेंगी ?”
“मेरी प्रेक्टिस तो है, तुम लोग प्रेक्टिस करती रहना । अभी मैंने हिम्मत नहीं हारी है ।”
“लगता तो नहीं....खैर....आप मेरा राजस्थानी लहँगा पहन लीजिए व मेरी आक्सीडाइज़्ड ज्वैलरी पहन लीजिए ।”
“वो राजस्थानी घूमर डाँस के लिए ठीक है । राधा के रूप में मैं गँवार लगूँगी और कोई लहँगा पहन लूँगी और राधा क्या नकली ज्वैलरी पहनेगी?”
कविता का अपना वार खाली होता देख चेहरा हल्का काला पड़ गया । समिधा मन ही मन मुस्करा दी ।
तीज के फ़ंक्शन के दिन सुबह से ही नीता, अनुभा के फ़ोन आने आरम्भ हो गये, “समिधा ! अब कैसी हो? डाँस कर पाओगी ?”
“मुझे कमज़ोरी बहुत लग रही है, सिर चकरा रहा है । तबियत सम्भल गई तो कर पाऊँगी । मैं दो बजे करीब तुम्हें फ़ोन कर दूँगी ।”
“अपने पर बहुत ज़ोर मत डालना । चार बजे तो प्रोग्राम के आरम्भ होने का समय है ।”
“तुम्हें तो पता है हिन्दुस्तानी समय के अनुसार वह पाँच बजे ही आरम्भ होगा । अपनी नृत्यनाटिका प्रोग्राम का नम्बर क्या है ?”
“नौवाँ है ।”
“तो मैं सवा पाँच, साढ़े पाँच तक आ जाऊँगी लेकिन दो बज़े फ़ाइनल बताऊँगी कि आने लायक हूँ या नहीं ।” इतनी देर बात करने के कारण वह कमज़ोरी से हाँफने लगी ।
थोड़ी देर बाद कविता का फ़ोन आया व्यंग भरी आवाज़ में उसने पूछा, “हमारी राधाजी कैसी है ?”
“पहले से ठीक, लेकिन हल्का बुख़ार अभी भी है ।” उसने धीमी आवाज़ में कहा ।
“तो अपनी नृत्य नाटिका गई समझिए ।”
“नो, नो जब तक साँस है जब तक आस है ।”
“अभी आपको बुख़ार है और शाम को आप नाच लेंगी ?” मखौल उड़ाती उसकी आवाज़ आई ।
“ये तो कन्हैया की मर्ज़ी, मैं पूरी कोशिश करूँगी ।”
दो बज़े तक वह सचमुच निर्णय ले चुकी थी कि वह डाँस करेगी । उम्र है कि तेज़ी से ढ़ल रही है । अब और कितने वर्ष डाँस कर पायेगी ? वाद्यों की धुन पर या किसी तेज़ गाने पर उसके शरीर में तरंगे थिरकने लगती हैं, पैर मचलने को बेताब होने लगते हैं । ये कब तक रहने वाला है ?
साढ़े चार बजे वह हिम्मत करके उठी उसने लाल, हरे, पीले लहँगे पर चमकती चुन्नी पहनीं व अपने रीयल पर्ल्स के गहनों से स्वयं को सजा लिया । हल्की कमज़ोर आँखों से उसने आइना देखा, सब कुछ ठीक लग रहा था । क्लब में फ़ोन करके गाड़ी मँगा ली ।
क्लब के हॉल में उसने घुसते ही देखा अगले कार्यक्रम की घोषणा हो रही थी । हॉल में महिलायें व लड़कियाँ रंग-बिरंगे परिधानों में सजी सँवरी बैठी थीं । हॉल सेंट व फूलों की ख़ुशबू से गमक रहा था । उसे आता देख कुछ स्वर फुसफुसा उठे, ‘राधाजी आ गई’, ‘राधाजी आ गई’ । वह पीछे की तरफ सोफ़े पर बैठ गई । सिर अभी भी चकरा रहा था, पैरों में हल्की कँपकपाहट हो रही थी । अनुभा, नीता व कविता ने उसे आकर घेर लिया। नीता ने उसके कंधे घेरते हुए कहा, “तो राधा जी आ गईं । सेक्रेटरी हमसे बार-बार पूछ रही थीं कि आपकी राधा जी आईं या नहीं ।”
कविता बोल उठी, “वे कह रही थीं यदि आठवें प्रोग्राम की घोषणा के बाद वे नहीं आईं तो आप लोगों का प्रोग्राम कैंसिल ।” उसने यह कहते हुए बड़ी ठसक से अपने गले में पहने सफ़ेद नगों के हार की तरफ उँगली से इशारा किया ।
चकराते दिमाग से समिधा समझने की कोशिश करने लगी इस इशारे का मतलब क्या है ?
सेक्रेटरी भी अपनी डायरी लेकर उनके पास आ गईं, “यदि आप दो-तीन मिनट तक नहीं आ पातीं तो ये प्रोग्राम कैंसिल हो जाता ।”
“ऐसे कैसे हो जाता ?” वह मुस्करा दी थीं ।
नृत्यनाटिका तो होनी ही थी । कुछ सुरमई, सुकुमार, तरंगित भावनाओं से जुड़ने का अमिट संयोग थी ये नृत्यनाटिका । कन्हैया के प्रेम में रची बसी राधा बन उसने झूमते हुए ऐसा नृत्य किया कि लग ही नहीं रहा था कि उसे बुख़ार है । इस हॉल में वह चौथी बार राधा बनी नृत्य कर रही है । हर बार बधाइयों का सिलसिला शुरू हो जाता है ।
समिधा की मम्मी जब अपने शहर में ये तस्वीरें देखती हैं तो कहीं खो जाती है, “हमारे स्कूल में डाँस की रिहर्सल चल रही थी । तू तीन या चार वर्ष की थी, हमारी प्रिंसिपल कुर्सी पर बैठी रहती थीं । उन्हें तू ‘कुर्सी वाली मौसी’ कहती थी । मैं तुझे लेकर उनके पास गई । वे मुझे पूछने लगीं कि इस बार कौन से गाने पर डाँस होगा ?
तू मेरी ऊँगली छोड़कर उनके सामने खड़ी हो गई, ‘मैं बताऊँ कुर्सी मौसी’ और तू मटक मटक कर डाँस करने लगी थी -
`कान्हा बजाये बाँसुरी और ग्वाले बजाये मंजीरे
गोपियाँ नाचे छमाछम ।
ढोलक ढ़माक बोले
झाँझर झमाक बोले ।`
हम सबका हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया था । उन्होंने तुझे गोदी में उठाकर चूम लिया था कहा था कि इसकी नज़र उतार देना । मुझे आज ऐसा लग रहा है कि तेरी नज़र उतार दूँ ?”
“धत् !”
..... “राधा जी कहाँ खो गईं ?” प्रियंका एक हाथ में प्लेट लिए दूसरा हाथ उसके चेहरे के सामने लहराकर पूछ रही है ।
“ओ ऽ ऽ .....हाँ, कहीं नहीं ।”
वह परिचय कराती है, “इनसे मिलो ये है रुपाली ।”
सामने एक बेहद गोरी, भरे हुए जिस्म की लड़की खड़ी है । वह बहुत तमीज़ से नमस्ते करती है ।
समिधा सिर हिलाकर नमस्ते स्वीकार कर कहती है, “बेटा नमस्ते ! जैसा नाम है, वैसी ही तुम हो । प्रियंका से मैंने तुम्हारी बहुत तारीफ़ सुनी है ।”
“प्रियंका आँटी भी तो स्वयं बहुत अच्छी है ।”
नीता धीमे से फुसफुसाती है, “देखो न ! सास बहू ने अभी से एक दूसरे पर मक्खन लगाना शुरू कर दिया है ।”
रुपाली अपनी बड़ी बड़ी आँखें उसकी तरफ घुमाकर पूछती हैं, “जी ?”
“कुछ नहीं हमारा आपस का मज़ाक है ।”
“रुपाली को और लोगों से मिलवा दूँ ।” कहती प्रियंका उसे लेकर आगे बढ़ जाती है ।
अनुभा कहती है, “तो प्रियंका के बेटे का अफ़ेयर इससे चल रहा है ।”
“हाँ, तीन वर्ष हो गये हैं । रुपाली ने प्रियंका के घर में जगह बना ली है । उसे कुछ न कुछ गिफ़्ट देकर ख़ुश करती रहती है । अपनी प्रियंका सासु माँ भी दूसरे शहर जायेंगी तो उसके लिये गिफ़्ट लाती हैं ।”
समिधा कहती है, “क्या किस्मत है प्रियंका को बिना ढूँढ़े इतनी सुंदर, जीनियस टेलेंटेड बहू मिली जा रही है ।”
नीता कहती है, “प्रियंका का बेटा मिलिंद क्या कम हैंडसम है ? मुझे इस लड़की पर शक है ये शादी करेगी या नहीं । इसने अपने अफ़ेयर की बात बहिनों तक को नहीं बताई है ।”
“सीरियसली?”
“यस, मिलिंद के साथ खूब घूमती फिरती है लेकिन कहती यही है कि शादी अपने घर वालों की मर्ज़ी से ही करूँगी ।”
“हे भगवान ! ये भारत के ‘वेस्टर्न साइड’ की लड़कियाँ !”
“अक्षत के एक दो दोस्तों के साथ यही हुआ है, इन लड़कियों के घर वालों को अपनी लड़कियां की दोस्ती के बारे में पता रहता है लेकिन शादी का समय आने पर कह देते हैं, शादी हम अपनी जाति वालों में करेंगे ।”
सभी महिलायें आज बेहद खुश हैं कोई इनाम पाकर, कोई नृत्य करके या गीत गाकर, कोई इन सब में डूबकर ।
“इन के पिताजी बहुत गंभीर चल रहे हैं ।” रास्ते में कविता बताती है ।
“ओ ! हम लोग बबलू जी से मिलने आना चाह रहे हैं । जल्दी आयेंगे ।”
वह अपने घर की तरफ मुड़ती हुई बोली, “हम इन्तज़ार करेंगे ओ.के. बाय ऽ ऽ । ये कैसेट मैं ले जा रही हूँ रिकॉर्ड करवाकर वापिस कर दूँगी ।”
दूसरी शाम को ही समिधा अभय के साथ कविता के यहाँ पहुँचती है । बबलू जी का चेहरा गंभीर व उतरा हुआ था । उन्होंने नमस्ते बहुत अनमने ढंग से की । कविता ने धीमे से बताया, “पिताजी सीरियस हैं । ये बस के लिए निकलने वाले हैं ।”
समिधा का अब ध्यान गया । उनका सूटकेस व एयरबैग दीवान के पास तैयार ही रखे थे ।
“सॉरी ! हम लोगों ने ग़लत समय पर ‘डिस्टर्ब’ कर दिया ।” अभय बोले ।
बबलू जी ने उत्तर दिया, “आप लोग आये हैं तो अच्छा लग रहा है ।” दस मिनट बाद ही वे उठ गये । साथ ही सोनल भी उन्हें स्कूटर पर स्टेशन छोड़ने के लिए उठ गई ।
दो तीन मिनट बाद ही उनका बेटा राजुल अंदर उठकर चला गया । समिधा को इस घर में आकर पता नहीं क्यों बेचैनी सी होने लगती है, वह बोली, “कविता ! हम लोग भी चलते हैं । तुम वैसे ही परेशान हो ।”
“ इतने दिनों बाद आप आई है, बैठिए। मैं चाय बनाकर लाती हूँ। ” कहकर वह रसोई में चाय के लिए पानी गैस पर चढ़ा आई व अंदर वाले दरवाज़े के बीच खड़ी होकर उसने बड़ी अदा से एक दरवाज़े पर दायाँ हाथ टेक कर सहारा ले लिया। बड़े मुलायम स्वर से बोली, “कल हेमामालिनी व धर्मेन्द्र की टी.वी. पर फ़िल्म आ रही थी। उसमें एक नृत्य नाटिका है। अगले वर्ष हम लोग वही करेंगे।”
समिधा नृत्य नाटिका के तलाश में रहती है। वह ख़ुश होकर बोली, “कौन-सी फ़िल्म की बात कर रही हो?”
“फ़िल्म का नाम तो मैं भूल गई हूँ। लेकिन गाना याद है।”
“कौन सा है?”
बेहद कुत्सित उत्तेजना उसके काले चेहरे पर छलछला उठी। अभय के चेहरे पर उसने आँखें गढ़ाते हुए मारक मुस्कान से मुस्कराते हुये रसीली आवाज में कहा, “प्रेम है पिया मन की मधुर एक भावना।”
अभय भी इन काली आँखों में डूबे विभोर हो मुस्करा दिये। समिधा को जैसे किसी ने ज़हरीला डंक मारा हो , किसी की पत्नी के सामने इतनी बेहयाई ?
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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