आधा आदमी
अध्याय-21
‘‘मैं तो यहीं कहूँगा माई, कि समाज के हर तबके को चाहिए वह आप लोगों के हक में आवाज उठाये.‘‘
‘‘अरे छोड़ों बेटा! अब हम तुमसे क्या बताये, हम लोग तो इतने अभागे हैं कि नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद तक नही हें.....।‘‘
‘‘क्यों? सामने तो मस्जिद हैं....?‘‘
‘‘पर हम लोग नमाजियों के पीछे ही नमाज पढ़ सकती हैं। न ही उनके आगे और न ही बराबर.‘‘
‘‘यह तो सरासर गलत हैं‘‘
‘‘खैर! यह सब छोड़ों बेटा, कहाँ तक तुम्हें हम अपनी पीड़ा बतायेंगे और कहाँ तक तुम सुनोंगे, आओं अंदर चले। अपनी तो जिंदगी ही एक पीड़ा हैं.‘‘ कहती हुई दीपिकामाई कमरे में आयी और अध लेटी-सी लेट गई। फिर कुछ सोचती हुई बोली, ‘‘कैसी विडम्बना हैं न ही हम लोगों को परिवार में जगह मिलती हैं, न स्कूल-कालेजों में, और न ही हमें नौकरी मिलती हैं। समाज शायद यहीं चाहता हैं कि हम तालियाँ पीट-पीटकर अपने दुर्भाग्य का मातम मनाते-मनाते ही दुनिया से रूखसत हो जाये.‘‘
दीपिकामाई के एक लफ़्ज़-लफ़्ज़ ज्ञानदीप के दिल-दिमाग को झकझोर गये थे। उन्होंने जो सवाल खड़े किए थे वे वाकई सब जायज़ थे।
”माई! आप यह सब लिखती क्यों नहीं.”
‘‘कितना तो लिखा हैं बेटा! फिर उसके बाद मौका ही नहीं मिला लिखने का, या यूँ कह लो लिखने का मन नहीं हुआ। कहाँ तक अपने को नंगा करती और यह लिखना-लिखाना हम जैसी हिजड़ो का काम नहीं वह तो आप जैसे विद्वानों का काम हैं....।‘‘
‘‘आप का कहना जायज़ हैं पर जो आप ने भोगा हैं, आप ने देखा हैं, वह आप से बेहतर कोई नहीं लिख सकता। इसलिए माई, आप को मेरे लिए लिखना होगा.‘‘
‘‘वादा नहीं करते हैं बेटा.‘‘
‘‘माई! अगर आप नहीं लिखेंगी तो मैं आगे की घटना कैसे जानूँगा?‘‘
‘‘अल्ला जाने, फिलहाल जो डायरी के पन्ने मेरे पास पड़े हैं उसे लेते जाओं.‘‘ कहकर दीपिकामाई उठी और अलमारी से पन्ने ले आयी, ‘‘यह लो.‘‘
‘‘और भी हैं क्या?‘‘
‘‘हैं तो बहुत पर इधर-उधर बिखरे पड़े हैं.‘‘
‘‘चलिए कोई बात नहीं मैं बाद में आ जाऊँगा.‘‘ ज्ञानदीप, दीपिकामाई से आज्ञा लेकर चला गया।
और उसी रात दीपिकामाई की डायरी पढ़ने बैठ गया-
28-3-1985
ड्राइवर के पूछते ही मैंने इसराइल के बारे में बताया तो वह तुनक कर चला गया।
फिर मैंने इसराइल से बताया यही हैं ड्राइवर! जिसके बारे में मैंने तुम्हे पहले बताया था।
इसराइल ने कड़े लहजे में कहा, ‘‘अब ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिससे हमारा-तुमारा विश्वास टूटे। जैसे तुम्हें मक्कारी पंसद नहीं हैं वैसे मुझे भी, मैं नही चाहता हमारे-तुम्हारे बीच में कोई तीसरा आये.‘‘
10-9-1985
सारा सामान चोरी होने के कारण मुझे फिर से शूटों पर सितारों का डेªस बनाना था। साथ-साथ उसी से मिलता-जुलता शेट, क्योंकि रामलीला में प्रोग्राम करने के लिए अब सिर्फ़ सात दिन बचे थे। काफी सोचने-विचारने के बाद मेरे जे़हन में छोटी का ख़्याल आया।
मैंने उसे यह कहकर लालच दी, कि अगर तुम मेरी ड्रेस बनवाने में मदद करोंगी तो मैं तुम्हें अपने साथ प्रोग्राम में ले जाऊँगी। साथ-साथ पैसे, खाना-खर्चा अलग से दूँगी। वह मेरी बात से राजी हो गई थी।
अगले दिन से सुबह हम-दोनों मोहब्बत महल आ जाते। दिन भर शूटों पर सितारा लगाते और शाम होने से पहले चले आते।
दो दिन जब छोटी नहीं आयी। तो मेरे तन-बदन में जैसे आग लग गया।
अगले दिन जब वह आयी तो मुझे सफाई देने लगी, ‘‘कल सुबह जब हम यहाँ आ रही थी तो एक मुर्गा मिल गया उसी के साथ मैंने दिन भर जौबन लगाया, इसीलिए नहीं आ सकी.‘‘
‘‘अरी आग लगे तुमरी गाँड़ का, सिरफ दुई दिन बचा हय अउर ई दुई दिनों में मुझे नागिन शूट, भागड़ा अउर डिस्कों शूट बनाना हय.‘‘
‘‘सब होई जइय्हें परीशान न हो, लाव देव कहाँ हय सूट.‘‘
मैंने उसे शूट देकर कहा, ‘‘देख री, आज हमरे मियाँ इहाँ आवत हय, इसलिये पहिले जाई के नहाय धोय लेव तब खाना बनायेव.‘‘
‘‘जादा भकतिन न बनव, तुमरा मरदवा इहाँ आई के तुमरी आरती न उतरय्हें, तुमरी गाँड़ ही मरय्हें.‘‘
‘‘अरी भाग, हम्म तो एक मरद वाली हय तुमरी तरह नाय कि गाँड़ का हवाई अड्डा बनाई ली कि एक उड़त हय तो एक आवत हय.‘‘
‘‘भागव बहिनी, तुमसे कोई बात बताये दो तो तुम परचार करैं लागत हव, अब ई बात कहीं अपने मरदवां का न बताई दियव.‘‘
‘‘अरी हटव बहिनी, हम्म का इत्ती बेवकूफ हय जो अपने मरदवां से बताये देबैं। अरी जनानी की बात जनानी जाने...जनानी से जनानी मिली गंगाजल का पानी मिली। मरदवें से मरदवें मिले चैराहे के कुत्ते मिले.‘‘
‘‘देखव बहिनी, हम्म तो दस मरद वाली हय, जहाँ बरे वहीं तापों, हम्में नाय बनेंक हय पविततर, तुमही बनव.‘‘
बात करते-करते कब शाम हो गई पता ही नहीं चला। छोटी चली गयी थी।
जब इसराइल नहीं आया तो मैं घर चला आया। सभी घर में मुँह फुलाये बैठे थे। मैंने अम्मा से पूछा तो उन्होने बताया, ‘‘तुम्हारे पिता जी बहुत गुस्सा कर रहे थे कि रात-दिन कहाँ गायब रहता हैं, अपने बीबी-बच्ची तक का ख्याल नहीं रखता.‘‘
‘‘तुम लोगों को सिवाय मेरे ऊपर तोहमत लगाने के और भी कोई काम आता हैं। मैं तो दिन-रात यहीं सोचता रहता हूँ कि कितनी जल्दी हमारे हाथ में पैसा आ जाये और अपना मकान बन जाये। मगर तुम लोग सिर्फ अपने बारे में सोचते हो.‘‘
3-10-1985
मुददतें गुज़री तेरी याद भी न आई हमें
और हम भूल गए हो तुझे, ऐसा भी नहीं।
उस दिन छोटी मुझे उदास देखकर पूछ पड़ी, ‘‘क्या हुआ बाजी, आज तुम बहुत उदास लग रही हो?‘‘
‘‘अब बहिनी, तुमसे का छुपाना तुम तो अपनी हो हम तो घरवालों के पीछे मरी जा रही हैं। मगर घरवाले हमें समझना ही नहीं चाहते.‘‘
‘‘ऐ बहिनी! हाथ में लोई तो सब कोई, दुनिया आजकल अपनी बनी सोचती हैं.‘‘
‘‘तुम सही कहत हव.‘‘
काम करते-करते कब शाम हो गई पता ही नहीं चला। घर आकर मैंने खाना खाया फिर इसराइल हमें जूस पिलाने ले गया। वापस लौटकर हम लोग छत पर लेट गए। मैंने उसे समझाया, ऐसा हैं तुम यहाँ लेटो मैं जा रही हूँ नीचे, क्योंकि तुम तो जानते हो उसका भला करना ज्यादा जरूरी है.‘‘
‘‘अच्छा भौसड़ी के यहीं खातिर तुम्हें जूस पिला के लाये रहें.”
‘‘कोई लाड़ से खून पीता हैं और तुम गाँड़ से खून पीलों, सभी मेरी हड्डी-मास नोचने के लिए तैयार हैं.‘‘
इसराइल की जिद् के आगे मुझे झुकना पड़ा। उसकी हवस मिटाने के बाद, मैं नीचे कमरे में आया और अपनी पत्नी की हवस मिटायी।
उसने वक्त की नजाकत का फायदा उठाया और बोली, ‘‘ऐसा हैं, तुम वैसे ही दस-पन्द्रह दिन के लिये प्रोग्राम करने जा रहे हो, क्यों न मैं अपने घर चली जाऊँ.‘‘
‘‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया। जब देखो घर चली जाऊँ, अरे जिनके आदमी फौज में रहते हैं वे सब अपने घर में कैसे रहती हैं? अभी कितने दिन तुम्हें घर गए हुआ हैं? शराफत से चुपचाप लेट जाओं और मुझे भी सोने दो, सुबह हमें जल्दी निकलना हैं.‘‘
8-10-1986
मैं अगले दिन छोटी को लेकर गोपालगंज आ गया था। पार्टी मालिक ने हमारे रहने की व्यवस्था कर दी थी।
शाम होते ही मैं काली साड़ी पहन कर छोटी के साथ स्टेज के पीछे आ गया। वहाँ पहले से ही कई डांसर मौजूद थे। पार्टी मालिक का आदेश होते ही मैं और डांसरों के साथ स्टेज पर आकर वन्दना करने लगा-
श्री लाली रघुवर की
आये जो सरदार
हाथ जोड़कर विनती करूँ
सब जन बारम्बार
पंडित-ज्ञानी और ऋशि मुनिवर
कृपा न शोर मचायेगें
जो शोर करेंगे लीला में
तो नर-निष्चर कहलायेंगे
आनन्द वह इसी अवसर में
अपनी-अपनी पलकें खोलों
सब भाई आपस में मिलकर
श्री रामचन्द्र की जय बोलों
बोलो सियापति रामचन्द्र की जय
लीला मन हरन रसिला है
दर्षक सब सोच समझ लेना
आज धनुष यज्ञ की लीला है।
वन्दना खत्म करते मैंने माइक पर कहा, ‘‘ऐ सखी, आज यहाँ क्या हो रहा हैं?‘‘
”आज यहाँ प्रभु राम की लीला हैं.‘‘ जूही डांसर ने बताया।
‘‘क्यों न हम लोग भी उसी रामलीले में भाग लिया जाये.‘‘
‘‘नेकी और पूछ-पूछ.‘‘
हम लोग नाचते-गाते पहुँचे और गाने लगे-
प्रभु आप बसे वृंदावन में
मेरी उमर गुज़र गई गोकुल में
स्वामी आप बसे वृंदावन में
हाय मेरी उमर गुज़र गई गोकुल में
मेरी राहों में प्रभु मंदिर बनवाना
हाय पूजा करूँगी अकेली वहाँ आ जाना।
भजन खत्म करते ही बिजली डांसर ने कहा, ‘‘ऐ सखी, कोई ऐसा गीत गाओं जिससे यहाँ बैठी पब्लिक झूम उठे.”
मुन्नी डांसर मुँह बनाकर गाने लगी-
टप्पियां दी बारी ऐ
मैं कुड़ी अम्बाले शहर दी
टप्पियां तो ना हारी।।
असमानियाँ सत तारे,
असी कुड़ी ओ लेनी
जेड़ी चूँढ़ बिच अक्ख मारे।
फिर दूसरी, तीसरी, चैथी ने गाया। उसके बाद मेरा नम्बर आया। मैं बड़ी अदा से स्टेज पर आकर गाने लगा-
राजा गरमी के मारे अँगिया भीजे हमारी।
कुछ गरमी से कुछ सरदी से,
कुछ मेरा जोर जवानी।।
कोठे ऊपर देवर बुलावे,
आजा राज दुलारी।।
मैं कैसे आऊँ मेरे याने देवरिया,
कदम-कदम मुझे भारी।।
बाहर बरस पीछे पिया घर आए,
टस-टस रोवे प्यारी।।
गाना सुनते ही पब्लिक झूम उठी। मैं टाटा-बाय-बाय करके स्टेज के पीछे
आ गया।
इसी बीच कोइली डांसर स्टेज पर जाकर बेसुरी आवाज में गाने लगी-
झूठ बोलव कौआ काटी।
काली कौओं से डरियव
मैं मैके चली जाऊँगी
तुम देखते रहियव।।
इससे पहले कोइली डांसर गाना पूरा करती कि पंडाल में बैठी पब्लिक भड़क उठी, ‘‘तोहरी महतारी कीऽऽऽऽ गाँवत हय कि चिल्लात हय, भागत हय कि उठाये के अद्धा मारी.” इतना सब कुछ सुनने के बाद भी कोइली गाये जा रही थी-
तुम मैंके चली जायेगी
तो मैं डंडा लेकर आऊँगा।
पंडाल में बैठे बूढ़े से जब यह बर्दास्त नहीं हुआ तो तिलमिला उठा, ‘‘ऐ री मादर चोदिया, अगर तू मंच से नीचे नाय गई तो अबय लाठी लेई के हम्म आई जइबै.‘‘
कोइली फिर भी गाये जा रही थी-
तू डंडा लेकर आयेगा
मैं कुआ में गिर जाऊँगी।
आख़िरकार बूढे का बाँध टूट गया और वह लाठी लेकर मंच की तरफ लपका। इससे पहले वह उसे पकड़ पाता कि कोइली भागती हुई स्टेज के पीछे चली गयी।
पूरा पंडाल हँसी के ठहाके से गूंज उठा था।
फिर पेंसिल डांसर आयी। उसका भी वही हाल हुई जो कोइली का हुई थी।
मैं स्टेज के पीछे खड़ा यह सब देख रहा था। कलाकारों के प्रति पब्लिक का यह दुव्र्यवहार देख कर मैं अंदर ही अंदर बहुत दुखी हुआ। कलाकार जैसा भी हो हर एक की अपनी इज्जत-आबरू होती हैं। आख़िर होता तो इंसान ही हैं। उसके भी सीने में दिल होता हैं। उसे भी दुख होता हैं। क्यों लोग उसका मजाक उड़ाते है? क्यों नहीं उसके दर्द को समझते हैं?
उसके बाद मैं चोली-स्कर्ट पहन कर, बालों में गजरा बाँधकर, दुपट्टे से मुँह ढक कर स्टेज पर आ गया और नागिन की धुन पर नाचने लगा।
‘‘राजा अब तो मुँह खोलों.‘‘ पंडाल में बैठ लोगों की आवाज़ें उठने लगी।
‘‘अरे मेरी जान, एक बार अपने चेहरे का दर्शन तो करा दे.‘‘
लगभग पन्द्रह मिनट नाचने के बाद मैं गाने लगा .
रस में डूबल बा
बड़ी रसदार बा
खाई लेव मोरे रजऊ
जलेबी तैयार बा
गरम-गरम खाइबा तो
बड़ा मजा आई
रख के जो खईबा तो
मन ललचाई
हमरों जलेबियाँ म रस और पान बा
खाई लो मोरे रजऊ
जलेबी तैयार बा
गाना खत्म करते ही इनामों की बौझार लग गई थी। स्टेज से उतर कर मैं अपने कमरे में आ गया था। तभी एक लम्बा-मोटा आदमी, जिसकी बड़ी-बड़ी मूँछें थी। वह बगैर इज़ाजत कमरे में आया और अंदर से दरवाजा बंद करके मेरी तरफ बढ़ा।
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