आधा आदमी - 22 Rajesh Malik द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आधा आदमी - 22

आधा आदमी

अध्‍याय-22

ज्ञानदीप आगे की लाइनें पढ़ पाता कि सेलफोन बज उठा। उसने उठकर हैलो कहा तो पता चला कम्पनी वालों की काँल हैं। उसने बड़बड़ाते हुए सेलफोन रख दिया, ‘‘साले टाइम, बेटाइम काँल करते हैं ऐसी कंपनियों पर तो केस कर देना चाहिए। जिससे फिर दूसरी कंपनी ऐसी हिमाकत करने की कोशिश न करें.‘‘

ज्ञानदीप ने पानी पीकर अपना गुस्सा शांत किया और नेल्सन मंडेला की तरह लेट कर पढ़ने लगा-

‘‘कौन हैं आप बिना पूछे मेरे कमरे में कैसे आये?‘‘

‘‘अरी बहिनी! हम्में नाय पहिचान पायेव, हम्म भी जनानी हय.‘‘

मैंने देखा उसकी देह-दशा मर्दाना थी, मगर बोली उसकी जनानी थी। यह देख कर मै हक्का-बक्का रह गया।

‘‘अरी भागव बहिनी, तोहका देख के तो कोई भी धोका खा सकती हय, का नाम हय तुमरा?‘‘

‘‘मोहनी.”

मैंने जब उसके आने का कारण पूछा तो उसने बताया, मुझे शहजादे चप्पल वाले ने आपकी खिदमत करने के लिए भेजा हैं। मैंने यह कहकर साफ मना कर दिया, कि मुझे किसी की खिदमत की जरूरत नहीं हैं।

मोहनी चुपचाप चला गयी थी।

उसके जाते ही मैं दरबारी डेªस पहन कर स्टेज पर आ गया और लम्बा-सा घूँघट काड़ कर बोला, ‘‘महाराज की जय-जयकार हो.‘‘

पृथ्वीराजकपूर की स्टाइल में महाराज दूसरे दरबारी से बोले, ‘‘दरबारी! इस कला प्रर्दशनी से कहो कोई ऐसा गीत गाये और नृत्य दिखाये जिससे मेरा मन शान्त हो जाए.‘‘

‘‘सुना तुमने महाराज की क्या आज्ञा हैं.‘‘ दूसरे दरबारी ने मुझसे कहा।

‘‘महाराज की आज्ञा सिर आँखों पर.‘‘ मैंने शीश झुकाकर महाराज के सामने सलाम किया और पीछे हट कर गाने लगा-

मना रे तूने राम न जाना रे

जैसा मोती ओस का रे, तैसा यह संसार

देखत में तो झिलमिला,

पर चलत न लावेबार।। मना रे तूने....

सोने का गढ़ लंका बनायी, सोने का दरबार

रत्तीभर सोना ना मिला

रावण को चलती बार।। मना रे तूने.....

भक्ति गीत खत्म होते ही महाराज दहाड़ पड़े, ‘‘रावण के दरबार में राम का गीत, इसे ले जाओं और भार में डाल दो.‘‘

वह दरबारी मेरा बाल पकड़कर खींचते हुए स्टेज के पीछे ले गया।

15-1-1987

सुबह उठकर मैं और छोटी ने जाकर होटल में नाश्ता किया। इससे पहले मैं दुकानदार को पेमेंट करता। शहजादे चप्पल वाले ने पेमेंट दे दिया। तभी मोहनी ने शहजादे से मेरा परिचय कराया। नैन-नक्श तो अच्छा था। मगर उसका डील नाटे कद का था। मैं बिना कुछ कहे ही अपने कमरे पर आ गया।

पीछे-पीछे शहजादे भी आ गया और अपने मन की बात कहने लगा, ‘‘क्या बात हैं मैं जितना आप के करीब आता हूँ आप उतना ही मुझसे दूर भागती हैं। ऐसा क्यों?‘‘

मैंने उसे समझाया, ‘‘देखो जी हम ठहरे एक परदेशी जितने दिन यहाँ प्रोग्राम रहेगा उतने दिन हम यहाँ रहेंगे। प्रोग्राम ख़त्म होते ही जाने हम कहाँ, जाने तुम कहाँ, चार दिन की मोहब्बत या जिस्मानी रिश्ता नहीं रखना चाहिए। हमने अपने जिंदगी में विश्वास पर बहुत मार खायी हैं”

‘‘आप का कहना जायज़ हैं। मगर यकीन मानिए मुझे आप से दिली मोहब्बत हैं, जिस्मानी रिश्ता तो एक दविश होता हैं। मैं आप से मोहब्बत तब करूँगा जब आप को हमारे ऊपर यकीन हो जायेगा। जबसे मैंने आप की कला देखी हैं तब से आप का मुरीद हो गया हूँ.‘‘ शहजादे अपना प्यार इज़हार करके चला गया था।

8-9-1987

उस दिन जब मैं स्टेज पर गया तो कलाकारों के साथ हुए दुव्र्यवहार को लेकर बेहद चिन्तित था। मैंने पंडाल में बैठी पब्लिक से गुफ़्तूगु की, ‘‘सबसे पहले तो मैं आप लोगों का शुक्रिया अदा करती हूँ कि आज अगर हम लोग इस मंच पर हैं तो वे आप लोगों की बदौलत, क्योंकि कलाकार आप की तालियों और मोहब्बत का भूखा होता हैं। इसलिये हम कलाकारों को ऐसा कुछ अपशब्द न कहे जिससे उसके दिल को ठेस पहुँचे.‘‘

मेरी बातों का उन सब पर गहरा असर हुआ। उन लोगों ने दूबारा फिर ऐसी गुस्ताखी नहीं की।

पब्लिक फरमाइश अनुसार मैंने गाना गाया-

जब उठाये ला घूँघटा बजरियाँ में

ऐ शहजादे

ओ लगे धाँय-धाँय गोली कमरयाँ में

बीच बजरियाँ हलवइयाँ पुकारे दूध जलेबी हम के खिलावे

ओ मोरा जौबना टटोल कोठरियां में

बीच बजरियाँ मनिहरवा पुकारे चूड़ी-कंगना हमका पहनावे

ओ मोरी पतली कलइयाँ मरोड़े कोठरियां में

लगे धाय-धाय गोली कमरइयाँ में।

इतना सुनते ही पूरा पंडाल झूम उठा था। पूरी रात कार्यक्रम चलता रहा।

9-11-1987

उस दिन मैं सुबह नाश्ता करके बैठा ही था कि शहजादे आया और मुझे अकेला पाकर अपनी बाहों में जकड़ लिया और तब तक जकड़े रहा जब तक छोटी और मोहनी वहाँ आ नहीं गयी।

छोटी छुटते ही बोल पड़ी, ‘‘अरी दुल्हा भाई के चुम्मा-वुम्मा लिया.‘‘

”चुम्मा क्या, यह तो चुम्बक हो गया.”

‘‘क्या दुल्हा भाई, इतने शैतान हैं कि दिन-दहाड़े ही मेरी बहन का कत्ल करने आये थे.‘‘ छोटी दाँत चियार कर बोली।

‘‘मैं क्या तुम्हारी बहन का कत्ल करूँगा उसने खुद अपनी नज़रों से मेरा कत्ल कर दिया हैं। इसलिये अपनी बहन को समझा दो कि चुपचाप मुझसे शादी कर ले.‘‘ शाहजादे ने बात ही बात में अपनी दिल की बात कह दी थी।

‘‘क्या इतने डांसरों में मैं ही आप को मिली थी, जो आया मन में बोल दिया। अरे कुछ तो सोचा करो.‘‘

‘‘आखि़र मेरे में बुराई क्या हैं?‘‘

‘‘बुराई आप में नहीं बुराई मुझ में हैं। मैं 78 जगहें प्रोग्राम करने जाती हूँ। सोचो अगर मैंने हर जगह मोहब्बत कर ली तो मेरा क्या हाल होगा?‘‘

‘‘आप कुछ भी कहे या कितनी ही दूरी मुझसे बना ले मगर मैं फिर भी आप के करीब रहूँगा.‘‘

29-12-1987

मैं भी मन ही मन शहजादे को चाहने लगा था। मगर मैंने उससे अपनी मोहब्बत कभी ज़ाहिर नहीं होने दी। किसी ने सच ही कहा हैं, मोहब्बत अपनी खुशबू फैलाकर रहती हैं।

मुझे आज भी वह रात याद हैं। वह मेरे प्रोग्राम की आख़री रात थी।

शहजादे सामने बैठे थे मगर उनका चेहरा उतरा था।

मैंने अपनी पंसदीदा ग़ज़ल गाया-

आज की रात ज़रा प्यार से बातें कर ले

कल तेरा षहर मुझे छोड़ के जाना होगा

इतना सुनते ही शहजादे की आँखें छलक आई थी। उसके आँसुओं को देखकर मैं भी अपने आप को रोक नहीं पाया और डबडबाई आँखों से मैं ग़ज़ल गाता रहा-

आज की रात.........................

यह तेरा शहर तेरा गाँव मुबारक हो तुझे

और ज़ुल्फों की हँसी छाँव मुबारक हो तुझे

मेरी किस्मत में तेरे जलवों की बरसात नहीं

तू अगर मुझसे ख़फ़ा है तो कोई बात नहीं

एक दिन तुझको भी मेरे लिए रोना होगा

रात की नींद भी और चैन भी खोना होगा

याद में मेरी तुझे अष्क बहाना होगा

कल तेरा शहर.......................

अभी ग़ज़ल मुकम्मल भी नहीं हुई थी मैं फफक पड़ा और स्टेज के पीछे आकर फूट-फूट कर रोने लगा। तभी पीछे से किसी के आने की आहट आयी। मैंने पलट कर देखा तो इसराइल खड़ा था। उसे अचानक इस तरह देखकर मैं हक्का-बक्का रह गया। मुझे इसराइल का इस तरह आना जरा भी अच्छा नहीं लगा था। शायद उसने मेरे मन की बात पढ़ ली थी तभी तो उसने कह दिया था, ‘‘लगता हैं तुम्हें हमारा इस तरह आना अच्छा नहीं लगा.‘‘

मैं इससे पहले उसे सफाई देता कि शहजादे ने आकर पूछा यह कौन हैं? मैं ऐसे चक्रव्यूह में फँस गया था कि मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैंने घबराहट में इसराइल को अपना भाई बता दिया। मेरे इतना कहते ही इसराइल के तन-बदन में जैसे आग लग गई। वह कुछ कहता कि मैंने टप से उसे आँख मार कर खामोश कर दिया।

फिर मैं स्टेज पर आकर गाने लगा।

प्रोग्राम खत्म करने के बाद, मैं इसराइल के साथ कमरे में आ गया। उसने छुटते ही पूछा, ‘‘अब तुम्हारा यह कौन-सा नया ड्रामा हैं। जो तुम मुझे भाई बनाने पर मजबूर हो गई?‘‘

मैंने उसे सफाई दी, ‘‘तुम तो जानते ही हो मैं जहाँ प्रोग्राम करने जाती हूँ वहाँ कोई न कोई मेरा आशिक हो जाता हैं और उन्हीं में से एक यह भी हैं.‘‘

‘‘कुछ भी हो मुझे यह सब पंसद नहीं.‘‘

3-7-1988

मैं जैसे ही गाकर स्टेज के पीछे आया वैसे ही एक आदमी आया और फरमाइश करने लगा। मैंने नीचे से ऊपर तक देखा, उसकी कद-काठी रावण जैसी थी। यहाँ तक उसकी मूँछें भी वैसी थी। मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे साक्षात रावण मेरे सामने आकर खड़ा हो गया हो। मैं उसे देखकर डर गया था। मगर मैंने किसी तरह अपने आप को संभाला और झट से पूछ लिया, ‘‘क्या नाम हैं तुम्हारा?‘‘

‘‘बलराम न्निपाठी.‘‘

‘‘क्या सुनना पसंद करेंगे?‘‘

‘‘कुछ भी गाईये मुझे आप का सब कुछ पंसद हैं.‘‘

‘‘यह सब कुछ पसंद का क्या मतलब हैं?‘‘

‘‘मेरे कहने का तात्पर्य यह हैं कि भगवान ने आप को शक्ल-सूरत के साथ-साथ कलाकारी भी दी हैं। क्यों न मैं एक पार्टी ही चला हूँ.‘‘

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात हैं.‘‘

मैं अपना एड्रेस नोट कराके स्टेज पर आकर गाने लगा। जैसे ही गाना ख़त्म हुआ पब्लिक फरमाइश पर फरमाइश करने लगी। क्या जवान, क्या बूढ़े। तभी सामने बैठे बूढ़े से मैंने मसखरी की, ‘‘हे बूढ़े बाबा! हिन्ने आवा तोहके अलीगढ़ बिसकुट खवाई, तोहरे के दाँत नयी खेबा, तो बंद डबलरोटी खावा, हिन्ने आवा बाबा, हे बाबा.....।‘‘

में जैसे ही गाकर स्टेज के पीछे आया। वैसे शहजादे आया और मेरी तारीफ़ में कसीदे पढ़ने लगा, ‘‘माशाल्लाह! जो बात आप में हैं वह किसी में भी नहीं हैं। अगर आपका प्रोग्राम दस दिन और बढ़ जाए तो पब्लिक देखना नहीं छोडेंगी, खैर! यह तो रामलीले का मामला हैं नहीं तो आप का प्रोग्राम टिकट लगा के कराता.‘‘

‘‘अगर मेरा बस चले तो मैं साल के साल प्रोग्राम करती रहूँ। फिलहाल अब यहाँ से देखों प्रोग्राम की तैयारी कहाँ की बनती हैं.‘‘

इसराइल ने कब पीछे से आकर हमारी बातें सुन ली थी मुझे पता ही नहीं चला। मैंने तिरछी निगाहों से इसराइल को देखा तो उसके चेहरे का तेवर कुछ और था।

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