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महामाया - 27

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – सत्ताईस

अनुराधा के आश्रम लौट आने से अखिल सबसे ज्यादा खुश था। अनुराधा ने ही उसे बताया था कि बाबाजी ने उसकी नौकरी छुड़वा दी है और यहीं उसके लिये एक नर्सिंग होम बनवाने वाले हैं। बाबाजी के इस प्रस्ताव से अनुराधा उत्साहित थी।

अखिल और अनुराधा बात करते-करते ऊपर मंदिर जा में पहुंचे। वहाँ मड़ला महाराज पूरी मस्ती में डूबे गा रहे थे।

ना जाने तेरा साहब कैसा है।

मसजिद भीतर मुल्ला पुकारै, क्या साहब तेरा बहिरा है?

चिउंटी के पग नेवर बाजे, सो भी साहब सुनता है।

पंडित होय के आसन मारै, लंबी माला जपता है।।

अंतर तेरे कपट-कतरनी, सो भी साहब लखता है।

ऊँचा-नीचा महल बनाया, न गहरी नेंव जमाता है।।

हीरा पाय परख नहीं नहिं जाने, कौड़ी परखन करता है।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, हरि जैसे को तैसा है।।

भजन खत्म कर मड़ला महाराज ने आँखे खोली। अपने सामने अखिल और अनुराधा को बैठे देख वो सकुचा गये।

‘‘अरे......आप लोग कब आये?’’

अनुराधा ने जवाब देने के बजाय मड़ला महाराज की तारीफ करते हुए कहा- ‘‘महाराज आप बहुत अच्छा गाते हैं। आपकी आवाज में बड़ी मिठास है।’’

‘‘सब गुरू का आशीर्वाद है माई’’ मड़ला महाराज ने विनम्रता से जवाब दिया।

‘‘आपके गुरू महाराज कौन है? अखिल ने जिज्ञासा प्रकट की।

‘‘थे.....स्वामी शिवतीर्थ। पाँच बरस पहले ब्रह्मलीन हो गये। हमारे गुरू जैसा साधु मिलना जरा मुश्किल है।’’ मड़ला महाराज ने अपने दोनों कानों को छुआ फिर कहने लगे। ‘‘पूरा जीवन एक लंगोट में गुजार दिया। पहले नर्मदा किनारे एक पेड़ के नीचे ही रहते थे। बाद में लोगों ने एक कुटिया छाब दी थी सो उसमें रहने लगे थे। हमारे गुरू महाराज से कोई। किसी की निंदा करता, प्रशंसा करता तो जवाब में एक ही बात कहते थे ‘खरा है....खरा है। जीवन भर कभी कुछ भी संग्रह नहीं किया। जो भेंट मिलती सब गाँव वालों में बांट देते थे। वस्त्र, खाने-पीने की वस्तु, पैसा। बस एक ही मौज थी। बच्चों को पढ़ाना। रोज नियम से आसपास के गाँव में निकल जाते। दिनभर बच्चों को पढ़ाते।’’

मड़ला महाराज बोलते-बोलते कहीं खो गये। कुछ देर मौन छाया रहा। फिर से मड़ला महाराज ने बोलना शुरू किया ‘‘शुरू-शुरू में तो लोग उनका मजाक उड़ाते थे। कैसा साधु है! पूजा न पाठ। जात-पांत भी नहीं पालता। अछूतों के घर भी खा लेता है। मंदिर में भी नहीं जाता। बस बच्चों को पढ़ाता है। आखिर ये कौन है? कुछे तो यह कहकर भी लोगों को भड़काते थे कि ये साधु के भेष में पाकिस्तानी ऐजेन्ट है। पर गुरू महाराज किसी की बात का कोई जवाब नहीं देते। बस एक ही बात कहते थे। खरा है....सब खरा है। कोई ज्यादा पीछे पड़ जाता तो एक पद गाकर सुना देते -

‘‘पूजा करूं न नमाज गुजारूं, एक निराकार हिरदै नमस्कारूं।

ना हज जाऊं न तीरथ पूजा, एक पिछाण्यां तो क्या दूजा।।

गुरू महाराज ना तो किसी को चेला बनाते ना ही प्रवचन करते। कभी-कभी मौज में होते तो इतना ही कहते थे ‘‘नर में नारायण देखो, नारायण की सेवा करो...नारायण से ही प्रेम करो। पूजा भी नहीं, नमाज भी नहीं, हज भी नहीं, तीर्थ भी नहीं। खरा है तो छोटे-बड़े, जांत-पांत का भेद मत करो। बस सबसे प्रेम करो। प्रेम की दृष्टि ही ईश्वर की सृष्टि है।’’ बोलते-बोलते मड़ला महाराज फिर चुप हो गये। अनुराधा ने चुप्पी तोड़ी।

‘‘फिर, महाराज आप यहाँ कैसे आ गये।’’

‘‘बाबाजी ले आये। हमारी भी हिमालय में रहने की बड़ी ईच्छा थी। बस तब से यहीं हैं। बाबाजी ने कहा कि मंदिर में पूजा करो सो पूजा करते है। पर सही बात तो यही है कि यहाँ हमारा मन नहीं लगता। हमें तो बच्चों को पढ़ाने में ही आनंद आता है। सो पूजा-पाठ के बाद बच्चों को पढ़ाने पास के गाँव में चले जाते हैं।

‘‘महाराज जी, आप जब भी गाँव जाएँ मुझे भी अपने साथ ले चलियेगा। आप बच्चों को पढ़ाना। मैं गाँव के बीमारों को देख लिया करूंगी’’ अनुराधा ने हाथ में रखी शाॅल को ओढ़ते हुए कहा।

‘‘वाह माई! यह तो बहुत अच्छा रहेगा। हम आपको जरूर अपने साथ ले चलेंगे’’ मड़ला महाराज ने प्रसन्न होते हुए कहा।

अंधेरा गहराने के साथ ही ठंड अपना असर दिखाने लगी थी। अखिल ने बदन में हल्की सी कंपकपाहट महसूस की।

अखिल को ठंड से कंपकपाते देख अनुराधा ने चिंता व्यक्त की ‘‘अरे आपने कुछ भी गरम नहीं पहिना।’’

‘‘मुझे आयडिया नहीं था कि हम खाने के बाद ऊपर मंदिर में चलेंगे’’ अखिल ने ठंड से बचने के लिये अपने शरीर को सिकोड़ते हुए कहा।

‘‘चलिये उठिये....वरना ठंड लग जायेगी....अच्छा महाराज अब चलते हैं.....नमो नारायण’’ अनुराधा कहते हुए उठ खड़ी हुई।

‘‘नमो नारायण......’’ महाराज हाथ जोड़कर खड़े हो गये।

मड़ला महाराज से विदा लेकर अखिल और अनुराधा नीचे की ओर चल दिये। रास्ते में दोनों मड़ला महाराज के बारे में बातें करते जा रहे थे। सीढ़ियों पर ही दिव्यानंद जी मिल गये वो किसी काम से ऊपर मंदिर में जा रहे थे। दिव्यानंद जी से पता चला कि बाबाजी अनुराधा को याद कर रहे हैं। अखिल भी अनुराधा के साथ बाबाजी के कमरे में चला गया। बाबाजी के पास काशा पहिले से ही बैठी थी।

बाबाजी ने अनुराधा से उसके ध्यान के बारे में चर्चा की। फिर अखिल से भी बात की। कुछ देर चर्चा के बाद दोनों लौट आये। काशा वहीं बाबाजी के पास बैठी रही।

कमरे में पहुंचकर अखिल पैरों पर कंबल डालकर पलंग पर तकिये का सहारा लेकर बैठ गया। अनुराधा अखिल के सामने कुर्सी पर बैठी थी।

‘‘काशा का कैसा चल रहा है?’’

‘‘उसे तो उठते-बैठते सब तरफ महाअवतार बाबा ही दिखाई देते हैं।’’

‘‘क्रेजी है काशा!’’

‘‘अरे दीवानी है। एक झलक मिल जाय महाअवतार बाबा की तो अपना सब कुछ लुटा दे।’’

‘‘सच अनुराधा, किसी के पीछे पागलपन की हद तक चले जाओ तभी उसे पाया जा सकता है।’’

‘‘तुम सही कह रहे हो अखिल’’ कहते-कहते अनुराधा चुप हो गई।

अखिल भी विचारों में डूबा-डूबा ही पलंग पर पड़े कागजों को समेटने लगा। कागजों में से दो-तीन पन्ने उठाकर उसने अनुराधा की ओर बढ़ाये -

‘‘देखो मैंने बाबाजी पर एक लेख लिखा है’’

अनुराधा पन्ने हाथ में लेकर पढ़ने लगी। अखिल कागजों को छांट-छांटकर अलग करने लगा। अनुराधा ने लेख पढ़कर अखिल को वापस लौटाते हुए कहा -

‘‘सुंदर है। समाधि में बाबाजी के अनुभवों के बारे में जो लिखा है वो बाबाजी ने तुम्हारे साथ शेयर किया था क्या?’’

‘‘नहीं.....अब इतने दिनों यहाँ रहने के बाद इतना तो मन से लिखा जा सकता है।’’ अखिल ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

‘‘तुमने बाबाजी को यह लेख दिखाया था?’’

‘‘दिखाया था। पढ़कर बोले तुम्हारी वेवलेन्थ मुझसे बहुत मिलती है। तुमने मेरे बिना कुछ बताये मेरे समाधि के अनुभवों को जान लिया। यही टेलीरिस्पान्स पाॅवर है। हिमालय में हजारों किलोमीटर दूर बैठे साधु ध्यान की अवस्था में इसी शक्ति से एक-दूसरे के साथ संवाद करते हैं। फिर उन्होंने राधामाई को भी लेख पढ़वाया। राधामाई तो पढ़कर एकदम लट्टू हो गई। कहने लगी हमारे बारे में भी एक ऐसा ही लेख लिखो। आज मैं राधामाई के बारे में ही लिख रहा था।

‘‘आजकल तुम्हारी राधामाई से बहुत घुट रही है’’ कहते-कहते अनुराधा के चेहरे पर अजीब सा भाव आया।

‘‘अब तुम तो दिल्ली चली गई थी। राधा ही सपोर्ट कर रही हैं मुझे। राधा अच्छी लड़की है।’’ अंतिम बात कहते-कहते अखिल की आँखों में चमक दिखायी दी।

‘‘अनुराधा ने एक लंबी साँस छोड़ी ‘हाँ अच्छी लड़की है’। मैं चलूं। तुम राधा पर अपना आर्टिकल पूरा करो।’’ कहते-कहते अनुराधा उठ खड़ी हुई।

‘‘अरे तुम तो एकदम से चल दी’’ अखिल ने हाथ के कागजों को पलंग पर रखते हुए कहा।

‘‘हाँ सुबह ध्यान के लिये चार बजे उठना है ‘गुडनाईट’।’’

‘‘गुडनाईट’’

अनुराधा बाहर चली गई। अखिल भी कागजों को एक ओर खिसकाकर दोनों हथेलियों को तकिये की तरह सिर के नीचे रखकर थोड़ी देर लेटा रहा फिर उठकर डायरी लिखने लगा -

डायरी:

‘‘मड़ला महाराज से मिलकर अच्छा लगा। मड़ला महाराज के गुरू स्वामी शिवतीर्थ और दूसरे साधुओं के बीच जमीन आसमान का अंतर है। दूसरे साधुओं, महामण्डलेश्वरों, शंकराचार्यो का जीवन विलासितापूर्ण हैं। व्यवहार में अहंकार है। इसके ठीक विपरित स्वामी शिवतीर्थ का जीवन है। समझ में नहीं आता इन दोनों में से साधु किसे कहेंगे?

बाबाजी से जब इस संबंध में पूछा था तो उन्होंने स्पष्ट रेखांकित करने के बजाय एक गोलमोल जवाब दिया था। स्वामी शिवतीर्थ ने एक कोपिन में ही जीवन निकाल दिया। तो ओशो ने दुनिया की महंगी से महंगी गाड़ियों का काफिला खड़ा किया। अपनी टोपी में हीरे जड़वाये। कोई भी व्यक्ति अपने रास्ते और जीने का ढंग अपने प्रारब्ध के अनुसार ही चुनता है। इसमें गलत कुछ भी नहीं है।

बाबाजी की इस बात का गंभीरता से विश्लेषण करें तो दुनिया में जितनी भी विसंगतियाँ हैं उनके लिये व्यक्ति, समाज दोषी नहीं है। बल्कि व्यक्ति का प्रारब्ध ही दोषी है। यदि यही सही है तो फिर दुनियाभर के विचारकों ने जो मत रखे हैं उनका क्या? क्या वो सब गलत हैं? उनका कोई मूल्य नहीं है? फिर सामाजिक स्थितियों को लेकर किये गये सभी शोधों, अध्ययनों का क्या औचित्य रह जाता है? क्या उन सभी शोध और अध्ययनों को खारिज कर दिया जाना चाहिए?

कितने ही ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब में बाबाजी एक ही बात कहते हैं तर्क से सत्य को नहीं जाना जा सकता बेटे। तुम्हे ध्यान के अनुभव से गुजरना होगा तभी तुम सत्य से साक्षात्कार कर सकोगे। समाधि की अवस्था में ही तुम्हें इन सारे सवालों के जवाब मिलेंगे। शायद बाबाजी सही कहते हैं। समाधि शून्यावस्था है और शून्यावस्था में पहुंचकर सारे सवाल भी शून्य में बदल जायेंगे। शून्य का उत्तर भी शून्य ही होगा। पर समाधि से बाहर आने के बाद फिर सारे सवाल जस के तस होंगे.... तब?

यहाँ विसंगति यह भी है कि बाबाजी समाधि को शून्यावस्था कहते हैं पर मानते नहीं है। मैंने बाबाजी की किताब में पढ़ा था कि समाधि में बैठते ही उनका सूक्ष्म हिमालय में निकल गया था। हिमालय में उनकी अनेक संतों से मुलाकात हुई। उन्होंने सूक्ष्म रूप में ही हिमालय के अनेक रहस्यों को जाना। उन्होंने यह भी लिखा है कि वो कैसे और किसके आदेश से हिमालय छोड़कर वापस संसार में आये।

जब वे हिमालय में अपने सूक्ष्म रूप में विचरण करे रहे थे तब योगी सर्वेश्वरानंद जी उन्हें आकाशमार्ग से लेकर पिंडारी पहुंचे थे। उन्होंने ऊपर से ही अपने स्थूल को देखा। उनका शरीर बर्फ की शिलाओं के बीच पड़ा था। लंबी जटाओं, और दाढ़ी वाला एक तांत्रिक उनके शरीर के पास बैठा कुछ क्रियाएँ कर रहा था। सर्वेश्वरानंद जी ने जब उस तांत्रिक को बाबाजी का शरीर छोड़ने को कहा तो उसने सर्वेश्वरानंद जी पर ही तांत्रिक प्रयोग शुरू कर दिये। लेकिन सर्वेश्वरानंद जी ने अपने योग बल से उसके सारे प्रयोग निष्फल कर दिये। अंत में तांत्रिक ने अपनी हार मानते हुए बाबाजी का शरीर छोड़ आकाश मार्ग से कहीं चला गया।

इस तरह सर्वेश्वरानंद जी के आदेश से ही बाबाजी ने पुनः अपने शरीर में प्रवेश किया और धर्म-अध्यात्म को लेकर जन जागरण के लिये संसार में लौट आये। ऐसे ही कुछ मिलते-जुलते अनुभव तीनों माताओं के भी थे। सूर्यानंद जी के अनुभवों का अभी मुझे पता नहीं है।

सूर्यानंद जी जबसे नौगाँव से लौटे हैं उनका व्यवहार सामान्य नहीं रह गया है। मैंने उनकी बातों से महसूस किया है कि बाबाजी के प्रति उनके अंदर गुस्सा है। वे आजकल बाबाजी के बारे में बात करते समय व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं। मैंने भी जब उनसे समाधि के अनुभवों के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा था कि तुम खुद समाधि लगाकर क्यों नहीं देखते। तुम लेखक हो। तुम्हारी कल्पना शक्ति अच्छी है। तुम्हे दिव्य अनुभव होंगे। मुझे सूर्यानंद महाराज की यह बात अजीब लगी थी। इसलिये मैं बिना कोई जवाब दिये चुपचाप लौट आया था।

सूर्यानंद जी के व्यवहार को लेकर मैंने बाबाजी से बात की थी। उन्होंने जवाब में कहा था समाधि को पचा पाना आसान नहीं है बेटे। समाधि के बाद किसी-किसी को ऐसा होता है। लेकिन सूर्यानंद जल्दी ही ठीक हो जायेगा। तुम चिन्ता मत करो।

मैंने पढ़ा था कि समाधि टूटने के बाद योगी का चित्त फिर से वासना का शिकार हो जाता है। यह तो वही बात हुई कि जहाँ से चले थे घूमकर वहीं पहुंच गये। ऐसी निरर्थक यात्रा का क्या औचित्य है?

क्रमश..

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