आधी दुनिया का पूरा सच
(उपन्यास)
16.
चालीस दिन तक मध्य प्रदेश में रहकर रानी के माता-पिता को खोज पाने में असफल पुजारी जी रानी को साथ लेकर वापस दिल्ली लौटने के लिए शाम चार बजे पंजाब मेल में बैठ गये । उस समय रानी का हृदय निराशा के घोर अंधकार में डूबा था तथा आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। उसको कहीं से आशा की कोई किरण नहीं दिखाई पड़ रही थी। रेल चल चुकी थी। ज्यों-ज्यों रेल गति पकड़ रही थी, मध्यप्रदेश का सब कुछ पीछे छूट रहा था। रुंधे गले से रानी ने खिड़की से बाहर झाँकते हुए कहा -
"काका, अब मुझे मेरे मम्मी-पापा कभी नहीं मिलेंगे ?"
"तुम्हें तुम्हारे माता-पिता जरूर मिलेंगे बिटिया ! हो सकता है, वे किसी से कोई सूचना पाकर तुम्हें खोजने के लिए दिल्ली चले गए हों ! हम लोग दिल्ली में रहकर उन्हें खोजते रहेंगे !" पुजारी जी ने आश्वासन दिया, तो उनके शब्दों से रानी के हृदय में आशा की एक क्षीण-सी रेखा चमक उठी -
"हाँ काका ! अखबार में मेरा फोटो देखकर किसी ने मम्मी-पापा को जरूर बता दिया होगा और मम्मी-पापा सुनते ही मुझे लेने के लिए दिल्ली चले गए होंगे !"
अपनी बेटी को खोजते हुए मम्मी-पापा उसे दिल्ली में मिल सकते हैं, यह सोचकर रानी को पुजारी जी के साथ दिल्ली वापस लौटना ही अपेक्षाकृत सार्थक प्रतीत होने लगा था । या कहें कि उस समय उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य दिल्ली में रहकर अपने माता-पिता की खोज करना रह गया था। यूँ तो इस उद्देश्य को प्राप्त करना सरल नहीं था, किन्तु एकमात्र विश्वसनीय पुजारी जी का संबल पाकर उसे यह कार्य कठिन नहीं लग रहा था। पुजारी जी पर सन्देह या अविश्वास करने का कोई कारण भी उसके पास नहीं था । यही सब सोचते-सोचते कब दिल्ली पहुँच गये, रानी को पता ही नहीं चला।
दिल्ली पहुँचने पर पुजारी जी ने रानी को उठ खड़े होने के लिए कहा, तो वह चौंककर आश्चर्यचकित खोजी दृष्टि से इधर-उधर देखने लगी । जब सब ओर से खाली-निराश लौट आयी दृष्टि ने उसको यथार्थ से अवगत कराया, तब पुजारी जी से आशामयी स्वर में बोली-
"काका, अभी-अभी मैंने एक सपना देखा था ! मुझे लगा कि मुझे मेरे मम्मी-पापा मिल गये हैं ! ढेर-सारा प्यार किया उन्होंने मुझे !"
"बिटिया, तुम्हारे माता-पिता मिल जाएँगे ! बस ऊपर वाले पर से अपना विश्वास मत उठने देना ! हम दिल्ली पहुँच चुके हैं ! चलो, अब मंदिर में चलते हैं।" रानी उठकर पुजारी जी के पीछे-पीछे चल दी।
प्रात: लगभग साढ़े चार बजे रानी को अपने साथ लेकर पुजारी जी मंदिर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर सबसे पहले मंदिर में रखी मूर्तियों को स्नान कराया तथा मंदिर और मंदिर परिसर की सफाई की। तत्पश्चात स्वयं स्नान करके प्रभु को भोग लगाया और रानी के भोजन की व्यवस्था की । भोजन करने के उपरान्त रानी ने पुजारी जी से कहा-
"काका, आप भी जल्दी खाना खा लीजिए ! खाना खाकर मेरे मम्मी-पापा को खोजने के लिए चलेंगे !" रानी के आग्रह पर पुजारी जी ने उसी समय प्रसाद ग्रहण किया और कहा-
"बिटिया, दिल्ली बहुत बड़ी है ! हम तुम्हारे माता-पिता को ऐसे घूम-घूमकर कभी नहीं खोज पाएँगे ! उन्हें खोजने के लिए हमें किसी समाचार-पत्र से सहायता लेनी पड़ेगी ! मैं अपने किसी परिचित से बात करके देखता हूँ, जो हमारी सूचना को समाचार पत्रों में छपवा सके !"
पुजारी जी का प्रस्ताव सुनते ही रानी के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच आयी। उसने घबराकर अति शीघ्रतापूर्वक कहा-
"नहीं काका ! अखबार में कुछ मत छपवाना ! हम ऐसे ही ढूँढ लेंगे !"
पुजारी जी रानी के प्रतिरोध का कोई कारण नहीं समझ सके, किन्तु उसकी घबराहट को देखकर उन्होंने तुरन्त सकारात्मक प्रतिक्रिया दी -
"तू नहीं चाहती, तो नहीं छपावाएँगे बिटिया ! जैसे तू चाहेगी, वैसे ही करेंगे !"
पुजारी जी से आश्वासन पाकर कुछ ही क्षणों बाद जब रानी प्रकृतिस्थ हो गयी, तब अत्यंत विनम्र और स्नेहयुक्त ढंग से पुजारी जी ने रानी से पूछा -
"बिटिया, समाचार पत्र में सूचना छपावाने का नाम लेते ही तू इतनी क्यों घबराने लगती है !"
अपनी घबराहट के पीछे का कारण विस्तार से बताते हुए रानी ने कहा -
"काका, माई को या नारी निकेतन वालों को पता चल गया कि मैं आपके साथ मन्दिर में रह रही हूँ, तो वे मुझे यहाँ से ले जाएँगे ! काका, वे सबके सब राक्षस हैं !"
पुजारी जी के यह समझाने पर कि वे ऐसा कुछ नहीं कर सकेंगे, रानी ने विश्वास के साथ कहा -
"काका वे पुलिस के साथ मुझे लेने के लिए आएँगे और तब आप कुछ नहीं कर सकेंगे !"
पुजारी जी ने समाचार-पत्र में उससे संबंधित कोई भी सूचना न छपवाने का रानी का आग्रह स्वीकार कर लिया और उसे आश्वस्त किया कि उसके माता-पिता को खोजने के लिए वे पुलिस और मीडिया की सहायता नहीं लेंगे।
मन्दिर की साफ-सफाई और प्रभु को भोग लगाने के बाद पुजारी जी प्रतिदिन रानी के आग्रह पर उसको साथ लेकर उसके माता-पिता की खोज में प्रातः निकलते और देर रात मंदिर में लौटते। दो महीने तक यही उपक्रम चलता रहा। इन महीनों में उन्होंने हर एक रेलवे-स्टेशन, हर एक बस-अड्डा और अनेक भीड़-भाड़ वाले स्थानों को कई-कई बार छान डाला, लेकिन उसके माता-पिता की कहीं से किसी प्रकार की कोई सूचना नहीं मिली।
एक दिन निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर रानी ने देखा, एक अधेड़ स्त्री अपने कंधे पर एक थैला लटकाए तेज कदमों से चली जा रही थी। रानी उसके पीछे "माँ ! माँ ! माँ !" चिल्लाते हुए उसके पीछे दौड़ी। पुजारी जी भी उसी दिशा में दौड़े। उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि संभवतः रानी ने अपनी माँ को देखा है ! थोड़ा-सा अधिक तेज दौड़कर रानी शीघ्र ही उस स्त्री के निकट तक पहुँच चुकी थी। उसने बहुत आशा के साथ पीछे से महिला की साड़ी को खींचकर हाँफते हुए पुकारा -
"माँ !"
स्त्री ने एक बार पीछे मुड़कर देखा, तो रानी ने मायूस होकर उसकी साड़ी के पल्लू पर से अपनी मुट्ठी की पकड़ ढीली कर दी और क्षमा याचना के भाव से बोली-
"मुझे लगा, मेरी माँ हैं !"
रानी की प्रतिक्रिया से संतुष्ट होकर वह स्त्री पुनः आगे बढ़ गयी, लेकिन रानी उस दिन बहुत अधिक निराश हुई। जब वह वापस लौटी, तब मन्दिर के प्रांगण में प्रवेश करते ही उसके आँसू छलककर बाहर आने लगे थे और दौड़ते हुए कोठरी में घुसकर वह फफक-फफक खूब.कर रोयी । पुजारी जी ने भोजन तैयार करके रानी को परोसा, तो रानी ने खाने से इनकार कर दिया । उसने कहा कि सुबह उठकर खाएगी।
अगली सुबह पुजारी जी ने पूरे मन्दिर में सफाई कर ली, स्नान-ध्यान कर लिया और प्रभु को भोग लगाने के लिए प्रसाद भी तैयार कर लिया, लेकिन तब तक भी रानी बिस्तर से नहीं उठी । जबकि इससे पहले वह सुबह सवेरे प्राय: जल्दी बिस्तर छोड़ देती थी। पुजारी जी ने उसको उठकर दैनिक कार्यों से निवृत्त होने के लिए कहा और बाहर चले गये । कुछ समय पश्चात् पुजारी जी वापस लौटे, तब भी रानी उसी प्रकार लेटी हुई थी। पुजारी जी ने चिंतित होकर उसके नहीं उठने का कारण पूछा-
"बिटिया, तेरी तबीयत तो ठीक है।"
रानी चुप रही। पुजारी जी ने उसके बिस्तर से उठने का संबंध पिछले दिन की घटना से जोड़कर सोचा -
"कल उस स्त्री में अपनी माँ का अक्स देखकर इस बच्ची के हृदय में बहुत आशा जगी थी, पर आशा की बागडोर जब एक झटके में टूट गयी, तब इस बच्ची का दिल भी टूट गया है! अभी तक उस दृश्य को भूल नहीं सकी है !"
अतः पुजारी जी ने रानी को समझाते हुए कहा -
"बिटिया, वास्तव में तो वह तुम्हारी माँ थी ही नहीं ! तुम्हारी माँ होती, तो पीछे पलटकर अवश्य देखती ! वह केवल तुम्हारी आँखों का धोखा था ! जिस दिन माँ मिलेगी, अपनी ममता से तुम्हारे मन की सारी पीड़ा हर लेगी ! जब तक वह हमें मिल नहीं जाएँगे, तब तक हम बिना थके उन्हें ढूँढते रहेंगे !"
पुजारी जी के सांत्वनाप्रद वचन सुनकर रानी उन्हें आशामयी दृष्टि से निहारने लगी । उसकी आँखें पूछ रही थी -
"क्या सचमुच किसी दिन मैं अपनी माँ और पापा से मिल सकूँगी और उनका अमूल्य स्नेह पा सकूँगी ?"
रानी की भाव-दृष्टि पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पुजारी जी ने पुन: कहा-
"बिटिया, यह पूरी दुनिया आशा के सहारे ही तो जीवित है ! जब तक मन में आशा है, तब तक ही हम जीवित हैं ! जीवन में आशा ही न रहे, तो जीने का उत्साह समाप्त हो जाता है ! मनुष्य जीवित लाश बनकर रह जाता है !"
रानी ने सहमति में गर्दन हिला दी, किन्तु उसके मुख से कोई शब्द निसृरत नहीं हुआ। पुजारी जी कुछ क्षण वहाँ रहने के पश्चात् लौट गये। चूँकि पुजारी जी रानी को भोजन कराने के बाद ही भोजन करते थे, इसलिए रानी के उठने की प्रतीक्षा में वे मन्दिर में बैठकर भगवान जी की सेवा में भजन गाने लगे। कुछ देर गुजर जाने के बाद जठराग्नि प्रचंड होने पर पुजारी जी उठकर पुनः कोठरी में गये । रानी ने अभी तक भी बिस्तर नहीं छोड़ा था। पुजारी जी द्वारा बार-बार पूछने पर कि यदि स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तो वह डॉक्टर को बुलाकर ले आएँ ? रानी ने बहुत मासूमियत से कहा-
"काका, कल से पेट में कुछ अजीब-सा हो रहा है ! आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ !"
" बिटिया, बाहर का खाना कभी-कभी पेट में बहुत गड़बड़ कर देता है ! पर तू चिंता मत कर ! मैं तुझे त्रिफला का चूर्ण देता हूँ ! यह तेरे पाचन-तंत्र को ठीक करेगा !" यह कहकर पुजारी जी ने एक छोटी-सी डिबिया से एक चम्मच-भर त्रिफला चूर्ण और गिलास भर पानी रानी को देते हुए कहा -
"कुछ ही समय में यह अपना प्रभाव दिखा देगा !"
पुजारी जी का परामर्श मानते हुए रेणु ने पानी के साथ त्रिफला का सेवन कर लिया । एक घंटे पश्चात पुजारी जी के आग्रह पर अनमने भाव से बिस्तर से उठकर भोजन कर लिया। लेकिन, तब भी उसका न तन स्वस्थ था न मन प्रसन्न था । संध्या समय तक उसके चेहरे पर इसी प्रकार उदासी छायी रही। रात को भी वह भोजन किए बिना ही सो गयी थी ।
क्रमश..