आधी दुनिया का पूरा सच
(उपन्यास)
15.
कुछ समय बाद पुजारी जी कोठरी में वापिस आये और रानी से कहा -
"बिटिया, मुझे पूछना तो नहीं चाहिए, पर पूछे बिना मन नहीं मानता ! तू अकेली इतने सवेरे यहाँ इस हालत में ... ? तेरे माता पिता ... ? कोई कष्ट ना हो तो मुझे बता देना ? मैं सुरक्षित तुझे तेरे घर पहुँचा दूँगा ! बहुत बुरा समय आ गया है, बहन-बेटी का अकेली चलना किसी संकट से कम नहीं है !"
पुजारी जी के अंतिम शब्दों ने 'कोई कष्ट ना हो तो मुझे बता देना' रानी का मर्म स्पर्श किया, तो उसने अपनी अब तक की आप-बीती पुजारी को सुना दी। पुजारी जी ने रानी के सिर पर हाथ रखकर कहा -
"बिटिया, जो बीत गया, उसको भूल जा ! भूल जाना ही बेहतर है बिटिया ! अब तू एकदम सही जगह पर आ गयी है ! अब घबराने की आवश्यकता नहीं है ! यह भगवान का घर है । उसके दर पर जो आता है, ऊपर वाला उसकी सहायता अवश्य करता है ! मैं इसका निमित्त बनूँगा और तुझे तेरे माता-पिता के पास पहुँचाऊँगा !"
अगले दिन पुजारी जी ने प्रातः शीघ्र भोर में ही रानी को जगाकर कहा -
"बिटिया, जल्दी तैयार हो जाना ! आज दोपहर को रेल से तुझे लेकर तेरे घर चलेंगे ! घर का पता तो याद है ना ?"
"हाँ काका, याद है ! छतरपुर, मध्य प्रदेश में है ! पर काका, वहाँ रेल नहीं जाती है !"
"अरी, बिटिया ! रेल वहाँ तक नहीं जाती, तो कोई बात नहीं । जहाँ तक रेल जाती है, वहाँ तक रेल से जाएँगे, आगे बस से चले जाएँगे ! मैंने घर का पता पूछा है, तेरे शहर और प्रांत का नाम नहीं ! घर का पता भी याद है कि नहीं ?" पुजारी जी ने हँसकर कहा ।
रानी ने पुजारी जी को अपने घर का पता बता दिया और अपने पुराने सुखी बचपन में विचरने लगी । दोपहर के दो बजते ही पुजारी जी ने नए कपड़ों का पैकेट देते हुए रानी से कहा - "ले बिटिया, जल्दी तैयार हो जा !
"काका ! इसमें क्या है ?" रानी ने पैकेट लेते हुए कहा ।
"तेरे लिए कपड़े हैं ! काका के होते हुए पुराने कपड़े पहनकर नहीं जाएगी मेरी बिटिया रानी ! याद है ना, हम लोगों को तीन बजे तक रेलवे स्टेशन पहुँचना है !"
"पर काका, हमारे छतरपुर में रेल नहीं जाती है ! मैंने आपको सुबह भी बताया था !"
"बिटिया, हम भोपाल तक रेल से जाएँगे ! भोपाल से बस में बैठकर छतरपुर जाएँगे ! ठीक है ?"
रानी ने स्वीकृति में गर्दन हिला दी और प्रफुल्लित होकर पैकेट खोला । कपड़े देखकर उसका चेहरा खिल उठा । बोली -
"काका, कपडे बहुत अच्छे है ! मेरे जन्मदिन पर माँ बिल्कुल ऐसी ही परियों वाली ड्रेस लायी थी ! स्कूल में छोड़ते हुए माँ ने मुझे वह ढ्रेस शाम को पहनने के लिए कहा था, फिर ... !" यह कहते हुए रानी फफक-फफककर रोने लगी ।
"बिटिया, अब जब तू माँ के पास पहुँच जाएगी, तो माँ की लायी हुई ड्रेस को खूब मन से पहनना ! अभी जल्दी कर ! विलम्ब हुआ, तो ट्रेन छूट जाएगी !"
"जी काका !"
पुजारी जी का आदेश पालन करते हुए रानी.कपड़े बदलने के लिए बरामदे से कोठरी में चली गयी । अपने घर जाने और मम्मी-पापा से शीघ्रातिशीघ्र मिलने की चाहत में रानी कुछ ही मिनटों में कपड़े बदलकर कोठरी से बाहर आकर बोली -
"काका चलो ! मैं तैयार हूँ !"
"अरे, बड़ी जल्दी आ गयी बिटिया ! मेरी इसको कोठरी के भाग्य में बस एक ही दिन को लक्ष्मी के पैर पड़ने थे ! आज फिर सूनी हो जाएगी !" पुजारी जी ने अपनी आँखें पोंछते हुए कहा और उठकर चल दिये । पुजारी की गीली आँखें देखकर रानी ने अपने मन में सोचा -
"मेरे पापा भी ऐसे ही तड़पते होंगे, मुझे याद करके !"
शाम चार बजे पुजारी जी के साथ रानी ने एमजीआर चेन्नई सेंट्रल गरीब रथ एक्सप्रेस से भोपाल के लिए प्रस्थान किया । यद्यपि रेल पर्याप्त तेज गति से चल रही थी, किन्तु, मम्मी-पापा के पास जाने के लिए उतावली रानी को ऐसा लग रहा था कि रेल बहुत धीमी गति से चल रही है ! वह बार-बार पुजारी जी से एक ही प्रश्न कर रही थी -
"काका कितने घंटे में पहुँचाएगी यह रेल हमें भोपाल में ?"
"आठ घंटे में !"
रेल से उतरने के बाद बस में भी देर लगेगी !"
"हाँ बिटिया, देर तो लगेगी ! पर हम देर-सवेर पहुँच अवश्य जाएँगे !" पुजारी जी हर बार मुस्कुरा कर यही उत्तर देते । वे रानी के उतावलेपन के कारण को समझ सकते थे !
जिस समय पुजारी जी और रानी भोपाल जंक्शन पर पहुँचे, उस समय रात के साढ़े बारह बजे थे। स्टेशन परिसर के बाहर घना अंधेरा छाया था । पुजारी जी ने रानी से कहा -
"बिटिया, भोर होने तक यहीं रुक जाएँ ? अंधेरे में चलना ठीक नहीं होगा !"
रानी ने पुजारी जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए स्वीकृति में अपनी गर्दन हिला दी। लेकिन वह भोर होने की प्रतीक्षा कैसे कर पाएगी ? यह उसे स्वयं नहीं पता था। पुजारी जी रानी को स्टेशन के प्रतीक्षा-कक्ष में ले आये और अपने कंधे पर रखी चादर धरती पर बिछाकर कहा -
"बिटिया ! भोर होने में अभी देर है, तब तक थोड़ी देर सो ले !" पुजारी जी के आदेश का पालन करते हुए रानी चादर पर लेट गयी, परंतु उसकी आँखों में दूर-दूर तक नींद नहीं थी । रानी के निकट ही पुजारी जी भी धरती पर पैर पसार कर सो गये ।
रानी ने सारी रात एक-एक क्षण भोर होने की प्रतीक्षा में व्यतीत की । भोर होते ही पुजारी जी रानी को लेकर ट्रेन द्वारा भोपाल से हबीबगंज पहुँचे और फिर स्टेशन परिसर से बाहर निकलकर छतरपुर जाने के लिए साधन तलाशने लगे । पर्याप्त भागदौड़ और पूछताछ करने के पश्चात् पुजारी जी को एक रेड बस में जगह मिल गयी । रानी को लेकर वे उस रेड बस में बैठ गये । बस ने आठ बजे प्रस्थान करके लगभग चार बजे उन्हें छतरपुर पहुँचा दिया ।
छतरपुर रानी का परिचित शहर था । शहर में प्रवेश करते ही घर पहुँचकर अपने परिवार और मित्रों से मिलने की प्रसन्नता में उसके पैर धरती पर नहीं टिक रहे थे । उसका हृदय ऐसे उमंगमय हो रहा था कि पक्षी बनकर उडकर क्षण-भर में मम्मी-पापा के पास चली जाए ! अब तक पुजारी जी ने उसकी बुझी-बुझी सूरत ही देखी थी । अपनी परिचित सड़क और गलियों में प्रवेश करते ही उसका-मन कमल खिल उठा था । रानी के चेहरे पर प्रसन्नता की धूप देखकर पुजारी जी को भी संतोष मिल रहा था । वह रानी का हाथ पकड़े हुए थे और जिधर वह संकेत करती, दोनों उधर ही चल पड़ते थे ।
"काका, बस थोड़ी-सी दूर और चलना है ! अब समझ लो, घर आ ही गया ! मम्मी-पापा मुझे देखकर बहुत खुश होंगे ! मम्मी तो खुशी से रो ही पड़ेंगी !" तेज कदमों से चलते हुए रानी ने चहकते हुए कहा ।
पुजारी जी ने रानी की प्रसन्नता का स्वागत मुस्कुराकर किया । कुछ कदम चलने के पश्चात्ं रानी एक मकान के सामने ठिठककर रुक गयी । मकान का दरवाजा बाहर से बन्द था और उस पर ताला लटका हुआ था। मकान पर ताला लटका हुआ देखकर क्षण-भर के लिए रानी के चेहरे की प्रसन्नता गायब हो गयी।
"क्या हुआ बिटिया ?" पुजारी जी रानी से पूछा ।
रानी ने मायूसी से दरवाजे पर लटके ताले की ओर संकेत करके कहा -
"यहीं पर तो रहते थे हम, मेरे मम्मी-पापा और मैं !" एक क्षणोंपरांत रानी ने पुन: आशा से भरपूर चहकते हुए कहा -
"काका, मैं बगल वाली आंटी से पूछती हूँ, मम्मी-पापा कहाँ गये हैं ?"
यह कहकर रानी ने शीघ्रता से जाकर बगल वाले मकान की कुंडी खटखटा दी । कुंडी बजते ही एक महिला ने उस मकान का दरवाजा खोला । महिला से रानी ने पूछा -
"आंटी आपको पता है, मेरे मम्मी-पापा कहाँ गए हैं ?"
"कौन हो तुम ? मैं तुम्हारे मम्मी-पापा के बारे में कुछ भी कैसे बता सकती हूँ ? मैं तो तुम्हें और तुम्हारे मम्मी-पापा को जानती भी नहीं हूँ !" महिला का उत्तर सुनकर रानी की आँखें भर आयी। पुजारी जी ने यह देखा, तो उसी क्षण आगे बढ़कर सांत्वना की शैली में रानी से कहा -
"बिटिया, रुक ! मैं देखता हूँ !"
फिर महिला से कहा -
"बहन जी, यह रज्जू भैया की बेटी, रानी है ! इसी बगल वाले मकान में रहते हैं ना रज्जू भैया ?
"नहीं, यहाँ कोई रज्जू भैया नहीं रहते हैं ! इस मकान में तो हरिया काका और उनकी विधवा बेटी लछमी रहती है ! अभी कुछ देर में आ जाएँगे, मिल लेना !"
पुजारी जी आगे कुछ पूछते, उससे पहले ही उस मकान की दूसरी मंजिल से एक वृद्धा ने नीचे झाँककर कहा -
"अरे भैया, रज्जू की पूछ रहे हो ? कौन हो तुम ? रज्जू तो बेचारा बरसों पहले इस शहर को छोड़कर चला गया ! इसी घर में किराये पर रहता था । बेचारा बहुत भला आदमी था । अपनी बेटी को पढ़ा-लिखा कर मेम-साहब बनाने के लिए सब्जी की ठेली लगाता था और घरवाली कोठियों में काम करती थी। वही बेटी एक दिन स्कूल गयी और फिर लौटकर नहीं आयी । राम जाने बच्ची कहाँ चली गयी ? कौन ले उड़ा उस मासूम को ? माँ-बाप दोनों पागल होकर बेटी को ढूँढते फिरते थे ! पुलिस ने भी उनकी कुछ सहायता नहीं करी ! गरीब की पुलिस कहाँ सुनती है ! किसी अमीर बाप की बेटी होती, तो बाप पुलिस की जेब गर्म करता और पुलिस उसकी बेटी को अगले ही दिन ढूँढके ले आती !"
"क्या आप कुछ बता सकती हैं, रज्जू भैया कहाँ मिल सकते हैं ? यह रानी है ! रज्जू भैया की वही बेटी, जिसको वे ढूँढते-फिरते थे ! आज यह लौट आयी है, अपने माँ-बाप के पास ! बेचारी ने बड़े कष्ट झेले हैं !"
रानी ? रानी आ गयी !" कहते हुए वृद्ध महिला नीचे उतर आयी और रानी को अपनी बाँहों में भरकर सीने से लगा लिया-
"मेरी बच्ची, तू जिंदा है ! तेरे जाने के पीछे तेरे माँ-बाप पागल होकर भटकते रहे कि कहीं उनकी लाडली मिल जाए ! पंडितों-ज्योतिषियों से भी पूछा, पर कहीं उनकी बेटी नहीं मिली ! तुझे ढूँढने की खातिर तेरे बाप ने ठेली लगाना बन्द कर दिया ; माँ ने घरों में झाड़ू-बर्तन करना छोड़ दिया। जहाँ किसी ने बता दिया, तुझे खोजने वहीं पहुँच गये । कुछ दिन तो ऐसे ही चल गया, पर बिना कमाए कितने दिन चलता ? गरीब आदमी का तो रोज का कमाना-खाना है । कमाई बन्द हो गयी, तो घर में खाने को दाने नहीं आये । न मकान-मालिक को को किराया दिया गया। कई महीने तक मकान का किराया नहीं मिला, तो मालिक ने घर खाली करने का हुकुम दे दिया । उस दिन के बाद रज्जू को कभी किसी ने इस कॉलोनी में नहीं देखा !"
महिला की बातें सुनकर रानी की आँखों से आँसू बहने लगे।
"बिटिया, रो मत ! हम तेरे माता-पिता को ढूँढ लेंगे ! यहाँ से छोड़कर उन्हें कहीं दूसरी जगह किराये पर घर मिल गया होगा !" पुजारी जी ने रानी को सांत्वना देते हुए समझाया और उसका हाथ पकड़कर वहाँ से उल्टे पाँव लौटने लगे । रानी ने पुजारी जी से पूछा -
"काका, मेरे मम्मी पापा को अब हम कहाँ ढूँढेंगे ?"
"पहले इसी शहर में ढूँढेंगे ! यहाँ नहीं मिलेंगे, तो दूसरे शहर और गांँवों में ढूँढेंगे ! जब तक वे हमें नहीं मिलेंगे, हम ढूँढते रहेंगे ! पर बिटिया, तुझे भूख लगी होगी ? पहले अब कुछ खा लेते हैं ! कुछ खाने-पीने के बाद किसी धर्मशाला में रहने का ठिकाना ढूँढेंगे ! तब तक रात हो जाएगी, इसलिए अब हम तुम्हारे माता-पिता को कल ही ढूँढ पाएँगे !"
पुजारी के उत्तर से रानी संतुष्ट थी । वह स्वयं भी शरीर में ऊर्जा का अभाव अनुभव कर रही थी । अतः चुपचाप उनके साथ चलती रही । बहुत थोड़े से परिश्रम से ही पुजारी जी ने एक धर्मशाला तलाश ली, जिसमें बहुत कम रुपयों का भुगतान करके वे अपना सामान सुरक्षित रख सकते थे और रानी के माता-पिता को ढूँढने के लिए दिन-भर घूमते-फिरते हुए परिश्रम करके रात्रि में विश्राम भी कर सकते थे ।
धर्मशाला में रात व्यतीत करके प्रातः शीघ्र ही पुजारी जी रानी को लेकर शहर में उसके माता-पिता को ढूँढने के लिए निकल पड़े। रानी की परिचित गलियों-मोहल्लों और वहाँ के रहने वाले लोगों से पूछते-ढूँढते रात हो गयी, लेकिन उनका कहीं कोई पता नहीं लगा । रात का अंधेरा बढ़ने लगा, तो पुजारी जी रानी को लेकर वापस धर्मशाला लौट आये ।
चालीस दिन तक यही उपक्रम चलता रहा, सुबह रानी के माता-पिता को ढूँढने के लिए निकलना और शाम को खाली हाथ धर्मशाला लौट आना । पुजारी जी ने छतरपुर के निकटस्थ गाँव-बस्तियों में भी उन्हें ढूँढा । उन्हें ढूँढने के लिए पुलिस और गैर सरकारी संगठनों की सहायता भी ली, किन्तु सफलता नहीं मिली। अन्त में चालीस दिन पश्चात् पुजारी जी रानी को लेकर दिल्ली वापस लौट आये ।
क्रमश..