आधी दुनिया का पूरा सच - 14 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आधी दुनिया का पूरा सच - 14

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

14.

चोटिल शरीर पर प्रतिदिन प्रताड़ना सहते हुए रानी की पीड़ा और घृणा तो कम नहीं हो सकती थी, किन्तु किसी प्रकार के इलाज या दवाइयों के बिना भी उसका शरीर स्वतः ही धीरे-धीरे अपनी क्षतिपूर्ति कर रहा था । वह बिस्तर से उठने और चलने फिरने लगी थी ।

लगभग एक माह पश्चात् शरीर की चोट काफी हद तक ठीक होने के बावजूद रानी को अचानक चक्कर आने लगा। खाने-पीने से भी अरुचि होने लगी । कुछ भी खाते-पीते ही उलटियाँ होकर सारा खाया-पिया बाहर निकल आता। सारा दिन उबकाइयों में और उल्टियाँ करने में बीतने लगा। वह इतनी दुर्बल हो गयी कि खड़ी होते ही चक्कर खाकर गिरने का डर सताता, लेकिन फिर भी निकेतन में किसी ने डॉक्टर से परामर्श-परीक्षण कराने की आवश्यकता नहीं समझी।

रानी का पूरा दिन एक बार फिर बिस्तर पर पड़े-पड़े बीतने लगा। उसकी देह में प्रतिदिन आलस्य बढ़ता जा रहा था और मन में विचित्र-सी अनुभूति होने लगी थी। ऐसी अनुभूति उसे जीवन में अब से पहले कभी नहीं हुई थी। समय यूँ ही बीतता जा रहा था। उसी दौरान एक रात बिस्तर पर लेटे-लेटे रानी को अत्यधिक बेचैनी होने लगी । इतनी अधिक बेचैनी कि अपने बिस्तर पर लेटे रहना उसके लिए कठिन हो गया।

अपनी बेचैनी दूर करने के निमित्त वह अपने बिस्तर से उठी और कमरे से बाहर निकलकर टहलने लगी। टहलते-टहलते रानी की दृष्टि मुख्य द्वार पर जा टिकी । उसने देखा, मुख्य द्वार थोड़ा-सा खुला हुआ है । ऐसा प्रतीत होता था कि कोई निकेतन से बाहर गया है, लेकिन तुरन्त वापस अंदर लौटने का कार्यक्रम होने के कारण द्वार बन्द नहीं किया गया है ।

रानी धीरे-धीरे चलते हुए मुख्य द्वार पर पहुँची और बाहर की ओर झाँककर देखा। रानी को निकट बाहर कहीं कोई दिखाई नहीं दिया। खुले द्वार के निकट किसी को न पाकर उसके कदम स्वत: बाहर की ओर बढ़ गये। एक क्षण के लिए वह घबरायी, उसके पैर भी काँपे, लेकिन अगले ही क्षण उसमें साहस का संचार हुआ और वह तेज कदमों से चलते हुए क्षण-प्रतिक्षण नारी निकेतन के भवन से दूर होती चली गयी।

वह घनी अंधेरी रात थी। आकाश में उमड़-घुमड़कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते बादल उस रात को और अधिक डरावनी बना रहे थे । सड़क भी निर्जन और सुनसान थी । लेकिन, रानी अपने अन्तःकरण में भय-आशंका और अपने माता-पिता से मिलने की आशा लिए हुए तेज कदमों से रात के अंधेरे को चीरते हुए आगे बढ़ती जा रही थी। उस समय घनी अंधेरी रात में सड़क पर न कोई वाहन था, न कोई आदमी। आकाश में गड़गड़ाती बिजली की चमक ही रानी को आगे का मार्ग दिखा रही थी । वह गन्तव्यहीन अज्ञात पथ पर चलती जा रही थी। चलते-चलते जब थक गयी, तब भी वह रुकी नहीं। उसके कदम मुक्ति की दिशा में बढ़ते जा रहे थे। उस समय उसका केवल एक लक्ष्य था - नारी निकेतन से इतनी दूर निकल जाना कि कोई उसे ढूँढ न सके ; पकड़ न सके !

चलते-चलते रानी इतनी दूर निकल आयी थी कि रात पीछे छूट रही थी और सूर्यदेव के रथ को लेकर उनके सारथी अरुण पर्वतराज के इस पार आ पहुँचे थे। रानी के पैरों में अब आगे बढ़ने की शक्ति शेष नहीं बची थी। लेकिन कहाँ ठहरकर विश्राम करें ? इस समय इस प्रश्न को हल कर पाना उसके लिए कठिन था । ऐसा आश्रय-स्थल, जहाँ सुरक्षा भी हो और स्वतंत्रता भी, कहाँ मिलेगा ? रानी यह सोच ही रही थी, तभी उसकी दृष्टि एक मंदिर की चोटी से टकराई और सूर्य की पहली किरण के साथ उसके हृदय में आशा की एक किरण चमक उठी । अब उसका गंतव्य स्थान भगवान का निवास-स्थल, वह मंदिर सुनिश्चित हो गया था। शरीर को ढोने की शक्ति तो उसके पैरों में पहले ही क्षीण हो चुकी थी, अब मंजिल को अत्यधिक निकट जानकर भी उसके कदम आगे बढ़ने में उसका साथ छोड़ने की धमकी देने लगे थे।

लेकिन रानी ने हिम्मत नहीं हारी । उसने साहस जुटाया और मंदिर की ओर कदम बढ़ा दिये । अंततः वह धीरे-धीरे पैरों को घसीटती हुई मंदिर के प्रांगण के बाहर बने चबूतरे के निकट तक पहुँचने में सफल हो गयी । वहाँ से गुजरते हुए मंदिर के पुजारी ने रानी की दशा देखी, तो शीघ्रतापूर्वक उसकी सहायता के लिए दौड़े। पुजारी जी ने अनुभव किया कि ईश्वर ने अपने भक्त की सहायता के लिए ही उसको उस समय वहाँ भेजा है । अतः पुजारी जी ने आगे सद्यः बढ़कर उसको सम्हाल लिया । रानी ने हाथ से संकेत करते हुए अत्यंत धीमे स्वर में पानी मांगा और अपनी आँखें बन्द करके पुजारी जी की बाँहों में निढ़ाल हो गयी ।

रानी के शिथिल शरीर को सहारा देकर पुजारी जी मंदिर के प्रांगण में ले आये और तख्त पर लिटाकर उसके ऊपर पानी के छींटे डाले । कुछ क्षणोपरान्त रानी की चेतना लौट आयी, तो पुजारी जी ने उसको थोड़ा-सा चरणामृत पिलाकर विश्राम करने का निवेदन किया ।

मंदिर के प्रांगण में ही एक कोने में एक छोंटी-सी कोठरी में पुजारी जी का निवास था, जिसमें वे अकेले रहते हुए अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। चार वर्ष पूर्व उनकी इकलौती पुत्री एक सड़क दुर्घटना में माता-पिता को छोड़कर परलोक सिधार गयी थी। पुजारी जी की पत्नी अपनी पुत्री की मृत्यु का पहाड़-दुख सहन न कर सकी और पुत्री के वियोग में जीवित लाश बनकर रह गयी थी। पुत्री-वियोग में तड़पकर पाँच माह पश्चात् वह भी परम तत्व में विलीन हो गयी । तब से अब तक पुजारी जी दिन-रात प्रभु की सेवा में लीन होकर अपनी साँसों का भार ढोते शरीर पूरा होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

मन्दिर के प्रांगण में रानी को देखकर पुजारी जी को अनायास ही अपनी बेटी का स्मरण हो आया। एक क्षण के लिए उनको ऐसा लगा, मानो ईश्वर ने उनकी बेटी को वापस भेज दिया है। रानी में अपनी बेटी का प्रतिरूप देखते हुए पुजारी जी ने उसको विश्राम करने के लिए अपनी कोठरी में भेज दिया और स्वयं मंदिर की सफाई करने लगे ।

मंदिर की सफाई करने के पश्चात् जब पुजारी जी अपनी कोठरी में गये, तब रात भर की थकी-हारी रानी गहरी नींद में सोयी हुई थी। पुजारी जी सोती हुई रानी के सिर पर वात्सल्य का हाथ फेरते हुए बोले -

"बिल्कुल गुड़िया लग रही है !" और फिर रानी के लिए बड़े मनोयोग से रसोई तैयार करने लगे, मानो रानी के रूप में उनकी कुटिया में पुजारी के हाथों का बना प्रसाद ग्रहण करने के लिए देवी स्वयं साकार रूप में अवतरित हुई हैं।

प्रसाद तैयार करके पुजारी जी ने वहीं बैठकर रानी के जागने की प्रतीक्षा की। जब रानी की नींद टूटी, तब तक दोपहर के ग्यारह बज चुके थे। रानी के जागते ही पुजारी जी ने उठकर उसके ऊपर अपनी ममता उड़ेलते हुए कहा -

"बिटिया भूख लगी होगी ?" मैंने प्रसाद तैयार कर दिया है, मुँह-हाथ धो कर खा लेना !"

रानी ने पुजारी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया ! पुजारी के स्नेहपूर्ण व्यवहार को देखकर उसको नेता जी के स्नेह-प्रदर्शन का स्मरण हो आया, इसलिए कुछ क्षण को उसके मनःमस्तिष्क में भय और शंका का संचार होने लगा । वह आश्वस्त हो जाना चाहती थी कि इस बार कोई धोखा नहीं हो ! रानी की ओर से किसी प्रकार की सकारात्मक प्रक्रिया नहीं पाकर पुजारी जी ने पुनः कहा-

"बिटिया, तेरी तबीयत तो ठीक है ? ठीक न हो, तो यहीं बगल में वैद्य जी रहते हैं, मैं उन्हें बुला लाऊँगा ! बड़े ज्ञानी हैं वैद्य जी, एक ही पुड़िया में बड़ी-बड़ी बीमारियों को उड़न छू कर देते हैं !"

"मैं ठीक हूंँ !"

रानी ने उत्तर दिया, तो पुजारी जी के चेहरे पर चमक आ गयी । वे शीघ्र उठे और अलमारी में से लकड़ी के फ्रेम में जड़ा हुआ एक चित्र निकालकर रानी की ओर बढ़ाते हुए प्रसन्नतापूर्वक बोले -

"देख, बिल्कुल तेरे जैसी दिखती है ना ?"

रानी ने हाथ में फ्रेम लेकर एक दृष्टि चित्र पर डाली और फिर पुजारी की ओर देखा, मानो पूछ रही हो कि यह चित्र किसका है ? पुजारी जी ने रानी की दृष्टि में छिपे मूक प्रश्न का तात्पर्य समझकर कहा -

"मेरी बेटी का चित्र है। चार साल पहले मंदिर के बाहर एक तेज गति से दौड़ती हुई कार ने टक्कर मार दी और ... !" कहते-कहते पुजारी जी की आँखें भर आयी ।

"मैं मंदिर में जाकर आता हूँ ! भगवान जी को भी भोग नहीं लगाया है अभी ! बिटिया जागेगी, तो कोठरी में खुद को अकेली पाकर डर न जाए, यह सोचकर तब से यहीं बैठा हूँ ! तू उठकर मुँह-हाथ धो ले, तब तक मैं भगवान जी को भोग लगा कर आता हूँ !" कहकर पुजारी जी कोठरी से बाहर निकल गये।

कुछ समय पश्चात् जब भगवान जी को भोग लगाकर पुजारी जी मंदिर से वापस लौटे, तब तक रानी हाथ-मुँह धो चुकी थी । उसको स्वस्थ-चित्त देखकर पुजारी जी का मन प्रसन्न हो गया। वे उत्साह से शीघ्रतापूर्वक रसोईघर में गये और थाली में भोजन परोस कर ले आए । बोले -

"ले, बिटिया ! मैंने बड़े मन से तेरे लिए अपने हाथों से बनाया है !"

पुजारी जी का वात्सल्य देखकर रानी की आँखों में आँसू छलक आये । पुजारी जी ने अपने कंधे पर पड़े अंगोछे से रानी के आँसू पोंछकर रोटी का एक टुकड़ा उसके मुँह की और बढ़ाते हुए पुनः कहा -

"ना बिटिया, ना ! प्रसाद ग्रहण करते समय रोते नहीं है ! अन्न देवता का अपमान होता है !"

"आप भी खा लीजिए !" रानी ने पुजारी जी के हाथ का टुकड़ा अपने मुँह में लेते हुए कहा ।

"हाँ-हाँ मैं भी खाऊँगा !" यह कहकर पुजारी जी पुनः रसोईघर में गये और कुछ ही क्षणों में अपने लिए दूसरी थाली में भोजन परोस कर ले आये और रानी से स्नेहपूर्वक बोले -

"अब ठीक है, बिटिया ?" रानी ने मुस्कुराहट के साथ स्वीकृति में गर्दन हिला दी। भोजन करने के बाद रानी ने पुजारी जी से पूछा -

"काका, आपकी बेटी कितनी बड़ी थी ?

"बिल्कुल तेरे बराबर थी, बिटिया ! तभी तो हमने कहा था, बिल्कुल तेरी जैसी दिखती थी ! अब यहाँ वह होती, तो तुझे देखकर बहुत प्सन्न होती और तुम दोनों जुड़वाँ बहनें दिखती ! "

कहते-कहते पुजारी जी मौन हो गये। रानी अभी भी जिज्ञासा भरी दृष्टि से पुजारी को देख रही थी। अतः उन्होंने पुन: कहना आरंभ किया -

"बिटिया के जाने के बाद उसकी माँ के लिए दुनिया बेगानी हो गयी थी । और ... फिर वह भी पाँच माह बाद मुझे यहाँ अकेला छोड़कर बिटिया के पास चली गयी !"

बेटी की कहानी बताते हुए पुजारी जी की आँखों में आँसू छलक आये थे। अपने आँसुओं को छिपाने का उद्योग करते हुए उस समय वे कोठरी से बाहर निकल आये।

क्रमश..