तेरे शहर के मेरे लोग - 8 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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तेरे शहर के मेरे लोग - 8

( आठ )
इन्हीं दिनों एक चुनौती मुझे मिली।
ज़रूर ये अख़बारों के माध्यम से बनी मेरी छवि को देख कर ही मेरी झोली में अाई होगी।
इस चुनौती की बात करूंगा और इसका अंजाम भी आप जानेंगे किन्तु इससे पहले एक छोटा सा किस्सा सुनिए।
मेरा नाटक "मेरी ज़िन्दगी लौटा दे" छप चुका था जिसमें एक उच्च जाति के युवक का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वो पिछड़ी कही जाने वाली जाति का मुरीद हो जाता है। इस नाटक पर मुझे महाराष्ट्र दलित साहित्य अकादमी का प्रेमचंद पुरस्कार मिलने की सूचना मिली।
मैं ये पुरस्कार लेने के लिए महाराष्ट्र गया तो यात्रा में अपने साथ के लिए एक युवक को लेे गया को पूरी तरह शाकाहारी तो था ही एक ऐसे कुल से जुड़ा था जिसके परिवार में कई लोग मंदिरों में सेवा दे रहे थे।
समारोह बहुत लंबा चला, और जो भोजन एक बजे मिलना था, वो जाकर साढ़े चार बजे मिला। श्रोताओं और वक्ताओं की भीड़ टूटी। बड़े से चौक में शाकाहारी और मांसाहारी भोजन की अलग- अलग कतारें लग गईं।
भूख तेज़ थी अतः सबका ध्यान इस बात पर था कि कौन सी कतार छोटी है। मैंने साथ आए हुए उस युवक पर ही छोड़ा कि वो कहीं से भी भोजन ले ले। जल्दी ही हम दोनों खाना खा रहे थे।
पेट में भोजन जाते ही लोग पुनः बौद्धिक बातचीत पर लौटने लगते हैं। एक सज्जन मुझसे भी बोले- इधर ज़्यादातर लोग शाकाहारी ही हैं।
तो हम भी लौटें अपनी बातचीत पर।
हमारे शिक्षण संस्थान को सरकार की ओर से एक ऐसी परियोजना मिली जिसमें राज्य के प्रत्येक ज़िले से कुछ महिलाओं को चुन कर उन्हें कंप्यूटर और उद्यमिता का प्रशिक्षण देकर इस तरह तैयार किया जाना था कि वो अपने क्षेत्र में ई- मित्र के रूप में स्वतंत्र रूप से काम कर सकें।
मुझे इस परियोजना का राज्य समन्वयक बना दिया गया। मुझे राजस्थान राज्य के हर ज़िले में जाकर कुछ समय रहने का अवसर मिला।
हर ज़िले में जाकर सर्किट हाउस या डाक बंगले में ठहरना और जिला कलेक्टर सहित अन्य बड़े अधिकारियों से मिलने के दौरान मेरा ध्यान हर नगर के दर्शनीय स्थलों को देखने के बनिस्बत उन क्षेत्रों की मुख्य बातों और गतिविधियों को जानने पर रहा।
इस प्रॉजेक्ट के सफ़लता पूर्वक संपन्न होने के बाद मैंने एक किताब "राज बत्तीसी" लिखना आरंभ किया। पुस्तक के इस नामकरण के पीछे उस समय राज्य में कुल बत्तीस ज़िलों का होना ही मुख्य कारण था। किन्तु जल्दी ही राज्य में एक तैतीसवाँ जिला प्रतापगढ़ भी बन गया।
ये पुस्तक कुछ कारणों से अधूरी ही रह गई। लेकिन इसी बहाने मैं आपको अपने मन का एक कोण और दिखा दूं।
दरअसल मेरी रुचि शुरू से ही मौलिक फिक्शन ही लिखने में रही।
ऐसे बहुत सारे अवसर अाए जब मुझे दूसरी, व्यावसायिक प्रकृति की किताबें लिखने के कीमती प्रस्ताव मिले पर मेरा मन बंध कर लिखने में कभी नहीं लगा।
शिक्षा जगत की पाठ्य पुस्तकें, बैंक की परीक्षाओं हेतु उपयोगी किताबें, पत्रकारिता के संदर्भ ग्रंथ लिखने के बेहद आकर्षक प्रस्ताव कई बार मुझे बड़े प्रकाशकों से मिले पर मैं कभी इनमें मन नहीं लगा पाया।
एक बार तो एक तकनीकी प्रकृति की किताब के पचास हज़ार रुपए अग्रिम मिलने पर भी मैंने आधा काम करके शेष अग्रिम पच्चीस हज़ार रुपए लौटाए। मेरा मन उसमें रमा ही नहीं।
जबकि अपनी मनमर्ज़ी का कुछ लिख कर अपने पैसे ख़र्च करके छपवाने का अनुभव भी मेरे साथ जुड़ा।
मैं तो हमेशा इसी तरह लिखता था कि कलम हाथ में लेकर काग़ज़ फैलाने तक मुझे ये पता नहीं होता था कि क्या लिखा जाएगा।
इसीलिए मांग पर लिखने के कई प्रस्तावों, प्रयासों, सामूहिक संकलनों में मैं शामिल नहीं हो पाता था।
अपनी इस फितरत के चलते आज मेरे कई अंतरंग रिश्ते "घमंड, लापरवाही, इग्नोर करना, न जाने अपने आप को क्या समझना" जैसे डिब्बों में बंद हैं।
अपने एनजीओ की कुछ गतिविधियां स्थानीय स्तर पर भी संचालित थीं।
स्कूली बच्चों के लिए इसके अंतर्गत चित्रकला, लेखन, सामान्य ज्ञान आदि की कुछ प्रतियोगिताएं आयोजित करवाई जाती थीं तथा बच्चों को पुरस्कृत किया जाता था।
कई बार पुरस्कार स्वरूप बच्चों को विभिन्न दर्शनीय स्थलों की निशुल्क यात्राएं भी कराई जाती थीं।
इस तरह के आयोजन बच्चों के बीच प्रतिस्पर्धा की भावना का विकास करने और उनमें जीवन में हार- जीत के लिए मानसिक स्वीकार भरने के लिए किए जाते थे।
इन उद्देश्यों व कार्यक्रमों को अपनी पत्रिका के माध्यम से प्रचारित भी किया जाता।
शायद इसी कारण अनेक संस्थानों से बच्चों के बीच आकर बातचीत करने के आमंत्रण और प्रस्ताव भी मुझे बड़ी संख्या में आते थे।
मुझे इस संदर्भ में एक पुराना वाकया याद आता था जब एक अधिकारी प्रशिक्षण केंद्र के प्रधानाचार्य ने मुझसे कहा था कि हम आपको कभी- कभी "तीन फ़" अर्थात फ़िलर, फेविकोल और फिलॉसफर की भूमिका में भी याद करते हैं।
मज़ाक में कही गई उनकी ये बात ज़रा सी व्याख्या की दरकार रखती है।
वो कहते थे कि किसी भी प्रशिक्षक या वक्ता के अचानक न अा पाने की सूचना पर हमें आप का नाम याद आता है क्योंकि आप बिना नोटिस के भी अा जाते हैं।
दूसरे, यदि हमें अलग - अलग प्रकृति के दो सत्रों को जोड़ना हो, तो हम आपको बुलाते हैं ताकि आप उनमें कोई न कोई साम्य निकाल कर सामंजस्य बैठा दें।
तीसरे, जब बिना कोई विषय दिए लोगों को कुछ सुनवाना हो, तब हमें आपका ध्यान आता है और हम "प्रबोध कुमार गोविल से बातचीत" जैसा विषय रख देते हैं।
मुझे नहीं मालूम कि ये मेरी प्रशंसा थी या फ़िर वो मेरी फिरकी लेते थे, पर मैं मन ही मन उनकी इस बात को मान लेता था कि "आप हमें संकट से उबार लेते हैं"!
उनसे मैंने कई बार सुना था- " ओ, यू सेव्ड अस "
जहां उनसे लोग चर्चा और बहस करते थे कि अमुक टॉपिक पर बोलने के लिए इतना समय चाहिए, वहीं मैंने भी कई बार उन्हें आश्वस्त किया था कि "राम कहानी" दो लाइनों में भी होती है और दो महीने में भी। वो शायद मेरी इसी उक्ति के कायल थे।
अपनी एक आदत से आपको मैं और परिचित कराता हूं। मैं कई दूसरे लोगों की तरह "सबकी सुनने और मन की करने" में ही विश्वास रखता रहा हूं।
मेरा अनुभव ये कहता है कि चाहे कोई व्यक्तिगत कार्य हो अथवा संस्थागत, बहुत ज़्यादा लोकतांत्रिक होकर हम चल ही नहीं सकते। हमारे देश के संविधान में लोकतंत्र को निर्णय तथा क्रियाविधि का आधार मान लेने के बावजूद हमें सामूहिक निर्णय लेने नहीं आते। हमारी वही संस्थाएं ठीक से कार्य कर पाती हैं जो एक दिमाग़ के सहारे चल रही हों।
इन दिनों जनसतर्कता समिति तथा विभिन्न सरकारी विभागों के साथ जुड़ कर कई काम कर लेने के कारण मेरा अच्छा संपर्क सरकारी विभागों के साथ हो गया, जिसके कारण स्किल डेवलपमेंट अर्थात कौशल विकास की कुछ परियोजनाएं मेरे एनजीओ को भी मिलने लगीं।
इनके सुगम संचालन के लिए मैंने नज़दीक के औद्योगिक क्षेत्र में एक भूखंड और ख़रीद कर वहां एक बड़ा भवन बना लिया।
यहां सौ व्यक्तियों के बैठ पाने योग्य एक सभागृह भी निर्मित कराया।
इन्हीं दिनों लगभग एक दर्जन युवकों को कर्मचारी के रूप में नियुक्त करके मैंने एक तकनीकी सेवा केंद्र भी संचालित किया।
ये ग्रामीण युवकों को रोजगार से जोड़ने के प्रयास ही थे किन्तु जल्दी ही मुझे अनुभव हुआ कि ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग उस तरह नहीं सोच पाते जिस तरह सरकारें उनके लिए सोचती रही हैं।
अधिकांश लोग नौकरी के नाम पर अपने बच्चों को अपने से दूर भेजने में कतराते हैं। शायद उन्हें लगता है कि घर से दूर जाने पर बच्चे हमारे हाथ से निकल जाएंगे। वे बच्चों को अपनी "भविष्य निधि" के रूप में देखते हैं।
जबकि प्रबंधन के विशेषज्ञ कर्मचारी के लिए अलग तरह से सोचते हैं। उनका मानना होता है कि घर - परिवार से उनकी दूरी उनकी कार्य क्षमता बढ़ाती है।
एक बार जयपुर के एक पांच सितारा होटल में कुछ कर्मचारियों की भर्ती हो रही थी। मुझे भी विशेषज्ञ के रूप में इंटरव्यू लेने के लिए वहां आमंत्रित किया गया।
इंटरव्यू शुरू होने से पहले मुझे उस उपक्रम के एक वरिष्ठ अधिकारी ने संकेत दिया कि हम स्थानीय युवकों को न चुनें।
उनका कहना था कि स्थानीय लड़कों की कार्य क्षमता बहुत ही कम और लापरवाही भरी होती है। वो परिवार और समाज की छोटी- छोटी बातों पर छुट्टी लेने, देर से आने, जल्दी जाने के अभ्यस्त होते हैं। उन्हें संस्थान की ड्यूटी की जिम्मेदारियों का ज़रा भी अहसास नहीं होता। वो बीमारी, मृत्यु, दुर्घटना आदि के मामलों में तो अपनी ड्यूटी को पूरी तरह भूल जाते हैं।
जबकि दूसरी ओर बाहर से आकर रहने वाला व्यक्ति काम पर ध्यान दे पाता है और वर्ष में एक बार ही घर जाने के लिए छुट्टी लेता है।
इन दोनों ही विचारों के अपने- अपने तर्क थे, और मुझे इस बात से घबराहट होने लगती थी कि एक तरफ तो हम स्थानीय युवकों के लिए रोजगार का केंद्र चलाएं, दूसरी ओर अवसर मिलने पर उनके चयन को ख़ुद ही रोकें।
मैं मौका मिलते ही लड़कों को ये समझाया करता था कि काम के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझना सीखो।
और युवा सपाट चेहरे से मेरी बात सुनते हुए ये सोचा करते कि मैं न जाने कौन सी दुनियां से आया हूं जो उन्हें कह रहा हूं कि शादी,मृत्यु, बीमारी, त्यौहार आदि के अवसरों पर भी ज़्यादा छुट्टी न लो।
सुख दुःख आते जाते रहते हैं, पर दुनिया को चलते रहना होता है। ये फ़लसफ़ा ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत काम का नहीं माना जाता।
"राही अतःक्षेप" पत्रिका ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकी।
इसमें सबसे बड़ी बाधा ये अाई कि इसका अपना कोई स्वतंत्र आर्थिक आधार नहीं बन पाया।
ये विचित्र सी बात थी कि जो लोग अच्छी और स्तरीय रचनाएं लिखते हैं वो पत्रिका खरीद कर नहीं पढ़ना चाहते, और जो लोग पत्रिका का शुल्क दें वो ये अपेक्षा रखते हैं कि उनकी रचना चाहे जैसी भी हो, छपे।
ऐसा शायद जीवन के हर क्षेत्र में ही होता होगा।
मुझे कभी- कभी ऐसा लगता था, हमने जीवन को ऐसा बना लिया है कि यहां ईमानदारी और कर्मठता वित्तीय अच्छाई के "इन्वर्सली प्रपोर्शनल" है, अर्थात कुछ अच्छा करने पर धन नहीं है और ज़्यादा धन के लिए अच्छाई से दूर रहना होगा।
कड़वा सच ये है कि धन हर काम के लिए चाहिए। और जब वो आ जाता है तो लोग आपको धन- पिशाच कहने लगते हैं।
इसका मतलब ये है कि गरीबी और अभाव की दुनिया ही अच्छी है। इसमें आप ख़ूब बड़ी- बड़ी बातें आराम से कर सकते हैं, क्योंकि आपको सिर्फ़ बातें ही करनी होती हैं।
अपने संस्थान की गतिविधियों को कुछ और विस्तार देकर राजधानी तक लेे जाने के लिए मैंने जयपुर में भी कुछ भूमि ख़रीद ली। इसके साथ ही एक बना हुआ मकान भी ख़रीद लिया ताकि किसी गतिविधि का संचालन सुगमता से किया जा सके।
किन्तु यहां एक अलग तरह का अनुभव और हुआ। इस स्थान का केयर टेकर होकर सवैतनिक रूप से रहना तो कई लोग चाहते थे, पर उनका झुकाव और अभिरुचि सामाजिक कार्यों में नहीं थी।
इसका नतीजा ये हुआ कि लंबे समय तक ये भवन ख़ाली ही रहा।
इन्हीं दिनों सरकार की स्किल डेवलपमेंट योजनाओं में कुछ प्रोजेक्ट्स हमें मिलने शुरू हुए।
इनके अन्तर्गत युवकों के लिए हॉस्पिटैलिटी, होटल मैनेजमेंट, पर्यटन से जुड़े कुछ कार्यक्रम चलने लगे। महिलाओं के लिए सिलाई के प्रशिक्षण चलाए गए।
लड़कों के कार्यक्रम हमारे इन दोनों स्थानों पर चलते, लड़कियों की व्यवस्था हमने उनके अपने ही स्थान पर या कभी कभी किसी विद्यालय में करवाई।
इसमें मित्रों, शुभचिंतकों का खूब सहयोग मुझे मिला,कई साथी शिक्षक,वकील, बैंक अधिकारी, प्रशासन अधिकारी, पुलिस अधिकारी हमें नियमित सहयोग के लिए उपलब्ध हुए।
ये गतिविधियां रचनात्मक काम के रूप में तो चलती रहीं किन्तु इन्हें रोजगार के अवसर में बदलने के प्रयास बहुत सफल नहीं रहे।
ऐसे में मुझे बराबर महसूस होता था कि आरंभ में वीरेंद्र और मैंने जिस काम की परिकल्पना की थी, ये उससे बहुत अलग है।
मुझे लगता था कि हम दोनों मित्रों के अपने अपने काम में अलग होने के बाद हम अपने मूल उद्देश्य से भी अलग होने लगे।
कला और साहित्य का जो रचनात्मक माहौल हम बनाना चाहते थे उसकी कोई झलक इनमें न रही।
मुझे ऐसे समय अपने एक मित्र और प्रसिद्ध कहानीकार धीरेन्द्र अस्थाना की कभी कही गई बात याद आती थी कि हम आख़िर किसका भला करने की साध लिए बौराए घूमते हैं। जो किसी को नहीं चाहिए, वो ज़बरदस्ती क्यों देने की पेशकश करें।
सब अपना- अपना जीवन संभालें।
मुझे लगने लगा था कि कला या साहित्य का माहौल किसी के बनाने से नहीं बनता। ये तो जीवन की धूप छांव है, जब आएगी, जहां आयेगी, वहीं आयेगी।
रचनात्मक प्रवृत्तियां तो बाढ़ के पानी की तरह आपकी दीवारें तोड़ कर अा घुसेंगी, अगर आप पर दुःख बरसे, कष्ट टपके!
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