तेरे शहर के मेरे लोग - 6 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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तेरे शहर के मेरे लोग - 6

( छह )
मेरे जीवन में आने वाले इस परिवर्तन का असर मेरे मित्रों, परिजनों और शुभचिंतकों पर क्या पड़ने जा रहा था, ये देखना भी दिलचस्प था।
मैं अपनी इक्कीस वर्ष की सरकारी नौकरी छोड़ कर बैंक से एक शिक्षण संस्थान में जाने वाला था।
कुछ लोगों को तो इस बात पर ही गहरा अचंभा था कि ऐसा हुआ ही कैसे, और अब मुझे शिक्षण संस्थान में क्या कार्य और कौन सा पद मिलेगा।
कुछ मित्रों को इस बात पर हैरानी थी कि गांव छोड़ कर शहर और शहर छोड़ कर महानगर तो दुनिया जाती है, पर महानगर से छोटे शहर और फ़िर शहर से गांव भला कोई आता है। और यदि आता भी है तो सठिया जाने पर आता है, रिटायर होकर आता है। चौवालीस साल की उम्र में भला कौन आता है।
मेरा बेटा छठी कक्षा में और बेटी दसवीं कक्षा में थी, और उन दोनों की ही ख़ुशी का पारावार न था, जिन्हें ये बात सामने दिख रही थी कि अब पापा हमेशा हमारे साथ ही रहेंगे, बार - बार कहीं दूर नहीं आयेंगे।
पत्नी वहां पहले से ही एक उच्च पद पर कार्यरत थी। मेरी मां भी हम लोगों के साथ ही रहती थीं। शेष सभी भाइयों के परिवार जयपुर शहर में थे।
सारी औपचारिकताएं पूरी कर के एक दिन मैं जयपुर के पास स्थित अपने इस अंतरराष्ट्रीय स्तर और ख्याति के शिक्षण संस्थान में आ गया।
मेरा चोला बदल गया था।
अब मैं शुद्ध खादी के कुर्ता - पायजामा पहना करता था।
मेरे लंबे प्रशासनिक अनुभव को देखते हुए मुझे यहां प्रशासन और जनसंपर्क अधिकारी के दायित्व दिए गए थे।
एक व्यस्त रूटीन आरंभ हो गया और पिछली बातें, दिनचर्या, कार्यपद्धति आदि सब कुछ बदल गया।
यहां किसी बेहद अनुशासन से चलने वाले आश्रम का सा माहौल था।
दिल्ली और मुंबई में लंबे समय तक रह लेने और लेखन, पत्रकारिता, फ़िल्म लेखन जैसे कामों से जुड़ लेने के बाद कभी- कभी मुझे यहां ऐसा महसूस होता था कि जैसे मुझे किसी टूथपेस्ट की ट्यूब से बाहर निकल आए पेस्ट को अब वापस भीतर की ओर खींचना था।
अपने को एक ऐसे शख़्स की गांधी वादी सी छवि में रखना था जो कभी सामिष भोजन नहीं खाता, जिसने कभी मदिरा सेवन या धूम्र पान न किया हो।
मैं किसी छद्म स्थिति में रहना नहीं चाहता था किन्तु ये ज़रूर प्रतिपादित करना चाहता था कि आदमी चाहे तो अपना हृदय परिवर्तन करके आमूलचूल बदल सकता है।
अब मैं कुछ देर आपसे वही बात करूंगा जो मैं अक्सर अपने आप से किया करता था।
मुझे लगता था कि दुनिया गोल है। किसी गेंद की तरह। और ऐसे में गेंद या बॉल का एक छोटा सा हिस्सा ही ऊपर, दिखाई दे सकने योग्य सुरक्षित जगह में रह सकता है। ये वही निरापद जगह है जहां साधारण आदमी रहता है, रहना चाहता है। ये एक बेहद भीड़ भरी जगह है।
अगर अंतरिक्ष में लटकी इस बॉल को दुनियावी नज़रों से देखें तो इससे आगे चलने वाले गिर जाते हैं, इससे पीछे रह जाने वाले गिर जाते हैं, इससे दाएं हो जाने वाले गिर जाते हैं, इससे बाएं भटक जाने वाले गिर जाते हैं।
हां, इतना अवश्य है कि धरती घूमती भी रहती है और फिरकी की तरह फिरती भी रहती है।
मुझे परिवार के साथ रहना अच्छा लगता था। ये अद्भुत अनुभव था कि आप बैठे- बैठे कहें कि प्यास लगी है, और कोई आपको पानी लाकर दे दे।
आप सोने के लिए कमरे में आएं और आपको साफ़ सुथरा बिस्तर तैयार मिले।
इससे पहले कि आपको भूख लगे, गरमा गरम ताज़े भोजन की थाली आपके सामने अा जाए।
घर में ऐसी राजसी सुविधा मैंने बहुत दिन बाद देखी थी।
ये सुविधा मेरे अंगों को शिथिल कर देती थी, मेरे मस्तिष्क में प्रमाद भर देती थी, मुझे जीवन सफ़ल हुआ, ऐसा आभास करा देती थी।
मुझे भोजन चाहे मेरी बेटी परोसे, पत्नी परोसे, भोजन बनाने वाली बाई परोसे,या घर में मेहमान बन कर आया कोई और परिजन परोसे, मेरी मां आकर तुरंत ये दायित्व अपने हाथ में ले लेती थीं।
मुझे खिलाना वही चाहती थीं, चाहे पकाए कोई भी।
उनका ये वर्षों का संचित वात्सल्य मेरे लिए कभी - कभी कष्टकारी भी हुआ करता था।
मेरी ये आदत थी कि भोजन जीवन के एक अनिवार्य काम की तरह चुपचाप कर लिया जाए। इसमें न किसी तरह का फैलाव हो, न दिखावा। शायद ये बात मैंने अपने पिता से सीखी।
उधर मेरी मां की आदत ये थी कि जब मैं भोजन करूं तो पूरे घर को ये एहसास ज़रूर होना चाहिए कि घर का मालिक भोजन की मेज़ पर है। एक तनाव सा फ़ैला दिया जाता था कि मैं भोजन कर रहा हूं।
रसोई में खाना बनाती बाई, सलाद काटती पत्नी,पानी रखती बेटी, सबको तरह - तरह के अचार, मुरब्बे, चटनियां रखती हुई अम्मा अर्थात मेरी मां की ओर से सचेत कर दिया जाता कि ...याद है न, खाना "मैं" खा रहा हूं!
मेरी आदत थी कि केवल एक या दो बर्तनों में मुझे मेरा वांछित भोजन - तीन या चार रोटी, सब्ज़ी और दाल परोसा जाए। चार रोटी, अथवा तीन रोटी व ज़रा से चावल ले लेने के बाद मुझसे और लेने के लिए बिल्कुल मनुहार न की जाए। जबरदस्ती तो बिल्कुल नहीं।
और बस, दो ही बर्तन। मैं पानी भी भोजन के बाद उठ कर ख़ुद ही पीना पसंद करता था, इसलिए पहले से रख देने की ज़रूरत नहीं समझता था।
लेकिन मैं देखता कि थाली में एक रोटी आने के बाद, दूसरी प्लेट में दूसरी रोटी आती और मेरे पास में रख कर तीसरी तश्तरी से ढक दी जाती,एक और कटोरी में अतिरिक्त दाल या सब्ज़ी ढक कर रखी जाती ताकि मैं ज़रूरत पड़ने पर फ़ौरन लेे सकूं। एक छोटी रकाबी से ढक कर पानी का गिलास, और उसके पास पानी भरा हुआ एक जग रख दिया जाता ताकि प्यास लगते ही मुझे एक क्षण भी प्यासा न रहना पड़े। दो तीन तरह के अचार प्लेटों या प्यालियों में रहते ही। दही या रायता दोनों में से इच्छानुसार चुन लेने की सुविधा देते हुए दोनों ही चीज़ें मेज़ पर रहतीं।
फ़िर मेरे पास खड़े होकर मेरे चेहरे पर असीम तृप्ति के भाव ढूंढ़े जाते।
मैं बौखलाया हुआ सा भोजन कर के उठता और हाथ धोकर जल्दी से समूचे प्रकरण को समाप्त करना चाहता।
सबको ऐसा महसूस होता कि मुझ पर बड़े पद पर कार्य करने का भारी तनाव है और मुझे स्थान या पद परिवर्तन से अपार उलझनें घेर रही होंगी।
जबकि मुझे अब तक न तो ऐसी किसी असुविधा का कभी सामना ही करना पड़ा और न ही मेरे किसी बॉस, अफ़सर, सहकर्मी या अधीनस्थ को मुझसे ये अहसास ही मिला कि मैंने किसी वांछित काम को कुशलता से अंजाम नहीं दिया। मैंने छोटे से लेकर बड़े तक कभी किसी से ये नहीं सुना कि मैंने ये ठीक नहीं किया या ये काम मैं नहीं कर पाया।
मैं कभी- कभी ये भी सोचा करता था कि हमारे देश में प्रबंधन के सिद्धांतों के साथ भी जम कर सौतेला व्यवहार हुआ है।
हम बैंकों में देखते रहे थे कि शाम को ज़्यादा देर तक खुली रहने वाली शाखाओं के लिए ये नहीं कहा जाता था कि यहां कार्यकुशलता की कमी है, बल्कि दफ़्तर में "आठ बजे तक" बैठने वालों को कर्मयोद्धा माना जाता था। इस बात पर ध्यान कम दिया जाता था कि इस "समय पछाड़ लेट लतीफी" का कारण क्या है?
कार्मिकों का देर से आना, दिन में कई बार चाय, पानी, पान और गप्प- गोष्ठी के लिए उठ जाना आदि बातें किसी गिनती में नहीं आती थीं। केवल शाम को सीट पर देर तक जमे रहना ही कर्मठता का पैमाना माना जाता था।
लोगों में समय प्रबंधन की अनदेखी भी मुझे काफी उद्वेलित करती थी। किसी काम, उत्सव, समारोह आदि के निर्धारित समय को तो लोग इस तरह देखते थे कि इस समय पर तो ये सोचना शुरू करना है कि जाना है तो क्या पहना जाए, क्या खाकर जाया जाए, किस वाहन से निकला जाना है आदि - आदि। पहुंचना तो निर्धारित समय के दो घंटे बाद है।
केवल दफ्तरों ही नहीं, इस तथ्य को तो भारतीय रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों तक पर देखा जा सकता था।
देर से पहुंच कर लोगों के दिए जाने वाले तर्क और भी खिजाने वाले होते थे, मसलन - "अब आने- जाने में देर तो लगती ही है... ट्रैफिक में समय लग गया...अभी तो खाना शुरू भी नहीं हुआ"...जैसे बचकाने तर्क।
मुझे बड़े पदों और जिम्मेदारियों तक पर काम कर रहे लोगों के ऐसे तर्क बेहद बचकाने और फालतू लगते थे और जब मैं उनके प्रति उदासीन हो जाता तो उन्हें लगता कि मुझे बड़ी जगहों से आने का घमंड है, मैं खुद को सुपीरियर समझता हूं।
शायद परिवार के साथ न रहने के कारण मेरी सहनशक्ति या धैर्य में कमी हो जाना भी इस उतावली का कारण रहा हो, कहा नहीं जा सकता। किन्तु जब ज़्यादा लोग भी ग़लत बात का समर्थन कर रहे हों तो बात विवेक की रह ही नहीं जाती, वो रिवाज़ की बन जाती है।
इसीलिए शायद हमारी शिक्षा प्रणाली में इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि किस विदेशी विद्वान ने किस बात की परिभाषा कैसे दी है, ये गौण है कि ख़ुद हमें वास्तव में वो बात कैसी दिख रही है।
मेरे वापस लौट कर अा जाने से जहां मैं खुद और बाक़ी सब लोग मुझे खुश दिखाई देते, वहीं मेरी एक मित्रता ऐसी भी थी जो इस से ख़तरे में पड़ गई।
ये था मेरा मित्र वीरेंद्र जिसने कई वर्ष तक इस बात के लिए मेरा इंतजार किया था कि एक दिन मैं लौट आऊंगा और तब हम अपने एनजीओ के अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों की बेहतरी के लिए काम करेंगे।
ये बातें केवल बातें ही नहीं थीं, बल्कि इसके लिए हम दोनों ने ही दो अलग- अलग जगह पर भूमि भी ख़रीद कर रख ली थी, तथा कुछ आवासीय तथा व्यावसायिक गतिविधियों के मद्देनज़र निर्माण कार्य भी करा लिए थे। हमने सरकारी औपचारिकताओं के अन्तर्गत काफ़ी काग़ज़ी कार्यवाही भी कर ली थी और एक सोसायटी का विधिवत गठन भी कर लिया था।
हमारे पास पर्याप्त राशि भी बैंक खातों में जमा हो गई थी। मुझे आपको राशि का स्रोत भी बताना चाहिए, अन्यथा आप समझेंगे कि हमारे पास पैसा कहां से आया?
मेरे मित्र ने विवाह नहीं किया था। वो ग्रामीण बच्चों को कला का व्यावसायिक प्रशिक्षण देता था और बेहद सादगी से रहते हुए जो कुछ बचाता, उसे इसी कार्य में लगाता या इसके भावी विकास हेतु सुरक्षित रखता।
मैं स्वयं बैंक की नौकरी के साथ लेखन, पत्रकारिता, अनुवाद, आकाशवाणी, दूरदर्शन से जुड़ा था। मुझे सर्विस के अलावा और जो कुछ भी आय कहीं से भी होती, मैं उसे इसी कार्य के लिए विशेष रूप से खुलवाए गए अलग खाते में जमा रखता।
इसके अतिरिक्त मेरी आय का एक साधन और था। मुंबई में बैंक में कार्य करते समय मुझे जो भी उपहार, भेंट आदि मिलते, मैं उसे भी इसी खाते में रखा करता था। यदि कोई उपहार या भेंट नकद न मिल कर वस्तु रूप में मिलती तो भी मेरी कोशिश यही रहती कि वह इस क्षेत्र के ग्रामीण बच्चों के लिए हमारे द्वारा दी जा रही छात्रवृत्ति या पुरस्कारों में काम अाए।
इस तरह हमने एक प्लेटफॉर्म तैयार कर लिया था जिस पर चलकर हम अपना मकसद पूरा करने का इरादा रखते थे।
लेकिन यहीं गड़बड़ हो गई।
मेरे मित्र को आशा थी कि मैं एक दिन नौकरी छोड़ कर यहां आऊंगा, और तब हम मिलकर पूरा समय अपने काम को देंगे।
किन्तु उसके लंबे इंतजार के बाद मैं आया भी तो यहां एक नए ज़िम्मेदारी भरे पद पर!
इससे उसके संवेदनशील मन को लगभग एक झटका सा ही लगा, और उसने अपने को आहत महसूस किया।
यहां से हमारे रास्ते हमेशा के लिए अलग हो गए।
उसने एक कला संबंधी शोध संस्थान खोल लिया।
उन दिनों मेरे पास रात के समय लगभग रोज़ ही बहुत से फ़ोन आते। वो ज़माना मोबाइल फ़ोन और तेज़ी से आते जाते संदेशों का नहीं था, फ़िर भी लोग मेरे सुविधाजनक समय का अनुमान लगा कर फ़ोन करते और जानना चाहते कि मैं किन अनुभवों से गुज़र रहा हूं।
कुछ जिज्ञासाएं और सवाल मुझे एक शंका से भर देते थे।
दरअसल बैंक के सेवा समय में मैंने और चंद अन्य मित्रों ने ये अनुभव किया था कि सरकार ने लगभग सभी मंत्रालयों, विभागों, संस्थानों में राजभाषा नीति के अनुपालन हेतु अधिकारियों की भर्ती तो बड़े पैमाने पर कर ली थी, किन्तु कुछ एक स्थानों को छोड़ कर शेष में इनके करियरपाथ या भविष्य की संभावनाओं पर कोई निश्चित रूपरेखा नहीं थी। इस कारण इस कैडर में लोगों में कुंठा और फ्रस्ट्रेशन भी देखा जाता था।
जो लोग साहित्य लेखन, पत्रकारिता, अनुसंधान, अनुवाद आदि कार्यों से जुड़ गए थे, वे तो फ़िर भी संतुष्ट नज़र आते थे, किन्तु शेष लोगों को अपना भविष्य कोई बहुत संतोषप्रद नहीं दिखाई देता था। वे भाषा या साहित्य के निष्णात होने के नाते, बैंक की वाणिज्यिक गतिविधियां न तो आत्मसात कर पाते थे, न इनमें आगे बढ़ने के लिए स्पर्धा ही कर पाते थे।
अधिकांश लोगों के वार्तालाप से मुझे ये आभास मिलता था कि मैंने ये रास्ता कैसे खोजा या कैसे पाया, वो इस बाबत जानना चाहते हैं।
मेरे पूर्व संपर्कों के प्रतिष्ठित लोगों के फ़ोन, पत्रादि भी आते।
एक केंद्रीय मंत्री, एक राज्य के सत्ताधारी दल के प्रदेश अध्यक्ष, कई उच्चाधिकारियों, सांसदों,विधायकों,प्रतिष्ठित लेखकों के संदेश भी मुझे मिले।
मुझे लगता था कि मुझे कच्ची मिट्टी का कोई पात्र समझ कर कई प्रख्यात महत्वाकांक्षी लोग खोजते थे। शायद उन्हें लगता हो कि मैं उनके सांचे में ढल कर उनके लिए एक कीमती सहायक सिद्ध हो जाऊंगा।
और क्या? नहीं तो ये बड़े- बड़े लोग क्यों मेरी तरफ़ हाथ बढ़ाते? कोई सुरखाब के पर लगे थे मुझमें!
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