जो घर फूंके अपना - 48 - जान बची तो लाखों पाए Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 48 - जान बची तो लाखों पाए

जो घर फूंके अपना

48

जान बची तो लाखों पाए

हम जल्दी ही भोपाल के ऊपर उड़ते हुए भोपाल कंट्रोल को अपनी पोजीशन रिपोर्ट देते लेकिन भोपाल के ठीक ऊपर दैत्याकार बादल क्रुद्ध शेषनाग जैसे फन काढ़कर फुंफकार रहे थे. सीटबेल्ट बाँध लेने का निर्देश देने वाली पट्टिका स्विच ऑन कर ली गयी. राष्ट्रपति जी को आगाह करने के लिए कोपायलट स्वयं गया और विशिष्ट कक्ष के पीछे दूसरे कक्ष में बैठे उनके दल के अन्य सदस्यों को आगाह करने के लिए केबिन क्र्यू का वरिष्ट सदस्य भेजा गया. वह सुनिश्चित करेगा कि सबने सीट बेल्ट बाँध ली है. कोपायलट के वापस आते ही विमान की नाक दाहिनी ओर पंद्रह अंश के कोण में घुमा दी गयी. अब हम अपने पूर्वनिश्चित उड़ान पथ से दूर जा रहे थे. पहले जो तूफानी बादल रास्ते में थे अब हम उनसे चालीस पैंतालीस किलोमीटर दूर रहेंगे. पर जैसे जैसे हम इन बादलों से ढंके क्षेत्र के निकट आते गए वैसे वैसे हमारे वेदर रडार की स्क्रीन काले धब्ब्नों से पूरी तरह ढंकती जा रही थी.

हमने एयर ट्रैफिक कंट्रोल को सूचित करके अपनी उड़ान इकतीस हज़ार फीट से ऊपर उठकर उनतालीस हजार फीट करने का फैसला लिया पर उस ऊंचाई पर भी ये शैतान बादल कुकुरमुत्तों की तरह आकाश में छतरी ताने खड़े दिखे. इतनी ऊंची छतरी कि उसके ऊपर से होकर निकल जाने का प्रश्न ही नहीं था. ज़रूरत थी अगले फ्लाईट लेवल अर्थात तैंतालीस हज़ार फीट पर जाने की. हमें पता था कि वहां तक चढ़ने में हमारे विमान के दोनों शक्तिशाली जेट इंजिनों का दम भी फूल जाएगा. सौभाग्य से हमारे यात्रियों की संख्या कम थी और ईंधन भी हमने पूरा न भर कर इतना ही भरा था कि हैदाराबद से दिल्ली और वहां से डाईवर्ट करने की जरूरत पड़ी तो लखनऊ या जयपुर आराम से पहुँच सकें. इस कम वज़न के कारण हमारा विमान किसी तरह हांफते हांफते कम गति से तैंतालीस हज़ार फीट तक चढ़ गया. विमान की गति वैसे ही कम करनी थी क्योंकि क्युमुलोनिम्बस बादलों के खम्भों के बीच से हमें विमान को इतनी सफाई से निकल कर ले जाना था जैसे ड्राइविंग टेस्ट में कार को निकलना पड़ता है -जब टेस्ट लेने वाले अधिकारी की पहले से सेवा न कर ली गयी हो. वहां पर किसी समझदार प्रार्थी को रिवर्स गियर में चला कर टेढ़े मेढे घुमावों से कार को निकाल कर दिखाने की ज़हमत नहीं दी जाती, ये रास्ते मुश्किल इस लिए बनाये जाते हैं कि दिवालिये और मक्खीचूस ड्राइवरों की छंटनी करके उन्हें अलग किया जा सके. कार ड्राइवर इसलिए लिखा कि ट्रक या बस ड्राइविंग का लाइसेंस बनवाने वाले इतने बेवकूफ नहीं होते कि ड्राइविंग टेस्ट की झंझट में फंसें. उस लाइसेंस की पद्धति है -एक हाथ दो दूसरे हाथ लो. बहरहाल इस समय हमें इन मदमस्त बादलों के बीच सफाई से निकल जाने के लिए और इनके पास से गुज़रते हुए अतिशय टर्बूलेंस ( उथल पुथल ) को कम करने के लिए गतिजन्य घर्षण कम करना था. अतः निर्दिष्ट ऊंचाई से थोड़ा ऊपर उड़ते हुए हमने अपने विमान की गति आठ सौ पचास किलोमीटर से घटाकर छः सौ किलोमीटर प्रति घंटा कर लिया. पूर्वनियोजित मार्ग छोड़कर काफी घूम फिर कर जाने के समय उड़ान का समय तो बढना ही था, इस कम गति के कारण भी समय अधिक लगने वाला था, अलबत्ता कम गति के कारण इंधन की खपत कम होना हमारे लिए फायदेमंद थी.

अपनी पूर्वनिर्धारित उत्तर दिशा छोड़कर हमें लगातार पूर्वोत्तर की तरफ जाना पडा. पर बादलों की श्रृंखला समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही थी. कम गति के बावजूद विमान देहात की गड्ढेदार सड़क पर उछलती – कूदती जीप की सवारी की याद दिला रहा था. अचानक हमारे बहुत पास बिजली बहुत जोर से कौंधी. कॉकपिट की रोशनी ऑन रखी गयी थी फिर भी हमारी आँखें एकदम चुंधिया गयीं. विमान एक झटके के साथ लगभग हज़ार बारह सौ फीट नीचे आ गया. हम कुछ तो अभ्यस्त थे और कुछ कड़ी मिटटी के बने होने के कारण ही इस धंधे के लिए चुने गए थे पर कोई शक नहीं कि हमारे कई यात्रियों का खाया पीया मुंह से बाहर आ गया होगा. सारे यात्री अब चिंतित हो रहे होंगे. लेकिन हम मौसम के साथ इस कड़ी लड़ाई में इतना व्यस्त थे कि किसी के आराम में खलल पड़ने की चिंता करने का समय नहीं था. आंकलन के अनुसार हम इन जंगली बादलों को अवॉयड करते करते अपने सीधे मार्ग से लगभग सौ किलोमीटर दूर आकर अब लखनऊ के करीब थे. दिल्ली सीधे जा सकते तो अब केवल बीस मिनट दूर थी पर मार्ग लगातार अवरुद्ध बना हुआ था. एक बार हमारे मन में आया भी कि डाईवर्ट करके लखनऊ लैंड कर जाएँ लेकिन कई कारणों से ऐसा करना ठीक न होता. एक तो लखनऊ कंट्रोल टॉवर के अनुसार वहाँ बादलों की सबसे निचली सतह ज़मीन से केवल सात सौ फीट ऊपर थी, घमासान बारिश हो रही थी और चालीस पचास किलोमीटर गति वाली तेज़ हवा का रुख रनवे से पैंतालीस अंश के कोण पर था. वहां का रनवे भी बहुत लंबा नहीं था. इस स्थिति में लैंडिंग का प्रयत्न करते हुए विमान का कच्चे में उतरकर दुर्घटनाग्रस्त हो जाना असंभव न था. दूसरे लखनऊ एयरपोर्ट पर ऐसा धरातली रडार न था जो उन नीचे बादलों की परत भेदकर अंधी अप्रोच करने में मदद कर पाता जबकि दिल्ली में यह सुविधा उपलब्ध थी. तीसरे दिल्ली का सतही मौसम लखनऊ से बेहतर था. बारिश की झड़ी तो वहां भी लगी हुई थी, पर आशा थी कि अगले बीस मिनटों में जब हम दिल्ली पहुंचेंगे, वहां का मौसम कुछ सुधर गया होगा. और अंतिम समस्या हमारी विशिष्ट उड़ान को लेकर थी, जो किसी और विमान पर लागू न होती. आखीकार हम भारत के राष्ट्रपति को लेकर उड़ान भर रहे थे. पूर्वनिर्धारित डेस्टीनेशन की बजाय किसी और एयरपोर्ट पर बिना पूर्व सूचना के उन्हें लेकर उतरने का अर्थ था स्थानीय प्रशासन के लिए प्रबंधन और प्रोटोकोल की पचास मुश्किलें खडी करना.

अभी कप्तान से मैं इस विषय में कुछ बोलता कि एक बार फिर भयंकर विस्फोट की आवाज़ हमारे इयरफोन पर हुई जैसे बिजली बहुत पास में चमकी हो. इसके साथ ही कॉकपिट में खटाक की आवाज़ हुई और हमारे कलेजे सीने से निकल कर हमारे मुंह में आ गए. हमने देखा कि कोपायलट की विंडस्क्रीन में एक महीन मगर लंबा सा क्रैक आ गया था. कांपते हाथों से कोपायलट ने स्क्रीन पर हाथ फेरा उस क्रैक को महसूस करने के लिए. जब पता लगा कि उसे अन्दर वाली सतह पर हाथ फेरने से महसूस नहीं किया जा सकता था तो थोड़ी दिलेरी दिखाते हुए अपने हाथ के दस्ताने उतारकर फिर से विंडस्क्रीन पर हाथ फेरा. इसके बाद और सुनिश्चित करने के लिए एक- एक करके कमांडर, नेवीगेटर, फ्लाईट इंजीनियर आदि सबने एक दूसरे को सांत्वना बंधाने वाले स्वर में बताया कि उनकी समझ से कई परतों वाली टफ़ंड पर्सपेक्स की बनी हुई विंड स्क्रीन की बाहरी सतह पर बन गये क्रैक का असर अन्दर वाली परतों पर नहीं पडा था. अब तक! आगे की भगवान् जानें! भगवान न करें पर वह चिटकी हुई विंडस्क्रीन सात आठ सौ किलोमीटर वेग के साथ इन तूफानी हालात से लड़ते हुए शहीद हो गई तो उसके बाद भारत के राष्ट्रपति से लेकर हम सबका शहीद हो जाना भी अवश्यम्भावी था उस भयंकर विस्फोटक स्थिति के कारण जिसका नाम ही है एक्सप्लोसिव डीकम्प्रेशन. यदि ऐसा हुआ तो एक भयंकर तूफान की गति से विमान के अन्दर की सारी वस्तुएं सारी खिडकियों को फाड़ती हुई बाहर उड़ जायेंगी क्योंकि विमान के अंदर लगभग ज़मीनी स्तर का वायुमंडलीय दबाव बनाकर रखा जा रहा था और बाहर एवरेस्ट से ड्योढी ऊंचाई पर हवा का दबाव नहीं के बराबर था. बाहर का तापक्रम भी माइनस पचपन डिगरी सेल्सियस था पर घोर आश्चर्य! चालकदल के किसी सदस्य को इन परिस्थितियों की विस्तार से कल्पना कर के चिंता करने की सुध कहाँ थी, अभी तो कुछ और सोचने से पहले विमान को यथाशीघ्र दस हज़ार फीट की ऊंचाई से नीचे उतारना था ताकि यदि विंडस्क्रीन फटी तो सांस ली जा सके और एक्सप्लोसिव डीकम्प्रेशन का प्रकोप कम हो. यह कोई लड़ाकू विमान तो था नहीं जो एकदम से डुबकी मारकर तीस चालीस हज़ार फीट नीचे उतार लिया जाता. यात्री विमान की अपनी मजबूरियों के अतिरिक्त अपनी अतिविशिष्ट सवारी की सुरक्षा की चिंता का भारी बोझ हमारे मन मस्तिष्क पर था. ऊपर से घनघोर बादलों की श्रृंखला सामने मुंह बाए खड़ी थी और मौसम में तुरत किसी बदलाव की आशा नहीं थी.

इस समय पहला काम था विमान की गति को कम से कम बनाये रखकर अधिकतम संभव नीचे उतरने की गति से विमान को दस हज़ार फीट तक की ऊंचाई तक उतारना. आपने कोढ़ में खाज मुहावरे का अर्थ कभी सही अर्थ में समझा है? नहीं? तो अब समझिये. उसी क्षण हमारी संचार व्यवस्था इतनी खराब हो गयी कि लखनऊ एयर ट्रैफिक कंट्रोल से हमारा सम्बन्ध टूट गया. इसके पहले हम उसे बता पाए थे कि तकनीकी कारणों से हम लगातार तेज़ी से नीचे उतर रहे थे और दिल्ली तक का शेष सफ़र हम दस हजार पांच सौ फीट की ऊंचाई पर तय करेंगे. इसकी अनुमति देते हुए लखनऊ ने हमें यह खुशखबरी भी दी थी कि दिल्ली में वर्षा का वेग अब कम हो रहा था. सबसे नीचे वाले बदल अब तीन हज़ार फीट पर थे और हवा का वेग घटकर पंद्रह नॉट्स अर्थात पैंतीस किलोमीटर रह गया था. दिल्ली अब मुश्किल से पंद्रह मिनट दूर थी. वेदर रडार ने दिखाया कि लखनऊ से दिल्ली की दिशा अर्थात 298 अंश के कोण पर अब क्युमुलोनिम्बस बादलों का प्रकोप नहीं था. वे अब हमारे रास्ते से पश्चिम दिशा में सत्तर किलोमीटर दूर गुना से पटौदी तक के क्षेत्र में सक्रिय थे. सबसे बड़ी बात यह थी कि कॉकपिट में दाहिने बाजू की विंडस्क्रीन के क्रैक ने ज़रा सी भी बढ़त नहीं दिखाई थी. हमें विश्वास होने लगा कि जितनी मुसीबतें आ सकती थीं चुकी थीं आगे केवल बेहतरी हो सकती थी. रेडियो और इलेक्ट्रोनिक उपकरण भी मौसम सुधरने के साथ धीरे धीरे बेहतर काम करने लगे थे.

क्यूमुलोनिम्बस बादलों से हमारा मार्ग अब अवरुद्ध नहीं था लेकिन परतदार बादलों के घूँघट में धरती ने अभी भी मुखड़ा छिपा रखा था. पर सारे इलेक्ट्रोनिक उपकरण काम कर रहे हों तो उसकी दरकार किसे थी. सही सलामत पहुँच गए तो बहुत देखेंगे धरती. लखनऊ से दिल्ली के रास्ते पर धरती सपाट समतल मैदानी धरती थी. ज़रूरत पड़ी तो हम तीन हज़ार फीट तक सुरक्षित उतर सकेंगे. लखनऊ ने दिल्ली को सूचित कर दिया था कि तकनीकी खराबी के कारण राष्ट्रपति का विमान कम ऊंचाई पर उड़ रहा था. हमरे विमान के जेट इंजिन बिलकुल सही काम कर रहे थे लेकिन विमान की गति हमने बहुत कम रखी हुई थी ताकि चिटकी विंडस्क्रीन पर कम से कम दबाव पड़े और वह अंत तक हमारा पूरा साथ दे सके. दिल्ली ग्राउंड रडार ने हमें पहचान लिया था. राष्ट्रपति के विमान के आने के अनुमानित समय से पंद्रह मिनट पहले सामान्य नियमों के अनुसार विशिष्ट विमान के आगमन के लिए अन्य सभी उड़ानों के लिये एअरपोर्ट अवरुद्ध कर दिया गया था. अचानक कानों मे लगे ईयरफोन पर दिल्ली की इमरजेंसी चैनेल की आवाज़ आई “ विक्टर विक्टर अल्फा ( यह हमारा कॉल साइन था) यदि आप हमें सुन पा रहे हों तो तीस अंश दाहिने मुड़ें. ” कॉकपिट में पूरे उत्साह से हमने चिल्लाकर कहा “ हुर्रे! “ अब यह स्पष्ट था कि रेडियो संचार इकतरफा भंग हुआ था. एयर ट्रैफिक कंट्रोल हमें नहीं सुन सकता था लेकिन हम उसकी आवाज़ हलके से सुन पा रहे थे. स्थिति पूरी तरह काबू में आ चुकी थी. हम संचार व्यवस्था पूरी तरह भंग हो जाने के कारण अभी तक कंट्रोल को यह नहीं बता पाए थे कि हमारी कॉकपिट विंडस्क्रीन चटक गयी थी. अच्छा ही हुआ! बता सके होते तो त्राहि त्राहि मच जाती. वायुभवन से लेकर राष्ट्रपति भवन तक यह खबर आग की तरह फ़ैल जाती. हवाई अड्डे पर शायद वायुसेनाध्यक्ष और रक्षा मंत्री ही नहीं प्रधान मंत्री भी भाग कर आतीं. अभी तक हमने नीचे उड़ने का कारण केवल तकनीकी खराबी बताया था पर खराब मौसम से लड़ते हुए ऐसा होना कोई अनहोनी नहीं थी. इसका अर्थ यह नहीं था कि विंड स्क्रीन के चटकने की बात हम छिपा जाते. वह तो हमारे अधिकारियों के सामने उजागर होनी ही थी पर उसके लिए वरुण देव और इंद्रदेव को दोषी करार दिया जाता, हमें नहीं. इस प्रकार की घटना की पुनरावृत्ति रोकने के लिए तुरंत कदम उठाना परम आवश्यक था, पर वह सब तो वायुसेना के अंदर की बात थी.

इस उथलपुथल भरे जीवन मृत्यु के खेल से गुज़र जाने के बाद फिर क्या हुआ? होना क्या था. इस उड़ान का अंत भी सकुशल हो गया. बस एक अंतर था हमेशा से. राष्ट्रपति महोदय को विदाई देने के बाद जैसे ही उनकी कार चली, कप्तान ने मेरी तरफ मुड़कर देखा और बोले “आज पूरी टीम ने बहुत अच्छे कार्यकौशल का परिचय दिया. वर्मा, विशेषकर तुमने उन भयंकर बादलों के बीच से जहाज़ को बहुत सफाई से नेवीगेट किया. इसके लिए तुम्हे एक ईनाम देना चाहता हूँ. ”

मेरी खुशी का ठिकाना न था. मुझे लगा शायद वे मेरा नाम वायुसेना मैडल के लिए आगे बढाने की सोच रहे हैं. धड़कते हुए दिल को बल्लियों उछलने से रोकते हुए मैंने भोला सा भाव चेहरे पर लाकर उनसे पूछा “ थैंक यू सर, पर क्या इनाम दे रहे हैं आप मुझे?”

अपनी घनी मूंछों के बीच से मुस्कराते हुए उन्होंने कहा “ बस यही कि किसी को बताउंगा नहीं कि आज महामहिम राष्ट्रति हैदराबाद एयरपोर्ट पर खड़े होकर महामहिम फ्लाईट लेफ्टिनेंट ए एन वरमा की प्रतीक्षा करने का दंड भुगतने से बच गए!”

क्रमशः ------------