जो घर फूंके अपना - 47 - गरजत बरसत सावन आयो री ! Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 47 - गरजत बरसत सावन आयो री !

जो घर फूंके अपना

47

गरजत बरसत सावन आयो री !

घड़ी की सेकेण्ड वाली सुई ने घूमकर इधर ठीक आठ बजाए और समय की अतीव पाबंदी के साथ, जिसके लिए हमारी वी आई पी स्क्वाड्रन विख्यात थी, विमान का इंजन चालू कर दिया गया. पश्चिमी हवा चल रही थी अतः पश्चिमोन्मुख रन वे 28 से जहाज़ के टेक ऑफ़ करने के बाद हमने सामान्य रूप से बाईं तरफ ( पोर्ट साइड) मुड़ने की बजाय विशिष्ट फ्लाईट को मिलने वाली छूट का लाभ उठाते हुए विमान को दाहिनी तरफ ( स्टारबोर्ड साइड) घुमाते हुए उत्तर दिशा की तरफ रुख किया. ज़मीन से तीन सौ फीट ऊंचा पहुँच कर लैंडिंग गियर अर्थात पहियों को ऊपर खींच लिया गया. वे विमान के उदर में मुड़कर गर्भ में सोते हुए बच्चे की तरह छिप गए. फिर फ़्लैप्स जो विमान के उठाने का कोण तीक्ष्ण बनाकर ज़मीन से जल्दी उठाने में मदद करते हैं ऊपर खींचकर विमान के डैनों में छिपा लिए गए. फिर मुड़ कर 358 डिग्री की दिशा पकड़कर हमारा विमान बादलों के छोटे छोटे गुच्छों से आंखमिचौनी खेलता हुआ जब अपने क्र्यूजिंग आल्टीच्यूड इकत्तीस हज़ार फीट की ऊंचाई पर पहुँच गया तो थ्रोटल को थोड़ा पीछे खींचते हुए पावर घटाकर जहाज़ को आटोपायलट सेटिंग पर डालने के बाद हमने हैदराबाद कंट्रोल टावर को अलविदा कहा.

किसी विमानचालक से टेक ऑफ़ और लैंडिंग दो ही करतब सबसे अधिक कौशल की मांग करते हैं. तूफानी मौसम हो, बहुत तेज़ बारिश हो या घना कुहरा छाया हो सब उड़ान के प्रारम्भ और अंत के क्षणों में चालक और चालकदल सबकी परीक्षा लेते हैं. एक बार सकुशल धरती की मोहमाया के बंधन से मुक्त होकर ऊपर उठ लिए तो सामान्य मौसम में विमान चालन बहुत सरल काम लगता है. कम से कम उनको जिनके लिए यह रोज़ का काम हो. अगले रिपोर्टिंग पॉइंट अर्थात भोपाल के ऊपर पहुँचाने में अभी बीस मिनट बाकी थे. वह खतरनाक क्षण आ ही गया जिससे मैं घबरा रहा था. कप्तान ने मेरी तरफ आग्नेय नेत्रों से घूरते हुए बिना एक भी शब्द बोले आँखों ही आँखों में कई सवाल पूछ डाले. मैं चुप रहकर सामने अलसाए हुए नीले आकाश का विस्तार देखता रहा. इतना तो वे जानते ही थे कि मैं उस गाड़ी से नहीं आया था जिसे मेरे लिए नियुक्त किया गया था. मैंने उन्हें अनुमान लगाने दिया कि रास्ते में कोई छोटी मोटी दुर्घटना हुई होगी गाड़ी का ब्रेक डाउन हुआ होगा. मेरी चुप्पी से थककर वे ही बोले “गलती मेरी थी जो मैंने तुम्हे रात में सबसे अलग ठहरने की अनुमति दे दी. पर यह मत समझना कि इससे तुम्हे अपनी लापरवाही का नतीजा नहीं भुगतना पडेगा. वहाँ पर उपस्थित लोगों के सामने मैं नहीं खोलना चाहता था कि आज क्या होते-होते रह गया. पर दिल्ली पहुँच कर बात ऊपर बतानी ही पड़ेगी. आगे के लिए तुम्हे अच्छा सबक मिलना ही चाहिये. ” मैंने अपने बचाव में कुछ कहना चाहा पर उचित शब्द नहीं सोच पाया. मिनमिनाते हुए येस्सर कह कर चुप हो गया. फिर अगले रिपोर्टिंग प्वाइंट भोपाल की दिशा दिखानेवाले यंत्र वी ओ आर का स्विच ऑन करके उसके डायल पर अपनी नज़रें जमा लीं.

मैं अभी भी आश्वस्त नहीं हुया था कि वह अप्रिय अध्याय बंद हो गया है लेकिन बात का रुख बदलने में सहायक हुआ आकाश के पटल पर तेज़ी से बदलता हुआ मौसम. मैंने उस दिन की मौसम विभाग की लिखित सूचनाओं और पूर्वानुमान वाला कागज़ निकला जिसका उड़ान के पहले गंभीरता से अध्ययन करने पर आज सुबह एअरपोर्ट पर हुई गहमागहमी में उन दोनों ने ध्यान नहीं दिया था जिन्होंने फ्लाईट क्लियरेंस ली थी. असल में वह काम मेरा था पर मुझे अब तक होश संभालने का मौक़ा कहाँ मिला था. अब जाकर उस लिखित ब्रीफिंग पर नज़र डाली तो मेरे कान खड़े हो गए. पूर्वी राजस्थान, दक्षिण पूर्वी हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में मानसून अचानक बहुत तीव्र हो गया था. हमारे दिल्ली पहुँचाने के पूर्वानुमानित समय पर ज़ोरदार बारिश और बहुत तेज़ हवाओं के चलने का अनुमान था. इतना ही नहीं, भोपाल के उत्तर में हमारे पूरे रास्ते में उग्र मानसूनी बादलों के दस्ते पर दस्ते हमारी इंतज़ार कर रहे थे. हमारी उड़ान की ऊंचाई अर्थात एकतीस हज़ार फीट पर ऊंचे बादलों के ढेर पर ढेर हमें मिलेंगे. धरती का दर्शन तो निचली सतहों पर बिछे हुए बादलों की चादर के कारण टेक ऑफ़ करने के दस पंद्रह मिनटों के अन्दर ही मिलना बंद हो चुका था.

बरसात का मौसम लगभग बीत चुका था, पर मानसूनी मौसम की यही विशेषता है कि किसी झक्की बॉस या बदमिजाज़ बीबी की तरह उसका मूड बनता बिगड़ता रहता है. मानसून के दो मुखौटे होते हैं, सक्रिय और निष्क्रिय. इन दोनों मुखौटों को वह ऐसे बदल बदल कर अपने चेहरे पर लगाता रहता है जैसे दशहरे के मेले में राम और रावण के दो मुखौटों को कोई बच्चा शौक से बदल बदल कर अपने चेहरे पर लगाता रहे. तभी कहते हैं कि मानसून नाड़ी की तरह रह-रह कर धड़कता है. सितम्बर के महीने में जब दक्षिण पश्चिमी मानसून एक लम्बे रोल से थके हुए कई अंकों वाले नाटक के हीरो की तरह नाटक के अंतिम दृश्य में पहुंचता है तो अचानक कभी कभी बहुत आवेश में भड़क उठता है. जैसे बुझते हुए दिए की लौ भड़क कर अचानक बहुत तीव्र हो जाये वैसे ही मौसम के अंत से पहले एकाध बार वर्षा का अंतिम प्रहार बहुत गर्जन तर्जन के साथ होता है. बादल अचानक धरती पर धमाके के साथ फट पड़ते हैं और आकाश में विमान उड़ाते हुए अच्छे से अच्छे विमानचालकों के सामने परीक्षा की घड़ी आ खडी होती है. विमानचालन की दृष्टि से यह अचानक क्रुद्ध हो जाने वाला सिलसिला उतना ही कठिन होता है जितना दक्षिण पश्चिमी मानसून का अपनी जवानी में पूर्णतः सक्रिय होने पर. उन दिनों लम्बी उड़ानों में विमान का ऑटोपायलट सेट करने के बाद कॉकपिट में चालकों के बीच गप्पों का बाज़ार गर्म नहीं हो पाता. गरज – बरस कर प्यासी धरती को तृप्त कर देने वाले बादल आकाश में उमड़ घुमड़ का कवियों, विरही यक्ष और यक्षिणी को भले रिझाते हों पर बाहर से मनोहारी दीखने वाले ये मानसूनी बादल अपनी पूरी उठान पर आते हैं तो विमान चालक को उनसे निपटने के लिए अपने पूरे कौशल, सूझबूझ और साहस की उतनी ही ज़रूरत पड़ती है जितना किसी क्रुद्ध हो गए मस्त हाथी से अपनी जान बचाने के लिए सघन झाड़ियों और ऊंचे ऊंचे पेड़ों के बीच छुप छुप कर भागते हुए किसी निहत्थे राहगीर को पड़ेगी.

आज इक्कीसवीं शताब्दी के लगभग सभी यात्री विमान लगभग चालीस हज़ार फीट की ऊंचाई पर उड़ते हैं. लेकिन आज से चालीस साल पहले के हमारे टी यू 124 विमान जो उन दिनों के हिसाब से एक आधुनिक और सशक्त जेट विमान था ( तभी तो हमारे अतिविशिष्ट व्यक्तियों की उड़ान भरने के लिए चुना गया था) की क्षमता पूरे भार के साथ अधिक से अधिक चालीस हज़ार फीट तक चढ़ पाने की थी. इससे ऊपर उड़ने की कोशिश किसी दमा के मरीज़ को एवरेस्ट के ऊपर चढाने की कोशिश जैसी होती. सशक्त गरज के साथ हुंकारता हुआ मानसून परिवार का क्यूमुलोनिम्बस बादल एक तूफानी खम्भे की तरह आकाश में पचास-पचपन हज़ार फीट की ऊंचाई तक चढ़ जाता है. अपने यौवन को पार करके जिस समय वह परिपक्व हो रहा होता है उसके अन्दर जल का एक बहुत विशाल भण्डार आकश में खडी होती एक बहुमंजिली इमारत की तरह चढ़ता चला जाता है. कल्पना कीजिये नियाग्रा प्रपात नीचे गिरने के बजाय आकाश में सीधे ऊपर उठता हुआ पचास हज़ार फीट की ऊंचाई तक पहुँच जाए, उसकी परिधि चालीस पचास किलोमीटर से लेकर सौ किलोमीटर तक की हो और उसकी अपार जलराशि जैसे जैसे आकाश में ऊपर चढ़े वैसे वैसे उसका जल ठंढा होते -होते ओले और बरफ में बदलता चला जाये. और यह जलराशि सीधे एक तूफान की तरह लम्बवत ऊपर भाग रही हो. अब कल्पना कर के बताइये कि इस उर्ध्वगामी नियाग्रा प्रपात में शून्य तापक्रम के बड़े बड़े आकार के बर्फीले ओलों में बदल रहे पानी के अथाह भण्डार में आप एक जेटबोट में आठ सौ किलोमीटर की रफ़्तार से घुस जायें तो क्या होगा. रोंगटे खड़े हो गए न? पर मैं कोई काल्पनिक हौवा नहीं खड़ा कर रहा हूँ. वास्तव में क्युमुलोनिम्बस नाम का तूफानी बादल ऐसा ही होता है अपनी बनावट में. और फिर जब ऊपर चढ़ते चढते पैंतालीस-पचास हज़ार फीट की ऊंचाई पाकर उसकी ऊर्जा समाप्त होने लगती है तो घमंड से चूर किसी नौकरशाह की तरह अधिकतम ऊन्चाइयों को छूने के बाद अपनी महानता का बोझ उसकी संभाल के भी बाहर हो जाता है और उसका विघटन शुरू हो जाता है. तब धरती पर मूसलाधार वर्षा होने लगती है. मस्त हाथी की तरह ऐसे बौराए -पगलाए बादलों से उलझना किसी विमान के बस की बात नहीं होती है. इन बादलों के वर्तुलाकार स्तम्भ अन्य बादलों की परतें फोड़कर ऐसे ऊपर उठे रहते हैं जैसे नम धरती के ऊपर कुकुरमुत्ते उग आते हैं. तब इनसे बचते बचाते विमान को कुशलतापूर्वक उनसे दूर निकाल ले जाने में ही खैरियत होती है. इन गरजते तरजते बादलों के पास से गुज़रते विमान को भीषण उथल पुथल झेलनी पड़ती है. आँखों के ठीक सामने बिजली चमक कर जब आकाश के वक्ष पर चान्दी का तंतुजाल बुन देती है तो निकट से देखने वाली आँखें सिर्फ चुंधिया नहीं जातीँ बल्कि स्थायी दृष्टिहीनता का शिकार बन सकती हैं. अक्सर संचार उपकरण बहुत निकट बिजली कड़कने से काम करना बंद कर देते हैं, न भी हुए तो बिजली चमकने से उत्पन्न स्टेटिक अर्थात चुम्बकीय तरंगों से वायरलेस पर होने वाली बातचीत में इतना शोर और बाधा आने लगती है कि एयर ट्रैफिक कंट्रोल से संपर्क भी दुह्साध्य होने लगता है. क्युमुलोनोम्बस बादल अन्य बादलों के पीछे छिपे हुए हैं तो भी दूर से ही उन की उपस्थिति ताड़ लेने में सहायक होता है वेदर रडार नामक इलेक्ट्रोनिक यंत्र. रडार से जैसे आकाश में किसी विमान की दिशा और दूरी का अनुमान मिल जाता है वैसे ही विमान की कॉकपिट में लगे हुए इस यंत्र से क्युमुलोनिम्बस बादलों को सैकड़ों मील दूर से देखा जा सकता है.

मौसम विभाग की रिपोर्ट पढ़कर मैंने अपने कप्तान को सावधान किया कि मौसम आज अपने तेवर दिखाएगा. लेकिन कल से आज तक मौसम इतना बदल जायेगा इसकी हम कल्पना भी न कर पाए. वैसे भी कप्तान का ख्याल रहा होगा कि देर से आने की गलती छुपाने के लिए मैं जान कर विषयांतर कर रहा था. उन्होंने अपनी बड़ी बड़ी मूंछों को मरोड़ते हुए कहा “ठीक है, देख लेंगे. तुम वेदर रडार पर नज़र रखो. ” मैंने वेदर रडार ऑन किया. उसकी गहरे हरे रंग की गोल स्क्रीन के केंद्र से किसी चक्के की धुरी से निकली तीली की तरह निकल कर प्रकाश की किरण गोल चक्कर काट रही थी. उस किरण से टकरा कर हरी स्क्रीन पर प्रदीप्त होकर कालिमा लिए कई गहरे हरे धब्बे चमक रहे थे. जब बादल बहुत परिपक्व अवस्था में हों और उनके अन्दर का घर्षण बहुत अधिक हो तो आइसो ईको कंट्रोल स्विच दबाने पर स्क्रीन पर बहुत उजड्ड बादलों वाला भाग काला लगता है. हमारी स्क्रीन अब ऐसे ही नज़ारे दिखा रही थी. आजकल तो वेदर रडार रंगीन नज़ारे दिखाते हैं. यही तो है ज़माने की रफ़्तार कि मौत भी सामने खडी हो तो जमाना उसे भी रंगीन मिजाजी के साथ देखता है. बहरहाल उस समय ज़्यादा रंगीन विचार का मौक़ा नहीं था क्योंकि सारे धब्बे हमारे सामने की दिशा में बाएं से दाहिने पैंतालीस अंश के त्रिशंकु आकार में चमक रहे थे अर्थात हमारी उड़ान के रास्ते में ठीक सामने बाएं और दाहिने बड़े बड़े क्युमुलोनिम्बस बादल हथियारों से लैस सजग आक्रामकों की तरह हमारी इंतज़ार मे खड़े थे. सबसे पासवाले धब्बे की दूरी लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर थी. हम लगभग ग्यारह मिनट में उनके पास पहुँच जायेंगे.. मैंने कप्तान को सचेत करके रडार की रेंज बदल दी थाह लगाने के लिए कि आगे कितनी दूर तक ये दुश्मन हमें घाट लगाए इंतज़ार करते मिलेंगे. पर आगे का नज़ारा बहुत प्रीतिकर नहीं था. स्पष्ट था कि दिल्ली तक हमें लगातार इनसे जूझते रहना होगा.

क्रमशः -----------