Mahamaya - 23 books and stories free download online pdf in Hindi

महामाया - 23

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – तेईस

ठीक एक बजने में पाँच मीनिट पूर्व बाबाजी ने समाधि पर से मिट्टी हटाने का संकेत किया। कौशिक, जसविंदर और दो अन्य लोगों ने बाबा का संकेत मिलते ही समाधि के ऊपर की मिट्टी और एक टीन की चद्दर को हटाते हुए एक सीढ़ी नीचे गड्ढे में उतार दी।

मंदिर प्रांगण में सन्नाटा था। लोग साँस रोके बैठे थे। समाधि के समीप जो गणमान्य नेता, पत्रकार, आयोजक परिवार के सदस्य बैठे थे, वे उचक-उचक कर कोतुहल के साथ समाधि के अंदर झांकने की कोशिश कर रहे थे। विदेशियों ने भी अपने कैमरे गड्ढे की दिशा में मोड़ दिये।

गड्ढे में स्वामी सूर्यानंद ध्यान की मुद्रा में स्थिर बैठे थे। बाबाजी ने सीढ़ी से अंदर प्रवेश किया और कुछ बुदबुदाते हुए स्वामी सूर्यानन्द जी के सिर पर अपना हाथ रख दिया। स्वामी सूर्यानन्द जी के शरीर में हल्की सी सिहरन हुई। फिर उन्होंने धीरे से आँखे खोल दी। बाहर जनता लगातार बाबाजी और स्वामी सूर्यानन्द की जय का उद्घोष कर रही थी।

सीढ़ियों से पहले बाबाजी बाहर आये। उनके पीछे-पीछे स्वामी सूर्यानन्द जी। सूर्यानन्द जी को देखते ही जय घोष तीव्र हुआ फिर लोगों ने शांत होकर प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़ दिये। लोगों की आँखो में आश्चर्य और विस्मय था। लोग स्वामी सूर्यानन्द जी के दर्शनों के लिये एक दूसरे के कंधो पर चढ़ गये थे। कुछ लोग स्वामी सूर्यानन्द को प्रणाम करने के लिये दौड़ पड़े। भीड़ में अफरातफरी मच गई। लोगों ने समाधि स्थल के चारों ओर लगे बैरिकेट्स तोड़ दिये। कार्यकर्ता काफी जद्दोजहद के बाद भी भीड़ को नियंत्रित नहीं कर पा रहे थे। स्थिति बेकाबू होती देख बाबाजी ने संतु महाराज के हाथ से माईक लेते हुए कहा-

‘‘कोई भी भक्त स्वामी सूर्यानन्द जी को छुएगा नहीं। स्वामीजी अभी-अभी समाधि से बाहर आए हैं। उनमें इतनी ऊर्जा संचित है कि सामान्य आदमी उस ऊर्जा के प्रभाव को सहन नहीं कर सकता। इसलिये आप सभी दूर से ही स्वामीजी के दर्शन करें।’’

बाबाजी की बात का प्रभाव हुआ। लोग शांत होने लगे इसी बीच बाबाजी श्री माता और स्वामी सूर्यानन्द को लेकर मंदिर प्रांगण में ही बनाये गये विशिष्ट मंच पर पहुँच गये। बाबाजी के साथ सारिका भी थी। एक बार फिर प्रांगण स्वामी सूर्यानन्द जी की जय गूँज उठा। स्वामी सूर्यानन्द ने सभी श्रद्धालुओं के अभिवादन के लिये दोनों हाथ ऊपर उठा दिये थे।

पूरे वातावरण में सनसनी थी.........उत्तेजना का माहौल था। कुछ ही पलों में सनसनी और उत्तेजना पर श्रद्धा हावी होने लगी। हजारों हाथ किसी यंत्र चलित मशीन की तरह प्रणाम की मुद्रा में ऊपर उठ गये और धीरे-धीरे वातावरण में शांति घुलने लगी।

करीब पन्द्रह बीस मीनिट मंच पर बैठने के बाद स्वामी सूर्यानन्द जी श्रीमाता के साथ केलकर भवन लौट गये। बाबाजी संत निवास की ओर चल दिये। दोनों माताएं, अखिल और अनुराधा और वानखेड़े जी भी आपस में बतियाते हुए संत निवास की ओर बढ़ गये।

कुछ लोग गड्ढे के अंदर झांकना चाहते थे लेकिन कौशिक और जसविंदर तब तक गड्ढे को फिर से ढंक चुके थे। मंदिर प्रागंण धीरे-धीरे खाली हो रहा था। लोग आपसी बातचीत में कोतूहल और आश्चर्य प्रकट करते हुए अपने घरों को लौट रहे थे।

‘‘बड़ा तप है भई। तीन दिन तक भूखे प्यासे रहने के बाद भी जरा सी थकान नहीं थी चेहरे पर‘‘

‘‘तुमने देखा। स्वामी जी के गले में डला फूलों का हार कितना ताजा लग रहा था।‘‘

‘‘हाँ सच्ची में। अपने घर में तो सुबह के रखे फूल दोपहर में ही कुम्हला जाते हैं।‘‘

‘‘पर यहां देखो तीन दिन बाद भी ‘हार‘ ऐसा था जैसे अभी-अभी ताजे फूल तोड़कर माला गूंथी हो।‘‘

‘‘कुछ भी कहो, पर है तो कठोर तप। तीन दिन तक भूखे प्यासे बिना साँस लिये एक अंधेरे गड्ढे में रहना आसान नहीं है।‘‘

‘‘सही है । देखा नहीं गड्ढा कैसे बंद कर रखा था। हवा जाने की जरा भी जगह नहीं थी। आप और हम गड्ढे में उतर जायें तो पाँच मीनिट में ही रामनाम सत्य।‘‘

‘‘योगी लोगों को सांस लेने की जरूरत ही नहीं पड़ती। ये लोग तो योग के बल पर महिनों बिना सांस लिये गुफाओं में पड़े रहते हैं।‘‘

‘‘हमको किसी ने बताया था कि बाबाजी ने तीस दिनों तक बर्फ की सिल्लियों के बीच में समाधि ली थी।‘‘

‘‘कमाल है भई‘‘

अलग-अलग समूहों में बंटे लोग लगभग एक जैसी बातें दोहरा रहे थे। महिलाओं के समूह में पूर्ण श्रद्धा का माहोल था। महिलाएं समाधि के गड्ढे के सामने पल्लू को माथे से छुआकर प्रणाम कर रहीं थी। कोई अपने पल्लू में समाधि की मिट्टी बांधकर ले जा रही थी। कोई समाधि की मिट्टी माथे से लगा रही थी।

कुछ लोग समाधि को लेकर संदेह भी प्रकट कर रहे थे।

‘‘मैने कल किसी लोकल अखबार में पढ़ा था कि गड्ढे में पहले से इतनी हवा रहती है कि कोई भी गड्ढे में तीन दिन जीवित रह सकता है।’’ एक ने संदेह प्रकट किया।

‘‘अखबार वाले की माँ की टांग‘‘ एक पहलवान नुमा प्रौढ़ ने समूह में घुसते हुए कहा। ‘‘तुम्हें मालूम है वो अखबार कौन निकालता है? असलम। अब भी कुछ नहीं समझे क्या ? अभी उस अखबार वाले को गड्ढे में बैठा देंगे तो चार घंटे में ही कफन-दफन हो जायेगा। अरे ये सब हिन्दु धर्म के विरोधी हैं। जरा बात को समझो फिर बोलो।

‘‘सही बात है भैया, गड्ढा हमारे सामने तैयार हुआ। हम चैबीसों घंटे वहाँ थे। फिर हमारी छोड़ दो ये ससुरे इतने सारे अंग्रेज यहाँ आये है। इनकी भी बड़ी-बड़ी आँखे हैं। देखा नहीं कैसे दीदे फाड़-फाड़कर समाधि में झांक रहे थे। फिर इतने कैमरे भी तो समाधि में अपनी थंूथ घुसाये थे।‘‘

‘‘हाँ तीन चार अंग्रेज तो पूरी समाधि की फिल्म बना रहे है। उनने तो गड्ढे में उतरकर भी शूटिंग की है। सुना हैं यह फिल्म डिस्कवरी पर दिखायेंगे।‘‘

‘‘लो........अब बोलो‘‘

‘‘हाँ सही कह रहे हो भैया तुम’’

‘‘डिस्कवरी वाले सब एकदम सच्ची बात दिखाते हैं’’

इतने सारे विदेशी आये है तो फिर गड़बड़ होने का सवाल ही नहीं उठता।

इस तरह प्रांगण में समाधि को लेकर शंकाये उठती रही और शांत होती रहीं। जन मानस में संदेह उपज रहा था और जन सैलाब ही इस संदेह को आस्था में तब्दील कर रहा था।

समाधि के साथ ही यज्ञ की भी पूर्णहुति हुई। इस अवसर पर आयोजित भंडारे में शहर के हजारों लोगों ने भोजन किया। किशोरीलाल खुद भंडारे की सारी व्यवस्थाओं पर नजर रखे हुये थे। कुछ लोग भण्डारे में स्वेच्छा से सेवा दे रहे थे।

खाने वाले चटखारे लेकर खा रहे थे। एक पंगत उठती दूसरी लग जाती। पंगत का क्रम जारी था।

उधर भोजन शाला में तीस-चालीस महिलाएं हाथों को तेज-तेज चलाते हुए पूड़ी बेल रही थी। जिस गति से हाथ चल रहे थे उसी गति से मुंह भी चल रहा था। पूड़ियों के साथ-साथ बातें भी आकार ले रही थी।

‘‘कल शायद बाबाजी वापिस चले जायेंगे।‘‘

‘‘नहीं-नहीं। दो एक दिन तो अभी बाबाजी को रोकेंगे।‘‘

‘‘हाँ बाबाजी के जाते ही सब सूना जो हो जायेगा‘‘ एक ने थोड़ा निराश होते हुए कहा।‘‘

‘‘सच बहिन पता ही नहीं चला कैसे दस दिन निकल गये‘‘

‘‘मैं तो सुबह से ही नहा-धोकर मंदिर आ जाती फिर सीधे शाम को ही घर जाती थी।‘‘

‘‘एईऽऽ सुनो हम लोग भी एक बार बाबाजी के आश्रम चलेगें। देखे तो आश्रम कैसा है अपने गुरु महाराज का‘‘

‘‘अब बाबाजी से जुड़ गये है तो बाबाजी का आश्रम भी अपना मायका है। जब चाहो जाओ। जब चाहो वापिस आओ।‘‘

बीच-बीच में परोसगारी करने वाले चिल्ला कर बातों के तार-तोड़ देते।

कुछ देर के लिये बातें बंद हो जाती महिलाएँ तेज-तेज पूड़ियां बेलने लगती फिर बातें चलने लगती।

देर रात तक भंडारा चलता रहा। आधी रात के बाद जाकर मंदिर में सन्नाटा हुआ।

मंदिर प्रांगण में शांति छा जाने के बाद ही अखिल अपने कमरे में पहुंचा। वह थककर चूर हो गया था। वह बिना कपड़े बदले कुछ देर आँखें बंद किये बिस्तर पर पड़ा रहा। फिर उठा और डायरी लिखने लगा।

डायरी:

आज का दिन बहुत व्यस्तता वाला रहा। यह थकान कुछ करने की नहीं बल्कि भीड़ के बीच रहने की है। लोगों के बीच रहना भी एक नशा है। आप कितना भी थक रहे हो लेकिन लोगों के बीच से उठने को जी नहीं करता। मेरी भी यही स्थिति है।

सूर्यानन्द जी की समाधि देखना मेरे लिये एक अविस्मरणीय घटना है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि तीन दिन पहले जो आदमी जितना फ्रेश समाधि में उतरा था तीन दिन बाद भी वो उतना ही तरो ताजा समाधि से बाहर निकला। क्या यह आश्चर्यजनक बात नहीं है ? बल्कि सच कहूँ तो मुझे सूर्यानंद जी के चेहरे पर ज्यादा ताजगी दिखायी पड़ रही थी।

समाधि को लेकर सूर्यानन्द जी के अनुभव जानने में मेरी गहरी उत्सुकता है। निश्चित रूप से समाधि के बाद वो अपने अंदर एक बड़ा बदलाव महसूस कर रहे होंगे........उनका यह तीन दिनों का अनुभव सच कितना अद्भुत होगा। काश में भी ऐसा अनुभव कर पाता।

आज मैने बाबाजी से दीक्षा के बारे में बात की थी। जवाब सुनकर मुझे इस बात का अहसास हुआ कि बाबाजी की मुझ पर विशेष कृपा है। उन्होंने कहा कि तुम्हारे जीवन का प्रयोजन अलग है इसलिये तुम्हारी विशिष्ट दीक्षा होगी। यहाँ नहीं नैनीताल में होगी। यह बात सुनकर ही मैं रोमांचित हूँ। मैं जल्द से जल्द दीक्षा के अनुभव को पाना चाहता हूँ। मैं बाबाजी के साथ नैनीताल जा रहा हूँ और कुछ समय वहीं रूकूंगा।

यह बात आज मैंने माँ को भी बतायी। माँ मेरे ऊपर बाबाजी की विशेष कृपा वाली बात सुनकर बहुत खुश हुई। उसने कितना उत्साहित होते हुए कहा था कि तुम मेरी बिलकुल चिंता मत करना। वहाँ रहकर बाबाजी की खूब सेवा करना और रोज उनका आशीर्वाद लेना।

यहाँ मेरे मन में यह प्रश्न भी उठ रहा है कि क्या दीक्षा भी साधारण और विशिष्ट होती है? दोनों में क्या अंतर है? यह कैसे तय होता है कि कौन साधारण दीक्षा का पात्र है और कौन विशिष्ट दीक्षा का?

साध्वी कुसुम के बारे में भी बहुत कुछ जानना है। मैंने कौशिक जी से पूछा भी लेकिन वो टाल गये। फिर किसी दिन किसी और से इस विषय पर बात करूँगा।

नींद बहुत तेज आ रही है। अब बस यहीं बंद करता हूँ।

अगले दो दिनों तक दीक्षा का कार्यक्रम चलता रहा। नौगाँव में बाबाजी से दीक्षित भक्तों की संख्या हजारों में पहुंच गई थी। जैसे-जैसे बाबाजी की विदाई का समय नजदीक आता जा रहा था माहौल में खामोशी व्याप्त होती जा रही थी।

दोपहर तक बाबाजी की विदायी की तैयारियां पूर्ण हो गई। पिछले पाँच दिनों में हजार-बारह सौ दीक्षित परिवारों के अलावा और भी भक्त मंदिर प्रांगण में मौजूद थे। कार्यक्रम के आयोजक किशोरीलाल, मोघे, पठारे सभी अपने परिवार सहित उपस्थित थे। मंडली के सभी सदस्य अलग-अलग गाड़ियों में बैठ चुके थे। शास्त्री जी, वैद्यजी और डाॅ. अनुराधा सुबह ही दिल्ली के लिये निकल गये थे। श्रीमाताजी भी यहीं से आस्ट्रेलिया लौट गई थी। बाबाजी और माताओं वाली गाड़ी में ड्रायविंग सीट पर कौशिक की जगह जग्गा बैठा था। कौशिक विदेशियों को लेकर पहले ही रवाना हो चुके थे। एक गाडी में में अखिल,वानखेड़े जी जी, खप्पर बाबा और सूर्यानन्द महाराज थे। करुणा चाची, साध्वी कुसुम और अन्य महिलाएँ एक अन्य गाड़ी में थी। बाबाजी की सफारी में दोनों माताएँ पीछे की सीट पर बैठ चुकी थी। बाबाजी गाड़ी के बाहर खड़े भक्तों का प्रणाम स्वीकार कर रहे थे। अपने गुरु को विदाई देते समय भक्तों की आँखे नम थीं। विदाई में विलंब होते देख वानखेड़े जी भक्तों से कहने लगे -

‘‘जल्दी विदाई दीजिए। बाबाजी आपसे दूर थोड़े ही जा रहे हैं। जब भी आप गुरुदेव का ध्यान करेंगे, गुरुदेव मुस्कुराते हुए आपके सामने प्रकट हो जायेंगे। बोल सद्गुरु महाराज...... लीलाधारी..... महायोगी...... महामंडलेश्वर की।’’ वानखेड़े जी ने सफारी का आगे का दरवाजा खोल दिया। बाबाजी आगे की सीट पर बैठ गये। भीड़ ने जय का उद्घोष किया। इतने में सारिका भीड़ में से निकलकर बाबाजी के सामने खड़ी हो गई और निर्णायक स्वर में बोली -

‘‘मैं जल्दी आऊँगी’’

बाबाजी ने सारिका के सिर पर हाथ रखते हुए कहा ‘‘मुझे तुम्हारा इंतजार रहेगा बेटा’’

भीड़ लगातार सद्गुरु महाराज......लीलाधारी.....महायोगी......महामंडलेश्वर की जय का उद्घोष कर रही थी। भीड़ में सारिका के माता-पिता भी खड़े थे, उनकी आँखें नम थीं।

जय घोष के स्वर के साथ स्वर मिलाते हुए सभी गाड़ियां घरघराईं और काफिला आगे बढ़ गया। थोड़ी ही देर में गाड़ी में बैठे लोग ऊंघने लगे थे।

क्रमश..

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED