वह सब जो मैंने कहा VIRENDER VEER MEHTA द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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वह सब जो मैंने कहा

आज 'लोकल' में भीड़ नहीं थी। ऐसा कम ही होता है, मेरे आस पास भी केवल तीन लोग ही थे। एक सामने की सीट पर और दो साइड विंडो सीट पर। ट्रेन दो स्टेशन पार कर चुकी थी, तीसरे स्टेशन पर उसने कम्पार्टमेंट में प्रवेश किया। उस समय मैं अपनी सीट पर सिर झुकाए मोबाइल पर एक पुरानी क्लासिक फ़िल्म देख रहा था। उसके सैंडल की आहट से मेरी नजरें अनायास ही सर्वप्रथम उसके पैरों पर गई।

गहरे रंग के सैंडल में उसके खूबसूरत पैर देखकर मेरा, उसकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक ही था। सलीके से कटे नाखून, गोरी एड़ियां और हसीं पैरों को देखकर ही अनुमान लगाया जा सकता था कि वह अवश्य ही सुंदर होगी। मेरी नजरें बड़ी देर तक उन कदमों पर टिकी रही। हालांकि मैं जानता था कि यह शालीनता के दायरे में नहीं आता लेकिन 'मानव व्यवहार' संबंधी शिक्षा ग्रहण करते-करते यह आदत भी जैसे मेरी सोच का एक हिस्सा बन गई है। किसी का चेहरा बिना देखे उसकी शख्सियत को पहचानना, किसी के चेहरे से उसके व्यवहार, दुःख या सुख का अंदाजा लगाना, और इसी तरह अक्सर अपने लंबे उबाऊ सफर को भी बिना किसी ऊब के तय कर लेने का जुगाड़ कर लेना। हालांकि इस प्रक्रिया में मेरे लगाए गए अनुमानों के उत्तर शत प्रतिशत मिल गए हों, ऐसा याद नहीं पड़ता लेकिन फिर भी आंतरिक रूप से कुछ संतुष्ट हो जाने की प्रवर्ति मुझे इस कार्य से जोड़े रखती थी। लिहाज़ा कुछ देर की गणना के बाद ही मैंने अपनी आंखें उठाई और सामने बैठी लड़की को एक भरपूर नजर देखा।
मेरी गणना सटीक थी, सामने वाली सीट पर बैठी लड़की सुंदर चेहरे, गोरी रंगत, बड़ी-बड़ी आँखों के साथ घनेरी पलकें और गहरे काले बालों वाली एक स्मार्ट लड़की थी, एक वास्तविक जीवन की एक नायिका की तरह। अपनी पहली गणना पर मोहित होकर मैं उससे आगे का आंकलन करने में लग गया।

चटक रंग की भारी साड़ी पहने, और साथ में मैचिंग हाथीदांत के आभूषण और सुरुचिपूर्ण ढंग से किए गए श्रंगार के चिन्ह, सहज ही उसके शिक्षित और समृद्ध परिवार की होने की घोषणा कर रहे थे। लेकिन अब दुविधा यह थी कि मेरे आंकलन कहाँ तक सही थे, यह कैसे निश्चित हो? इसी दुविधा में उलझा मैं उसकी ओर टकटकी लगाए देख रहा था, जब उसने मुझे मेरी इस हरक़त के लिए टोका।

"एक्सक्यूज़ मी! हैव यू एनी प्रॉब्लम?"

"जी !. . . जी नहीं।" मैं अचकचा गया।

"दरअसल आप काफी देर से इधर ही देख रहे थे।" उसके चेहरे पर एक अर्थमिश्रित मुस्कान थी।

"ओह सॉरी!" मेरे चेहरे पर क्षमा याचना के भाव आ गए। "एक्चुली मैं 'बिहेवियर रिलेटड' स्टडी कर रहा हूँ, तो अक्सर इसी के वशीभूत होकर किसी अपरिचित की ओर भी यूँ अनायास ही देखते रहने की ग़लती कर बैठता हूँ।"

"ओह! तो क्या स्टडी किया आपने अभी तक?" उसकी मुस्कान कायम थी।

"जी धन्यवाद।" मैं उसका धन्यवाद करने के साथ ही उसे, उसके कम्पार्टमेंट में आने के बाद की सारी बातें शब्द दर शब्द बताता चला गया।

"नाइस।" वह आश्चर्यचकित हो गई। "सच, कितना सही अंदाज लगाया है आपने। कुछ और बताइये ना।"

"जी" कहकर मैं एक बार फिर उसकी ओर देखते हुए आंकलन में लग गया।

ट्रेन अपनी गति से दौड़ रही थी, अब आस पास बैठे तीनों सह यात्री भी सहज ही बड़ी दिलचस्पी के साथ हमारी ओर देख रहे थे।

"देखिये. . . !" मैंने अपने अनुमान को शब्दों में ढालना शुरू किया। "आपके गले में मंगलसूत्र की मौजूदगी, लेकिन माँग का न भरा होना, मेरे अंदाज से ऐसा है कि आप आधुनिक होते हुए भी परंपराओं की पूरी तरह से पक्षधर नहीं है।"

"जी. . . !" उसकी मुस्कान अभी भी बरक़रार थी।

"आपके हाथ में प्रेम चंद की कृति 'सेवा सदन' के अंग्रेजी संस्करण का होना इस बात का इशारा है कि भले ही आप एक शिक्षित आधुनिका है लेकिन पुराने साहित्य को भी आप बहुत महत्व देती हैं। और इतना ही नहीं, आपके मोबाइल कवर पर हॉलीवुड हीरोइन की 'पिक' और आपके हैंड बैग पर धार्मिक 'आर्ट वर्क' आपके नई और पुरानी संस्कृति से जुड़े होने का भी परिचायक है।" कह कर मैं एक क्षण को ठहरा और फिर बोल पड़ा। "बस और क्या बताऊँ, अब तो मेरी ये जानने की इच्छा हो रही है कि मैंने आप को जो बताया, क्या वह सब सही है? क्या अपनी परीक्षा में पास हूँ मैं !" कहकर मैंने अपनी आँखें उसके सुंदर चेहरे पर व्यग्रता से टिका दी।

वह अनायास ही जाने किन विचारों में खो गई थी। ऐसा लग रहा था, मानो वह सिर्फ शारीरिक तौर पर ही यहां बैठी थी जबकि उसका मन ट्रेन की गति के साथ जाने कहाँ विचरने लगा था। माहौल में अब पूरी तरह सिर्फ ट्रेन और उससे उठते बाहरी शोर की आवाज थी। हमारे बीच पूरी तरह एक चुप्पी छा गई थी।

"आपने बताया नहीं!" मैं एक बार फिर कहकर चुप हो गया, ऐसा लगा जैसे मैं अपनी मर्यादा लांघ रहा था।
"ओह ! आय एम रियली सॉरी, मैं कुछ और सोचने लगी थी।" वह अपने मन की दुनियाँ से बाहर निकल आई। "मैं समझ सकती हूं आपकी इस बेचैनी को, अपनी परीक्षा के बारे में जानने की इच्छा तो सभी को होती है और. . ."

"जी. . .।" मैं सिर्फ एक शब्द ही बोल पाया था।

". . . मुझे लगता है कि सामने वाले को देखकर, उसके बारे में जानना बहुत कठिन है।" वह अपनी बात निरंतर कह रही थी। "फिर भी मैं तुम्हारे इस अनुमान को नम्बर देना चाहूं, तो मुझे लगता है कि दस में से आठ नम्बर तक दो देने ही चाहिएं।"

"जी, थैंक्स ए लॉट मैम। दस में से आठ नम्बर देकर तो आपने मुझे सहज ही रोमांचित कर दिया है।" मैं सच में एक विजेता की तरह रोमांच अनुभव कर रहा था, कम्पार्टमेंट के तीनों सह यात्री भी मेरी सफलता के लिए मुझे बधाई देने लगे थे।

"जी, लेकिन एक बात और भी है।" उसने मेरी जीत को जैसे एक ब्रेक सा लगाया था।

"जी वह क्या . . . ?"

"देखिये, कभी-कभी ऐसा होता है कि दस में से आठ यानि अस्सी प्रतिशत नम्बर लेने के बावजूद जीत का सारा दारोमदार उसी बीस प्रतिशत पर होता है जिसे विजेता नहीं प्राप्त कर सका हो।" अपनी बात कहते हुए उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान आ गई थी।

"मैं समझा नहीं आप की बात, कुछ खुल कर समझाएंगी आप?" मैं उसकी बातों से कुछ हैरान था।
"समझ जाएंगे आप, इतने ना समझ नहीं है आप। वैसे भी मेरा स्टेशन आ रहा है, और मैं रुक नहीं सकती। आज किसी ने मेरे मन की बात कही है, इसलिये मैं ये 'सेवा सदन' बुक मैं तुम्हें गिफ़्ट करना चाहूंगी।" कहते हुए उसने पुस्तक के पहले पृष्ठ पर कुछ लिखा और मेरी ओर बढ़ाने के बाद, जाने के लिए उठ खड़ी हुई।

मैं उसके कहे शब्दों पर असमंजस में था लेकिन कुछ और बोल पाता, इससे पहले ही ट्रेन स्टेशन पर लग चुकी थी और देखते ही देखते वह मेरी आँखों के सामने से ओझल हो गई।

ट्रेन अपने अगले और अंतिम पड़ाव की ओर पहुंच चुकी थी, मैं कुछ उदास मन से सीट छोड़ उठ खड़ा हुआ।
प्लेटफॉर्म किसी छोटे से गांव के प्लेटफॉर्म की तरह खाली और सन्नाटे में डूबा हुआ था। मैं थके कदमो से एक ख़ाली बैंच पर ढह गया, मानो एक लंबी यात्रा पूरी करी हो मैनेँ। उसकी दी हुई पुस्तक मेरे हाथ में थी। आज वह सब जो मैंने कहा, मात्र कुछ क्षणों में ही मेरे मन के स्कैनर से स्कैन होता चला गया। मेरा कहा एक-एक शब्द, मेरे विश्वास को हिलाने के लिए काफी था। मैं जिस ज्ञान-भृम में अपनी ज्ञान क्षमता को माप रहा था, आज उसका परिणाम आ चुका था।

मैं अपने दिल को समझा नहीं पा रहा था कि मेरी नम आँखों के आँसू मेरी असफलता के लिए हैं या उसके दर्द के लिए, जिसे मैंने कुछ देर पहले ही ख़ुद पर मुस्करा कर जाते हुए देखा था। 'सेवा सदन' के पहले पृष्ठ पर लिखे उसके शब्द अब, मेरे आंसूओं से धुंधले होने लगे थे।
". . . उस शख्स को प्यार के साथ; जिसने आज वह सब कहा जैसा कि मैं हमेशा होना चाहती थी, लेकिन चाहकर भी, कभी हो न सकी।
सेवा सदन की 'नायिका' . . . . सुमन !

विरेंदर 'वीर' मेहता