गुरु Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गुरु

गुरु

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भोर की सुनहरी रूपाली किरणें अनु के मन में एक नया संदेश प्रसरित करती हैं।बड़ा भला लगता है उसे ब्रह्म मुहूर्त के सूरज से कानाफूसी करना ।बचपन से ही माँ-पापा सूरज के नमूदार होने से पहले ही आवाज़ें लगाना शुरू कर देते | उन दिनों मीठी,प्यारी नींद में से जागना कितना खराब लगता था ,मुँह बनाकर कई बार करवटें लेते हुए ;

"थोड़ी देर सोने दो न!" कई बार दुहराया जाता किन्तु वो माँ थीं ,वो उसे उठाने के दूसरे गुर भी तो जानती थीं |

घर में एक ग्रामोफ़ोन हुआ करता था जिसकी ड्राअर में 'हिज़ मास्टर्स वाॅयस' के न जाने कितने काले रंग के बड़े बड़े तवे 'रेकॉर्ड्स' रखे रहते , साईड में एक छोटी सी और ड्राअर थी जिसमें रखी रहतीं छोटी-छोटी सूईंयाँ जो तवे पर फिसलती रहतीं और काले तवे में से सुरीले सुर वातावरण में पसर जाते ।यह ग्रामोफ़ोन अनु की माँ को उनके पिता ने उपहार में दिया था ।उनके पास उस ज़माने के लगभग सभी फिल्मी,गैर-फिल्मी गीत ,ग़ज़ल ,विशेषकर शास्त्रीय भजन जमा रहते थे ।तवों में हर माह इज़ाफ़ा होता रहता । कई आवाज़ें देने पर भी जब अनु के कानों पर जूँ तक न रेंगती माँ उस ग्रामोफ़ोन पर एक भजन का रेकॉर्ड लगा देतीं और हाथ से चाबी भरते हुए उसे आवाज़ देतीं रहतीं |

"जागो मोहन प्यारे ----साँवरी सूरत मोरे मन ही भावे ,सुन्दर श्याम हमारे !" भजन की मधुर ध्वनि और माँ का उसे उठाने के लिए आवाज़ देना ,दोनों में कोई तालमेल ही नहीं बैठता था | उसकी भुनभुन तो चलती ही रहती और जब रेकार्ड बजते-बजते बिसुरने लगता तब कहीं उसकी कर्कश आवाज़ से उसे उठना ही पड़ता | मज़बूरी जो होती थी -----

बड़े होते होते धीरे-धीरे प्रात:कालीन बेला में उठना उसे जाने कैसे अच्छा लगने लगा ,शायद घर के सभी सदस्यों के प्रात:काल जल्दी उठने की आदत ने उसमें भी शनै: शनै:परिवर्तन ला दिया था| अब न माँ के आवाज़ देने की ज़रुरत होती थी और न ही ग्रामोफ़ोन बजाने की | बी. ए में आते-आते अनुप्रिया की नींद अँधेरे में ही खुलने लगी ,ब्रह्ममुहूर्त के सूर्यदेव की बादलों से छनकर आती स्वर्गीय छटा से ऊर्जा लेने वह एक मासूम दैवीय मुस्कुराहट मुख पर समेटे बाहर आ खड़ी होती| वह उस दृश्य से इतनी प्रभावित होने लगी मानो एक अंतर -सुख उसकी झोली में सिमट आता हो और पौ फटने से पहले ही कमरे से बाहर निकल उसने सूर्यदेव की लालिमा के साथ उनके स्वागत में अपने छज्जे पर खड़ा होकर उनका स्वागत करना शुरू कर दिया था | बस ,वह जो आदत पड़ी ,उसने उसकी आदतों एवं सोच में गज़ब का परिवर्तन करना शुरू कर दिया | उसे यह बिलकुल सच व स्पष्ट महसूस होने लगा कि पापा-माँ का उसे प्रात:काल में उठाने का प्रयास कितना सही था ,एक ऊर्जा का स्त्रोत उसके भीतर आलोड़ित होने लगा था |प्रकृति से उसका लगाव बढ़ता जा रहा था और वह महसूस करने लगी थी कि स्वर्ग के द्वार पर खड़ी वह ईश्वर से मिलन की मानो चिरप्रतीक्षा प्रतिदिन करती ,महसूसती ईश्वर को अपने भीतर !प्रकृति कितनी महान गुरु है,उसके मन में माँ की समझाई हुई बाते कुनमुनाने लगीं थीं |

अब उसका विवाह हो चुका था ,प्यारे से दो बच्चों से विधाता ने उसका मातृत्व निखार दिया था ,ससुराल में सब जब नींद के आगोश में झूम रहे होते ,वह उठकर कमरे की खिड़की खोलकर गुलाबी आसमान को निहारकर सूर्यदेव की अगवानी में खड़ी हो जाती किन्तु कुछ दिनों में ही वह पति के साथ नौकरी पर मुंबई पहुँच गई जहाँ उसे लंबी-ऊँची इमारतों में से कहीं भी आकाश झांकता नज़र न आता |लेकिन जब माँ के पास मेरठ आती तब फिर से उसकी और सूर्यदेव की आँखमिचौनी शुरू हो जाती और वह पहले वाली अनुप्रिया में परिवर्तित हो जाती |

माँ कहतीं जब तक बच्चे छोटे हैं तब तक ही जल्दी-जल्दी कहीं आना-जाना मुमकिन है ,बच्चों के बड़े होने के बाद तो उनकी पढ़ाई आदि के कारण उसे जल्दी से माँ के घर आने में भी मुश्किल होगी | अभी तो हर तीसरे माह दोनों बच्चों की उँगलियाँ पकड़े वह अपने पीहर पहुँच जाती |इसी शहर में उसकी एक नन्द भी रहती थीं | पंद्रह दिन कहाँ व्यतीत हो जाते ,कुछ पता भी न चलता | माँ के घर रहने के अंतराल में दो-एक बार नन्द के घर जाना होता और सखियाँ तो थीं हीं ,जिनमें से अभी कई तो अविवाहित थीं ,वे उसे लगभग हर रोज़ ही घेरे रहतीं।

माँ के घर ऐसे ही एक दिन सुबह अनु अपने प्रिय आसमान की गुलाबी छटा में से उदृत होने वाले सूर्य-रथ की शुभ्र किरणों की ललाई पर आँखें टिकाए सूर्यदेव की अगवानी की प्रतीक्षा कर रही थी ,बच्चे अभी स्वप्न-लोक में विचर रहे थे | माँ-पापा अपनी-अपनी दिनचर्या में संलग्न हो चुके थे , अचानक 'लैंड-लाइन' की घंटी घनघनाई | ध्यान भटका ,अनु भागी कमरे में --बच्चे बेकार ही अभी से उठ न जाएं !मन कुछ बुझ सा गया , उसके सूर्य-सत्कार में बेकार ही व्यवधान हो रहा था ,अब तो यह अवसर उसे कभी-कभी ही मिल पाता है|

फटाफट फ़ोन उठाकर जैसे ही आवाज़ सुनी,ठनक गई | उसे समझ लेना चाहिए था कि लैंड-लाइन पर दीदी का ही फ़ोन हो सकता है उस समय ! और तो सब अधिकांश मोबाईल प्रयोग करते हैं ,वो भी इस प्रभातकालीन बेला में जब तक कोई बहुत ही विशेष कार्य न हो, किसीको बात करने का समय कहाँ होता है !दीदी कई दिनों से उसके पीछे पड़ीं थीं कि वह उनके गुरुजी से मिले जो उन दिनों शहर में आए हुए थे |न जाने क्यों अनु इन गुरुजी लोगों से दूरी ही बनाए रखती | दीदी तो उसके विवाह से पूर्व ही उसे अपने गुरुजी से मिलाने की बात कर रही थीं ,वह ही थी जो न जाने कैसे कैसे दीदी को टालती जा रही थी |

दीदी बड़ी थीं ,उनको नकारने के लिए ख़ासी हिम्मत जुटानी पड़ती फिर भी वह कई दिनों से कुछ न कुछ कहकर उन्हें फंकी दिए जा रही थी |बार-बार मन उसे झिंझोड़ता ,क्यों आखिर ? क्यों मिले वह उनके गुरु जी से जब भीतर से कोई श्रद्धा,कोई आकर्षण ,कोई इच्छा ही न हो तो !लेकिन दीदी थीं और वे भी पति की !माँ भी कई बार कह चुकीं थी आखिर एक बार जाने में हर्ज़ ही क्या है ? आखिर वे बड़ी नन्द थीं ! दीदी उधर से कुछ न कुछ बोले जा रही थीं और उसका मन अपने सूर्य की लालिमा के आवाह्न के लिए उपद्रव कर रहा था | कभी-कभी वह सोचती भी कि ऐसा तो क्या जुनून उसके सिर पर चढ़कर बोलने लगा है ? इस उगते हुए सूर्य की लालिमा से प्राप्त ऊर्जा उसमें नवीन रक्त-संचार करती है और बाहरी आवरणों से दूर रखती है | यह उर्जा उसे अनजाने ,अनदेखे उत्साह से जिलाए रखती । उसके मन में बार-बार जैसे कोई च्यूंटी सी काटती ,इस प्रकृति से महान और सक्षम गुरु कौन हो सकता है? न जाने लोग इन बाहरी गुरुओं के पीछे क्यों पगलाए जाते हैं?

" अनुप्रिया ! सुन भी रही हो मैंने क्या कहा?" दीदी उधर से बोले जा रहीं थीं न जाने क्या -क्या ? और उसका मन बाहर भाग जाने को हो रहा था | सूर्य की वह अरुणिमा तो केवल मिनटों का दृश्य होता है ,अब तक तो सूर्य पूरी तरह खिलकर अपने यौवन पर आने की तैयारी कर चुका होगा !

"अनुप्रिया ! तैयार रहना ,मैं नौ बजे तक पहुँच जाऊँगी ---" कुछ रुककर वे फिर बोलीं ;

" और हाँ! बच्चों को भी तैयार कर लेना , उन्हें भी गुरुजी का आशीर्वाद मिल जाएगा |"उन्होंने उधर से फोन रख दिया |

अनु बेमन से इधर से उधर ही देखती रह गई ,कोई पूरी बात तो सुनी नहीं थी उसने! बस आख़िरी बात पर झुंझलाकर उसने फ़ोन रख दिया और फिर से बाहर आकर खड़ी हो गई जहाँ सूर्य देवता अब तक अच्छे-खासे दमक चुके थे |जब से उसे जीवन के प्रति कुछ समझ आने लगी थी ,उसे यह प्रकृति बेहद उदात्त गुरु लगने लगी थी | जो हर पल झोली भरती है, उसके लिए न कोई छोटा है, न बड़ा ! न अमीर, न गरीब !सबमें समान रूप से बाँटना है इसे ! कैसा चक्र है इस प्रकृति का जो सारे काम समय पर करता है ,ऋतुएं समय पर आती हैं ,साँझ समय पर गीत गुनगुनाने उतरती है तो प्रात: प्रतिदिन मानव को अपनी ऊर्जा से देदीप्यमान करने सूर्य के रथ पर सवार हो खिलखिलाती चली आती है | प्रकृति सारे काम अपने समय पर करती है | भला ,सूरज से अनुशासित कौन गुरु हो सकता है ? जिस प्रकृति से हम सीख सकते हैं ,उससे न सीखकर बाहर के गुरुओं के पास भटकने की आखिर आवश्यकता ही क्या है ? सूर्य की ओर दृष्टिपात करते हुए वह दीदी के गुरु जी से मन ही मन प्रकृति की तुलना करने लगी | हाथ रसोई के कपड़े से पोंछती माँ उसके पास आकर खड़ी हो गईं थीं |

"रेनू जी का फ़ोन था?" माँ की मुस्कुराहट ने जैसे उसे चिढ़ा दिया |

"वही कह रही होंगी ,गुरु जी के पास ले जाने के लिए तुझे ---" माँ ने अपने विश्वास पर मुहर लगाई फिर बोलीं;

"ऎसी भी ज़िद क्या है अनु ,चली जा न एक बार ---कोई भूत नहीं चिपट जाएंगे तेरे ? आख़िर बड़ी हैं ,तेरा कुछ गलत तो चाहेंगी नहीं !"

"जाना तो होगा ही ,बच्चों को भी उठाकर तैयार करना होगा ,उनकी बूआ उन्हें भी आशीर्वाद दिलाने ले जाना चाहती हैं| इस प्रकृति के समान परोपकारी व आशीर्वाद देने वाला गुरु और कौन होगा भला ?बेकार ही हम इन तथाकथित गुरुओं के चक्कर में अपना समय,ऊर्जा और धन बरबाद करते रहते हैं |" भुनभुनाते हुए अनु ने माँ के सामने अपनी नाराज़गी प्रदर्शित कर दी और बच्चों को जगाने कमरे की ओर बढ़ गई | पता ही नहीं चला कब सात बजने लगे थे और बच्चों को जगाना कोई खेल था ? उसे अपने बचपन की नींद याद आ गई और यकायक उसके चेहरे पर एक मुस्कान की परत चढ़ गई | उसके बच्चों को कम से कम भजन तो नहीं सुनाने पड़ते थे।

आगे बढ़कर उसने बच्चों के बालों में प्यार से उँगलियाँ फिरानी शुरू कर दीं |माँ रसोईघर में नाश्ते की तैयारी के लिए चली गईं थीं |

ठीक पौने नौ बजे दीदी की रिक्शा घर के सामने आकर थम गई ,अनु ने देखा श्वेत धवल वस्त्रों, श्वेत मोतियों की माला व कर्णाभूषण में सुसज्जित दीदी के सुन्दर मुख पर रोशनी दमक रही थी | आगे बढ़कर उसने दीदी के चरण स्पर्श किए और उनसे अंदर आने का अनुरोध किया |

"तैयार नहीं हुई अभी तक? और बच्चे कहाँ है?" उनके चेहरे पर उसके तैयार होने को लेकर शंका उभरी थी,

उन्होंने बच्चों के लिए लाए हुए फलों का थैला अनु को पकड़ाते हुए मानो बहुत बेचैनी से पूछा | उनकी सुन्दर गोल-गोल बड़ी आँखें बच्चों को खोजती हुई रसोईघर के सामने के बरामदे में पड़ी खाने की मेज़ पर जा चिपकीं और उनके मुख पर अपने प्यारे,सुन्दर भतीजी -भतीजे को देखकर प्यारी सी मुस्कान खिल उठी |

"चलो,चलो जल्दी खतम करो,गुरु जी तुम्हें आशीर्वाद देने के लिए बुला रहे हैं " 3/4 साल के बच्चों की समझ में कुछ आया या नहीं ,हाँ! उन्हें इस तरह जल्दी-जल्दी कॉर्नफ्लैक्स खाने से छुट्टी ज़रूर मिल गई थी और वे खाना-पीना छोड़कर बूआ से आ चिपटे थे | माँ बेचारी नाश्ते के लिए कहती ही रह गईं किन्तु उस समय दीदी की 'बॉडी लैंग्वेज' से जो प्रकाश अवतरित हो रहा था ,उसको तो विधाता भी क्षीण करने में समर्थ न होता ।गुरु जी ,महाराज जी-- सीधे ईश्वर से मिलाने की वो रेशम की डोरी थे जिससे न जाने कितनी भक्तनें बंधकर उनकी ओर खिंची चली जातीं थीं।

दीदी के कंधे पर एक बड़ा सा पर्स था ,उन्होंने दोनों हाथों में बच्चों की उँगलियाँ कसकर पकड़ लीं थीं और बाहर की ओर बढ़ चलीं थीं | उनके पीछे-पीछे अनु भी बेचारगी के डग भरती किसी ऎसी पतंग की डोर के समान खिंची चली जा रही थी जिसे पवन ने इतना ऊंचा उड़ा दिया हो कि जिसके कटने की कोई संभावना ही न हो | घर से बाहर निकलकर उन्होंने अपने रोके हुए ऑटोरिक्शा में बच्चों को बारी-बारी से चढ़ा दिया और फिर अनु को बैठने का इशारा किया |

"आते हैं हम मौसी जी ,लौटती बार बैठूंगी --"दीदी ने घर के सिंहद्वार से माँ को बाय कर दिया था |

दीदी के गुरु जी जिस घर में ठहरे हुए थे ,वहॉं की सजावट का तो कहना ही क्या था ! रंग-बिरंगे फूलों की तोरण और बंदनवार से बंगले का कोना-कोना महक रहा था | बिजली की रंगबिरंगी कतारें भी थीं किन्तु उनका उपयोग तो रात को ही हो सकता था|रोशनी से सजे हुए बंगले के रात्रि-सौंदर्य की कल्पना की अनु ने मन ही मन ! और उसके मन में आह से वाह हो गया | दीदी सबको अपने साथ बड़े उत्साह से भीतर ले गईं | सब एक सुन्दर व भव्य सजे हुए 'सिटिंग रुम में से निकलकर बाहर विशाल बरामदे में जा पहुंचे थे जिसमें कई सुन्दर गलीचे बिछे हुए थे 'जिन पर कई सजी-सँवरी युवा व प्रौढ़ महिलाएं दमकते हुए मुखड़ों पर अपने आराध्य-देव के दर्शनों की चिंता ओढ़े बैठी थीं | दीदी के पहुँचते ही उनके साथ अनु व बच्चों को देखकर महिलाओं में चलती हुई खुसर-फुसर का रुख उनकी ओर मुड़ गया | अनु उनमें से कुछ महिलाओं से पहले कभी मिल चुकी थी, सभ्यतावश उसने सबके समक्ष विनम्र हो नमस्कार की मुद्रा में अपने हाथ जोड़ दिए ,उसे आशीर्वाद भी मिले | जो महिलाएं अनु से परिचित थीं वे आधिकारिक रूप में उसे अपने पास बैठने का आग्रह करने लगीं | उसे तो दीदी के साथ ही बैठना था | वह दीदी के पीछे जाकर बैठ गई ,बच्चे कुछ असुविधा सी महसूस करने लगे थे किन्तु दीदी ने उनको अपने पास बैठाकर उनके हाथ में एक-एक चॉकलेट पकड़ा दी थी | उन दोनों के कुछ सेकेंड्स पहले फूले हुए मुँह अचानक बड़ी-बड़ी चॉकलेट्स देखकर खिल उठे थे और वे अपनी स्वाभाविक चंचल मुद्रा में चॉकलेट्स के रैपर खोलने लगे थे |

" कब आई हो?कब तक रहोगी?" जैसे कुछ सवाल परिचित स्त्रियों की ओर से उसकी ओर उछाले गए जिनका उत्तर उसने धीरे-धीरे दे दिया|अचानक एक धीमा शोर सा स्त्रियों के बीच में पसरने लगा |

" गुरु जी आ गए---जय महाराज जी की ---" सारी स्त्रियाँ खड़ी होने लगी थीं और गुरुदेव की अगवानी में उनके मुखों पर गुलाब खिलने लगे थे | अचानक अनु को प्रात:कालीन आकाश-गंगा की स्मृति हो आई जो सूर्य के आकाशीय प्राँगण में प्रवेश करते ही गुलाबी हो उठती थी |

पधारने वाले गुरुदेव लंबे-चौड़े ,बला के सुन्दर व्यक्तित्व के धनी थे ,उनके गोरे चेहरे पर जैसे लालिमा फूटी पड़ रही थी | वे स्त्रियों के सामने रखी हुई सजी हुई आरामकुर्सी पर बैठकर झूला सा खाने लगे थे ,अपने गोरे ,सुडौल हाथ के इशारे से उन्होंने सबको नीचे बैठने का आदेश दे दिया था ,जिसका तुरत-फुरत पालन हुआ | भक्तनें दोनों हाथों से ताली बजा-बजाकर गुरु-गुण गाने लगीं और गुरुदेव की आँखें चारों ओर का निरीक्षण करती हुई गोल-गोल घूमने लगीं ।जिस मुख पर वे पल भर के लिए अपनी खूबसूरत दृष्टि चिपकाते ,उन गालों पर जैसे गुलाब खिल उठते |उनके खूबसूरत व्यक्तित्व से अनु प्रभावित हुए बिना न रह सकी ,ह्रदय की धड़कनें यकायक द्रुत गति से मानो मेघ-मल्हार गाने लगीं| ईश्वर भी कितनी-कितनी खूबसूरत मूर्तियाँ गढ़ता है ! अनु ने मन ही मन सोचा ,वह कैसे और क्यों प्रभावित होने लगी,मन में कुछ उहापोह भी हुई किन्तु इसमें कुछ भी असत्य न था कि दीदी जी के गुरु जी में बला का आकर्षण था ,वह जैसे उनके मुख पर दृष्टि गड़ाए किसी सोच में पड़ गई थी | झटका लगा तब जब नन्हे बेटे ने पानी पीने की इच्छा ज़ाहिर की | अनु का ध्यान बच्चों पर गया ,दोनों ने चॉकलेट से अपने चेहरे पोत लिए थे ,कपड़ों पर भी इधर-उधर चॉकलेट चिपक गई थी | अनु को बच्चों को पानी पिलाने और साफ़ करने के लिए उठना पड़ा | बच्चों को वह वॉश-बेसिन की ओर ले चली जो बरामदे के सामने ही था |उसके उठने में दिव्य गुरु-गुणगान करती कुछ महिलाओं को खिसकना पड़ा जिससे उनके ध्यान में व्यवधान होना स्वाभाविक था |

" अच्छा ! ये सत्संग में नई जुड़ी हैं ?" गुरु जी का ध्यान उसकी एवं बच्चों की ओर गया |

"जी ! ये रोड़वेज़ वाली की भाभी है ---बंबई से आई है ---" परोसे गए प्रश्न का उत्तर कई मुखों से निकला ,उसके बोलने की कोई ज़रुरत ही नहीं थी ,वैसे भी किसने पूछा था उसके लिए कि वह कहाँ से आई थी ? वह स्वयं भी तो उत्तर दे सकती थी अपने लिए पूछे गए प्रश्न का ,इस बहाने इस सौंदर्यपूर्ण व्यक्तित्व से उसकी बात हो जाती ,उसके मन में क्षण भर को आया पर वह चुपचाप बच्चों को लेकर बेसिन पर पहुँच गई व उनके मुँह-हाथ व कपड़े साफ़ करने लगी |

वॉश-बेसिन के सामने ही रसोईघर था जहाँ से पकवान बनने की मधुर सुगंध वातावरण में पसर रही थी | अनु ने एक बार उस ओर दृष्टि डाली और हाथ में पकड़े नैपकिन को गीला करके बच्चों के मुँह-हाथ साफ़ करने लगी |

"ओहो ! आज कहाँ चले गए थे गुरुदेव ? और ये गले में हार ! कहाँ से पहन आए?" रसोईघर के दरवाज़े से आवाज़ आ रही थी ,मानो कोई बहुत क़रीबी व्यक्ति अधिकारपूर्वक छेड़खानी सी कर रहा था | अनु ने मुड़कर देखा ,सुन्दर व्यक्तित्व वाला वह व्यक्ति रसोईघर के द्वार पर खड़ा हुआ था ,गले में पड़ी हुई रेशमी फुनगों की रंग-बिरंगी माला पर भी अनु की दृष्टि गई |

"शुक्रताल की तरफ़ चला गया था ,वहीं किसी भक्त ने यह गले में डाल दी" उसके मुख पर आत्माभिमान देखकर अनु को धक्का सा लगा ,जैसे अचानक सुंदरता की इमेज भुरभुराकर गिरने लगी हो | इससे भी गज़ब तब हुआ जब उन तथाकथित गुरु जी ने अपनी लंबी,श्वेत गर्दन से माला निकालकर रसोईघर के भीतर खड़ी हुई उस महिला की ओर उछाल दी जो उनसे कुछ चुहल सी कर रही थी | माला महिला के चरणों में जा गिरी जिसे उठाकर , चूमकर हाथों में एक बहुमूल्य ज़ेवर की भांति कैद कर लिया गया था | अनु का मूड़ खराब हो गया ,क्या आदमी है ? किसी की संवेदनाओं को किस बेरहमी से किसी पर-स्त्री के चरणों में फेंक दिया था ! अनु ने उन महापुरुष की विद्वत्ता के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था ,ऊपर से उनका सुदर्शन व्यक्तित्व देखकर वह जिस प्रकार अचानक प्रभावित हुई थी ,उतनी ही शीघ्रता से वह व्यक्ति उसकी नज़रों से गिरने लग, उनके इस कृत्य से वह असहज हो उठी | जब तक स्त्रियों की भीड़ में वह आकर बैठी ,गुरु जी भी पुन:अपनी आरामकुर्सी पर आकर झूलने लगे थे | कुछ देर वे अपनी महिला-भक्तिनों से बातचीत करते रहे ,उन्होंने अनु की ओर इशारे करके उसके बारे में कई बातें जानने का प्रयत्न किया किन्तु अब अनु का मन उनसे बात करने का कतई नहीं था | कुछ ही देर पूर्व का उसका उनकी ओर का आकर्षण न जाने कहाँ लुप्त हो चुका था | उसके लिए पूछे गए प्रश्नों का उत्तर और बहुत थे देने वाले | कुछ देर में उनका आराम करने का समय हो गया और सामने वाले एक कमरे में वे दो स्त्रियों के साथ प्रवेश कर गए | संभवत: वे उनकी सेवा करने के लिए उनके साथ भीतर कमरे में बंद हो गईं थीं | जाते-जाते वे सबके सिरों पर शुभाशीष का हाथ फिरते हुए गए ,सब मानो कृतकृत्य हो गईं | अनु को लगा किसी लिजलिजी छिपकली ने उसे छू लिया हो |उसमें यह बहुत बड़ा अवगुण था वह कुछ जल्दी ही निर्णय के शिखर पर जा खड़ी होती थी| जितनी जल्दी वह किसी से प्रभावित होती , उतनी ही शीघ्रता से किसी बेहूदगी को महसूस करके वह धम्म से नीचे आ गिरती।

ख़ैर, गुरुदेव जी अपने शयनकक्ष में जा चुके थे,रसोईघर से उनका नाश्ता कमरे में भेजा जा रहा था।उपस्थित सभी लोगों को भी उनके भोग लगाने के पश्चात प्रसाद रूप में नाश्ता करने का अनुरोध किया गया था ।वह उखड़ चुकी थी और बच्चों ने तो वैसे ही चिल्लपौं मचा रखी थी।मगर दीदी प्रसाद लिए बिना बिलकुल भी उठने के मूड में दिखाई नहीं दे रही थीं।स्त्रियों में न जाने कहां-कहां की बेसिरपैर की बातें होने लगी थीं, कुछ ज़ेवरों की , कुछ डिज़ाइनर साड़ियों की ---और हाँ, कुछ ये कि गुरु जी ने इस बार किस-किसके यहाँ भोजन करना स्वीकार किया है।अनु के दिमाग़ से गुरु जी के द्वारा किसी अन्य स्त्री के पैरों में फेंकी गई माला का दृश्य निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था जो उसे बेचैन कर रहा था ।

बड़ी मुश्किल से उसका समय बीत रहा था , सामने मेज़ पर स्वादिष्ट नाश्ते की प्लेटें सजा दी गईं थीं।गुरु जी के नाश्ता ग्रहण करने के बाद प्रसाद स्वरूप नाश्ता सामने था ।भूख का समय था, सब स्त्रियाँ नाश्ते की ओर बढ़ चलीं।

" आ जाओ बच्चों ''दीदी बड़े प्यार से बच्चों के लिए प्लेट सजा रही थीं कि अंदर से उनके लिए बुलावा आया ।

"अनुप्रिया ! लो तुम बच्चों को नाश्ता कराओ और तुम भी ले लो, मैं अभी अंदर जाकर आती हूं --"दीदी के पैरों में पँख लग गए थे ।

लगभग दसेक मिनट में दीदी खिले फूल सी वापिस आ गईं ।

"अनुप्रिया ! तेरे तो भाग्य खुल गए ।"दीदी के मुख से जैसे शब्द उछल-उछलकर बाहर कूदने के लिए आतुर हो रहे थे ।

वह कुछ अचंभित सी दीदी का मुख ताकने लगी।

" अरे ! गुरु जी ने खुद तेरे घर खाना खाने की बात की है ----"उनके मुख पर प्रसन्नता फूटी पड़ रही थी जबकि आस-पास की महिलाओं के मुखों पर आश्चर्य व ईर्ष्या के भाव पसरने लगे थे |

अनु को कुछ समझ में नहीं आ रहा था ,उसने कब गुरु जी को अपने घर भोजन का निमंत्रण दिया था ?नाश्ता करती हुई महिलाओं में पुन: फुसफुसाहट शुरू हो गई थी |

" और वो भी बिना किसी दक्षिणा के ----" दीदी के मुख की रौनक देखने वाली थी | गुरु जी किसी के निवास पर भोजन ग्रहण करने के लिए कम से कम पाँच हज़ार दक्षिणा में लेते थे,दीदी न जाने कितनी बार उसके और माँ के सामने जतला चुकीं थीं।अनुप्रिया का मन और भी खराब हो गया ,'तू कौन?मैं खामांखां' उसने कब गुरु जी को भोजन कराने की इच्छा प्रकट की थी? मन ही मन वह भन्नाई।

अब तो महिलाओं के चेहरे देखते ही बनते थे ,ईर्ष्या से उनके मुखड़े लाल होने लगे थे | स्वादिष्ट नाश्ता जैसे उन्हें अचानक ही कड़वा लगने लगा था| न जाने उन्होंने कितनी-कितनी दक्षिणा का प्रलोभन देकर गुरु जी को अपने घरों में भोजन के लिए आमंत्रित किया था किन्तु गुरु जी के पास समय ही नहीं होता था | अब कैसे उन्होंने समय निकाल लिया ? प्रश्न थे कि महिलाओं के मस्तिष्क में उमड़े पड़ रहे थे ,वे अनुप्रिया की ओर ऐसे देखने लगीं थीं मानो उसने गुरु जी पर कुछ जादू कर दिया हो |

अनुप्रिया का मन उद्विग्न हो उठा ,वह अब जल्दी घर लौटना चाहती थी | कुछ ही देर में उसने एक ऐसे व्यक्तित्व के बँटे-छंटे चरित्र को अपने मन में परिभाषित कर लिया था | दीदी मन ही मन झूम रही थीं और उसने खूब पक्का निश्चय कर लिया था कि बेशक गुरु जी नामक यह प्राणी उसे पैसे देकर भी उसके घर भोजन करने आना चाहें ,वह उन्हें कभी आमंत्रित नहीं कर पाएगी |

डॉ.प्रणवभारती

pranavabharti@gmail.com