औरतें रोती नहीं - 18 Jayanti Ranganathan द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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औरतें रोती नहीं - 18

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 18

ये दाग-दाग अंधेरा

सप्ताह भर बाद सुशील एक दिन अचानक सुबह-सुबह घर पर आ धमके। मन्नू उठ चुकी थी। सुशील के चेहरे से लग रहा था कि कोई बात है। तनाव से भरा। मन्नू चाय बना लाई। इन दिनों घर का काम करने के लिए पूरे वक्त की सर्वेंट रख ली है उसने। बच्ची सी दिखने वाली षोडसी संजुक्ता। उसके साथ मन्नू का टाइम भी मजे-मजे में कट जाता है। संजुक्ता सब्जी लाने बाजार तक गई है। इसलिए सुशील का हाथ पकड़ा जा सकता है। बालों में उंगली फेरते हुए पूछा जा सकता है कि किस बात को लेकर इतने परेशान हो?

सुशील ने चाय का एक घूंट भरा और फिर पूछ ही लिया, ‘‘तुमने बताया नहीं? उस दिन अस्मिता से तुम्हारी क्या बात हुई थी?’’

क्षण भर मन्नू के चेहरे का रंग उतरा, फिर वह संभलकर बोली, ‘‘मैंने सोचा आपको बेकार परेशान क्यों करूं? हालांकि मैं इतना डर गई थी कि...’’

‘‘फिर बताना था न...’’ सुशील के चेहरे पर एक किस्म की मृदुलता आ गई। मन्नू का हाथ अपनी गोद से बिना हटाए कुछ गंभीरता से बोले, ‘‘देखो मन्नू, अस्मिता आम औरत नहीं है। वह पैसे और सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती है। तुम्हें क्या, हमें भी डर लगता है उससे। पता नहीं कब किस खुफिया स्टिंग ऑपरेशन में फंसवा दे। एक न्यूज चैनल तो हाथ धोकर हमारे पीछे पड़ा है। ऐसे में तुम बीच में आओगी तो हम और फंस जाएंगे...’’

मन्नू की समझ में न आया, क्या कहे? सुशील क्या कहना चाहते हैं? उससे अब नहीं मिलेंगे या यूं ही कह रहे हैं सब कुछ?

सुशील ने चाय पीकर कप तिपाई पर रख दिया और आंखें मूंदे अधलेट से परस गए सैटी पर। मन्नू यूं ही बैठी रही अविचल। अभी संजुक्ता आ जाएगी। उसके सामने तो एक सैटी पर बैठ भी न सकेगी मन्नू। इतनी दूरी बरतनी पड़ती है।

मन्नू उठी, तो सुशील ने कुछ भारी आवाज में कहा, ‘‘नीरजा जी तुम्हें पूछ रही थीं। तुम आज जाकर उनसे मिल आओ। मैं चाहता हूं कि तुम छह-सात महीने उनके साथ दिखो। कॉरपोरेशन के चुनाव से पहले तक तुम्हारी पहचान बन जानी चाहिए। देखो, अगर सब ठीक रहा तो अगले साल तुम्हें एम.एल.ए. भी बनवा ही दूंगा...’’

आंखों में एक साथ कई सपने तिर आए। एक झटके में दो चेहरे जो सबके पहले कौंधे, वे पद्मजा और उज्ज्वला के थे। क्या कहेंगी वे दोनों? वो मन्नू जो उन सबसे पीछे थी, वो देखो कितनी आगे निकल गई है। अपने पैरों पर खड़ी हो गई है। एक स्वतंत्र महिला, एक राजनेता... एक समाज सेवी...

पद्मजा लेकिन नहीं मान रही यह सब। कह रही है- ‘‘मन्नू डार्लिंग, हम तीनों ने तय किया था कि अब जिंदगी में जो भी करेंगे, उसमें किसी पुरुष के लिए कोई जगह नहीं होगी। पहले उज्ज्वला, अब तुम... क्या तुम पुरुष के बिना अपना वजूद नहीं बना सकतीं? इतनी कमजोर हो? यह क्या राजनीति-राजनीति लगा रखी है। ऑल नॉनसेंस। मुझे पता है कि तुम्हें जिंदगी में चेंज की जरूरत है। पर ये तुम दोनों कर क्या रही हो? उज्ज्वला को रोकने की बजाय खुद उसी राह पर चली जा रही हो। इट विल डेस्ट्रॉय यू बोथ।’’

मन्नू एकाएक बुझ गई। तो क्या सुशील सिर्फ इसलिए उसे प्रमोट कर रहे हैं कि वह एक औरत भर है, एक देह, जो आज उन्हें आकर्षित कर रही है? कल हो सकता है कोई और उसकी जगह ले ले।

‘‘पद्मा... क्या तुमसे पूछकर हमें अपना रास्ता चुनना होगा। तुम्हारे आने से पहले भी तो हम जी रहे थे? सच है कि तुमने हमें जिंदगी के नए रंग दिखाए। पर अब मैं कह रही हूं, तुम हमें छोड़ दो। अपने ढंग से जीने दो। शायद इस तरह से हम जीवन भर अच्छी मित्र बनी रहेंगी।’’

पद्मजा ने उस दिन पहले से तीन वोदका चढ़ा रखी थी। उज्ज्वला और मन्नू से गहमागहमी के बीच उसने दो पैग और पी लिए, नीट। अब पद्मजा की जबान लड़खड़ाने लगी। उज्ज्वला शांत थी। वह कभी किसी बात पर टोकती नहीं थी। बस चेहरे से लग रहा था कि उसे पद्मजा और मन्नू के बीच बढ़ती बहस रास नहीं आ रही। मन्नू को जो करना है कर,े उसके लिए उसे पद्मजा की अनुमति क्यों चाहिए?

पद्मजा की आंखें भीग आई थीं। बहुत मुश्किल से वह कह पाई, ‘‘तुम दोनों मेरे लिए क्या हो, मैं बता नहीं सकती। बेवकूफ औरत... तुमने दुनिया नहीं देखी, मैंने देखी है। बहुत पैसा देखा है, बिना पैसे के भी दिन काटे हैं। बाहर रही हूं, अकेली रही हूं। ठीक है... आज के बाद हम तीनों एक-दूसरे की जिंदगी में दखल नहीं देंगे। कम से कम आई वोंट इंटरफियर... प्रॉमिस यू।’’

पद्मजा उसी तरह लड़खड़ाती हुई बाहर निकल गई। बाहर टैक्सी खड़ी थी। वह एयरपोर्ट जा रही थी। दुबई, अपने प्रोजेक्ट के लिए। उसने कहा था उन दोनों से कि साथ चलो। वे दोनों तैयार नहीं हुईं। मन्नू बेचैन हुई। पद्मजा का इस तरह रूठकर जाना उसे अच्छा नहीं लग रहा था।

उज्ज्वला लंबी सांस लेती हुई बोली, ‘‘पद्मजा बहुत नाराज है हम दोनों से। देखो... इस बार टुटू को भी यहां छोड़कर नहीं गई। मैंने कहा था उससे... मैं टुटू का ख्याल रखूंगी।’’

‘‘क्या करें? छोड़ परे उज्जू। तीन महीने की बात है। पद्मजा वापस आएगी, तो सब ठीक हो जाएगा। उसे भी वक्त चाहिए सोचने के लिए ...हमें भी!’’

सुशील कह रहे थे, ‘‘अस्मिता से बचकर रहना। उसे हमारे बारे में कुछ भी बताने की जरूरत नहीं। हमारे बीच जो है, वह पर्सनल है। वैसे भी हमारी लाइन में हमें एक सीमा बनाकर रखनी पड़ती है, दूसरों को दिखाने के लिए। नीरजा भी पूछें तो यही बताना कि मैं भाई जैसा हूं तुम्हारे लिए... और कुछ नहीं...’’

‘‘मैं कुछ दिनों के लिए तुमसे मिल नहीं पाऊंगा। समय ठीक नहीं। आते-जाते किसी चैनल वाले ने देख लिया, तो मेरी इतने दिनों की राजनीति गड्ढे में पड़ जाएगी। स्साले पीछे ही पड़ गए हैं हमारे...’’

सुशील को ऐसे मूड में पहली बार देखा था मन्नू ने। उसके सामने उसे चाहने वाला एक पुरुष नहीं, बल्कि एक मतलबी और डरपोक नेता खड़ा था। एक क्षण को मन्नू को लगा कि सुशील के चेहरे पर श्याम की झलक क्यों दिखने लगी? तो क्या एक उम्र के बाद हर पुरुष एक सा लगने लगता है?

मन्नू ने फिर बहुत रोकने की कोशिश की, पर सुशील रुके नहीं। संजुक्ता के घर लौटते ही एकदम से उठकर चले गए।

सुशील हर साल अपना जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाते थे। कम से कम दस किलो का केक कटता। सुशील के बड़े बेटे के तीनों बच्चों ने दादा की जन्मदिन पार्टी मनाने की जिम्मेदारी ले रखी थी। मन्नू को पहले तो लगा कि मना कर दे, पर सुशील से मिलने के लालच में वह लोदी रोड पर उनके बंगले में पहुंच ही गई। काली लोग थे। नेता टाइप। कुछेक अभिनेता टाइप थी। सुशील का पूरा परिवार मौजूद था। पत्नी बनी-ठनी थी। थोड़ी सी मोटी और घबराई हुई सी औरत। उसे तीनों बहुओं ने घेर रखा था। सब चटक-मटक और खूब सजी हुईं। बेटों ने डिजाइनर पोशाकें पहन रखी थीं।

मन्नू सुशील के लिए खादी का कुर्ता लेकर गई थी। पार्टी के शुरू होते ही मन्नू को कुछ खटका सा लग गया था। सुशील ने उसे देखकर केवल हाथ जोड़कर नमस्ते भर की थी, फिर वे अपनी पत्नी के पहलू से निकले ही नहीं।

मन्नू लॉन में एक कुर्सी पर अकेली बैठी ह्वाइट वाइन की चुस्कियां लेती रही। किसी ने उस पर ध्यान ही नहीं दिया। मामला बिगड़ने लगा अस्मिता की एंट्री के बाद। वह सुशील के लिए बहुत बड़ा गुलदस्ता लेकर आई थी। हालांकि सुशील के गार्ड ने उसे बाहर रोकने की कोशिश की, पर वह सबको धकियाती हुई अंदर आ गई। उसके पीछे दो-एक चैनल वाले भी कैमरा लेकर आ गए। सुशील के बजाय अस्मिता उनकी पत्नी से मिली, पूरी तरह गले लगकर। सुशील बचते रहे। वह हंसती रही। वहां से निकली, तो ठीक मन्नू की बगल में आ बैठी।

अस्मिता ने सुर्ख रंग की जामावार साड़ी पहन रखी र्थी। खुले गले का ब्लाउज, जिससे उसकी सांवली पीठ लगभग पूरी दीख रही थी। गले में सोने की भारी सी चेन। मंगलसूत्र और हाथों में लगभग दर्जन भर सोने की चूड़ियां। माथे पर जरूरत से ज्यादा बड़ी बिंदी और गहरा काजल। होंठ भर लाल होने से रह गए।

मन्नू के पास बैठते ही अस्मिता ने उसका हाथ पकड़ लिया, ‘‘ये क्या दीदी, अकेली बैठी हो? भाभी और बच्चों से मिलीं कि नहीं? सुशील ने तो नहीं मिलवाया होगा। मिलवाएं भी कैसे? चलो मैं मिलवा लाती हूं। मुझे अच्छे से जानते हैं सब...।’’

मन्नू ने फौरन हाथ झटक दिया, ‘‘रहने दो। किसी से नहीं मिलना मुझे। वैसे भी जाने का समय हो रहा है।’’

‘‘काहे की जल्दी है जिज्जी। बैठो ना। हमारा साथ देने के लिए ही बैठ जाओ। कुछ देर मजा तो लेने दो। देखो, किस-किसको नहीं बुलाया यहां? हम जैसों की तो कोई बिसात ही नहीं है...।’’ अस्मिता वाकई नजरें घुमाकर हर ओर ताड़ रही थी। उसके पीछे कैमरे लगातार चमक रहे थे।

मन्नू का मन कर रहा था कि अब बस उठ ही जाए। पता नहीं क्या तमाशा खड़ा करेगी अस्मिता। कोई भरोसा थोड़े ही है?

अचानक अस्मिता उठ खड़ी हुई और मन्नू का हाथ खींचते हुए बोली, ‘‘चलो, जरा घूमकर देखते हैं कौन-कौन आया है। नमस्ते-उमस्ते भी हो जाएगी।’’

मन्नू को पैरों पर खड़ा कर एक तरह से खींचते हुए ले गई अस्मिता। ज्यादातर चेहरे अनजाने थे मन्नू के लिए, पर अस्मिता सबसे हंसकर बात कर रही थी। कई बार तो नमस्ते करने से पहले पल्लू से सिर ढक लेती। फिर मन्नू के कान में बचपन की किसी सहेली की तरह फुसफुसाकर कहती, ‘‘रिश्ते में हमारे मौसे ससुर लगते हैं। सुशील जी की माता के बहनोई हैं।’’

क्या यह सब कर पाएगी मन्नू? ठंडी सी लंबी सिहरन दौड़ गई ऊपर से नीचे तक। पद्मजा कहती थी- पॉलीटिक्स इज ए डर्टी गेम। तुम नहीं कर पाओगी वो दांव-पेंच। सोशल सर्विस करने के और बहुत सारे तरीके हैं। पॉलिटिक्स में कोई सोशल सर्विस नहीं होती। सिर्फ दांव-पेंच और पावर हथियाने का गेम चलता है। अब मन्नू साक्षात देख रही है। अस्मिता को इन सब लोगों से क्या लेना-देना? लेकिन वह इन्हीं में से एक है। ऐसा ही बनना चाहती है।

मन्नू ने दूर तक देखा, सुशील कहीं नजर नहीं आए। अलबत्ता उनके बेटे जरूर दिख गए। अस्मिता नमस्ते करते-करते आगे निकल गई। अच्छा मौका था, मन्नू पीछे हट गई। दरवाजे से बाहर निकली और गाड़ियों की कतार से बचते-बचाते सड़क पर निकल आई। बाहर भीड़ नहीं थी। सुशील की स्कॉरपियो सड़क पर लगी थी। चरण वहीं खड़ा था। मन्नू को देख हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

मन्नू ने पूछ लिया, ‘‘कहीं जा रहे हो क्या?’’ कहीं सुशील ने उसे घर छोड़ने की जिम्मेदारी तो नहीं सौंप दी उसे?

चरण ने स्वामीभक्त की तरह जवाब दिया, ‘‘हुजूर कहीं जाएंगे। हमसे यहीं रहने को कहा है।’’

सुशील इस तरह बीच पार्टी छोड़कर कहां जा रहे हैं? मन्नू कुछ पूछने ही वाली थी कि उसे धड़धड़ाती बाहर आती अस्मिता दिखी। साड़ी को एक हाथ से कुछ ऊपर उठाए वह तेजी से इसी तरह आ रही थी। मन्नू सामने की गाड़ी की ओट में छिप गई। कहीं पट्ठी उसी की खोज में तो नहीं आ रही?

लेकिन अस्मिता अपनी रौ में चलती हुई आगे निकल गई। दो-तीन गाड़ियों के बाद वह एक लंबी सी वैन के पास जाकर रुक गई। दरवाजा खुला और वह अंदर बैठ गई। जो व्यक्ति ड्राइविंग सीट पर बैठा था, उसे मन्नू जानती थी। सुशील उसे अस्मिता का दूर के रिश्ते का भाई बताते थे, जिसका खाना-पानी-खर्चा अस्मिता उठाती थी। सुशील हंसते थे कि वह अस्मिता का बॉडीगार्ड है।

मिनट भर बाद ही मन्नू को सशुील बाहर आते नजर आए। मन्नू गाड़ी की ओट से निकल आई, लेकिन अब भी वहां रोशनी न होने की वजह से वह नजर नहीं आ रही थी। सुशील सीधे चरण के पास आए और बेहद धीमी आवाज में बोले, ‘‘मैं जरा जा रहा हूं, जरूरी काम है। बच्चे पूछें तो बता देना कि किसी को देखने अस्पताल गया हूं, घंटे-दो घंटे में लौट आऊंगा।’’

वे निकल गए। मन्नू हतप्रभ सी खड़ी रही। वे सीधे जाकर अस्मिता की गाड़ी में बैठ गए और गाड़ी वहां से चल पड़ी। मन्नू जड़ हो गई। सुशील अस्मिता के साथ क्यों जा रहे हैं।

मन भर आया। इन सबकी बातें क्या इतनी ही खोखली होती हैं? कहते कुछ और हैं, और करते कुछ और। जिस महिला के लिए कहते हैं कि उससे संबंध न रखो, उसके साथ खुद जा रहे हैं। पैर भारी से हो आए मन्नू के। लगा खड़ी रही, तो गिर ही जाएगी।

इससे पहले ही चरण ने उसे उबार लिया।

‘‘आपकी तबीयत ठीक नहीं लगती मेमसाब। घर तक छोड़ आऊं? रात भी काफी हो गई है।’’

मन्नू बैठ गई, पिछली सीट पर। आंखों में गर्म-गर्म नमकीन पानी छलक आया। तो पद्मजा गलत नहीं कहती थी। उसने दुनिया देखी है, पुरुषों के भी कई रूप देखे हैं।

मन्नू ने पर्स से टिश्यू निकाल आंखों की कोरों पर रख लिया। अनुमान था उसे कि चरण सामने लगे मिरर से उसकी तरफ देख रहा था।

कन्नू को उसकी नजरें भारी पड़ने लगीं, उसने पूछ लिया, ‘‘तुम्हारे साहब अस्मिता के साथ कहा गए हैं?’’

चरण ने अदब से कहा, ‘‘पता नहीं मैडम...’’

‘‘अक्सर जाते हैं साथ में?’’

चरण चुप रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘इस सबमें मत पीड़िए मैडम।’’

‘‘इतना तो बता सकते हो न चरण कि सुशील और अस्मिता में क्या अब भी कोई संबंध बाकी है?’’ मन्नू ने तड़पकर कहा।

चरण ने सिर हिला दिया, जो सोचना हो सोच ले। मन्नू ने फिर कोई सवाल नहीं किया। बस अपने आपसे पूछती रही कि वह इस मंजिल तक क्यों चली आई?

क्रमश..