औरतें रोती नहीं
जयंती रंगनाथन
Chapter 3
करवट बदलने से टूट जाते हैं सपने
मन्नू की नजर से: 1989
‘‘मन्नू, मैं बहुत परेशान हूं। मैं शायद अब आ नहीं पाऊंगा...’’
मन्नू हाथ में स्टील की कटोरी में चना-गुड़ लिए खड़ी थी, झन्न से गिर गई कटोरी। चेहरा फक। आंख में टपाटप आंसू भर आए। ऐसा क्यों कह रहे हैं श्याम? उसके पास नहीं आएंगे? उसका क्या होगा?
श्याम बैठे थे, आंखें बंद किए। मन्नू उनके पैरों के पास बैठ गई। आंसुओं से तलुआ धुलने लगा, तो श्याम के शरीर में हरकत हुई, ‘‘मत रो मन्नू। मैं रोता नहीं देख पाऊंगा तुझे। तू ही बता करूं क्या?’’
‘‘दिद्दा ने कुछ कहा क्या?’’ मन्नू ने सहमती आवाज में पूछा। श्याम की पत्नी रूमा को वह दिद्दा ही कहती थी।
श्याम धीरे से बोले, ‘‘तुम्हें कैसे बताऊं मन्नू? जिंदगी इतनी आसान नहीं, जितना हम समझते हैं। मैं तुम्हारे लिए बहुत कुछ करना चाहता हूं... पर देखो न, कुछ नहीं कर पाता। यहां आता हूं और अपनी परेशानियां तुम पर लादकर चला जाता हूं। तुम अकेली हो, उधर रूमा के पास सब कुछ है-भरापूरा घर, पैसा। एक पति होने की ताकत है रूमा के पास।’’
‘‘ऐसा नहीं सोचते। अगर दिद्दा नहीं चाहतीं, तो आप कभी मेरे पास न आते।’’
श्याम ने बहुत धीमी और लुप्त आवाज में कहा, ‘‘यहां आने की मैं कितनी बड़ी कीमत चुका रहा हूं, तुम्हें नहीं मालूम मन्नू।’’
मन्नू को सुनाई दे गई श्याम की आवाज। इस आवाज के सहारे वह बहुत बड़ी लड़ाई लड़ रही थी जिंदगी से। किसी तरह अपने को संभाल कर वह दो रोटी और तोरई की रसेदार सब्जी बना लाई श्याम के लिए। जब उसके पास आते श्याम, तो खाना यहीं खाकर जाते। मन्नू के लिए वह दिन हर तरह से विशिष्ट होता। श्याम की पसंद का खाना बनाना, ठीक से काजल-बिंदी लगाकर तैयार होना, रंगीन साड़ी पहनना और जरा सा इत्र लगाना।
श्याम शाम को ही आते थे, दफ्तर से सीधे। पहले से बता जाते कि अगली बार शुक्र को आऊंगा। मन्नू की तैयारियां शुरू हो जातीं। तन-मन से प्रफुल्लित। बेसब्री से इंतजार करती। श्याम चालीस पार कर चुके थे। पर अब भी शरीर बलिष्ठ था। बालों में हल्की सी सफेदी, हल्का सा बढ़ा हुआ पेट। हाथ और छाती पर बाल ही बाल। घने काले बाल। घर पर होते तो कमीज कुर्सी पर डाल सीना उघाड़कर बैठते। मन्नू को उन्हें ऐसे देखना बहुत भला लगता। अपने सीने पर उसका नन्हा सा सिर रखकर कहते, ‘‘तुम बिल्कुल गुड़िया सी हो। हाथों में भर लूं, तो चेहरा आ जाए।’’
मन्नू कभी गर्म पानी से उनके पैर धोती, तो कभी नाखून साफ कर काटने बैठ जाती। मन होता, तो चमेली का तेल हल्का गर्म कर बालों में लगा सिर की मसाज करती।
श्याम को मन्नू के हाथों तेल लगवाना बेहद पसंद था। उस दिन तो दोनों ही तेल में गुत्थमगुत्था हो जाते। फिर चलता प्रगाढ़ता का लंबा दौर। अधेड़ श्याम के अंदर जैसे ऊर्जा का समंदर ही भर जाता। मन्नू उनकी गोद में बच्ची ही तो लगती थी। युवा मन्नू के चेहरे पर कमनीयता थी, पारदर्शी त्वचा, हल्के भूरे बाल। खूब मुलायम। छोटा कद, नाजुक बदन। श्याम उसे उठाते, तो लगता जैसे रूई का सुगंधित फाहा अपने पूरे अस्तित्व के साथ उड़ रहा हो। मन्नू जो उड़ती, तो साड़ी का पल्लू श्याम के चेहरे पर एक पर्दा सा बन उन्हें और मोहित कर जाता। हर बार मन्ने का सान्निध्य उन्हें चमत्कृत कर जाता। कितना प्यार है इस औरत के अंदर। प्यार मन्नू को बदल देता है। वह केंचुल उतार हंसिनी बन जाती है। बहुत बेबाक और उन्मुक्त हो जाती है मन्नू। श्याम को कई बार डर लगता है। वे अब जवान नहीं रहे। ढल रहे हैं। मन्नू जितना सान्निध्य चाहती है, वे दे नहीं पाते। जब कभी मन्ने को मना करके वे लौट आते हैं रूमा के पास, धधक मची रहती है। मन्नू अभी युवा है, कहीं उसकी जिंदगी में कोई और आ गया तो?
वे खुद संभलना चाहते हैं। उनकी बड़ी बेटी उज्ज्वला सत्रह की हो जाएगी। छोटी अंतरा तेरह की। एक ही बेटा है अनिरुद्ध। सबसे बड़ा है। रूमा का एक तरह से दाहिना हाथ है। कॉलेज में है। रूमा अपने सभी बच्चों को अस्त्र की तरह इस्तेमाल करती है। श्याम महसूस करने लगे हैं कि घर का माहौल उनके लिए कठोर होता जा रहा है। रूमा ने बेशक उन्हें मन्नू के पास जाने से मना न किया हो, वह दूसरी तरह से उनसे बदला ले लेती है। वे गांव में अपने माता-पिता के लिए कुछ नहीं कर पाते। एक बहन है सरला, बिन ब्याही, शादी की उम्र बीत ही चुकी है, वे कुछ नहीं कर पाए। अम्मा कह-कहकर थक गईं। पिताजी का लिवर जवाब दे गया। रूमा ने मना कर दिया कि वे यहां लाकर इलाज नहीं करवाएंगी। श्याम की आवाज घुट गई है।
उस शाम श्याम जब मन्नू के घर से लौट रहे थे, बस स्टॉप पर ही चक्कर खाकर गिर पड़े। लगभग दस मिनट की बेहोशी के बाद नींद टूटी, तो अपने आपको सड़क किनारे लेटा पाया। माथे और घुटने छिल गए थे। खून निकल आया था। सिर चकरा रहा था। कुछ लोग उन्हें घेरे खड़े थे। उन्हीं में से एक ने झपटकर उनके लिए पानी का इंतजाम किया।
श्याम को समझ नहीं आया कि उन्हें चक्कर कैसे आ गया। दोपहर को खाना खाया तो था। ठीक है कि चलते समय हमेशा की तरह गुड़-चने नहीं खाए, पर इससे चक्कर? लग रहा है जैसे शक्ति चुक सी गई है।
आधे घंटे तक वे बस स्टॉप पर ही बैठे रहे। शरीर में ताकत आई, तो बस में बैठ गए।
लगा जैसे जिंदगी हाथ से निकलती जा रही है। अब ज्यादा दिन नहीं जी पाएंगे। बच्चों का क्या होगा? मन्नू का क्या होगा? पिताजी का इलाज? बहन? मां? इन सबके बीच रूमा का ख्याल जरा नहीं आया।
अंतरा घर के बाहर ही सहेलियों के साथ लंगड़ी बिल्लस खेल रही थी। पापा को देखते ही दौड़ी आई, ‘‘पापा, राजू चाचा आए हैं बुआ के साथ।’’
श्याम चौंक गए। जरूर पिताजी ने भेजा होगा। इतने दिनों से बुला रहे हैं। तीन-चार पत्र लिख चुके। दसियों ट्रंक कॉल कर डाले। एकदम से उन्हें डर सा लगने लगा। पता नहीं रूमा ने राजू और सरला के साथ क्या किया होगा?
सरला बरामदे में ही बैठी थी। मेथी के पत्ते अलग कर रही थी। भैया को देखते ही खड़ी हो गई। पहले से ढल गया था सरला का चेहरा। मन्नू से एक ही साल तो छोटी है सरला। घर में सबसे छोटी। श्याम तेरह बरस के थे, तब पैदा हुई। गोद में लिए फिरते थे। बचपन में उसे खाना खिलाना, उसकी चोटी बनाना जैसे सारे काम वे ही करते थे। रूमा से शादी के बाद तो जैसे भूल ही गए अपनी बहन को। सरला को देख बहुत बुरा लगा श्याम को।
घर के अंधर राजू बैठा था अनिरुद्ध के साथ। श्याम ने रूमा को खोजने की कोशिश की। वह शायद अंदर कहीं थी। घर में शांति थी, इसका मतलब था कि राजू का मकसद पिताजी का संदेश लाना या पैसे मांगना नहीं था। श्याम राजू के पास बैठे ही थे कि उज्ज्वला हाथ में पेड़े का डिब्बा उठा लाई, ‘‘पापा, बुआ की शादी तय हो गई है। अगले महीने है।’’
श्याम ने मिठाई का टुकड़ा उठा लिया। तो आखिरकार बहन का रिश्ता हो ही गया। इस बार पिताजी ने उसे बताया तक नहीं, अभी भी मेहमान की हैसियत से ही न्योता है। उन्हें भी पता है कि जरा सा कुछ मांग करते ही श्याम की बीवी बेटे की जिंदगी तबाह कर देगी।
रातभर इसी उधेड़बुन में रहे श्याम कि बहन को क्या दें? बहुत ज्यादा नहीं तो इतना कम भी नहीं कि पिताजी को धक्का ही लग जाए। पचास हजार तो होने ही चाहिए। उनकी शादी सन 1970 की गर्मियों में हुई थी। उसी समय रूमा के घरवालों ने पचास हजार से ज्यादा खर्चा था। श्याम के पिता के हाथ में नकद दस हजार रखे थे। पता नहीं पिताजी ने उन रुपयों का किया क्या? श्याम को लगा था कि उसकी शादी के बाद पिताजी उसकी मदद करते रहेंगे। वे गांव के डाकघर में बड़े बाबू थे।
जब अनिरुद्ध हुआ, तो भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ चुका था। वे उन दिनों सिविल्स की तैयारी में लगे थे। घर के खर्चे के लिए एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते थे, दो-चार ट्यूशन भी कर लेते। उस समय तक तो उनके पास साइकिल ही थी। रूमा पीछे पड़ी थी कि स्कूटर खरीदो। इस तरह साइकिल पर घूमते हो, मेरे परिवारवालों की इज्जत क्या रहेगी? मेरे घरवाले दिल्ली में रहते हैं। तुम्हारा क्या? कोई जानता भी है तुम्हें? बहुत संघर्ष भरे दिन थे। शादी तो कर ली थी, पर लगा कि इस तरह से न पढ़ाई हो पाएगी, न नौकरी। घर चलाना इतना भारी काम है, इसका अंदेशा था ही नहीं। रूमा अलग परिवेश से आई थी। जिंदगी के मायने अलग थे। बहुत कोचती, ‘ये नहीं है, वो नहीं है। ऐसा नहीं है, वैसा नहीं।’
श्याम कुंठित रहने लगे थे। ‘स्साला आई.ए.एस. बनकर करना क्या है? जिनके लिए बनना चाहते हैं, वो तो उनकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं आंक रहे।’ ठीक प्रिलिम परीक्षा से एक दिन पहले उन्होंने ठान लिया कि नहीं बनना कलेक्टर। नौकरी की खोज शुरू हुई। दो महीने बाद हाई स्कूल में मास्टर बन गए। उसी बरस बैंक में क्लर्क के पद का इम्तेहान दिया। छह महीने बाद पक्की नौकरी मिल गई। वहीं रहते-रहते प्रोबेशनरी ऑफिसर बन गए।
शुरू में भतेरे ट्रांसफर हुए। कभी अलीगढ़, तो कभी जौनपुर। एक बार तो झांसी से सौ किलोमीटर दूर एक मुफसिल से कस्बे में दो साल रहना पड़ा। एक रूखी जगह। घर के नाम पर तीन दीवारों वाला सीमेंट का मकान। एक दीवार मिट्टी की, जिससे बारिश के दिनों में रिस-रिसकर पानी अंदर आता था। खाने-पीने का कोई इंतजाम नहीं। एक ढंग का ढाबा नहीं। श्याम बुरी तरह उकता गए। कस्बे के लोग आलसी और दगाबाज किस्म के थे। पास ही वेश्याओं की पुरानी बस्ती थी। बैंक के आधे कर्मचारी सुबह-शाम वहीं पड़े रहते। वहीं रहते-रहते एक घटना हो गई।
क्रमश..