औरतें रोती नहीं - 4 Jayanti Ranganathan द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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औरतें रोती नहीं - 4

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 4

जिंदा हूं जिंदगी

श्याम के साथ काम करते थे कमलनयन। क्रांतिकारी किस्म के कम बोलने वाले आदमी। बनारस के पढ़े-लिखे। श्याम के वे एकमात्र हमप्याला-हमनिवाला थे। जब भी मौका मिलता, दोनों मिल बैठकर बीयर पीते। कमलनयन का लगाव एक वेश्या के साथ हो गया। वे कभी-कभी उसे घर भी ले आते। शोभा नाम था उसका। उम्र बीसके साल। पतली-दुबली शोभा के चेहरे का पिटा हुआ रंग श्याम को कचोट जाता। भूरे पतले बालों की दो चोटियां बनाकर रखती। उसके शरीर के हिसाब से उसके वक्ष भारी लगते। लगता वक्षों के बोझ तले वह दबी हुई है। साड़ी ही पहनती थी शोभा, वो भी खूब चमकीली।

एक दिन कमलनयन शाम ढले लाल साड़ी में लिपटी शोभा को श्याम के तीन दीवारों वाले मकान में ले आए, ‘‘ले श्याम, मैं तेरे लिए भाभी ले आया...।’’

श्याम सकपका गए। शोभा शर्माती हुई पीछे खड़ी थी। अचानक वह तेज कदमों से श्याम के पास आई और उनके पैर छू लिए। कमलनयन हंसने लगे, ‘‘ऐसे क्या देख रहा है बे? शादी की है इनसे मंदिर में। इनकी अम्मा तो मान ही न रही थीं, बड़ी मुश्किल से पांच हजार का सौदा करके इन्हें ले आए हैं। क्यों ठीक है न दोस्त? ज्यादा कीमत तो नहीं चुका दी हमने?’’

श्याम ने देखा, शोभ की आखें पनीली हो उठी थीं। उसे अच्छा नहीं लगा था, अपने मोलभाव का खुला बखान। कमलनयन और शोभा उस रात श्याम के ही पास रहे। कमलनयन के घर में बिस्तर की व्यवस्था नही थी, फिर अपने मकान मालिक से भी उन्होंने शादी की बात नहीं की थी। श्याम बरामदे में सो रहे। अगले दिन सुबह उठकर चाय शोभा ने ही बनाई। रातभर में उसका चेहरा बदल गया था। चेहरे पर लुनाई, एक सुरक्षा से भरा चेहरा।

वह उसे श्याम जी बुलाती थी। कमलनयन को साहब जी। कमलनयन ने बिना कुछ कहे श्याम के घर डेरा डाल लिया। श्याम डर रहे थे। हर साल गर्मी की छुट्टियों में रूमा बच्चों को लेकर उनके पास आती थी। इस बार कह रही थी कि उसकी मां भी आना चाहती है। अगर उसे पता चल गया कि घर में उन्होंने एक वेश्या को पनाह दी है, तो उनकी खैर नहीं। कमलनयन अपने घर नहीं जाना चाहते थे। उस इलाके में हर कोई शोभा से परिचित था, कई तो उसके ग्राहक भी रह चुके थे।

श्याम के घर का इलाका अपेक्षाकृत सुनसान था, सौ मीटर की दूरी पर एक छोटा सा मंदिर था हनुमान का। उसके आगे जंगल।

श्याम के बहुत सहमत न होने के बावजूद कमलनयन और शोभा वहां टिक गए। पहले दो दिन श्याम बरामदे में सोए, पर फिर कमरे में ही आ गए। वापस अपने तख्त पर। नीचे रजाई बिछाकर शोभा और कमल सोते। श्याम को संकोच होता। कई रातें उनके लिए मुश्किल हो जातीं। जमीन पर कमल और शोभ को संभोग करते देखना, सुनना उनके लिए असह्य हो जाता। वे मना कर सकते थे, पर एक किस्म का आनंद आने लगा था श्याम को। कमलनयन अच्छे प्रेमी नहीं थे, लेकिन शोभा पुराना चावल थी। पता नहीं अपने ग्राहकों को कितनी संतुष्टि देती थी, अपने पति को तो सहवास का भरपूर सुख दे रही थी, वो भी प्राय: रोज ही। शोभा के सीत्कार श्याम को उत्तेजित कर देते। बिस्तर पर लेटे-लेट उनका हाथ सक्रिय हो जाता। वे आनंद में खो जाते और चरम पर पहुंच जाते। न जाने कितनी रातें... न जाने कितनी फंतासियां। पर उन्हें कभी नहीं लगा कि शोभा के साथ वे सेक्स करने को इच्छुक हैं। दिन की शोभा और रात की शोभा में गजब का परिवर्तन था। वह नहा-धोकर स्टोव जलाती। चोय बनाती। कभी पूरी, तो कभी परांठा बनाकर दोनों दोस्तों को काम पर भेजती। दोपहर को चावल-दाल। रात को रोटी के साथ तरी वाली सब्जी।

श्याम को खाने-पीने की सुविधा हो गई। घर व्यवस्थित हो गया। कमलनयन खर्चे बांट लेते। किराया श्याम देते, राशन-पानी कमल ले आते।

पूरे दो महीने यह व्यवस्था चली। श्याम को यह जानकर राहत मिली कि रूमा नहीं आ पाएगी। मां सीढ़ियों से गिरकर हाथ तुड़वा बैठी थीं। ऐसे में रूमा को वहां रहना जरूरी था।

श्याम को बहुत बड़ी नियामत मिल गई। रूमा के यहां आने के नाम भर से वे घबरा गए थे। पिदली गर्मियों का एक महीने बहुत कष्ट में बीता था। लगातार रूमा की शिकायतें सुनते-सुनते वे चककरा गए थे। इतने कि पंद्रह दिन की छुट्टी डाल वे सबको शिमला ले गए और वापसी में सबको दिल्ली छोड़कर खुद यहां चले आए।

कमलनयन का परिवार बिहार के चंपारन क्षेत्र से था। वे जोश में बताते थे कि उनके परिवार के कई लोग आजादी की लड़ाई में शहीद हुए हैं। उनके परिवार में अब तक यह खबर नहीं पहुंची थी कि कमलनयन ने शादी कर ली है। इसी बीच कमलनयन के गांव से कोई परिचित आ पहुंचा। कमलनयन के पुराने घर गया, वहां से सीधे बैंक आ पहुंचा।

रंग उड़ा पजामा-कुर्ता, बिखरे बाल और तनी हुई मुद्रा। कमलनयन उसे देख सकते में आ गए।

‘‘ये हरामी का पिल्ला, ससुर का नाती देबुआ यहां कैसे आ पहुंचा?’’

देबू एकदम से सामने पड़ गया। कमलनयन किसी तरह से घेर-घारकर उसे बाहर चाय पिलाने ले गए। उसे एक दिन बाद लौटना था और चाहता था कि रहे कमल बाबू के ही साथ। ऐसा चाटा कि श्याम ध्वस्त हो गए। शाम को उन्हीं के साथ चल पड़ा देबू। कमल की बोलती लगभग बंद थी। घर पर कदम रखते ही कमल ने सबसे पहले यही कहा, ‘‘श्याम, जरा भाभी से कह दो, खाना एक आदमी के लिए ज्यादा बना दे। दाल-भात चलेगा। घर जैसा।’’

श्याम सकपकाए। क्या कमल देबू का परिचय शोभा से नहीं कराएंगे? परिचय तो दूर की बात, कमल ने शोभा से बात ही नहीं की। कुछ कहा भी तो श्याम के मार्फत। वो भी भाभी कहते हुए। शोभा चुपचाप सिर पर आंचल रखे स्टोव फूंकती रही। खा-पीकर देबू और कमल बरामदे में आ गए। अंदर बिस्तरा लेने गए तो फुसफुसाकर श्याम के कान में कहा, ‘‘मैं भी जरा बाहर ही सो लूं। कुछ गांव-घर की बात करनी है।’’

श्याम अचकचा गए। बीवी अंदर उनके साथ? कमलनयन को किस बात की शर्म है?

शोभा ने कुछ कहा नहीं। पर जमीन पर बैठी-बैठी वह रोती रही। श्याम ने उसे अपना तकिया और चादर दे दिया। शोभ का निशब्द रोना उन्हें अंदर तक साल गया। मन हुआ कि इसी वक्त दरवाजा खोल कमल का झोटा पकड़ उसे अंदर खींच लाए। इस औरत ने क्या गलत किया जो उससे मुंह छिपा रहा है?

लेकिन एक बात तो तय कर ही ली श्याम ने कि कल कमल के रिश्तेदार के रवाना होते ही वे उससे साफ कह देंगे कि अब तो अपना दूसरा घर कर ले। उन्हें इस तरह किसी दूसरे की बीवी के साथ रहते असुविधा होती है। वैसे भी शोभा उनकी अमानत है, वे ही ख्याल रखें।

सुबह छह एक बजे दरवाजा ठेलकर कमल अंदर आ गए। उस समय भी शोभा जमीन पर ही टेक लगाए ऊंघ रही थी। कमल ने एक तरह से झकझोरकर श्याम को जगाया, ‘‘दोस्त, जरा देबू को झांसी तक छोड़ने जा रहा हूं। कुछ रुपए होंगे...?’’

श्याम ने अपना पर्स टटोलकर उन्हें दो सौ रुपए दे दिए। महीने के अंत में इतना होना बड़ी बात थी। उस समय जबकि तनख्वाह साढ़े सात सौ रुपए हो।

कमल पैसा लेकर बाहर निकले, फिर न जाने क्या सोचकर अंदर आए। शोभा उसी तरह जमीन पर हक्की-बक्की सी बैठी थी। बस आंखें यह जानने का इंतजार कर रही थीं ‘मेरे वास्ते क्या हुकुम साहिब?’

उन दोनों को सुनाकर बोले कमल, ‘‘कल तक आ जाऊंगा। ख्याल रखना...।’’

अपने रबर के जूते फरफर करते कमल बाहर निकल गए। श्याम बाहर लपके, यह कहने को कि कल तुम अपना कहीं प्रबंध करके ही आना, पर कमल जा चुके थे।

शोभा शांत थी, चाय बनाई, नाश्ता बनाया। श्याम कामन ही नहीं किया कि दफ्तर जाएं।

वे यूं ही निकल गए पैदल-पैदल, मंदिर और आगे जंगल। पगडंडियों से होते हुए। चलते रहे, बस चलते रहे। जंगल के बीचोंबीच एक झरने के किनारे पुराना सा मंदिर था। अहाते में कमर तक पीली धोती चढ़ाए एक बाल ब्रह्मचारी चंदन घोट रहा था। श्याम को देख उसने हाथ रोक लिया।

श्याम हांफ से रहे थे। इतना चलने की आदत नहीं रही। न जाने क्या सोचकर बालक एक लोटे में पानी ले आया। वे गटागट पी गए। छलककर पतलून पर आ गिरा। श्याम ने कुछ रुककर पूछा, ‘‘क्यों छोरे, कुछ खाने का इंतजाम हो जाएगा? रूखा-सूखा कुछ भी चलेगा।’’

बालक लोटा नीचे छोड़ दौड़ता हुआ मंदिर के अंदर घुस गया। पांच मिनट बाद निकला तो एक बड़ी उम्र के लंबी दाढ़ी वाले साधु के साथ। नंगे पैर, ऊंची रंगी उड़ी भगवा धोती, नग्न बदन। पूरे बदन पर भभूत का लेप। सिर के बाद जटा-जूट से। आंखें भक्ख लाल। श्याम क्षणभर को डर गए। कौन है ये? कपाल साधक? सुन रखा था कि इस जंगल में नर बलि देने वाले आदिवासी भी हैं।

श्याम उठ खड़े हुए। साधु ने बैठने का इशारा किया। वे खुद श्याम के बिल्कुल सामने आलती-पालती मारकर बैठ गए।

आंखें बंद। खोलीं, तो मुलायम आवाज में पूछा, ‘‘बच्चो, कैसे आना हुआ?’’

श्याम हड़बड़ा गए, ‘‘महाराज, बस ऐसे ही घर से निकला, रास्ता भटक गया, तो इधर चला आया।’’

साधु जोर से हंसने लगे, ‘‘ऐसा कहो कि महादेव ने तुम्हें बुलाया है। बच्चा, तुम सही वक्त पर आए। आज शाम ही हमारा डेरा उठने वाला है यहां से। चले जाएंगे वहां, जहां स्वामी आवाज देंगे... बम बम भोले...’’ साधु ने आंखें बंदकर लंबी डकार ली और जोर से कहा, ‘‘अरे ओ लुच्चे की औलाद, ए नित्यानंद... क्या बनाया है रे आज खाने को?’’

बालक दौड़ता हुआ आया और उनके चरणों को छूकर बोला, ‘‘बाबा, आटा गूंथ लिया हूं। दूध रखा है...।’’

‘‘ऐ मूरख... देखता नहीं, अतिथि आए हैं। दूध-रोटी खिलाएगा? चल, जल्दी से आलू उबाल। आज तेरे हाथ के आलू के परांठे जीमेंगे महराज। घी पड़ा है कि भकोस लिया तैने?’’

‘‘जी। घी डालकर परांठे बना लूंगा। दस मिनट लगेंगे महाराज।’’

बालक कूदता हुआ चला गया। साधु फैलकर बैठ गए। कमर सीधी कर चिलम सुलगा ली और श्याम की आंखें में सीधे देखते हुए बोले, ‘‘हमें ऐसा-वैसा न समझ बच्चा। हम पिछले पचास साल से गुरुदेव की साधना कर रहे हैं। याद नहीं कहां जन्म हुआ... हां पता है बच्चे मरना यहीं है गुरुदेव के चरणों में... अलक निरंजन...।’’ साधु ने इतनी ऊंची गुहार लगाई कि पास के पेड़ पर बैठे पंछी चहचहाकर उड़ गए।

श्याम ने घड़ी देखी। तीन बजने को आए। सुबह के निकले हैं। लौटने में जल्दी नहीं करेंगे, तो राह ही भटक जाएंगे। दिन में जंगल का यह तिलिस्मी रूप है तो रात में क्या होगा?

साधु ने जैसे उनके मन की बात समझ ली, ‘‘जाने की सोच रहे हो बच्चे? चिंता न करो। हम तुम्हें रास्ता बता देंगे। दिखाओ तो अपना मस्तक... चिंता की रेखाएं हैं। अच्छा चलो हाथ की लकीरें पढ़ते हैं।’’

श्याम का कतई विश्वास नहीं था हाथ बंचवाने में। रूमा ने कितनी बार कहा, ‘अपनी कुंडली बनवा लो, दिल्ली में एक अच्छे पंडित हैं, बंचवा लेंगे।’ उन्होंने मना कर दिया। लेकिन साधु ने जब उनका दाहिना हाथ खींच हथेली अपनी गोद में धर ली, तो वे कुछ कह नहीं पाए।

अचानक उनकी हथेली अपनी पकड़ से निकल जाने दी साधु ने और गंभीर आवाज में बोले, ‘‘अपनी जनानी से परेशान हो बच्चा, लेकिन मुक्ति नहीं मिलेगी। वो ही बनेगी तुम्हारे स्वर्गवास का कारण। बच्चों से सुख नहीं है तुम्हें। लड़का है, ठीक निकलेगा। लड़कियां... बड़ी की जिंदगी तुम्हारे जैसी होगी। बहुत संघर्षों भरी जिंदगी रहेगी उसकी। मनमाफिक साथी भी अधेड़ होने के बाद मिलेगा... तुम संभल के रहना बच्चा, एक औरत आ रही है तुम्हारी जिंदगी में। बहुत मुश्किलें साथ लाएगी। उम्र में छोटी। तबीयत सही नहीं रहेगी। बाबा का नाम लो सुबह-शाम।’’

श्याम तुरंत हाथ बांधकर खड़े हो गए। माथे पर पसीना। तलब हो आई एक सगरेट पीने की। मन हुआ साधु के हाथ से चिलम लेकर एकाध कश ही मार लें।

कहां फंस गए? पता नहीं बालक खाना बनाकर खिला भी रहा है या नहीं?

पांचेक मिनट बाद बालक दो बड़ी-बड़ी कांसे की थालियों में गर्म रोटी रख लाया। रोटियां मोटी थीं, पर घी से तर। साथ में कटा हुआ प्याज, आम की चटनी और लोटे में पानी। श्याम खाने पर ऐसे टूटे, जैसे बरसों बाद नसीब हुआ हो। साधु हंसने लगा। उसने अपने पुष्ट हाथों में रोटी रख उसका चूरा सा बनाया और मुंह में पान की तरह दाब लिया।

एक के बाद पांच रोटियां खा गए श्याम। आलू की पिट्ठी से भरी रोटी। कच्ची मिर्च की सोंधी खुशबू और घी की मदमाती गंध। इतना स्वाद तो खाने में पहले कभी आया ही नहीं। ऊपर से झरने का निर्मल मीठा पानी। तो इसे कहते हैं वैकुंठ भोजन।

साधु खा-पीकर वहीं लेट गए। डकार पर डकार। हुंकारा भरकर कहा, ‘‘बच्चे, आज तो तुमने गुरुदेव का प्रसाद चख ही लिया। बड़े विरलों को ही मिलता है उनका प्रसाद। अब घर जाओ बच्चा। सब अच्छा होगा....।’’

क्षणभर बाद ही आंखें बंद कर साधु खर्राटे लेने लगे। बालक प्लेट उठाने आया। साधु ने प्लेट में खाना खा उसी में हाथ धोकर थूक दिया था। लड़के ने बुरा सा मुंह बनाया और श्याम के सामने साधु को जोर की लात मारी।

श्याम हतप्रभ रह गए, साधु की आंख नहीं खुली। लड़का हंसते हुए बोला, ‘‘बिल्कुल बेहोश हैं साब। अब शाम को आंख खुलेगी। इस बीच गर्दन भी काट डालूं, तो ये उठेगा नहीं साब।’’

वाकई साधु परमनिद्रा में लीन थे। खर्राटों की उठती-गिरती लय के साथ उनका भारी बदन हाथी के शरीर की तरह झूम रहा था। बालक जूठन उठाकर जाने लगा, तो श्याम ने पूछ लिया, ‘‘यहां से बाहर जाने का रास्ता बताओगे? महाराज कह रहे थे कि यहां से सीधा रास्ता है।’’

‘‘इनको क्या पता साब। ये इधर थोड़े ही रहते हैं। अफीम की पिनक में कुछ भी बोल जाते हैं। आप ऐसा करो, ये सामने जो पगडंडी है, उससे होकर निकल जाओ। इससे ज्यादा तो मैं भी नहीं जानता। यहां कोई नहीं आता साब। बस हम दोनों रहते हैं। हम चले जाएंगे, तो मंदिर सूना पड़ा रहेगा।’’

क्रमश..