Aouraten roti nahi - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

औरतें रोती नहीं - 10

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 10

जिंदगी दरिया नहीं

उज्ज्वला, मन्नू और पद्मजा: 2006

‘‘क्या तुम्हारे पिता ने यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि तुम अब कहां हो, पद्मा?’’ उज्ज्वला ने पूछा जरूर, पर उसे उम्मीद नहीं थी कि इस सवाल का जवाब देने में पद्मजा को इतनी दिक्कत आएगी। जिन नानागारू की बात वो लगातार करती है, जिनसे अलग होने के बाद भी वह महसूस करती है कि उनकी छाया उसके साथ है, उनके जिक्र से इतनी तकलीफ?

मन्नू ने फौरन कहा, ‘‘अरे डालो पानी इस सब पर कब से हम यहां बोले जा रहे हैं हमारे ये, हमारे वो। अरे, जब उनको फर्क नहीं पड़ता, तो हमारी सेहत क्यों खराब हो? चल रानी पद्मिनी, तू फिक्र न कर। देख, कैसा चेहरा हो गया? चलो, चलकर कोई अच्छी कॉमेडी फिल्म की सीडी लाकर देखते हैं, मूड बदल जाएगा।’’

लेकिन पद्मा का मूड ठीक न हुआ। उज्ज्वला ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था। नानागारू उसे अपनी जिंदगी से इस तरह निकाल बाहर करेंगे, यह उसने कभी न सोचा था। छह साल पहले वो मिलने गई थी पिताजी से। तन-मन से टूटी हुई।

अव्वा के चेहरे पर पहले से ज्यादा झुर्रियां थीं। बोल नहीं पाती थीं। लेकिन पद्मा को देखते ही बाहें फैलाकर अपने में अंक भर लिया। पद्मा उनकी बांहों में कांपने लगी। अव्वा ने उसे माफ कर दिया था? एक अल्हड़, नासमझ और जिद्दी लड़की की गलतियों को भुला दिया था उन्होंने। लेकिन उसके पापा पहले से नहीं थे।

पद्मा को देख चेहरे पर कोई भाव नहीं आए। निर्लिप्त से रहे। आंखों में सूनापन। पैरों में डगमगाहट। पद्मा ने चाहा कि नानागारू से लिपट कर कहे कि मुझे थोड़ी सी जगह दे दो यहां। मैं बहुत अकेली पड़ गई हूं। कोई नहीं चाहता मुझे। अभी-अभी एक बहुत बड़े ट्रॉमा से निकली हूं। मेरा घर टूट गया, मेरा पति मुझसे अलग हो गया। मैं क्या करूं?

नानागारू ने उससे कुछ नहीं पूछा। यह भी नहीं कि वह क्या कर रही है, कैसे जी रही है।

पद्मा अपने नाना को इस रूप में याद नहीं करना चाहती। उसने सख्ती से कहा उज्ज्वला से, ‘‘मेरे पिताजी की बात मत करो। मेरा कोई नहीं। जो था, वो पास्ट था। गुजर गया। बस... न मां, न पिता। मैं ऑर्फन हूं...।’’

उज्ज्वला भड़क गई, ‘‘इतना नाटकीय होने की जरूरत नहीं है पद्मा। मुझे लगता है कि तुम्हारे पिताजी को कोई समस्या थी, वे अपने में नहीं थे। इसलिए तुमसे ठीक से मिले नहीं। और तुमने समझ लिया कि वो उनकी बेरुखी है। मुझे तुम इतना कहती रहती हो कि मुझे अपनी मां का विरोध करना चाहिए था, उनसे घर की संपत्ति में अपना हक लेना चाहिए था... तुमने क्या किया? अपने पिता का साथ उस समय छोड़ दिया, जब वे अपने आप में नहीं थे? तुम अपने में इतनी गुम थीं कि तुमने उनको देखा ही नहीं। पता तो करतीं डार्लिंग कि उन्हें हुआ क्या है? जिन पिताजी के बारे में बोलते समय तुम्हारी आंखें गीली हो जाती हैं, उनसे इतनी बेरुखी क्यों?’’

पद्मा का चेहरा तन गया। मन्नू डर गई। इस तरह दोनों औरतें झगड़ेंगी, तो उसका प्लान तो चौपट हो गया समझो। क्या-क्या तय किया था! तीनों पद्मा की गाड़ी में बैठकर लंबी ड्राइव को जाएंगे। आते समय किसी रेस्तरां में ठंडी बियर या जिन पिएंगे और दबा के तंदूरी रोटी और मुर्गा खाएंगे। उज्ज्वला ने अभी मुर्गे को हाथ लगाना शुरू नहीं किया था, पर मन्नू की पूरी कोशिश थी कि वो भी उसकी तरह सुधर जाए। पिछले दो महीनों में तीनों औरतें एक-दूसरे के इतने करीब आ गई थीं कि लगता ही नहीं था कि वे तीनों अलग थैले की चट्टी-बट्टियां हैं।

इकतीस साल की पद्मा, छत्तीस की उज्ज्वला और अड़तालीस साल की मन्नू। लग रहा था कि उम्र पीछे खिसक आई है। षोडसी हो गई हैं तीनों और इतनी चुहलबाजियां कि खुद पर ताज्जुब हो आए। कहां छिपाकर रखा था इतने दिनों तक अपने आपको?

एक पद्मा ने किस तरह सबकी दुनिया बदल दी है। अब न हंसते हुए खिसियाहट होती है, न अपना बदल दिखाते हुए शर्म आती है। झिझक, हिचक, सकुचाहट और स्त्री सुलभ शक्की मिजाज से परे एक अजीब सा आवरण घेरे रहता है तीनों को। हर समय लगता है बस यही क्षण है अपना, खुलकर जी लें। पूरा का पूरा। जिंदगी को पी लें, इतना कि कभी प्यास न लगे। ये अहसास तो पहले कभी न हुआ था। अपनी तरह से जीने का इतना आनंद! वो भी स्त्री होकर! मन्नू को अचरज होता है, उज्ज्वला को आनंद और पद्मा को प्रेम। जिन रिश्तों से जिंदगी में उम्मीद थी, उन्होंने कुछ न दिया और ये दो अनजान औरतें जो प्यार दे रही हैं, वह उम्मीद से कितना ज्यादा है।

अचानक पद्मा बोली, ‘‘तुम सही कहती हो उज्ज्वला। मुझे जानना चाहिए कि नानागारू के साथ क्या हुआ है। आई वाज फुल ऑफ माईसेल्फ। सोचा ही नहीं कि उनके साथ भी कोई बात हो सकती है। मैं शुरू से बहुत स्वार्थी रही हूं। अपने परे कभी सोच ही नहीं पाती। देखो, पांच साल हो गए। कोलकाता में जब तक थी, कम से कम नाना की खबर तो मिलती रहती थी। पिताजी मेरे नाम से कुछ पैसे भी जब-तब भेजते रहते थे। ...कोलकाता में अलग बात थी। सभी पिताजी के विरोध में थे। मां तो थीं ही। मामा मोशाय, पूरी फैमिली। फ्रेंड्स सब। सबको लगता था कि पिताजी ने मां के साथ गलत किया है। पर मैं जानती हूं, मां का साथ निभाना कितना मुश्किल था। मैं अपनी मां की खोजखबर रखती हूं। उनके सारे टैनट्रम्स उठाती हूं। लगता है उम्र हो गई है, साथ कोई है नहीं, तो और भी बुरा लगता है।’’

‘‘तुमने ही तो कहा था न पद्मा... तुम चाहती थीं कि पिताजी शादी कर लें। फिर... कहां रह गया तुम्हारा कंसर्न?’’

‘‘तुम दोनों चलोगी मेरे साथ? नानागारू से मिलने?’’ अचानक पद्मजा ने उत्साह से पूछा।

उज्ज्वला ने सिर हिलाया और मन्नू सिर पकड़ कर बैठ गई।

यहीं से बात शुरू होते-होते हुई थी। उस दिन पद्मजा के दिमाग में जो भूत सवार हुआ तो वह पीछे पड़ गई। मन्नू पद्मजा के इस पारिवारिक मिलन सफर को लेकर बहुत उत्सुक नहीं थी। वैसे भी यात्रा से वह कभी खुश नहीं होती थी। उज्ज्वला के लिए यह एक नया मुकाम था। ऐसी जिंदगी तो उसने कभी जी ही नहीं थी।

पद्मजा नाराज हो गई मन्नू से, ‘‘तुम इतना ही साथ देगी मेरा? बातें तो इतनी बड़ी-बड़ी करती हो। मुझे देखो, मैं अपने टुटू को छोड़कर जाने के लिए तैयार हो गई हूं। तुम्हें पता है मेरे बिना वो खाना भी नहीं खाता। फिर भी... मेरे लिए तो यह आसान होगा न कि टुटू को तुम्हारे पास छोड़ जाऊं। पर मैं चाहती हूं कि तुम चलो।’’

एक बार जो पद्मा ने कह दिया कि चलो, तो फिर तीनों ही चल पड़े। उज्ज्वला ने पहली बार पंद्रह दिन की लंबी छुट्टी ली। पद्मा ने अपना काम और अपना कुत्ता टुटू अपनी शिष्या आलवी को सौंपा।

मन्नू जब अपने पड़ोस में चाबी देने गई, तो उसने पूछ ही लिया, ‘‘कहां चलीं तीनों? तुम्हें तो हमसे बोलने की फुर्सत ही नहीं रही, मन्नू रानी। दो दिन पहले लीना अपनी बेटी को लेकर आई थी, तुमसे मिलने की कह रही थी। मैं तीन-चार बार चक्कर लगाकर गई। कहां गायब रहती हो रात ग्यारह बजे तक? वो लीना का आदमी बता रहा था कि तुम्हें एक होटल में पीते-पिलाते देखा था... उस बंगाली लड़की के पीछे पगला रही हो क्या, मन्नू? तुम्हारी क्या उम्र रही है ये चोंचले करने की?’’

पता नहीं कैसे मन्नू शांत रही। ये ही सब पड़ोसन उसकी साथिन रही है। श्याम के जाने के बाद इन्हीं के आसरे दिन काटे। कभी कोई परांठा बनाकर दे जाती, तो कभी कोई भगौना भर कढ़ी ही दे जाती कि दो दिन रखकर खा लेगी। उन दिनों पैसे से भी तंग रहती थी मन्नू। इसी लीना की शादी के लिए रात-रातभर जगकर मन्नू ने चारदें और तकियों के गिलाफ काढ़े थे। यहां तक कि लीना जब मां बनी, तो मन्नू ही थी अस्पताल में उसके साथ। जब इस घर में रहने आई थी मन्नू, तब दो साल की थी लीना। मन्नू तब पड़ोसियों से ज्यादा बोलती-चालती नहीं थी। लीना उसे देखते ही दौड़ी चली आती। मन्नू को वह कहती थी मुमु। बाद में जब श्याम से विरक्त होने लगी मन्नू, तो यही लीना थी जो उसका खालीपन दूर करने जब-तब आ जाती। किशोरी लीना के तमाम सारे सवाल होते थे, कई बार तो मन्नू झल्ला जाती। लीना और उसकी मां। ऐसा कभी नहीं होता था कि उनके घर में त्योहार मने और मन्नू वहां न पहुंचे।

लीना की शादी से पहले मेहंदी वाली रात को जबरदस्ती लीना की मां ने उसे ढोलक के पीछे बिठा दिया। कभी उसी ने कहा था कि वह अच्छी बजा लेती है ढोलक। पहले तो सकुचाई मन्नू, फिर गाने-बजाने का ऐसा समां बांधा कि माहौल मस्त हो गया। अच्छी आवाज थी मन्नू की, भरी-भरी और भारी। ढोलक पर कसकर एक थाप देते हुए वह मस्ती से पूरे गले से गाने लगी--

मोरे आंगना में जब पुरवइया चले, मेरे द्वारे की खुल गई किवड़िया

पिया ऐसो जिया में समाए गयो रे कि मैं तनमन की सुधबर गंवा बैठी।

हर आहट में समझी वो आए गयो रे, झट घूंघट में मुखड़ा छिपा बैठी।।

मन्नू की आंखों में एक पल के लिए श्याम का अक्स कौधा। सालों गुजर गए श्याम के बिना। पर जब भी घूघट में चेहरा छिपाने की याद आती है, मन सिहर उठता है। उस व्यक्ति के साथ पूरी जिंदगी ही तो बांट ली थी उसने। कभी उसके नाम भर से शरीर में रोएं उठ खड़े होते थे, देह की आंच सुलगने लगती। अब तो नाम सिर्फ आंखों में आंसू दे पाता है।

लीना शादी कर चली गई। मन्नू को कई दिनों तक उसकी कमी सालती रही। तब तक उज्ज्वला आ चुकी थी उसके पास। मन्नू ने भी छोड़ दिया अपने आपको बहने...

अब यह आलम है कि लीना की मां उससे जवाब-तलब कर रही है कि वो अपनी जिंदगी क्यों जी रही है? वह दूसरी औरतों की तरह क्यों नहीं? उनकी तरह दोपहर को घर के बाहर किसी के बरामदे में या कमरे में चारपाई पर पैर फैलाकर आसपास की औरतों पर ताने नहीं कसती। दोपहर को तो वह सोकर उठती है, चाय पीती है और अपनी नई बनी सहेलिन के साथ पिक्चर देखने जाती है। कॉलोनी में बच्चों-कच्चों के जन्मदिन, मुंडन आदि पर जाने की कोई ललक नहीं होती उसे, काम करना तो दूर की बात रही। पहले तो उसके भरोसे कई पड़ोसनें अपने घर की छोटी-मोटी दावतें तो निबटा ही दिया करती थीं। मन्नू का रिकॉर्ड था एक मिनट में पंद्रह रोटी बेलने का। पांच किलो गाजर का हलवा तो दो घंटे में तैयार करवा देती।

अब खुद कतराती है रसोई के पास जाने में। पड़ोसनों से गपियाने की फुर्सत नहीं।

सुना है अपनी रिश्ते की भतीजी और पेइंग गेस्ट के साथ रात-रात भर घूमती रहती है। कभी कहीं आयुर्वेदिक मसाज करवाने पहुंच जाती हैं तीनों, तो कभी आधी रात को शो देखकर लौटती हैं।

लीना की मां ने मन्नू के हाथ से घर की चाबियां तो ले लीं, पर कोचती रही उसे, ‘‘आखिर बता तो किधर जा रही है तू?’’

मन्नू ने मुस्कराकर कहा, ‘‘शादी करने...’’

लीना की मां के चेहरे की प्रतिक्रिया देखने वह रुकी ही नहीं।

पद्मजा ने उन तीनों के हैदराबाद जाने का एयर टिकट बुक किया था। मन्नू और उज्ज्वला पहली बार हवाई यात्रा कर रही थीं। मन्नू रोमांचित थी। उज्ज्वला शांत। घर से टैक्सी पकड़कर एयरपोर्ट जाना, टिकट हाथ में लेकर सामान को ट्रॉली में धकेलते हुए एरोड्रम में प्रवेश करना। सामान की जांच करवा के लाइन में लगकर बोर्डिंग पास लेना और फिर एक आश्चर्यजनक रूप से मोटी पुलिसकर्मी से सुरक्षा जांच करवाना। जहाज को जब सामने देखा, तो मन्नू को लगा यह कितना छोटा है। नीचे से कितना विलक्षण दिखता है, जैसे कोई जादुई खिलौना। छोटी-छोटी कतारबद्ध खिड़कियां कितनी खूबसूरत दिखती हैं दूर से। पास से कोई चमत्कार नहीं लगता। एक जैसे चेहरे वाले कई लोग तेजी से विमान में प्रवेश करते हुए। नीले रंग की स्कर्ट और रंग-बिरंगी शर्ट पहने खूबसूरत युवतियां। उनमें से एक तो हूबहू पद्मा की छोटी बहन लग रही है। चेहरे पर आकर्षक मुस्कान। मन्नू ने एक-एक पल को अपने अंदर संजाते हुए विमान में अपनी जगह पर बैठकर सुरक्षा बेल्ट के घेरे में अपने को कैद किया।

क्रमश..

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