औरतें रोती नहीं
जयंती रंगनाथन
Chapter 6
हवा, तुम कल आना
श्याम के अंदर उबाल सा आ गया। लगा शाम का खाया-पिया उलट देंगे। किसी तरह अपने को समेटकर उठे और बाहर चले आए। तीन दीवारों वाले कमरे का एक हिस्सा भी उनका जाना-पहचाना नहीं लग रहा था। अनजाने से पांच युवक। अपनी धुन में खोए। वे घर से बाहर निकल आए। सीधे कदम स्टेशन की तरफ बढ़े। वहीं प्लेटफॉर्म पर बैठकर उन्होंने खूब उल्टी की और पस्त होकर सीमेंट की बेंच पर लेट गए।
घंटे भर बाद होश आया, तो जेब टटोलकर देखा। पर्स था। अठन्नी निकालकर स्टेशन की चाय पी और दो खारी खाईं। इस स्टेशन से हो कर तीन ट्रेन गुजरती थीं। सुबह छह बजे की एक्सप्रेस दिल्ली जाती थी। दस बजे पैसेंजर दिल्ली होते हुए जम्मू तक जाती थी और रात ग्यारह बजे की ट्रेन झांसी। बीच-बीच में मालगाड़ियां आती-जाती रहती थीं।
दस बजे तक श्याम प्लेटफॉर्म पर ही बैठे रहे। ट्रेन वक्त पर आई। देखते-देखते उनके आसपास शोरगुल सा भर गया। एक अजीब सी चिरपरितच गंध। खाने-पीने, पसीने, शोच और कोयले की गंध। श्याम उठे और बड़े आत्मविश्वास के साथ पग रखते हुए ट्रेन के अंदर बैठ गए। छुट्टियों के दिन अभी शुरू नहीं हुए थे। ट्रेन में काफी जगह थी। खिड़की के पास खाली जगह देख, वे वहीं बैठ गए। रास्ते में टिकट चैकर को पैसे देकर टिकट बनवा लिया और अगल्र दिन आनन-फानन दिल्ली लौट आए।
श्याम लौट आए दिल्ली। दिमाग में तमाम प्रश्न लिए। शोभा ने क्या किया होगा? एक तरह से वे भाग ही तो आए? किसी को कुछ बताया भी नहीं। बैंक में लिख भेजा कि उन्हें पीलिया हो गया है। संयोग ऐसा हुआ कि दिल्ली पहुंचते ही उन्हें पता चला कि उनका ट्रांसफर दिल्ली से सटे गाजियाबाद की एग ब्रांच में हो गया है। श्याम ने राहत की सांस ली।
बहुत कुछ था जो छूट गया। कपड़े, किताबें, घर का दूसरा सामान। किराया उन्होंने तीन महीने का एडवांस में देख रखा था। दो महीने का किराया पानी में गया, सो गया। दफ्तर में छूटी उनकी व्यक्तिगत चीजें तो पार्सल से आ ही गईं।
श्याम बहुत बेचैन हो गए। मन करता ही नहीं कि दफ्तर जाएं। घर में भी बहुत अच्छा माहौल नहीं था। रूमा के साथ रहने की आदत छूटी तो वापस निबाहने में दिक्कतें आने लगीं। बच्चे जिद्दी हो गए थे। अनिरुद्ध की शैतानियां उनसे बर्दाश्त ही नहीं होती थीं। हमेशा उज्ज्वला उसका शिकार बनती। अपनी छोटी बहन को मारने-पीटने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता अनिरुद्ध। ऊपर से इस बार रूमा ने एक नया तमशा शुरू किया- उज्ज्वला को लेकर। बेटी का रंग सांवला था। छोटा कद और घुंघराले बाल। रूमा बाप-बेटी को एक साथ लपेटकर ताने कसती कि बेटी का रंग दादी पर गया है। इस रंग के तो उनकी तरफ के कौए भी नहीं होते। श्याम देख रहे थे कि उज्ज्वला के अंदर हीन भावना घर करती जा रही है। दुखी, त्रस्त बच्ची, जो अब बोलने में हकलाने लगी थी।
श्याम को लगने लगा, जिंदगी व्यर्थ जा रही है। उस आग का क्या करें, जो कुछ दिनों पहले चलते-फिरते युवकों ने उनके सीने में लगा दी थी? यह भी लगता कि वे एक बेसहारा स्त्री को बीच राह छोड़ आए हैं। उनमें इतनी हिम्मत क्यों नहीं थी कि शोभा को एक राह दिखला कर जाते? क्या किया होगा शोभा ने? लगता, शोभा के साथ उन्होंने गलत किया। उस महिला को अपनी कसौटियों पर मापना उनकी भूल थी। जितना सोचते, उतना ही तनाव में आ जाते। क्या वापस लौट जाएं? फिर? कोई रास्ता नजर नहीं आता। फिर खीझ उठते कि वे एक बेमानी विषय पर इतना वक्त क्यों बर्बाद क्यों कर रहे हैं? उनसे मिलने से पहले भी शोभा जिंदा थी, अब भी रहेगी। वह ऐसी स्त्री नहीं जो पग-पग पर पुरुष का सहारा ढूंढती है।
वे जिस माहौल में रहते थे, वहां सीने में आग लगे या तूफान, कोई फर्क नहीं पड़ता था। बस हर समय दाल-रोटी की चिंता में घुलते लोग। स्कूटर, गैस के बाद अब फ्रिज लेने की चिंता। देश-दुनिया से बेखबर। आपातकाल है तो है, तुम्हें क्या दिक्कत हो रही है? समय पर बैंक जाओ, ड्यूटी बजाओ। वे कोई और लोग होते हैं जो क्रांति की बात करते हैं। क्रांति करने से पहले अपना पेट भरो, अपने घरवालों की सेहत का ख्याल करो, फिर आगे की सोचना...।
श्याम को उन्हीं दिनों गांव जाना पड़ा। रूमा नहीं आई। श्याम के आते ही दो-चार बार के संसर्ग के बाद ही एक बार फिर से वह मां बनने की राह पर चल पड़ी। इस बार अनिच्छा से। यह कहते हुए कि अच्छा होता जो मैं कल्लो उज्ज्वला के जनम के बाद ऑपरेशन करवा छोड़ती। एक बेटा हो तो गया है, अब काहे के और बच्चे? परेशान कर डाला है। कौन संभालेगा बच्चों को? मेरे बस का नहीं। श्याम को मजबूरी में एक पूरे वक्त का नौकर रखना पड़ा।
गांव में उनके छोटे चाचा के बेटे ज्ञान की शादी थी। पापा का खास आग्रह था कि श्याम आए।
श्याम कई दिनों बाद अपने घर जा रहे थे। अजीब सा अहसास था। पिता जी से उनकी कम पटती थी। हमेशा तनाव सा बना रहता। श्याम ने घर जाना कम कर दिया, तो सबसे ज्यादा नुकसान मां और छोटी बहन सरला को हुआ। मां उनसे भावनात्मक स्तर पर जुड़ी थीं। बल्कि मां के लिए श्याम ने कई लड़ाइयां लड़ी थीं। दादी के आतंक से कई बार मां को बचाया। उनकी फटी-पुरानी धोतियों की पोटली बना पिताजी के सामने रख आते और कहते कि मेरी मां इन कपड़ों में दिखती है, तो मुझे शर्म आती है, पता नहीं आपको क्यों नहीं आती।
जब सरला होने वाली थी, श्याम अपनी मां को लेकर बहुत भावुक हो जाया करते थे। अपने किशोर बेटे के सामने पेट छिपाकर घूमती मां। श्याम सबसे छिपाकर मां के लिए कभी दोनेवाली चाट ले आते, तो कभी परांठे के ऊपर खूब मलाई और पिसा गुड़ डालकर रोल सा बना उनके मुंह में ठूंस देते। श्याम को मां पर नहीं, पिता पर गुस्सा आता। इस उम्र में मां के साथ ये ज्यादती? नसबंदी क्यों नहीं करवा ली?
मां को दवाखाने वही ले जाते, अपनी साइकिल पर। मां लंबा घूंघट करके निकली। घर के सामने साइकिल पर बैठते हिचकिचाती। सास देख लेंगी, तो न जाने क्या कहेंगी? वैसे भी जवान लड़के के साथ साइकिल पर जाती वे अच्छी थोड़े ही लगती हैं। श्याम जिद करते, धूम में मां पैदल जाए? फिर घर का इतना काम कि सुबह से शाम तक सिर उठाने की फुर्सत नहीं।
सरला के पैदा होने के बाद मां की तबीयत भी गिरी-गिरी रहने लगी। श्याम की कोशिश होती कि घर के कामों में वे उनकी मदद कर दें। लेकिन दादी को बिल्कुल पसंद नहीं था कि श्याम भैंस दुहें, चूल्हा फूंकें या बहन को संभालें। श्याम ने कभी परवाह नहीं की। दादी को भी सुना देते कि वे बैठे-बैठे रोग पाल लेंगी, इससे अच्छा है कि अपनी बहू के साथ काम में लग जाएं। दादी पिताजी से शिकायत करतीं। पिताजी कर्कश आवाज में मां-बेटे को गाली देते। कभी-कभार श्याम को इतना तेज गुस्सा आ जाता कि वे पलटकर पिता को सुना दिया करते।
गांव में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे बनारस गए बी.ए. करने। वहीं से कलेक्टर बनने का भूत सवार हुआ तो दिल्ली आ गए कोचिंग लेने। इसी बीच पिता और दादी ने शादी का इतना जोर डाला कि श्याम को करनी ही पड़ी।
इस बार गांव और घर का आलम ही अलग था। मां बूढ़ी लगने लगी थीं पिताजी के सिर परसफेद बाल नजर आने लगे थे। श्याम चुपचाप जाकर कामकाज में लग गए। उनके बचपन के सखा और भाई ज्ञान की शादी थी। ज्ञान का मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगा। सो चाचा ने गांव में ही एक दुकान खुलवा दिया। गाहे-बगाहे दुकान पर बैठ लिया करता था। मां के मुंह से ही सुना कि ज्ञानुवा को बहुत सुंदर दुल्हनिया मिली है।
शादी के चार दिन पहले ज्ञान ने श्याम को मन्नू से मिलवाया। बिल्कुल साफ रंग की बेहद खूबसूरत, छोटी सी, खरगोश की तरह लगी मन्नू। उन आंखों में न जाने क्या था कि श्याम ने आंखें ही चुरा लीं।
वह अपनी सहेली के साथ चूड़ियां खरीदने निकली थी। पहले से तय था कि वह ज्ञान की दुकान पर आएगी। पीले रंगी की छींटदार साड़ी में मन्नू आई। श्याम को दया सी आ गई उस पर। जानते-बूझते इसके मां-बाप ज्ञान के पल्ले क्यों बांध रहे हैं? ज्ञान खिलंदड़ प्रवृत्ति का है। पीना-पिलाना, औरतबाजी सारे शौक रखता है। चाची का मानना है कि शादी के बाद ज्ञान सुधर जाएगा।
श्याम को कम उम्मीद थी इस बात की। शादी से एक दिन पहले घटना घट ई। शुरुआत शायद दादी की तरफ से हुई, वे देखना चाहती थीं कि शादी में मन्नू को जो गहने दिए जा रहे हैं, वे असली हैं या नकली। न जाने किस बहाने से वे गहने वहां से निकाल सुनार को दिखा आईं, पर आते ही शोर मचा दिया कि गहनों में पीतल ज्यादा है, सोना कम।
खूब हल्ला हुआ। शादी रोकने तक की नौबत आ गई।
श्याम के पिता घर में सबसे बड़े थे। सुबह-सुबह मन्नू के घर के मर्दों ने आकर अपनी पगड़ियां पिताजी के कदमों पर उतार दीं। बेटी का मामला, इज्जत की दुहाई। दादी थीं कि टस से मस नहीं हो रही थीं। आखिर तय हुआ कि ऊपर से दस हजार रुपए दिए जाएंगे।
श्याम को बहुत बुरा लग रहा था सब कुछ। वे कुछ कह नहीं पाए। फेरे के वक्त क्षणभर के लिए मन्नू के चेहरे से घूंघट हटा, तो श्याम को उसका आंसुओं से भीगा चेहरा दीख गया। उनके कान में बात पड़ी थी कि कल की घटना के बाद मन्नू शादी के लिए मना कर रही है। पर उसकी सुनता कौन?
श्याम शादी के तीन दिन बाद दिल्ली लौट आए। जाने से एक दिन पहले पिताजी से जमकर झगड़ा हुआ। पिताजी को शिकायत थी कि वे शादी के बाद अपने मां-बाप को भूल गए हैं। पढ़ी-लिखी लड़की से तो गांव की लड़की अच्छी, जो ससुराल की तो होकर रहे। श्याम तर्क देने के मूड में नहीं थे। पिताजी ने तो यहां तक कह दिया कि वे उन्हें अपना बेटा ही नहीं मानते।
बहुत कुछ हो रहा था उनकी जिंदगी में, जो उनके बस में नहीं था। जी चाहता था कि नौकरी-वौकरी छोड़कर ढंग का काम करें। अपने लिए नहीं, समाज के लिए, देश के लिए। लौटे तो दूसरे ही दिन खबर आई कि मन्नू के पिता ने आत्महत्या कर ली है। कर्ज के बोझ तले वे समझ नहीं पाए कि जिंदगी की गाड़ी आगे कैसे बढ़ानी है। गांव की जमीन गिरवी थी, उसे बेच पैसे दिए थे शादी में। मन्नू की मां तो पहले ही गुजर चुकी थीं। शादी के बाद मायका ही नहीं रहा।
साल भर बाद ज्ञान मन्नू को लेकर दिल्ली आया, तो काफी कुछ बदल चुका था। इमरजेंसी हट चुकी थी। श्याम की दूसरी बेटी अंतरा का जन्म हो चुका था। श्याम ने क्रांति का इरादा मुल्तवी कर दिया था। जिंदगी ढर्रे पर चलने गी। उबाऊ और नीरस सी जिंदगी। एक से सुर। एक से लोग।
ज्ञान के सपत्नीक आने की खबर से रूमा खुश नहीं हुई। कहां ठहराएंगे? देखभाल कौन करेगा? खर्चा कितना होगा, जैसे तमाम सवाल। श्याम निरुत्तर थे। लेकिन ज्ञान को कह दिया था कि वो आ जाए।
मन्नू को देखते ही श्याम ने भांप लिया कि वह खुश नहीं है ज्ञान के साथ। सफेद चेहरे पर पीलापन। पहले से दुबला शरीर। आने के बाद ही श्याम को पता चला कि ज्ञान बीमार है। दो महीने से जीभ पर बहुत बड़ा सा छाला हो गया है, जो ठीक होने के बजाय फैलता ही जा रहा है। श्याम उसे लेकर एम्स गए, तो उनसे सीधे कह दिया कि जीभ की बायप्सी होनी है। श्याम को आशंका थी, कहीं ये कैंसर तो नहीं?
तो क्या ज्ञान को लेकर मुंबई जाया जाए? टाटा कैंसर अस्पताल से बढ़िया और कौन सा होगा? दिल्ली में कैंसर के लिए अलग अस्पता नहीं। बायस्पी का परिणाम आने तक सब तनाव में रहे। श्याम बेहद ज्यादा। क्योंकि रूमा से उन्हें किसी किस्म का सहयोग नहीं मिल रहा था। वह अक्सर अपने कमरे में बंद रहती। तर्क देती कि अभी अच्छा हुआ है। वह बीमार आदमी के संग नहीं रहेगी।
श्याम ने बहुत समझाने की कोशिश की। रूमा का व्यवहार कठोर होता जा रहा था। ऑपरेशन की तारीख तय हो गई।
क्रमश..