आधी दुनिया का पूरा सच - 8 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

आधी दुनिया का पूरा सच - 8

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

8.

रानी अौर साँवली पर दिन-रात हर क्षण माई की कठोर दृष्टि का पहरा रहता था । माई की अनुपस्थिति में इस कार्यभार का निर्वहन झुग्गी में उपस्थित वयस्क लड़की मुंदरी करती थी, जो झुग्गी के मध्य भाग में उन्हीं के साथ रहती थी । उसके ऊपर माई का विशेष स्नेह था । प्रतिदिन संध्या समय में माई उसको विशेष स्वादिष्ट मिष्ठान देकर प्यार से पुकार कर कहती थी -

"मुंदरी ! ले बेटी खा ले !"

मुंदरी बड़े गर्व के साथ आगे बढ़कर मिठाई स्वीकारती और साँवली-रानी चुपचाप इस दृश्य को देखती रहती।

शाम से लेकर रात तक माई से मिलने के लिए कई पुरुष आते थे। जब भी कोई पुरुष आता था, तभी मुंदरी को बड़े स्नेह से माई उस पुरुष के साथ झुग्गी के उस भीतरी भाग का ताला खोलकर अंदर भेज देती थी, जिसमें साँवली और रानी का जाना वर्जित था । यह उपक्रम नित्यप्रति देर रात तक चलता रहता। यद्यपि रानी झुग्गी के भीतर के रहस्य का अनुमान करती थी, तथापि अपनी खुली आँखों से अंदर का दृश्य देखकर सत्य तथ्य को जानने की उसकी प्रबल इच्छा रहती थी । इसलिए वह प्राय: ऐसे अवसर की तलाश में रहती थी, जब वहाँ मुंदरी उपस्थित न हो और झुग्गी का प्रतिबंधित भाग खुला हो । दुर्योग से एक शाम उसको अपना अभीप्सित अवसर मिल ही गया, जब झुग्गी के भीतरी प्रतिबंधित भाग का ताला खुला हुआ था और मुंदरी शौच से निवृत्त होने के लिए झुग्गी के बाहरी भाग में बने शौचालय में बंद थी । रानी ने उस क्षण का लाभ उठाते हुए झुग्गी के प्रतिबंधित भाग के अंदर झाँकने का प्रयास किया । तभी बाहर से माई के गरजने का स्वर उभरा -

"ए लड़की !"

रानी ठिठककर पीछे हट गयी । अगले ही क्षण माई रानी के समक्ष खड़ी मुस्कुराती हुई कह रही थी -

"इसके भीतर जाने की इतनी भी क्या जल्दी है मेरी लाडो ! अभी तू कच्ची कली है ! मेरी जान ! मेरी मुनिया ! बस, एक बार तेरी पंखुड़ी खुल जाने दे ! जब फूलेगी-महकेगी, तो मेरी जान की खुशबू दूर-दूर तलक फैलेगी ! बस, उस दिन तक थोड़ा सबर रख ले ! बहुत बड़ा त्योहार करूँगी उस दिन, जिस दिन तुझे इसके भीतर भेजा जाएगा ! फिर तू भी खूब मजा लूटयो जिंदगी का !" कहते हुए माई ने खुशी में झूमते हुए रानी को प्यार से बाँहों में भर लिया । आज माई के अनपेक्षित प्यार को देखकर रानी घबरा उठी थी । वही घबराहट उसने साँवली की आँखों में भी देखी थी, लेकिन दोनों मौन रहीं और अपनी-अपनी जगह जाकर बैठ गयी ।

दिन-सप्ताह, महीना और साल बीत गया। ज्यों-ज्यों समय बीतता रहा था, त्यों-त्यों साँवली के प्रति माई का प्यार बढ़ता जा रहा था। जिस अनुपात में साँवली पर माई का स्नेह बढ़ रहा था, उसी अनुपात में उसके प्रति मुंदरी की ईर्ष्या बढ़ रही थी। मुंदरी रानी को भी अपनी प्रतिद्वंद्वी मानती थी, पर चूँकि माई का ध्यान साँवली पर अधिक केंद्रित होने लगा था, इसलिए मुंदरी की ईर्ष्या का केंद्र बिंदु भी साँवली ही बन रही थी । माई साँवली के खाने के लिए होटल से विशेष व्यंजन मंगाती, तो मुंदरी अवसर पाकर उन्हें इधर-उधर नाली में गिरा देती या उसमें अतिरिक्त नमक-मिर्च डालकर उसे खाने योग्य नहीं रहने देती। माई साँवली के लिए कोई नया सूट लेकर आती, तो मुंदरी अवसर पाकर कैंची से उसमें छोटा-मोटा कट लगा देती या जलती हुई बीड़ी-सिगरेट लगाकर सूट को जगह-जगह से जला देती। मुंदरी यह सब इसलिए करती थी, क्योंकि वह वह जानती थी कि मुंदरी के लिए माई के प्यार के पीछे का सच क्या है ? उसके ऊपर भी माई ने कभी ऐसे ही प्यार लुटाया था और आज तक लुटाती आ रही थी । वह तनावग्रस्त होकर प्रति क्षण यह सोचती रहती थी -

"माई साँवली को मेरी जगह देने के लिए तैयार कर रही है । तभी तो अब माई का सारा ध्यान, सारा प्यार साँवली पर बरसता है । कोई नया कपड़ा आए, तो साँवली के लिए ! खाने का कोई विशेष व्यंजन आए, तो साँवली के लिए ! मुंदरी का तो जैसे कोई महत्व ही नहीं रह गया है !"

मुंदरी यह उपेक्षा कैसे सहन कर सकती थी। अपनी रोज-रोज की उपेक्षा से मुंदरी के अंदर विद्रोह पनपने लगा था। माई के प्रति मुंदरी का विद्रोह भाव इतना बढ़ा कि एक दिन उसने बिस्तर पकड़ लिया। सुबह से शाम तक न कुछ खाया-पीया और ना ही किसी के साथ किसी प्रकार का कोई संवाद किया।

रात के प्रथम पहर में माई ने झुग्गी के प्रतिबंधित भाग का ताला खोलकर मुंदरी को पुकारा- "उठ री, मुंदरी !" जल्दी कर ! बाबूजी इंतजार कर रहे हैं ! ज्यादा देर लगाएगी, तो बेकार में बिगड़ने लगेंगे !" मुंदरी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, तो माई ने उसके बिस्तर के निकट जाकर उसको झिंझोड़कर कर स्नेहपूर्वक आग्रह किया-

"मुंदरी, मेरी लाडो ! उठ, जल्दी जा !"

"मेरी तबीयत ठीक नहीं है !"

"चल बोल, क्या चाहिए तुझे तबीयत ठीक करने के लैंया ? जल्दी बोल !"

"मुझे कुछ नहीं चाहिए, माई ! बस, मुझे अकेला छोड़ दे !"

"फिर उसका क्या ? जो भीतर बैठा है ?"

"भेज दे उसी को, जिस पर आजकल तेरी मेहरबानी बरस रही है !"

"मैं जानती हूँ, सुंदरी को देखके तेरा जी जलता है ! पर मुंदरी उसके तिंव्हार तक तो सब कुछ तुझी को संभालना है ! एक बार उसका तिंव्हार हो जाए, तो तेरा बोझ कुछ हल्का हो जाएगा !"

माई ने मुंदरी को उसका दायित्व-भार समझाते हुए स्नेहपूर्वक कहा, परंतु मुंदरी टस-से-मस नहीं हुई। अपने आदेश का तत्काल पालन न होते देख माई क्रोध से आग बबूला हो गयी और कोने में रखी हुई अपनी रहस्यमई संदूकची की ओर बढ़ते हुए मुंदरी को चेताया -

"तुझ जैसी हरामी लौंडियों से निबटना मुझे खूब अच्छी तरहों आता है ! अब देखना, मैं तेरा क्या हाल करूँगी !"

माई का रौद्र रूप देखकर साँवली अौर रानी भयभीत हो उठीं कि ना जाने मुंदरी के साथ क्या होगा ? लेकिन मुंदरी एक क्षण का विलंब किए बिना उठकर खड़ी हो गयी । वह भली-भाँति जानती थी कि झुग्गी के एक कोने में रखी माई की संदूकची में क्या रखा है ? माई संदूकची की ओर क्यों बढ़ी थी ? और वह मुंदरी को क्या चेतावनी दे रही थी ? यद्यपि साँवली और रानी इस सब रहस्यमयी बातों-व्यवहारों के कूट अर्थों से एकदम अनभिज्ञ थी।

कई माह बीतने के पश्चात एक दिन नितांत अनपेक्षित ढंग से माई ने नए सुंदर कपड़ों का पैकेट लाकर साँवली की ओर बढ़ाकर कहा -

"ले लाडो, तेरे लैयाँ लेके आयी हूँ।"

साँवली ने यंत्रवत हाथ बढ़ाकर पैकेट ले लिया। माई को इससे संतोष नहीं मिला । पैकेट वापिस लेकर अपने हाथ से खोलकर उसमें से सूट बाहर निकाला और साँवली के कंधों पर रखकर बोली-

"अच्छा है ! खूब फब रही है मेरी लाड़ो ! है ना ?" साँवली किसी अनहोनी की आशंका से ग्रस्त चुपचाप माई की ओर ताकती रही। शायद माई को साँवली की यह प्रतिक्रिया अच्छी नहीं लगी थी। क्रोधित होकर बोली-

"बोलती क्यूँ नहीं ? गूंगी हो गई है क्या ? या सूट अच्छा नहीं लगा ?" माई की डाँट से भयाक्रांत साँवली की आँखों से आँसू की बूंदें टपकने लगी। माई ने मातृत्व का बाना ओढ़कर साँवली को अपने सीने से लगा लिया-

"ना ! रोना नहीं ! सुंदरी, मेरी लाडो तू ! माई के रहते तुझे आँखों में पानी लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी ! अब चुप हो ! बिलकुल चुप !"

कहते हुए माई ने साँवली की आँखो का पानी अपनी उंगली के पौर से पौंछा और फिर स्नेहपूर्वक उसके सिर पर हाथ रखा। उसी समय झुग्गी में उस अधेड़ युवक ने प्रवेश किया, जो माई के आदेश का पालन करते हुए प्राय: होटल से खाना लाया करता था । आज उसके हाथ में अपेक्षाकृत अधिक सामान था । माई ने अत्यधिक प्रसन्नतापूर्वक आगे बढकर उसके हाथ से सामान पकड़ कर उसकी सहायता की और मुंदरी को पुकारा-

"ले री, मुंदरी ! खोलके तिंव्हार मना ! इस सुभ घड़ी के लैयाँ बहुत दिन बाट देखी है !"

साँवली और रानी मुंदरी को खाद्य-सामग्री के थैले खोलते हुए देख रही थी कि आज अपेक्षाकृत अधिक स्वादिष्ट और कई प्रकार के मीठे-नमकीन व्यंजन आये हैं। मुंदरी के खोलते-खोलते माई ने बीच में आकर कुछ विशेष व्यंजन की पैकेट उठाते हुए कहा-

"यह मेरी सुंदरी के लिए हैं ! आज का तिंव्हार मेरी सुंदरी की वजह से है और सुंदरी के लिए हैं !" कहते-कहते माई ने वह पैकेट साँवली की ओर बढ़ा दिया और झुग्गी के प्रतिबंधित भाग की ओर संकेत करके बोली-

"ले लाडो ! ये ले जाके भीतर रख आ ! सारा तेरा है !" साँवली भय- भ्रमित-सी मौन निष्क्रिय खड़ी रही । शायद वह सुन-समझ नहीं पायी थी, क्योंकि आज से पहले वह सब कुछ विशेष मुंदरी के लिए होता रहा था। साँवली की ओर से किसी प्रकार की सद्य प्रतिक्रिया न पाकर माई ने पैकेट मुंदरी की ओर बढ़ाते हुए साँवली के प्रति स्नेह का प्रदर्शन करके बहुत प्रसन्नतापूर्वक कहा -

"घबरा रही है मेरी सुंदरी ! आज पहला दिन है न ! ले मुंदरी, तू भीतर रख आ ! पर देख, तूने इसमें से कुछ भी खोला या खाया, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।"

मुंदरी ने माई के हाथों से पैकेट ले लिया और चुपचाप भीतर रख आयी । वह बाहर से शान्त दिखने का प्रयास कर रही थी, परन्तु आज उसकी आँखों में पराजय के भाव के साथ साँवली के प्रति ईर्ष्या और द्वेष का भाव पहले से कहीं अधिक उमड़ रहा था। मुंदरी के मनोभावों को माई भली-भाँति समझ रही थी। बोली-

"आज तिंव्हार के दिन तेरी सूरत पै बारह क्यूँ बजे हैं ?

रानी ने साँवली की ओर देखा और संकेत से उस तिंव्हार के बारे में जानना चाहा, जिसकी चर्चा माई कई बार कर चुकी थी। लेकिन साँवली ने आँखों ही आँखों में बता दिया कि उसे कुछ नहीं पता है ! रानी मन-ही-मन अनुमान लगा रही थी -

"आज होली तो है नहीं, क्योंकि होली होती तो कहीं न कहीं रंग गुलाल दिखाई पड़ जाते ! दीपावली शायद हो सकती है ! इसका पता रात में ही चलेगा, जब सबके घरों में दीपक जलेंगे; लोग रंग-बिरंगी लड़ियाँ लगाएँगे और पटाखे फोडेंगे !"

रात होते-होते रानी को ज्ञात हो गया कि दीपावली का त्यौहार भी नहीं है। रात का अंधेरा गहराया, तो माई ने नए कपड़ो का पैकेट मुंदरी को पकड़ाते हुए कठोर शैली में आदेश दिया-

"चल खड़ी हो ! सुंदरी का सोलह सिंगार करके अच्छी तरहों सजा-सँवारके तैयार कर दे।"

आदेश पाते ही मुंदरी उठ खड़ी हुई और सुंदरी को सजा-सँवारकर तैयार करने लगी। सुंदरी का शृंगार करके झुग्गी के बाहर बैठी माई को पुकार कर मुंदरी ने सूचित कर दिया कि सुंदरी तैयार है। सूचना पाते ही माई ने प्रसन्न-चित्त मुद्रा में झुग्गी में प्रवेश किया और सजी-सँवरी साँवली की बलैया लेकर बोली-

"किसी की नजर न लगे ! बड़ा सोणा रूप निखरा है, मेरी मन-मोहिनी सुंदरी का !" यह कहते हुए माई ने अपनी उंगली की पोर से काजल का छोटा-सा टीका साँवली के कान के पीछे लगाने का उपक्रम किया।

साँवली पर माई के इतना प्यार लुटाने से एक ओर मुंदरी के सीने पर साँप लोट रहे थे, तो दूसरी ओर, साँवली के चेहरे पर अब पहले से अधिक भय और तनाव दिखाई पड़ रहा था। माई ने उसकी मनोदशा को लक्ष्य करके प्यार से उसके गालों पर हाथ फिरा कर कहा -

"तेरे लिए आज खुशी का दिन है ! मैंने खाने की इतनी लजीज़ चीजें मंगायी हैं, किसके लिए ? तेरे लिए ! इतना सुंदर यह सूट और सिंगार का यह सारा सामान सब तेरे लिए मंगाया है। अब यह रोनी सूरत छोड़कर थोड़ा-सा मुस्कुरा दे मेरी लाड़ो !"

लेकिन साँवली के हृदय में इतना भय और तनाव था कि उसमें मुस्कुराने की सामर्थ्य शेष नहीं बची थी । माई को अवज्ञा करने वाले लोग पसंद नहीं थे। अतः इस बार कठोर मुद्रा में कहा -

"कान खोलकर सुन ले सुंदरी ! तुझे मुस्कुराते हुए रहना है ! एक पल को भी चेहरे से मुस्कुराहट गायब हुई, तो इस सूरत को ऐसी कर दूँगी कि तेरी शक्ल देखने लायक नहीं रहेगी ! कोई दूसरा तो तुझे क्या देखेगा, तू खुद को शीशे में देखेगी तो खुद से नफरत करने लगेगी !"

माई की चेतावनी ने अपना पूरा काम किया। इतना कि माई का वाक्य पूरा होने से पहले ही साँवली ने मुस्कुराना आरंभ कर दिया और वह तब तक मुस्कुराती रही, जब तक माई उसके साथ रही । यह अलग बात थी कि चाहकर भी उसकी आँखों से पानी नहीं रुक रहा था। माई ने उस समय तो उसकी आँखों से बहते पानी को अनदेखा कर दिया था, परंतु कुछ ही क्षणोपरांत, जब झुग्गी के सामने एक कार आकर रुकी, तब माई का साँवली के प्रति अतिरिक्त स्नेह उमड़ पड़ा । माई बोली -

"मेरी लाड़ो आँखों के पानी से सारा सिंगार पोंछ डालेगी क्या ?" एक बार माई को अच्छे से मुस्कुरा के तो दिखा दे !" साँवली को अभी तक वह चेतावनी याद थी, जो उसको माई ने कुछ समय पहले दी थी। अतः आदेश पाते ही किसी अनहोनी से आशंकित वह यंत्रवत मुस्कुरा दी। इसके बाद माई ने साँवली को झुग्गी के प्रतिबंधित भाग में प्रवेश कराते हुए चेतावनी देकर कहा -

"जितनी देर तक उसके साथ रहेगी, तेरी आँखों में पानी आया या चेहरे से मुस्कुराहट गायब हुई, तो सोच लेना मैं तेरा क्या हाल करूँगी !" यह कहकर माई ने बाहर से दरवाजा बंद कर दिया।

क्रमश..