जो घर फूंके अपना - 42 - आग के बिना सप्तपदी कैसी ? Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 42 - आग के बिना सप्तपदी कैसी ?

जो घर फूंके अपना

42

आग के बिना सप्तपदी कैसी ?

रवि की दास्तान में भावनात्मक और शारीरिक दोनों तरह का दर्द भरा हुआ था. सुनकर मुझे लगा कि इश्क के बारे में कही गयी बात दरअसल शादी पर लागू होती है कि “इक आग का दरिया है और डूब के जाना है. ” पर इस शेर में आग का ज़िक्र आने से मुझे अपने एक रिश्तेदार की याद आ गयी जिनके यहाँ वर वधू को उसके सामने शपथ लेने और उसकी सात बार प्रदक्षिणा करने के लिए आग जुटाने में इतनी मुश्किल हुई कि शादी ही टल जाने की स्थिति आ गयी थी. गौतम की कहानियों के जवाब में मैंने अपना ये अनुभव उसे सुना डाला.

जौहरी साहेब रेलवे के बड़े अफसर थे. ओहदा भारी था पर दुर्भाग्य से वे ईमानदारी नामक बीमारी से ग्रस्त थे. उनके बीबी बच्चे उनकी इस बीमारी से त्रस्त थे. बेटी की शादी उन्होंने बहुत तलाश करने के बाद एक ऐसे परिवार में तय की जहाँ दहेज़ की कोई मांग नहीं थी, न ही बहुत आडम्बर वाली शादी का आग्रह. उनका बस चलता तो वे शादी का प्रबंध अपने सरकारी निवास स्थान पर ही कर लेते. रेलवे अधिकारियों के बंगले अच्छे-भले लम्बे चौड़े होते हैं और रखरखाव भी ठीक रहता है. पर उनके परिवार में सबने ज़िद पकड़ ली कि शादी किसी पांच सितारा होटल में होनी चाहिए. नौकरी में जौहरी साहेब की ईमानदारी के कारण पांचसितारा होटलों का शौक पालने की गुंजाइश कभी नहीं रही थी. जब स्वयं श्रीमती जौहरी अपने पति के साथ दिल्ली के लगभग सारे पांचसितारा होटलों में घूम आयी तो उन्हें समझ में आ गया कि इस शुभदिन के लिए जौहरी साहेब को नौकरी के प्रारम्भिक दिनों में ही यदि मुंह में खून लग गया होता तो अबतक पांच क्या सात सितारा होटलों के लायक सामर्थ्य हो गयी होती. पर अब आख़िरी वक्त क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे. अतः उन्होंने मन मार कर शादी रेलवे अधिकारियों के क्लब में करने का निश्चय किया जहां बड़ा सा हरा भरा लॉन था, वातानुकूलित हाल था, स्विमिंग पूल था और लकड़ी के फर्श वाला बढ़िया बैडमिन्टन कोर्ट था.

रेलवे अधिकारी क्लब के विस्तृत लॉन में शादी जैसे समारोहों को करने की अनुमति तो मिलती थी,पर क्लब रखरखाव के विषय में बहुत सतर्क था. प्रायः होने वाले विवाह समारोहों में लॉन की दुर्दशा को रोकने के लिए लॉन के एक छोर पर छोटा सा पक्का फर्श बना दिया गया जहाँ विवाह मंडप बन सके. क्लब के वातानुकूलित हॉल और लकड़ी के फर्श वाले बैडमिन्टन हॉल में ऐसे अवसरों पर घुसना भी मना था. आजकल की दीवाला- निकालू शादी तो वह नहीं थी पर जौहरी साहेब ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोडी. दिल्ली के आम रिवाज़ के अनुसार जब साढ़े सात बजे शाम के बजाय रात में साढे दस बजे भांगड़ा कर कर के बेहाल हुई बरात विवाहस्थल पर पहुँची तो सारे स्थानीय मेहमान खाना पीना समाप्त करके, शगुन के लिफ़ाफ़े लडकी के पिता को सौंप करके वापस जा चुके थे. फिर बारातियों के खाने पीने के दौर में जब रात के बारह बज गए और पंडितों के अनुसार विवाह की लग्न में मुश्किल से एकाध घंटे बचे हुए थे कि अचानक बहुत ज़ोरों से आंधी आयी और उसके बाद झमाझम बारिश होने लगी.

हर मुसीबत में कोई न कोई राहत भी छिपी रहती है. इस आंधी पानी के भय से खानापीना कुछ तेज़ी से समाप्त हुआ. ज़रुरत से जियादा पिए हुए कुछ बारातियों के मुंह पर बारिश के ठंढे छींटे पड़े तो उन्हें पूरा होश आ गया. हरे भरे लॉन में धूल बहुत जियादा नहीं उडी अतःमेजों पर सजे हुए व्यंजनों में सिर्फ इतनी ही धूल मिट्टी पडी जितनी बाज़ार में चाट खाने के आदी लोग आसानी से झेल ले जाते हैं. हडबडी में खाते हुए लोगों को खाने में अधिक मीन मेख निकालने का मौका नहीं मिल पाया ये भी वधू पक्ष का सौभाग्य था. पर जबतक विवाह की रस्मे शुरू हो पातीं बारिश ने इतनी रफ़्तार पकड़ ली कि लॉन के कोने में बने विवाह मंडप की शकल किसी मैच में भारतीय टीम के हाथों पिट गयी पाकिस्तानी टीम के खिलाड़ियों जैसी हो गयी. वर वधू के सात वचन निभाने के वादे के साक्ष्य के लिए अग्नि का होना आवश्यक था. पर अग्नि को बारिश से भीगते उस खुले लॉन में लाना या जला पाना इतना दुष्कर हो गया जितना बी एम् डब्ल्यू काण्ड के सरकारी गवाहों को प्रारम्भ में दिए हुए बयानों से मुकर जाने से रोक पाना या कोलगेट में कोयला मंत्रालय की गुमी हुई फाइलों को खोज निकालना या फिर व्यस्त सड़क पर दिन दहाड़े खुले आम माफिया द्वारा किसी को गोलियों से भून दिए जाने के बाद एक भी प्रत्यक्षदर्शी गवाह का मिल पाना. फिर भी भांवरें तो पडनी ही थीं. जो गिने चुने लोग विवाह की रस्म के लिए रुके हुए थे वे क्लब के वातानुकूलित हॉल में आ गए. जौहरी साहेब के रसूख और मौसम को देखते हुए क्लब के मैनेजर ने उन्हें निषिद्ध क्षेत्र में आने तो दिया पर एक भारी दिक्कत थी. हवन करने के लिए लॉन वाले मंडप के नीचे पक्की वेदी बनी हुई थी अतः हवन कुंड का प्रबंध नहीं किया गया था और अब जब हील हुज्जत, रिश्वत-प्रलोभन आदि का उपयोग करके क्लब के नियम के विरुद्ध हॉल के अन्दर विवाह संस्कार करने का निर्णय लिया गया तो पुरोहित जी ने दो भयानक घोषणायें एक साथ कर दीं. पहली ये कि विवाह की शुभलग्न में केवल एक घंटा और बचा था और दूसरी ये कि न तो कोइ हवनकुंड उपलब्ध था और न अंदर हॉल में वाल- टू- वाल कारपेट पर मिट्टी पत्थर से वेदी बनायी जा सकती थी. रात के एक बजे हवनकुंड खोज कर लाने की कोई संभावना नहीं दीख रही थी. लडकी वाले सन्नाटे में आ गए.

जौहरी साहेब ने एक साथ तीन तीन मोर्चे खोल लिये. पहले मोर्चे पर दो तीन जवान लड़कों को आदेश दिया कि आधे घंटे के अन्दर कहीं न कहीं से हवन कुंड ढूंढ कर लायें. लडकी के छोटे भाई ने सुझाव दिया कि क्यूँ ना किसी बड़ी साइज़ की ऐशट्रे से काम चला लिया जाए. बरात में आये हुए लड़कों ने उसका मज़ाक उड़ा कार बताना शुरू कर दिया कि उसी के जैसे एक अन्य सज्जन ने शौचालय न मिलने पर मजबूरी में जुर्राब से कैसे काम चलाया था और जुर्राब को घुमा कर खिडकी से बाहर फेंकने के प्रयत्न में किस मुसीबत में फंस गए थे. इस पर वहाँ उपस्थित संभ्रांत महिलाओं ने गंभीर मुखमुद्रा बनाए रखी और टॉयलेट में जाकर इस चुटकुले पर खुलकर हंस पाने और आपस में ठिठोली कर सकने के लिए वहाँ से खिसक लीं. कम उम्र वाली कुछ लडकियों ने पहले तो खी-खी करके आती हुई हंसी को को दबाना चाहा, फिर उसमे असफल होकर अपने मुंह को चुन्नी, दुपट्टे जैसे किसी वस्त्र से ढांकना चाहा पर वह भी न हो सका क्यूंकि उन्ही दिनों एकदम तंग कमीज़ और चूडीदार बिना दुपट्टा लिए पहनने का नया नया फैशन चला था. अतः जिन एकाध लड़कियों ने कमीज़ पर दुपट्टा डाल रखा था उनका अन्य बिना दुपट्टे वालियों ने चीरहरण करने का प्रयत्न किया ताकि मुंह छुपाकर जुर्राब के फट जाने वाली बात पर खुल कर हंस सकें.

दूसरे मोर्चे पर क्लब के मैनेजर और चौकीदार को पहले प्रलोभन और फिर धमकियां देने का कार्यक्रम शुरू हुआ ताकि वे एक कोने की कारपेट हटाकर फर्श पर मिट्टी पत्थर की वेदी बना लेने दें, वादा किया गया कि कारपेट को या फर्श को जो भी नुक्सान होगा अगली सुबह ही ठीक करा दिया जाएगा. बिचारे जौहरी साहेब से यदि आश्वासन मांगा जाता कि वे पूरे हाल में नयी कारपेट लगवा देंगे तो भी वे तुरंत हामी भर देते. तीसरे मोर्चे पर पुरोहित जी को समझाना शुरू हुआ कि पोथी पत्रा के सामने गांधी जी की लाल रंग की वाटर मार्किया छवि रखकर शुभघड़ी और लग्न का विचार किया जाए तो अक्सर ऐसी संभावनाएं नज़र आने लगती हैं जिनपर जल्दबाजी में पहले ध्यान नहीं गया था फिर शुभ घड़ी को तबतक खींचा जा सकता है जबतक सारे प्रबंध पूरे ना हो जाएँ.

भगवान का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी महान है. पता नहीं किस बात पर उसने बेमौसम, बेवक्त वह आंधी पानी भेजा था. अब उसके मूड में अचानक सुधार हुआ तो तीनो मोर्चों पर भगवान ने फिर छप्परफाड कृपा की. एक बेरोजगार नौजवान जो बहुत दिनों से जौहरी साहेब की सेवा में लगा हुआ था आधे घंटे के अन्दर ही किसी आर्य समाज मंदिर के सोते हुए पुजारी को जगाकर एक हवनकुंड लेकर हाज़िर हो गया. (इस शादी के बाद ही उसकी रेलवे में भरती हो गयी ). दूसरे मोर्चे पर क्लब के चौकीदार और मैनेजर ढीले पड़ते दिखाई पड़ने लगे बशर्ते जौहरी साहेब आश्वासन दें कि उनपर आंच न आने देंगे. तीसरे मोर्चे पर भी सफलता मिली. यद्यपि जबतक हवनकुंड आ पाया तबतक शुभलग्न आजकी दुनिया में शराफत की तरह आख़िरी साँसे ले रही होती पर वर वधू पक्ष के पुरोहितों ने जजमान से उचित प्रोत्साहन मिलने पर पंचांग पुनरावलोकन करके पता कर लिया कि विवाह की लग्न समाप्त होने में अभी कई घंटे बाकी थे.

लज्जा ने कहा “ चलो, अंत भला तो सब भला. ”गौतम और मैं अपनी अपनी कहानियां सुनने सुनाने में ऐसे मगन हो गए थे कि पता ही नहीं चला कि कितना समय बीत गया था. गौतम और लज्जा ने बहुत प्रेम से आग्रह किया कि अब मैं खाना खाकर ही जाऊं.. लज्जा ने इतनी जल्दी खाने का प्रबंध कर लिया कि मैं उसकी सुघड़ता का कायल होकर ही उनके यहाँ से उस रात लौटा.

क्रमशः ------------