जो घर फूंके अपना
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सिक्के की खनक और कमरदर्द की खुन्नस
गौतम ने उस घटना का बयान जारी रखा जिसने लज्जा की लज्जा को खनखनाती हँसी में बदल दिया था- “तो मैं बता रहा था कि हम दोनों ऊपर नीचे की बर्थ पर अलग अलग लेटे तो चंद मिनटों में ही थकावट के मारे सो गए. दो तीन घंटे के बाद नींद खुली. बाहर झांका तो देखा गाडी किसी छोटे स्टेशन पर रुकी हुई थी. मुझे जोर से चयास लगी, सोचा उतर कर देखूं कोइ टी स्टाल है क्या. टी स्टाल दिखा पर प्लेटफोर्म पर बहुत दूर था. तभी एक छोकरा हाथ में बड़ी सी केतली और कई कुल्हड़ पकडे हुए, ‘चाय- गरम- चाय’ की हांक लगाते हुए आया. अपनी नयी नवेली बीबी को,जिसने अभी मुझसे ढंग से दो बातें भी नहीं की थीं, वैसी चवन्निया चाय पिलाने का विचार तो मुझे पसंद नहीं आया,पर मजबूरी थी. उस ट्रेन में न कोई पैंट्री थी, न इससे बेहतर चाय कहीं मिलने की कोई उम्मीद. अभी मैं सोच ही रहा था कि क्या करूँ कि गाडी ने सीटी बजाई. मैंने पर्स बाहर निकाली तो देखा उसमे केवल सौ सौ के कुछ नोट थे, निराश होकर पर्स को कोट की पाकेट में वापस रखा तो उंगलियों में दो सिक्के टकराए. मैंने बाहर निकाले,देखा बीस पैसे के दो सिक्के थे. उन दिनों चाय का कप बीस पैसों में ही आता था. भगवान् को शुक्र दिया कि दो कुल्हड़ चाय भर के लिए छुट्टा था. जल्दी से दोनों सिक्के उस छोकरे के हाथों में पकडाए और उसने गर्मागर्म चाय के दो कुल्हड़ मेरे हाथों में थमा दिए. मैं उन्हें हाथों में लिए अपने डिब्बे की तरफ लौट रहा था कि एक छोटी सी सीटी देकर ट्रेन चल पडी. मैं सोच ही रहा था कि उन कुल्हड़ों को हाथ में लेकर डिब्बे में चढूंगा कैसे कि देखा मेरी नयी नवेली पत्नी घबराई हुई सी डिब्बे के दरवाज़े पर खडी थी. चेहरे पर वही भाव थे जो यशोधरा के चेहरे पर होते यदि गौतम बुद्ध के उसे रात में सोते हुए छोड़ कर जाने के समय उसकी नींद खुल गयी होती. मैंने कृतज्ञता के साथ एक कुल्हड़ उसे पकडाया. दूसरे कुल्हड़ को एक हाथ में लिए, डिब्बे की रेलिंग को दूसरे हाथ से पकड कर डिब्बे में चढने के यत्न में लगा था कि चाय के बेहद गर्म होने के कारण कुल्हड़ मेरे हाथ से छूट गया और बड़े जतन से शादी के लिए सिलवाया हुआ मेरा नया सूट गर्मागर्म चाय से सराबोर हो गया. इस नज़ारे को देखकर मेरी बेरहम नवोढा ने बजाय कोइ सहानुभूति दिखाने के हंसना शुरू कर दिया. ”
मैंने कहा “ इसे तो दुर्घटना कहेंगे,बेवकूफी नहीं. ”
“अरे सुन तो सही” गौतम ने कहानी जारी रखी “मेरी मुसीबतों की कहानी अभी ख़तम कहाँ हुई है. अपनी चाय के गिरने और सूट के बर्बाद होने को भुलाकर मैं किसी तरह चलती गाडी में चढ़ लिया वरना ये बड़ी अजीब सी बरात होती जिसमे दुल्हन विदा होकर हंसी से लोटपोट होती हुई आती और दूल्हा किसी रेलवे स्टेशन पर खडा अकेला बिसूर रहा होता”
मैंने कहा “चलो तुम्हारी कहानी सुखान्त तो रही”
गौतम ने फिर डांट लगाते हुए कहा “अरे यार, सुन तो. कहानी अभी बाकी है. मैं डिब्बे में किसी तरह घुस ही पाया था कि वह चायवाला छोकरा दौड़ता हुआ आया. वे दोनों सिक्के मेरी तरफ बढाता हुआ बोला ‘अरे बाबूजी,ये क्या दे गए हो,ये सिक्का यहाँ नहीं चलेगा. खोटे सिक्के देने के लिए मैं ही मिला था?’ “मैं हतप्रभ था. न तो दूसरे टूटे पैसे जेब में थे, न लौटाने के लिए चाय के दो कुल्हड़ बचे थे. पीछे खडी लज्जा ने अब जोर जोर से हंसना शुरू कर दिया था. मैंने अपनी इज्ज़त का सवाल समझ कर पर्स निकाली और सौ रुपये का जो नोट उसमे दिखा था निकाल कर उस छोकरे के हाथ में ठूंसते हुए कहा “ ले मर ! अपने चालीस पैसे ले. मेरे पास यही है”
मैंने कहा “ चलो,तुम्हारी नयी नयी बीबी तो तुम्हारे रईसी के इस अंदाज़ पर मर मिटी होगी. अब तो तुम पर हंसना बंद कर दिया होगा उसने ! और वह चाय वाला छोकरा? वह तो सौ रूपये देखकर चौंक गया होगा ?”
वह बोला “तुम फिर बीच में बोले! कहा न, कहानी अभी भी ख़त्म नहीं हुई है. चौंका तो जितना मैं. उतना वह लड़का भी नहीं चौंका होगा. हुआ ये कि मैंने जब उसके लौटाए हुए दोनों बीस पैसे के खोटे सिक्कों पर नज़र डाली तो देखा कि वे बीस पैसे के सिक्के नहीं बल्कि उसी के आकार और सुनहले रंग की लगने वाली दो गिन्नियां थीं. फिर याद आया कि विदाई के समय श्वसुर जी ने टीका कर के जो कुछ दिया था जिसे मैंने लापरवाही से बिना देखे कोट की पौकेट में डाल लिया था ये वही सिक्के थे. ”
“अब इस पर लज्जा की क्या प्रतिक्रिया थी ?” हंसी रोक कर मैंने पूछा क्यूंकि मैंने स्वयं अब हंसना शुरू कर दिया था.
“ अरे प्रतिक्रिया क्या होती. पहले वह मुस्कराई थी. फिर हंसी और अब तो उस पर हंसी का दौरा पड गया. हंस हंस कर वह लोटपोट होती रही. खैरियत थी कि हम कूपे में थे, और कोई तीसरा वहाँ नहीं था मेरा तमाशा देखने के लिए. ”
मैंने कहा “चलो,इस बहाने अंग्रेज़ी में जो कहते हैं बरफ तो टूटी. अब तो ज़रूर बातचीत शुरू हो गयी होगी ?”
“ क्यूँ नहीं, इसके बाद किसी तरह से हंसी रुकने के बाद जो पहली बात इन्होने मुझसे कही वह दुनिया के सबसे रोमांटिक शब्द जो किसी नवविवाहिता ने अपने पति से कहे के रूप में जाने जायेंगे. बोलीं “आप चिंता मत करिए,चाय से लेकर चवन्नी तक, मैं सब संभाल लूंगी !”
इस बार हम तीनो देर तक हँसते रहे. गौतम से मैंने कहा ‘ तुम वाकई खुशकिस्मत हो. विवाह तय करने से लेकर उसके सारे प्रबंध तुम्हारे अपनों ने संभाल लिए और विवाह होने के बाद पत्नी सब संभाल लेगी इसका भरोसा हो गया. सब लोग इतने खुशकिस्मत थोड़ी होते होंगे. ”
वह मुझसे सहमत होकर बोला “ ठीक कहते हो यार,सब इतने खुशकिस्मत कहाँ होते हैं. अब मेरा एक बचपन का दोस्त है रवि, उसकी कहानी सुन लो. ”
“रवि माँ बाप का इकलौता बेटा है. वे लोग यहीं दिल्ली में रामनगर में रहते हैं. उसकी शादी माँ-बाप ने उसकी अपनी पसंद की लडकी से की, पर सब कुछ बहुत परम्परागत ढंग से हुआ. इकलौता होने के कारण शादी के सारे इंतज़ाम रवि ने अपने कन्धों पर ही ले रखे थे. उसके पिता दमे के मरीज़ थे, ज्यादा दौड़ भाग उनके बस की थी भी नहीं. शादी स्थानीय ही थी. बारात रामनगर से पंजाबी बाग गयी. उसके लिए एक बस किराए पर ले ली गयी थी. लगभग सारे बाराती स्थानीय थे अतः शादी के ढोल- भांगड़े, पीने और खाने का पूरा आनंद उठाते-उठाते रात में बहुत देर हो गयी और सभी बाराती विवाहस्थल से अपने-अपने घर सीधे लौट गए. विदा के पश्चात बस में केवल रवि के माँ -बाप, एकाध पड़ोसी और थोड़े से रिश्तेदार वापस रामनगर लौटे. रवि दुल्हन को विदा करा कर अपने एक चचेरे भाई के साथ उसकी कार में कई घंटों के बाद जब रामनगर वापस पहुंचा तो देखा कि रामनगर में उसके घर वाली गली के बाहर सड़क पर बस रुकी हुई है क्यूंकि गली तंग थी. जो थोड़े बहुत निकट के रिश्तेदार बस में आये थे उनके पुरुष सदस्य पिछली शाम चढ़ाई हुई दारू के सुरूर में अपने घर जाकर सो चुके थे. महिलायें रवि की मम्मी जी के साथ उसके घर पर बहू के सविधि प्रवेश के इंतज़ाम देखने चली गयी थीं. गली के मोड़ पर बस के ड्राइवर और क्लीनर के साथ रवि के पिताजी का झगडा हो रहा था. दमे से आक्रान्त गहरी साँसें लेते हुए पिताजी उन दोनों को समझाने का प्रयत्न कर रहे थे कि घर गली के अन्दर पचास-साठ गज दूर था. रात में इस समय कोई मजदूर नहीं मिल सकते थे अतः बस के ऊपर लादे हुए सोफा-सेट, गोदरेज की आलमारी और फ्रिज इत्यादि या तो वे उतरवाने में मदद करें या सुबह होने की इंतज़ार करें. बस वालों को दोनों ही बातें मंज़ूर नहीं थीं. वे इस बात पर अड़े हुए थे कि ये उनका काम नहीं था. गली के दोनों बाजू आस-पास के मकान वाले अपने अपनी खिड़कियाँ खोलकर चुपके-चुपके इस लड़ाई और बहस का आनंद लेकर फिर खिड़कियाँ बंद करके सांस रोके बैठे थे कि पड़ोसी का धर्म निभाकर मदद करने के लिए रवि के पिता कहीं उन्हें आवाज़ न लगाएं. रवि कार में दुल्हन के गुलाबी हाथ अपने हाथों में लिए जिन गुलाबी सपनों में खोया हुआ था उनके रंग इस झगडे ने ब्लीचिंग पाउडर की तरह साफ़ कर दिए. जोर से होती बहस से घबराई दुल्हन का हाथ छोड़कर वह नीचे उतरा और बस के ड्राइवर और क्लीनर को रुपयों की रिश्वत देकर मनाने की कोशिश करने में जुट गया. पर उन दोनों ने भी रात में सोमरस के साथ न्याय किया था और अब इस मसले को अपनी इज्ज़त का सवाल बना चुके थे अतः रवि उन्हें मनाने में असफल रहा. ”
मुझे उस बेचारे अजनबी रवि से बहुत सहानुभूति हो रही थी. कहानी की रवानी भंग करते हुए पूछा “बेचारा दूल्हा! उसकी शादी की वह रात तो बर्बाद ही हो गयी. अगले दिन आशा है उसकी सुहागरात निर्विघ्न गुज़री होगी और उसके सपनों के इन्द्रधनुष के सारे रंग ज़मीन पर उतर आये होंगे. ”
गौतम खुद अपनी कहानी पर जितना हंसा था उससे भी ज़्यादा जोर से हंसने लगा. बोला “ हाँ, बिलकुल यही सवाल मैंने उससे सुहागरात के अगले दिन पूछा था. पर वह सवाल सुनते ही भिन्ना गया. चिढ कर बोला ‘अबे, कैसी सुहागरात,किसकी सुहागरात? सब साले रिश्तेदार उस बस वाले सीन से गधे के सर पर से सींग की तरह गायब हो गए. किसी तरह बस वालों को मनाया कि दुल्हन को घर छोड़कर आता हूँ और सामान उतरवाता हूँ. वही किया. सामान को सड़क पर तो छोड़ा नहीं जा सकता था सो एक चचेरे भाई और अपनी कार के ड्राइवर की मदद से घर तक उठा कर लाना पडा. मुझे पहली बार पता चला कि गली के मोड़ से मेरा घर पूरे तिहत्तर कदम दूर है. किसी तरह सारा सामान घर पहुंचाया और उसके बाद थकान से चूर होकर बिस्तर पर गिर पडा. वह मेरी उदासीनता से परेशान होकर जागती रही या सो गयी मालूम नहीं. अगले दिन दोपहर होते-होते मेरी कमर में भयानक दर्द हो रहा था. मैं स्लिप्ड डिस्क - विस्क के चक्कर से डरकर डाक्टर के पास भागा गया. खैरियत थी कि कोई लंबा चक्कर नहीं निकला. उसने आयोडेक्स लगवा दिया ढेर सा, कुछ दर्द की दवा भी लिख दी. तुम सुहागरात की पूछ रहे हो? यहाँ कमर में इतना दर्द था कि बूढों की तरह झुक कर कराहता हुआ बीबी के पास जब गया तो उसने नाक पर रुमाल रखकर मुंह दूसरी तरफ फेर लिया. शर्माते हुए बोली ‘ जी मुझे आयोडेक्स की महक से एलेर्जी है’. इससे चिढ कर मैंने उसे बताया कि अपनी कमर के भयंकर दर्द के लिए उस कमबख्त डाक्टर की लिखी गोलियां खाने के बाद अब उनके असर से मुझे बहुत जोर से नींद आ रही थी. और इस तरह हुआ सुहागरात के उस बहुप्रतीक्षित नाटक के पहले सीन का पटाक्षेप!
क्रमशः ------------