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औरतें रोती नहीं - 14

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 14

तुम्हारे आसमान से मेरी दुनिया दूर है

सितम्बर 2004: मन्नू की बदलती दुनिया

सब कुछ अचानक हुआ। मन्नू यूं अकेली घर से निकलती नहीं थी, पर बिना निकले गुजारा भी नहीं। पद्मजा जापान गई है अपना प्रोजेक्ट ले कर। उज्ज्वला सूर्यभान के घर गई है। पता नहीं कब लौटेगी। उसे निकलना ही पड़ा, वो भी अकेले।

सुबह ही मन्नू सोच रही थी कि वह भी उज्ज्वला के साथ चली जाती तो कैसा रहता। सूर्यभान की बेटी को वह भी देख आती। सूर्यभान ने उन सबकी पहचान अस्पताल में हुई थी। उनकी तेरह साल की बेटी परिक्रमा का इलाज उज्ज्वला के साथ चल रहा था। सूर्यभान और मन्नू वार्ड के सामने बैठे रहते। इकलौती बेटी की बीमारी से टूटे हुए सूर्यभान और उनकी पत्नी वीरा। सूर्यभान पेशे से व्यापारी थे और स्वभाव से कवि। मन्नू के लगभग हमउम्र। कभी-कभी दोनों कॉफी पीने कैंटीन पहुंच जाते। बात होने लगी, तो एक रिश्ता सा बन गया। पति-पत्नी दोनों से। वैसे भी उस समय मन्नू और पद्मजा को एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी, जो भागदौड़ कर सके।

सूर्यभान ने एक तरह से बिना कहे उज्ज्वला का भार भी संभाल लिया। कीमोथेरेपी के दौरान वे साथ बने रहते। न जाने कहां-कहां से पत्रिकाएं खरीद कर लाते, जिनमें कैंसर के मरीजों को लेकर लेख छपे होते।

मन्नू देख रही थी कि उज्ज्वला सूर्यभान को लेकर जरा सी संजीदा हो रही है। उसे इंतजार सा रहने लगा है। मन्नू को आशंकर हुई, उज्ज्वला कहीं ऐसे जज्बात न पाल ले, जो उसे मंझधार में छोड़ दें। वो भी इस वक्त, जब वह शरीर से पूरी तरह स्वस्थ नहीं। पद्मजा ने एक रात अकेले में मन्नू को खूब समझाया था, ‘‘मैं भी समझ रही हूं, देख रही हूं। पर जाने दो मन्नू। अगर सूर्यभान का साथ उज्ज्वला को ताकत दे रहा है, तो यही सही। तुम यह क्यों सोचती हो कि बाद में उसे पछताना न पड़े। बाद हम में से किसने देखा है? खुशियां वक्ती होती हैं मन्नू। अगर इस समय अपने तमाम दुखों के बावजूद उज्ज्वला खुश है, तो हमें उसका साथ देना चाहिए।’’

मन्नू चुप हो गई। क्यों हो गई थी चुप? क्यों खुलकर यह कह न पाई कि सूर्यभान से जिस सहारे की उज्ज्वला को दरकार है, उसे भी है। सूर्यभान एक बार फिर उसे प्रेत योनि से बाहर निकाल रहे हैं। सालों बाद औरत होने का अहसास होने लगा है, लेकिन इस समय प्राथमिकताएं तौली जा रही हैं। और यह सच है कि उज्ज्वला का करुणा पक्ष उससे उज्ज्वल है। पद्मजा तेजी से काम पूरा कर रही है। पैसे चाहिए। कैंसर का इलाज सस्ता नहीं। फिर कई दिनों से घर में कोई आमदनी नहीं हो रही। उसके कई सारे प्रोजेक्ट रुके हुए हैं। पद्मजा की मां कोलकाता लौट गई हैं। एक तरह से पद्मजा ने ही उन्हें ठेलकर भेजा है।

पद्मजा ने चार महीने पहले मन्नू से कहा था, ‘‘नानागारू की मृत्यु के बाद मुझे एक तकड़ा झटका चाहिए था होश में आने के लिए। उज्ज्वला की बीमारी ने मुझे वह झटका दे ही दिया। वर्ना मैं अब तक अपने शोक में ही डूबी होती।’’

पद्मजा के पास तो तगड़े प्रोजेक्ट हैं। बता रखा है उसने कि चार महीने तक वह व्यस्त रहेगी। तीन महीने तो जापान में ही रहना होगा। इसके बाद वह उन दोनों को दुबई ले जाएगी घुमाने। नया साल सब दुबई के हसीन सागर तट पर मनाएंगे। फ्यूजिरा का विशाल बीच और उमलउलकुइन की पहाड़ियों पर पिकनिक मनाएंगे।

दुबई में पद्मजा का एक क्लाइंट रहता है। काम के साथ वह पिकनिक भी मना लेगी। पिछले साल महीना भर रहकर आई थी पद्मजा और वहां के मरुस्थल, सेंड्यून्स, बिंदासपन और खुली संस्कृति की वह कायल थी।

जबसे उज्ज्वला कैंसर से उबरी है, तब से ही पद्मजा ने उसे लालच दे रखा था। उज्ज्वला वाकई रोमांचित है दुबई जाने के नाम से। अब तो सूर्यभान भी कहने लगे हैं कि वे भी उनके साथ चलना चाहते हैं।

मन्नू, तुम फिर अकेली हो रही हो... मन ने कहा। ख्यालों कोा झटक वह अर्से बाद बस में बैठी। कर्नाट प्लेस तक जाना था। बारह बज रहे थे, दो बजे बैंक बंद होने से पहले उसे वहां पहुंचकर काम करवाना था। श्याम उसे जो खर्चे-पानी के लिए देते थे, उनमें से बचाकर लाख रुपए मन्नू ने स्टेट बैंक में फिक्स्ड करवा रखे थे। पंद्रह दिन से वह जाने की सोच रही थी। कुछ रुपए दोबारा फिक्स कर देगी, कुछ निकालकर घर ठीक करवा लेगी। एक मोबाइल लेना है, अलमानी भी। यूं पद्मजा घर का खर्च उठाती है, पर कितने दिनों तक? उसके भरोसे वह अच्छा खाती है, गाड़ी में घूमने जाती है, इतवार को फिल्म देखती है। उज्ज्वला जब दफ्तर जाने लगेगी, तो उसके भी पैसे आ जाएंगे। उज्ज्वला ने कभी अपने ऊपर खर्च नहीं किया। लेकिन जितना जमा किया, वह लगभग खर्च हो गया। ऑपरेशन, पोस्ट ऑपरेशन, फिर कीमोथेरेपी। अब दवाइयां। महीने की दवाई में ही पंद्रह हजार लग रहे हैं। सूर्यभान ने कहा था कि वे कैंसर एसोसिएशन से बात कर दवाई मुफ्त में दिलवाने की कोशिश करेंगे।

ऑपरेशन के बाद उज्ज्वला आश्चर्यजनक रूप से सामना करती नजर आई। इतनी ताकत इस दुबली-पतली औरत के अंदर आई कहा से? डाक्टर कहते रह गए कि उसे साइको ट्रीटमेंट लेना चाहिए। कैंसर के बाद व्यक्ति डिप्रेशन में आ जाता है। उज्ज्वला को कभी मन्नू ने दुखी नहीं देखा, बल्कि पहले से कहीं ज्यादा बोल्ड और बेबाक हुई है उज्ज्वला।

बस कनॉट प्लेस पहुंचने से पहले ही वो उसके पास आकर बैठी थी। काली सलवार-कमीज में। गले में सफेद और लाल रंग के मोतियों की माला। बड़े-बड़े मोती, शायद लकड़ी के। बाल काले थे, कमर तक। खुले हुए। वह बस में चढ़ने के बाद से ही हांफ रही थी। मन्नू ने सरक कर उसे आराम से बैठने दिया।

कंडक्टर टिकट देने आया, उस महिला ने अपने लाल बैग में पर्स तलाशना शुरू किया। अचानक उसके चेहरे का रंग उड़ गया, ‘‘ओह, मेरा पर्स! कहां गया? बस में चढ़ने से पहले था, यहीं... किसी ने चुरा लिया है। हाय, अब क्या करूं?’’

औरत विलाप सा करने लगी। कुछ दूर खड़े कंडक्टर ने फिकरा सा कसा, ‘‘घर से पैसे लेकर तो चलतीं नहीं, यहां बहाने मारती है।’’

औरत ने सुन लिया, वह खड़ी हो गई और बहुत जोर से चिल्लाई, ‘‘चुप बे कमबख्त। दिखता नहीं मेरा कितना बड़ा नुकसान हो गया है? तेरे दो रुपए छूट रहे हैं, यहां मेरी जिंदगी दांव पर लग रही है, देख नहीं रहा सूअर की औलाद?’’

बस में कम यात्री थे। औरत की यह जुबान सुन सब स्तब्ध रह गए। मन्नू को अच्छा लगा। अंदर से मजबूत औरत ही अपना बचाव इस तरह कर सकती है। और कोई औरत होती तो घिघियाने लगती।

‘‘इनके टिकट के पैसे मुझसे ले लो...’’ मन्नू ने उस औरत के हाथ पर अपना हाथ रख।

ढाई रुपए। टिकट मन्नू ने उस औरत को थमा दिया। वह अब भी आक्रोश में थी, लेकिन जैसे सहारे के लिए उसने मन्नू के हाथ को थाम रखा था।

मन्नू ने धीरे से कहा, ‘‘अब शांत हो जाओ। जने दो न...’’

‘‘कैसे जाने दूं?’’ वह एक घायल बाघिनी की तरह बिफरी, ‘‘मेरे शौहर... या अल्लाह... रहम कर... पता नहीं जिंदा हैं कि नहीं? मुझसे शांत रहने को कह रही हो।’’

मन्नू ठिठकी, ‘‘क्या हुआ, बीमार हैं क्या?’’

अचानक वह औरत हाहाकार करती रोने लगी, ‘‘तुम किस दुनिया में रहती हो? खबर नहीं कि जामा मस्जिद में बम फट गया है?’’

अचानक बस में फुसफुसाहटें बढ़ती गईं। देखते ही देखते सड़क पर जाम लग गया। बस में मौजूद यात्री तमाम तरह की बातें करने लगे। बम विस्फोट... जामा मस्जिद, चांदनी चौक, कटवारिया सराय, मोती बाग...

मन्नू की रूह कांपने लगी। यह क्या हो गया राजधानी को? उस औरत ने अब भी मन्नू का हाथ कसकर पकड़ रखा था। वह लगातार बुदबुदाए जा रही थी। लग रहा था अब बस आगे नहीं जा पाएगी।

उस दिन जो हुआ, उसने मन्नू की जिंदगी की दिशा बदल दी। वह रजिया के साथ चांदनी चौक, फिर वहां से सफदरजंगी अस्पताल क्यों गई, उसे नहीं पता। लेकिन वह साये की तरह उस अजनबी महिला के साथ थी। उसका शौहर मर रहा था। वह बिलख रही थी, टूट रही थी, बिखर रही थी। मन्नू रातभर वहीं रही। दिल्ली में बम विस्फोटों से लगभग अट्ठावन लोगों की मौत हो गई थी और न जाने कितने घायल। मन्नू के देखते-देखते उसके सामने से एक स्ट्रेचर गुजरा। हाथ-पांव अलग, सिर्फ मांस का लोथड़ा। और कोई वक्त होता तो मन्नू वितृष्णा से आंखें फेर लेती। लेकिन वह देखती रही। हाहाकार मचाते लोग। इधर-उधर कैमरा उठाए भागते मीडियाकर्मी। सबको अपनी-अपनी पड़ी थी। शोर, शोर, शोर। मन्नू ने कान पर हाथ रखा ही था कि जी न्यूज का कैमरा उसके सामने आ खड़ा हुआ।

‘‘मैडम, आपके परिवार से कौन घायल है?’’

‘‘आप यहां कैसे आईं? क्या सरकार आपकी कोई मदद कर रही है? क्या आपको घायल का पता चल पाया? आप इस घटना को कैसे लेती हैं?’’

मन्नू ने बड़ी शांति से कहा, ‘‘इस समय इन सवालों की कोई तुक नहीं है। मैं यहां अपनी शव यात्रा देखते आई हूं...।’’

मन्नू रौ में बोलती चली गई, ‘‘सच कहूं तो यहां मेरा कोई नहीं, लेकिन यहां आकर लग रहा है कि सबमें मैं भी हूं। मैं तमाशा देखने नहीं आई। मैं जिंदगी में बहुत कम घर से निकली हूं लेकिन पता नहीं था कि बाहर की दुनिया ऐसी होती है। मुझे पता है कि मेरे यहां होने न होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मैं किसी के क्या काम आ पाऊंगी, लेकिन यहां से जाऊंगी नहीं।’’

मन्नू बोलते-बोलते हांफने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे वह खुद मांस में बदल गई हो। क्या यही है जिंदगी? अगर है तो क्यों है?

मन्नू वाकई वहीं रही। कभी किसी का हाथ थामती, तो कभी किसी घायत के लिए दौड़कर पानी लाती। अगले दिन जब घर पहुंची, तो पता चला कि उज्ज्वला बहुत बेसब्री से उसकी तलाश में लगी थी। रात को ही टीवी पर उसने और सूर्यभान ने मन्नू को बोलते सुन लिया था। इसके बाद दोनों अस्पताल भी गए, पर मन्नू उन्हें कहीं नहीं मिली। उज्ज्वला बहुत परेशान थी। मन्नू को लगभग झकझोरते हुए उसने पूछा, ‘‘तुम कहां चली गई थीं? क्या जरूरत थी जाने की? तुम्हारा तो कोई था नहीं वहां। फिर... जानती हो रात से हम परेशान हैं... मैंने पद्मजा को भी फोन लगाया। ऐसे मत करो मन्नू।’’

मन्नू ने उज्ज्वला का चेहरा देखा, फिर सूर्यभान का। इनके चेहरों पर इतनी लाचारी क्यों? इनका क्या बिगड़ा है? सब वहीं हैं, सही-सलामत।

मन्नू कुछ नहीं बोल पाई। किसी को सफाई नहीं दे पाई कि वह क्यों सारी रात अस्पताल में थी। उसे खुद नहीं पता था कि वह वहां क्या कर रही थी?

उज्ज्वला उसके लिए गर्म चाय ले आई। सूर्यभान ने उसके इर्द-गिर्द गर्म शॉल लपेट दिया। वह शांति से पलंग पर बैठ गई। सोचने के काबिल हुई तो अपने आपको इस घर के एक कमरे में श्याम के साथ पाया। श्याम के पैर धोकर उनकी सेवा करती मन्नू, उनके कपड़े धोकर तह लगाती मन्नू, उनके लिए खाना बनाती मन्नू और उनके लिए बिस्तर पर तैयार होती मन्नू।

इसके बाद मन्नू ने पाया अपने आपको एक नए रूप में। वह अपने से बेखकर हो रही है, मोटी हो गई है, एक बेमकसद सी जिंदगी जीने लगी है। फिर आई उसकी जिंदगी में एक युवती। जिंदगी से सताई और अपने आपसे लड़ती हुई उज्ज्वला। उसके प्रेमी की बेटी। मन्नू को पसंद नहीं आ रहा। उसे लग रहा है कि उसकी जिंदगी में खलल पड़ गया। लेकिन किसी के साथ रहने से ताकत भी मिल रही है। फिर छोड़ दिया है अपने को खुला। जो हो रहा है होने दो। उज्ज्वला भी उसी ढर्रे पर चल पड़ी है। जिंदगी में कुछ नया नहीं, बस काटना है, तो कट रही है।

लेकिन यहां खत्म नहीं हो रहा है। आगे है एक खुला आसमान। वहां उसे स्पष्ट नजर आ रही है पद्मजा। अपने प्यारे से गदबदे कुत्ते टुटू को गोद में उठाए कह रही है- मुझसे जीना सीखो। यह क्या? उज्ज्वला भी उठ खड़ी हुई है नई राह पर चलने को। मन्नू धीरे-धीरे सीख रही है अपने आपको पाना। पूरी तरह तो अब भी नहीं पा सकी। लेकिन यह जो नई जिंदगी है, उसमें नशा है। अपने को जानने का सुख है और अलग राह पर चलने का रोमांच है।

आंखों के आगे एक चमकीली रोशनी है। किस बात की रोशनी, यह क्या कह रही है? यही तो पकड़ नहीं पा रही।

‘‘मन्नू... मन्नू...’’ कोई झकझोर रहा है उसे। ‘‘पद्मजा का फोन आया है। तुमसे बात करना चाहती है।’’ मन्नू चिहुंकर उठ खड़ी हुई।

क्रमश..

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