औरतें रोती नहीं - 13 Jayanti Ranganathan द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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औरतें रोती नहीं - 13

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 13

अधूरे ख्वाबों की सिसकियां

उज्ज्वला की नजर से: मई 2006

इस तरह जिंदगी ने ली करवट। वो भी सिर्फ चंद महीनों में। कल रात मन्नू ने मुझसे कहा था, ‘‘तुम्हारे अंदर इतनी मजबूत औरत बसती है, मुझे अंदाज नहीं था। तुमने किस तरह हम सबको संभाल लिया!’’

मैं चुप रही। मन्नू बहुत बेचैन है, साफ नजर आ रहा है। कल रात ही मैंने उससे सख्ती से कहा था कि तुम पद्मजा की मां के साथ सोओगी।

मन्नू ना-नुकुर करने लगी। मैंने डांट दिया, ‘‘तुम्हें दिख नहीं रहा, वो औरत बीमार ची रही है? इस समय तुम अपने नखरे रहने दो।’’

मन्नू ने बुझे मन से कहा, ‘‘वो रातभर नहीं सोतीं, बकबक करती रहती हैं, वो भी बांग्ला में। मैं पागल हो जाऊंगी उज्जू।’’

मन्नू मुझे बहुत बेचारी लगी। मैंने बहुत प्यार से उसका हाथ थाम लिया, ‘‘देखो मन्नू, हममें से किसने सोचा था कि ऐसा होगा? पर जब हमें पता है कि हमें ही करना है तो खुशी से करें न। तुम ही बताओ पद्मजा का हमारे अलावा है कौन? हम कैसे यह भूल सकते हैं कि हमारे अंदर कितनी निराशा और कुंठा थी, किसने दूर किया था उसे, बोलो? अगर पद्मजा हमारी जिंदगी में न अऋती, तो क्या हम आज यहां होते? हमने कितना कुछ पाया है उससे, जिंदगी जीना सीखा है, खुश रहना सीखा है। आज उसे हमारी जरूरत है। देख नहीं रहीं मन्नू, कितना बिखर गई है। अगर हम उसके पास न रहें तो वह तो पी-पी के जान ही दे देगी। थोड़ा सा सब्र कर लो।’’

मन्नू ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा था। मैं खुद अचंभित थी अपने बदले हुए रूप से। न जाने कहां से इतनी ताकत आ गई थी मुझमें। अब तो बस यही लगता था कि किसी तरह पद्मा बाहर आ जाए अपने दुख-निराशा और पागलपन के घेरे से।

मैं मन्नू को कैसे बताती कि मैं अंदर से कितनी हिली हुई हूं। पद्मजा को इस रूप में देखना मेरे लिए क्या है? अपने सामने-सामने मैं उसे धीरे-धीरे खत्म होते देख रही हूं।

बहुत रुकी हुई सी सुबह थी। बेकार सी। और कोई दिन होता तो शायद मुझे अच्छा लगता। आज बेचैनी सी हो रही है। मैं अपनी छुट्टियां और नहीं बढ़ा सकती। आज नहीं तो कल तो जाना ही होगा। तीस दिन से ज्यादा हो गए। चार बार दफ्तर फोन करके छुट्टियां बढ़ाने को कह चुकी हूं। इस बार मुझे अल्टीमेटर मिल गया है कि मैं और छुट्टियां नहीं ले सकती। इस समय पद्मजा और मोधुमिता को मन्नू के भरोसे छोड़कर जाने का मन नहीं कर रहा। कल पद्मजा मन्नू की आंखों के सामने घर से निकल गई। मन्नू को पता भी न चला। चार घंटे तक हम परेशान रहे। जान सांसत में रही। पद्मजा लौटी तो पूरी तरह टुन्न थी। ठीक से चला भी नहीं जा रहा था। वह यहां से सीधे कर्नाट प्लेस कई थी और वहां रिट्ज में बैठकर लगातार पीती रही। पद्मजा कई दिनों से यही करना चाह रही थी, मैं उसे रोक रही थी। घर पर जितना पीना हो पी ले, बाहर नहीं।

पद्मजा अपने में नहीं थी। उससे कुछ भी कहना बेकार था। उसकी मां अलग परेशान। उनको संभालने-समझाने में ज्यादा दिक्कत होती थी। मां-बेटी में लगभग रोज ही झगड़ा होता। मां हिस्टेरिक हो जाती और बेटी एक्सेंट्रिक।

इस बीच मेरा पुराना दर्द फिर उभर आया। जबरदस्त दर्द। लगता था जैसे पेट पर मनों बोझ रख दिया गया हो। चलना मुश्किल। सांस लेने में तकलीफ। दो दिन जब्त किया। तीसरे दिन हाथ ऊपर कर दिए। मन्नू को पहली बार अपने लिए इतना परेशान देखा। आधी रात तक मेरे सिरहाने बैठ मेरा सिर सहलाती। पीठ दबाती। दर्द ने दर्द की भाषा समझी, बहुत भावुक होकर बोली, ‘‘उज्ज्वला, तेरा-मेरा दर्द एक जैसा है रे। मैंने भी बहुत भोगा है। मुझे पता ही न था कि ऐसा क्यों हो रहा था मेरे साथ? बारह महीने लगातार मेरा खून बहता रहा। पेट में इतना दर्द कि लगता कोई मशीन चल रही हो। पता चला कि मेरी बच्चेदानी गल गई है। पूरे में ये बड़े-बड़े फफोले। सोचो, बिना बच्चे के गल गई बच्चेदानी। यूट्रस निकालने तक तो जान ही चली गई। तुझे देखती हूं तो रोना आ जाता है। तू भी मेरी तरह दर्द सहने के लिए अभिशप्त है।’’

दर्द के आवेग में भी मैं कराहना चाहती थी, ‘‘नहीं मन्नू, मैं अभिशप्त नहीं। मैं अपने आप पर रहम नहीं खाऊंगी, मैं अपनी जिंदगी पूरा जिऊंगी।’’

मन्नू ही जबरदस्ती मुझे अपोलो अस्पताल लेकर गई। पहले दिन तमाम तरह के टेस्ट हुए। सोनोग्राफी, अल्ट्रासाउंड, एंजियोग्राफी। मन्नू लगातार कहे जा रही थी, सब ठीक है। सब ठीक है।

मुझे पता था सब ठीक नहीं है। पिछली बार दर्द की शक्ल इतनी क्रूर नहीं थी। इस बार साफ लग रहा था कि कोई बड़ी बात है। ऊपर से हमेशा का यह बुखार। खाने-पीने में अरुचि।

तमाम टेस्ट। मैंने मन्नू को परेशान होते देखा। हाथ पकड़कर बोल ही पड़ी, ‘‘जो कोई भी बात हो, मुझे बता देना मन्नू। मेरे अंदर बहुत ताकत है सहने की।’’

मन्नू अचानक रोने लगी। धीमी आवाज में। मेरी बाईं कलाई उसकी गोद में। आंसुओं से मेरी त्वचा भीग सी गई। मैंने उसे रोने दिया। रोएगी तो हल्की हो जाएगी। लेकिन न जाने क्यों यह जानते हुए भी कि सब ठीक नहीं है, मुझे डर नहीं लगा।

कैंसर। लगता है जैसे किसी ने तीखी लंबी छुरी से आपको खरोंचना शुरू कर दिया हो। रिसने खून का दर्द, शरीर के हल्के होने की कंपकंपी। या जैसे कई-कई जोंक प्रवेश कर गए हों शरीर के अंदर और धीरे-धीरे रस लेते हुए खाने लगे हों अंग-प्रत्यंग। क्या होगा अब? मर जाऊंगी, यही न? फिर भी डर क्यों नहीं लग रहा?

न मां की याद आ रही है, न भाई की। बल्कि मन्नू को मना कर रही हूं कि हम तीनों के अलावा किसी को पता नहीं चलना चाहिए। है तो है। लड़ना है तो लड़ना है। मरना है तो मरना है। मन्नू लगातार रोए जा रही है। खाना-पीना सब छोड़ रखा है। मैंने सुबह कहा - मन्नू जरा लौकी वाली दाल बना देना। खाने का मन कर रहा है।

मन्नू फिर रो पड़ी। मरने वाली की अंतिम इच्छा। मैं झिड़क देती हूं, ‘‘न तुम मेरे लिए पहली बार दाल बना रही हो, न अंतिम बार। फिर ये टसुए क्यों बहा रही हो? बीमार हूं तो क्या मूंग की दाल की फीकी खिचड़ी ही खिलाओगी? अरे मन्नू, बस भी करो।’’

पद्मजा हक्की-बक्की है। सुबह लगा, जरा अपनी कोठरी से निकल होश में आई है। लेकिन बिखरी तो वह भी, ‘‘ओह माई गॉड, लगता है हम तीनों को किसी की नजर लग गई है। पहले नानागारू की डेथ, अब उज्जू... नो, गॉड कांट बी देट क्रुएल।’’

मैंने उसे भी कलपने दिया। पद्मजा ने क्या हाल कर लिया है अपना एक महीने में। चेहरे की रौनक एकदम खत्म हो गई है। आंखों के नीचे गहरे गड्ढे। बाल सूखे और मुरझाए से। त्वचा ढलकी सी। अच्छी भली युवती अपने को चौपट किए दे रही है। मैंने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ थाम लिया, ‘‘पद्मा, हर बात के लिए भगवान को दोष मत दिया करो। जाने दो न याद। मैं कोशिश करूंगी, पूरी कोशिश। ऑपरेशन करवाऊंगी, कीमोथेरेपी लूंगी। समय पर दवाई भी लूंगी। देखना पद्मा, मैं ठीक भी हो जाऊंगी। अगर नहीं भी हुई तो क्या फर्क पड़ेगा? जितने दिन का साथ है हंसी-खुशी काट लेंगे न, हां एक बात और, अगर तुम दोनों इसी तरह मुझे देखकर रोती रहीं, तो देखना... मैं मां के घर चली जाऊंगी।’’

पद्मजा फिस्स से हंस पड़ी, ‘‘तुम्हें मरने के लिए वहां जाने की क्या जरूरत है डार्लिंग।’’

मन्नू ने मेरी पसंद की दाल बना दी थी! लेकिन अभी भी वह सामान्य नहीं। पद्मजा की मां कमरे से बाहर निकलकर नहीं आईं। पद्मजा ने शुरुआती दिनों की तरह टेबल सजाई। सलाद काटा। प्लेटें लगाईं। पतली-पतली चपातियां, चावल और दाल। बहुत दिनों बाद हम तीनों ने साथ बैठकर खाना खाया। मैं ही बोल रही थी। पता नहीं क्या-क्या! अपने पुराने दिनों के बारे में। अपने बचपन और पापा से जुड़ी यादों के बारे में।

अचानक मेरे मुंह से निकला, ‘‘पता है मन्नू पहले मुझे लगता था कि पापा सबसे ज्यादा मुझे चाहते हैं। शादी के बाद ससुराल गई, तो वहां पता चला कि पापा का रिश्ता था अपनी एक रिश्तेदार से। बड़ा धक्का लगा। पापा नजरों से एकदम गिर गए। जबकि उस समय उनको गुजरे सालों हो गए थे। पर मन में जो छवि थी, वो ढह गई। पर अब लगता है, मैंने उन्हें गलत समझा। अब स्त्री-पुरुष के रिश्तों को किसी भी शुचिता में बांधने का दिल नहीं करता। रिश्तों की पवित्रता को बंधन से जोड़ना मूर्खता है। है न!’’

मन्नू चुप रही। मैं चाहती थी वह कुछ कहे। मुझे बताए कि पापा के साथ कैसे संबंध रहे उसके? क्या उस समय पापा की जगह कोई और पुरुष भी आ सकता था? मन्नू ने कैसे सहा दूसरी औरत बनने का दर्द?

पद्मजा ने बहुत मुलायम लहजे में कहा, ‘‘पता है उज्ज्वला, मैं कितनी पागल हुआ करती थी। मैक से मिली तो लगा कि वह बदल देगा मेरी दुनिया। मैं वह सब कुछ कर पाऊंगी, जो जिंदगी में न कर पाई। मैक ने मुझे जीने का रास्ता तो दिखाया, पर खुद निकल गया। मुझे लगता है यही काम तुम्हारे पापा ने किया होगा मन्नू के साथ। है न मन्नू?’’

मन्नू फिर भी चुप रही। मुझे अच्छा नहीं लगा। मन्नू इस तरह पहले वाले रूप में अच्छी नहीं लगती। खुलकर बोलने लगी है अब, तो बोले न। जो जी में आए।

रुक कर वह जैसे फट पड़ी, ‘‘तुम दोनों को क्या लगता है मैं बूढ़ी हो गई हूं? मेरे अरमान मर गए हैं? छोड़ो परे। क्या जानना चाती हो तुम दोनों? श्याम मेरे साथ कैसे सोते थे? कितना चाहते थे मुझे?’’

मैं चुप हो गई। मन्नू इतना आहत कैसे हो गई? खुद ही बताया है हम दोनों को इतना सब कुछ। पद्मजा भी सिर झुकाकर खाना खाने लगी।

मन्नू कुछ देर चुप रही, फिर अपने आप बोली, ‘‘देख उज्ज्वला, मुझे नहीं लगता मैं तेरे सवाल का सही जवाब दे पाऊंगी। अगर तुझे यह लगता है कि श्याम मुझे सबसे ज्यादा चाहते थे, अपनी बेटी से भी ज्यादा, तो मैं तो बस खुश ही हो सकती हूं। मुड़कर देखती हूं तो लगता है कि श्याम भी एक आम पुरुष की तरह खुदगर्ज और आत्मकेंद्रित थे। अपने सुख के लिए मुझे सहेजकर रखा। पत्नी झगड़ालू थी और बहुत गुरूर वाली। आदमी को हमेशा अपना स्व दिखाने और अहम की तुष्टि के लिए ऐसी औरत की तलाश होती है, जो उसे एक मां की तरह लाड़ लड़ाए और प्रेमिका की तरह दुलराए। सच कहूं तो मुझे लगा था कि वो मुझे दिल से प्रेम करते हैं, मैं बस इसी खामखयाली में इतराती चली गई, एक छलावे में जीती चली गई। श्याम ने मुझे प्यार किया कि क्या किया... नहीं पता। आसरा दिया, इज्जत दी... यह सच है।’’ लंबी सांस लेकर रुकी मन्नू फिर धीरे से लंबी सांस खींचती हुई बोली, ‘‘और कुछ पूछना है?’’

उस एक क्षण में प्रेम, देह, उल्लास सब पीछे रह गया। सामने था एक नंगा सच। मैं किस भ्रम में जी रही थी इस शरीर को लेकर? सच तो यह है कि जीवन की मृगमरीचिका बन गई है। कैंसर है मुझे। लड़ना है, पर किससे? कहां से लाऊं इतनी ऊर्जा, इतनी पॉजिटिव एनर्जी जो मुझे मौत के मुंह से खींच निकाले? कल तक लगता था बड़ी बेमानी सी जिंदगी है, किसी भी मोड़ पर खत्म हो जाए, तो गिला नहीं। पर अब लगता है, पकड़कर रखूं जिंदगी को। अभी तो कुछ जिया नहीं, कुछ किया नहीं। ऐसे ही मर जाऊं?

हम तीनों चुप थे। सामने टंगा था एक अनुत्तरित सवाल।

मैंने आगे बात नहीं बढ़ाई। मन्नू तो एकदम से खामोश हो गई। पद्मजा ने यहां-वहां की बात करने की कोशिश की, पर खामोश दीवारों से टकराकर वह भी शांत हो गई।

सप्ताह भर बाद ऑपरेशन होना था। मन हुआ एक बार मां से मिल लूं। मन्नू ने ही फोन किया उन्हें। पता था मुझे कि वह मां से बात करना नहीं चाहती। मां ने कभी उसकी इज्जत नहीं की। पेरी खातिर यह काम भी कर लिया।

शुरू में ही बता दिया मेरा हाल। मां ने कहा- वो मुझसे मिलने आएंगी।

अगले दिन मां आईं अनिरुद्ध भैया के साथ। मैं अर्से बाद देख रही थी उन्हें। बाल पहले से ज्यादा सफेद। जान कर सफेद रंग की साड़ी पहनी थी। शरीर थोड़ा भर गया था। चेहरे पर वही मुद्रा कि मुझसे बड़ा कोई नहीं।

मां मेरे पास आकर रुकीं और ठहरकर बोलीं, ‘‘बहुत बुरा लगा सुनकर। तुम्हारी मौसेरी नानी भी कैंसर से मरी थीं। देख लो इलाज करवा के, पर होता-वोता कुछ नहीं है।’’

उस क्षण मुझे अहसास हुआ कि मां को बुलाकर मैंने कितनी बड़ी गलती की है। मैं मर जाऊं या बचूं, उससे उन्हें कोई तकलीफ नहीं। पर इस दर्द के साथ मर ही क्यों न जाऊं ऐ खुदा... मेरी अपनी मां मेरे दर्द से बेखबर, मेरे अस्तित्व को रौंदकर मेरा मजाक उड़ा रही है।

आंख के कोर बस जरा हल्के से भीग उठे। मन्नू तो सामने थी ही नहीं। पद्मजा थी। वही चलकर मेरे पास आई, मेरा हाथ थामकर कुछ गंभीरता से बोली, ‘‘उज्ज्वला तो इस बीमारी से बच जाएगी, पर आपका क्या होगा मिसेज श्याम?’’

मां चिहुंकी। उन्हें इस तरह के सवाल की उम्मीद नहीं थी, लेकिन फिर जरा खिसियाकर बोलीं, ‘‘मैं कब कह रही हूं कि न बचे? पर एक बात थी... किसी को भुलावे में रखने से क्या फायदा? वैसे भी पिछले कुछ दिनों से इसका जो हालचाल रहा है, वो ठीक है क्या?’’

मैं धीरे से उठकर बैठ गई। मां का हाथ धीरे से पकड़कर बोली, ‘‘मां, तुम अब जाओ...’’

मैं लेट गई। आंख की कोर से आंसू बहने लगे। मैं कब मरूंगी, इसका आभास नहीं, पर हां मां जरूर मर गईं।

बाद में पद्मजा ने बताया कि घर के बाहर निकलकर मां और भाई ने काफी तमाशा किया था। मां ने पद्मजा पर इल्जाम लगाया कि उसी की वजह से मैं ‘खराब’ हुई हूं। पद्मजा भी चुप नहीं रही। उसने वह सब कुछ कह सुनाया, जो मेरे मुंह से सुना था। मन्नू सामने नहीं आई।

उस दिन लगा कि जिंदगी और रिश्ते कैसे बनते-बिगड़ते हैं। सालों तक इसी भ्रम में जीती रही कि मेरा एक परिवार है। देर तक सोचती रही कि क्या वजह थी कि मां ने मुझे अपने सिस्टम से ही निकाल दिया? क्या मां को मेरी जरूरत नहीं थी? क्या यह भी निरीबकवास है कि मां अपने बच्चे के लिए बुरा सोच ही नहीं सकती? मां ऐसी ही तो थीं शुरू से। अपने में मग्न, अपने लिए जीती। कहीं न कहीं पद्मजा की मां भी आत्मकेंद्रित रही हैं, पर अपनी बेटी को लेकर वे हमेशा से गंभीर रहीं। आज भी जब उन्हें लग रहा है कि नानागारू के जाने के बाद बेटी बिखर रही है, अपनी बेटी के पास ही बनी हुई हैं।

कहानी-किस्सों के चरित्र से रिश्ते कितना खटकने लगे हैं। सच तो यही है कि इस पल आपके पास, आपके साथ जो है, वही आपका है। जिन रिश्तों को आप अपनी स्मृति में कैद नहीं कर सकते, वे बेमानी होते हैं। बेकार का बोझ बने रिश्ते। नासूर की तरह रिसते हुए। पके फोड़े की तरह दुखते हुए। मेरे शरीर का कैंसर ज्यादा टीस उठा रहा है या रिश्तों का कैंसर? किसके लिए जिऊं मैं?

क्या मैं ठीक हो जाऊंगी?

मेरा ऑपरेशन हो गया। पद्मजा और मन्नू मेरे साथ थीं। आंख खुली, तो दोनों को सामने पाया। शरीर में तरह-तरह की मशीनें। सीने पर लगे ट्यूब। पद्मजा की आंखों में चमक थी। मन्नू की आंखें भीगी हुई थीं।

मैं रिकवरी रूम में थी। इसलिए मुझे छूने की मनाही थी दोनों को। पद्मजा ने दूर से कहा, ‘‘ऑपरेशन सक्सेसफुल रहा, उज्ज्वला। तुम्हें कुछ नहीं होगा।’’

मैंने देखना चाहा, पर आंखों के आगे एक धुंधली सी परत छाने लगी। आंखें मुंदने लगीं, तो पद्मजा की बेसब्र सी आवाज आई, ‘‘इडियट, आंखें खोल। देख नहीं रही, हम दोनों को तेरी कितनी जरूरत है?’’

आगे कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था, पर बेहोशी के आलम में भी यकीन था कि मैं मरूंगी नहीं। मेरी जिंदगी हम तीनों के जीने की वजह है, तो मुझे जीना होगा।

क्रमश..